Kanhar Pad mal- Pad- based on classic music - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 11

कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 11

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – भैरवी

श्री गंगा जग अघ हरनी।।

दरस परस अरू पान करत जो, तिनि कह भव तरनी।।

फंद बंद जन आवत नाहीं, जम डर ना डरनी।।

जो पद जपता ना भ्रम भ्रमता, फिरि ना तन धरनी।।

लोक – लोक अवलोकि लहत गति, वि‍नकर कर करनी।।

पापिनि कह तू अल हरि असीस, भयौ पावक अरनी।।

पावत वेद भेद ना तुम्‍हरौ, महिमा वर बरनी।।

कन्‍हर गंगा नाम परायन, फिरि नहिं भव परनी।।340।।

श्री सरजू पावन, श्री सुरसरि, श्री जमुना सुखदाई।।

तापी कह त्रैताप नसत है, वैन्‍या पाप पराई।।

सरस्‍वती गोमति मति दैनी, रेवा वर मन भाई।।

गोदावरी करति तन पावन, कृष्‍ना सुंदरताई।।

भीमरथी नर्मदा मनोहर, महानदी छवि छाई।।

निर्विधासि की सर्व रात्री, सामा सम आई।।

मंदाकिनी बनी वर वेरपि, सिंधु रंध दति ल्‍याई।।

ऋषि कुल्‍या पयश्विनी सुखोमा सप्‍तवती वर गाई।।

काबेरी सोभित ऋत माला, वेद स्‍मृत कौं धाई।।

चरमन्‍वती वर सिंधु पयोधी, अबटो दातै ढाई।।

तुंगभद्र अरू इषतवती कह, ओघवती निरवाई।।

ताम्रपर्नो सुंदर करनी वै, हाय सी सुहाई।।

मारूत वृद्धा अरू सोरावित, संग चंद्रवसा छवि छाई।।।

विश्‍वताकरि विश्‍वास आसि कीनी, वार्ता लहरि निकाई।।

चन्‍द्र भाग अरू लसत सत, द्रमिली उदधि सब जाई।।

सुर नर मुनि मज्‍जर करि सुंदर, गावत गुन गरवाई।।

कन्‍हर नाम लेत भ्रम भाजत, मन नर हति मलिनाई।।341।।

राग – भोपाली

मनोहर छवि रघुनाथ बनी।।

सजि करि चले कृपा करूणानिधि, त्रिभुअन नाथ धनी।।

असुनि मास विजयदसमी शुभ, शुकल पछिक मनी।।

अंग विभूसन बहु शुभ राजत, उपमा बहुत घनी।।

हेरत धनुस बान कर कमलनि, कहि नहिं सकत फनी।।

हय गज रथ दल ध्‍वजा पताका, सजि – सजि चली अनी।।

बंदी जन गंधृप गुन गावत, रघुकुल तिलक मनी।।

कन्‍हर बजत दुंदुभी तिहुं पुर, जय – जय शब्‍द ठनी।।342।।

सरद चांदनी रैन सुहाई।।

राजत सिया सहित रघुनायक, वेद पारि नहिं पाई।।

सरजू सलिल ब‍हति शुभ निर्मल, त्रिविधि व्‍यारि सुखदाई।।

कम्‍मोदिनि विगसी सुभ सुंदर, भ्रमर गुंज रव ल्‍याई।।

वन उपवन वाटिका मनोहर, कोइल शब्‍द सुनाई।।

सोभित भूमि सुहावनि लागति, मुनि गन मन हरषाई।।

अवधपुरी छवि क्‍यूं कहि बरनौं, सारदि मति सकुचाई।।

कन्‍हर जुगल चरन लखि सुंदर, तिन्‍ह मति तै सुख पाई।।343।।

राग – सारंग

सखी री ब्रम्‍ह हौं, मुरली टेर सुनाई।।

जीव जन्‍म मुनि गन मन मोहै, गगन देव हरषाई।।

सुनि करि शब्‍द चली बृज वनिता, देह गेह बिसराई।।

सोभित सरद चांदनी निर्मल, सबही के मन भाई।।

आनंद पूरि रहौ तिहुं पुर, रहसि रचौ जदुराई।।

नटवर भेष गोपिकनि के संग, विचरत छिपि – छिपि जाई।।

कन्‍हर लख कर ध्‍यान मनोहर, नारदादि उर ल्‍याई।।344।।

द्वारावती में भई रजधानी।।

उदधि मध्‍य सोभित सुन्‍दर, उपमा कोटि लजानी।।

टीकम अरून छोर विराजत, को कहि सकत बखानी।।

रतन जटित मन्दिर सब राजत, कहि सारद सकुचानी।।

नारदादि मुनि ध्‍यान करत हैं, चरन सरन उर आनी।।

देव सदा नर तन धरि विचरति, हृदय महा सुखमानी।।

तीरथ महा गोमती संगम, रटत वेद वर बानी।।

कन्‍हर जे कोउ ध्‍यान धरत है, तिनि भय निसा सिरानी।।345।।

राम सचिव सुमिरौ मन मेरे।।

अंगदादि सुग्रीव विभीषन, सुफल मनोरथ तेरे।।

विजई सिष्‍ट जयंत केसरी, राम काज हर बेरे।।

पनस असोक सुमंत गंध बल, जुध मध्‍य गरजे रे।।

सदा अनन्‍त सुमंत कुमुद मुख, जामवंत प्रभु हेरे।।

दुविध मयंद सुराष्‍ट्र सुभट शुभ, मारूति लाल अनेरे।।

गवै गवाछ नील नल वर धन, भय समर में बेरे।।

उल्‍का निपुन मनोहर दधिमुख, सबही सरन तके रे।।

जो कोउ ध्‍यान धरत है उनकौ, तै भव पार परे रे।।

कन्‍हर राम भक्ति वर मांगत, कीजै कृपा करौ मत देरे।।346।।

श्री अवधपुरी छवि छटा अनूप।।

जो जन चतुर्वित चकराई, सघन घाम नहिं व्‍यापत धूप।।

हय गजरथ दल लसत असंख्‍य, नर नारी तहं देव सरूप।।

वन उपवन वाटिका चहूं दिसि, सर सरोज विगसे बहु कूप।।

सेस महेस नारद अरू सारद, बरनत रहत लहत नहिं ऊप।।

कन्‍हर लोक चतुर्दस सेवहि, सिया सहित रघुनायक भूप।।347।।

सदा मन बसौ सिया रघुराई।।

सनमुख पवनकुमार विराजत, सरनागत सुखदाई।।

राम निवास मनोहर सुंदर, संत रहे हैं छाई।।

ध्‍यान करत निसि वासर हरि कौ, जुगल चरन उर ल्‍याई।।

शुभ अस्‍थान भूमि वर पावन, निकट पिछोर सुहाई।।

लसत समाधि पादुका सुंदर, विदित सबै जाई।।

संत समाज विप्रवर राजत, बरनौ किमि गाई।।

कन्‍हर अरज लिखी पदमाला, सरन तकौ हरि आई।।348।।

राग – भैरों

श्री जय – जय शिव सैल सुता, सुत लम्‍बोदर भुज चारी।।

गज आनन वर लसत मनोहर, उपमा बहुत विचारी।।

तुम सम और नहीं कोइ जग में, राम भक्‍त दृढ़कारी।।

कन्‍हर रामचरन रति मांगत, करौ कृपा बलिहारी।।349।।

राग – भैरों, ताल – तिताला

श्री हरि भक्ति देव वर बानी।।

मन के मोह द्रोह द्रुम हरिये, देव सुमति वरदानी।।

मंगल करन अमंगल हारी, शारद निगम वर बानी।।

कन्‍हर विनय करत कर जोरे, करहु कृपा जन जानी।।350।।

राग – विभास, ताल – तिताला

शंकर हम पर होहु सहाई।।

तुम सम और नहीं कोउ जग में, राम भक्‍त सुखदाई।।

गंग धार शुभ लसत जटनि में, चन्‍द्र भाल दुति छाई।।

अंग विभूति माल मुन्‍डन की, पांय पदम झलकाई।।

बाघम्‍बर आसन पर राजत, ध्‍यान मगन मन लाई।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।351।।

राग – विभास

सुवन समीर के सुधि लीजो।।

तुम बल बुद्धि निधान राम प्रिय, औगुन माफ करीजो।।

मैं तो बार – बार बिनवों प्रभु, राम चरण रति दीजो।।

कन्‍हर ओर कृपा कर हेरहु, मन के भरम हरी जो।।352।।

राग – अलय्या , ताल – तिताला

राम नाम सबकौ हित कीन्‍हौं।।

वेद पुरान भागवत साखी, अजामील द्विज सुत हित लीनौं।।

सभा मध्‍य द्रोपति पत राखी, तब दुशासन तन पट छीनौं।।

प्रगट रूप प्रहलाद गिरा सुनि, नरहरि स्‍वरूप अनूप धरीनौं।।

हिरनाकुस कसि उदर बिदारौ, छिन में करौ सकल बलहीनौं।।

गज अरू ग्राह भिरे जल भीतर, करूना करी करी करि पीनौं।।

लिये बचाय कपोत पोत‍ अब, भारत अरज भारई चीनौं।।

ध्रुव उद्धव हनुमान विभीषण, पियौ सदा जिन नाम अमीनौं।।

गरल पान शिव कियौ नाम जप, बाढ़त नित नव प्रेम नवीनौं।।

अधिक प्रभाव आदिकवि जानो, राम नाम शत कोटि मनीनौं।।

गीध व्‍याध शौरी अरू गनिका, सबई अभय कर निज पद दीनौं।।

कन्‍हर समझ नाम की महिमा, जो न जपै ताकौ धिक जीनौं।।353।।

राग – रामकली

राम नाम कलि कल्‍प सुहाई, बरनि कहौं दोइ सुखदाई।।

संशय अंश रहत अब नाहीं, करत उचार पराई।।

जीवन आधार और नहिं जग में, समझि सदा गुन गाई।।

पतित अनेक पार कर पावन, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।

शेष महेश मुख रटत निरंतर, वेद पार नहिं पाई।।

कन्‍हर जय सिय राम नाम कह, रहे न मन मलिनाई।।354।।

मन जो सीताराम कहै रे, सोई अमृतपान करै रे।।

निरभै रहत सोच नहिं वा कहं, सुन जमराज डरै रे।।

आदि मध्‍य अरू अंत तंत्र की, बिगरी सब सुधरै रे।।

कन्‍हर नाम लेत एक छिन महं, भव ते पार परै रे।।355।।

राग – अलय्या

राम नाम मुख लीनो, जाने सब कछु कीन्‍हौं।।

राम नाम जप राम नाम तप, राम नाम पद चीन्‍हौं।।

राम नाम व्रत राम नाम मख, राम नाम धन दीन्‍हौं।।

कन्‍हर नाम संजीवन जीवन, राम नाम रस पीन्‍हौं।।356।।

राग – आसावरी, ताल – त्रिताल

अंखियन ते राम होव मत न्‍यारे।।

तुम बिन प्रान रहत ये नाहिन, मति होउ दृग से न्‍यारे।।

परत न चैन दरस बिन देखे, लगन लगी मन म्‍हारे।।

कन्‍हर कह प्रभु अरज यही है, निरखहु चरण तिहारे।।357।।

राम भजन कहं विलम न कीजै।।

समुझि – समुझि मन समुझ सबेरौ, दिन – दिन ही तन छीजै।।

तूं चूकौ बहु बार वृथा ही, कहौ मान अब लीजै।।

कन्‍हर त्‍याग – त्‍याग विषय रस, नाम सुधा रस पीजै।।358।।

अवध किशोर सुरति वेग कीजो जी।।

मैं तो विनय करत करूणानिधि, चरन कमल रति दीजौ जी।।

काम क्रोध मद लोभ बसौ मन, अपनि‍ ओर करि लीजौ जी।।

कन्‍हर ग्रसो कृपा बिन रघुवर, औगुन माफ करीजौ जी।।359।।

राम भजन बिन धृक् जग जीवत।।

विषय वारि कह निसि – दिन धावत, हरि गुण रस नहिं पीवत।।

काल अचानक चोट करेगो, तब को बीच करीयत।।

कन्‍हर दास कृपा गुरू, निसि – दिन हरि गुण रस गुण पीवत।।360।।

कब चित ओ हरि कोर कृपा की।।

सुनो न गुनो अधम कहि मोसों, बिसरौ सुरति जपा की।।

काम क्रोध मद लोभ मोह बस, खबर नहीं नफा जफा की।।

कन्‍हर समुझ समुझ डर लागत, नहिं कर वस्‍तु वफा की।।361।।

रंगी रंग मैं सांवरे तेरे।।

त्‍याग दई कुल कानि वानि सब, लगनि लगी मन मेरे।।

नैनन को पल जुग सम बीतत, फिरत नहीं है फेरे।।

कन्‍हर छवि अवलोक माधुरी, तब से भये अनेरे।।362।।

बसे मन में रघुवर राजकिशोर।।

शोभित भरत लखन लघु भ्राता, चितवन में चित चोर।।

भूषन वसन क्रीट कुंडल वर, आवत उठि नित भोर ।।

धनुष बान कर कंज गुंज उर, खेलत सरयू ओर।।

छुटक रहीं अलकें मुख ऊपर, मानहुं अलिगन कोर।।

कन्‍हर छवि अवलोक दृगन भरि, लगी लगन बरजोर।।363।।