Flowers of Amaltas - 15 - Final part books and stories free download online pdf in Hindi

अमलतास के फूल - 15 - अंतिम भाग

उसके बाद

     उसकी समझ में कुछ नही आ रहा है कि वह क्या कर,े क्या न करे, कहाँ जाए? ऐसी अनुभूति हो रही है जैसे अमावस की रात हो, विस्तृत घना जंगल हो, दूर-दूर तक घुप अँघेरे के अतिरिक्त कुछ भी दृश्य न हो। वह अँधेरे में लक्ष्यहीन दिशा की तरफ बढ़ती चली जा रही है। उसके नेत्र अरसे से एक टिमटिमाते हुए दीये की लौ के लिए तरस गये हैं। 

   आज ही दीदी का फोन आया है, पूछ रही थीं, ’’नीना कैसी हो? ठीक तो हो? अपना ध्यान रखना। चिन्ता न करना आदि.....आदि....।’’ उन्होने जितनी सरलता से उसे ये सब कुछ समझाया उतनी सरलता से सब कुछ समझ लेना सरल कदापि न था। दीदी से बातें करने के पश्चात् उसे अजीब से विचार आ रहे हैं। पुरानी स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर ऐसे अंकित होती जा रही हैं, जैसे कोई चलचित्र। 

      उसे स्मरण आ रहे हैं किशोरावस्था के वे दिन जब आँखें सपने बुनती थीं, इच्छायें पंख पसार कर नीले आकाश में विचरण करती थीं। उन इच्छाओं में अन्य हमउम्र किशोरियों की भाँति उसकी भी एक इच्छा थी, एक स्वप्न था कि वह पढ़-लिख कर एक सफल डाॅक्टर बने तथा इस माध्यम से लोगंों की सेवा करे। इस स्वप्न को सत्य में परिवर्तित करने के लिए वह प्रयासरत थी। वह अपने क्लास की मेधावी छात्राओं में शुमार थी। उसने विज्ञान विषय ले कर दसवीे की परीक्षा दी थी। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने के पश्चात् वह कितनी प्रसन्न थी। उसे ऐसी अनुभूति हो रही थी जैसे सामने विस्तृत खुली सड़क हो और वह उस पर तीव्र गति से चलती चली जा रही हो, या कि विस्तृत नीले नभ में सफेद बादल के टुकड़ों के समान उड़ रही हो, या उसके इर्द-गिर्द सिर्फ खुशियाँ ही खुशियाँ हों और वह उन्हे अपनी हथेलियों से समेट न पा रही हो। उसे ऐसा असभास हो रहा था जैसे उसके नेत्रों के समक्ष स्वप्न साकार हो गया हो और वह बस उसे स्पर्श करने वाली हो।

    लेकिन उसके स्वप्न-दृष्टा होने या प्रसन्न होने से क्या होता है? अम्मां-बाबू जी एवं घर के अन्य सदस्य दूसरी ख़ुशियाँ मना रहे थे। अम्मा ने जब आ कर उससे कहा कि, ’’ तुम्हे देखने कल लड़के वाले आ रहे हैं।’’ वह कितनी बेबस हो गयी थी। घर में उसकी बात सुनने वाला कोई नही था। न दीदी, न बड़े भैया। उसने लाख कहा कि अभी मेरा व्याह न करो, अभी मैं पढूँगी। बड़े भैया का भी व्याह अभी नही हुआ है। मेरा व्याह शीघ्र न करो।’’ उसने माँ को समझाने का बहुत प्रयत्न किया। बाबू जी व भैया को भी समझाने की कोशिश की। उसने बालिका शिक्षा, नारी की आत्मनिर्भरता की बातें व सबसे बढ़ कर अपनी कम उम्र की बात बताई किन्तु उसके विरोध के स्वर को उसके लडकी होने व लड़की व लड़के में फर्क है, के अकाट्य तर्क से दबा दिया गया। वे कुछ भी सुनने को तैयार नही थे। वे प्राचीन आवरण पर नव-प्रकाश पड़ने देना नही चाह रहे थे। माँ ने तो स्पष्ट कह दिया कि, ’’ तेरा व्याह हो जाए तो जो चाहे वो करना।’’

   

    उसका व्याह कर दिया गया। भाग्यवश उसे सम्पन्न ससुराल मिला। पति कुछ आधुनिक विचारों के थे, किन्तु आगे शिक्षा प्राप्त करने की आशायें खत्म-सी हो गयी थी। क्यों कि यहाँ भी परिवार के अन्य सदस्य रूढ़िगत् विचारों से ग्रसित थे। उनके विचार से लड़कियों को अधिक नही पढना चाहिए। विवाह के बाद तो बिलकुल नही। सब कुछ भूल कर वह ससुराल में रम गयी। अपनी ज़िन्दगी से मानो वह संतुष्ट-सी हो गयी। 

     समय बड़ा बलवान होता है। वह ज़िन्दगी रूपी शीशे पर वक्त की धूल पर्त-दर पर्त जमाता चला जाता है। उसे अपने सपने याद न रहे। वह ज़िन्दगी की आपा-धापी में खो गयी। उसकी शादी के कुछ समय बाद भाई की भी शादी हो गयी। भाई की शादी के एक वर्ष के पश्चात् पिता जी के अचानक निधन के समाचार से वह अत्यन्त दुखी हुई। वह एक बार पुनः टूटने लगी। पति सुलझे विचारों के थे। इस दुख की घड़ी में उन्होने बहुत सहारा दिया। उनके स्नेह व आलम्बन ने उसे इस वेदना से उबरने की शक्ति दी। ज़िन्दगी धीरे-धीरे अपनी गति से आगे बढ़ने लगी। वह सब कुछ भूल कर जीवन पथ पर आगे बढ़ने लगी।

    किन्तु वो दिन वह कैसे भूल सकती है, जब एक दुर्घटना में उसके पति का देहान्त हो गया। अचानक उसका सब कुछ उजड़ गया। समय के इस रूप पर सहसा उसे यकीन नही हो पा रहा था। ज़िन्दगी के ये कौन से अनजाने, अनचिन्हें दिन हैं ये, जो समक्ष आ कर खड़े हो गये हैं? इन्हंे मैं कैसे व्यतीत करूँगी? अनेक प्रश्न हैं जो निरूत्तर हैं। मैं इनका समाधन कहाँ से लाऊँगी? 

    सांसारिक रस्म-रिवाजों को निभाने में दो माह व्यतीत हो गये। कुछ दिनों तक सब ठीक रहा। धीरे-धीरे ससुराल में वह उपेक्षित होने लगी। कुलच्छनी, अभागन आदि विशेषण उसे मिलते चले गये। घबरा कर वह माँ के पास चली आयी। अपने वैधव्य की चादर ओढ़े वह माँ से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। उस माँ से लिपट कर रो पड़ी जो पिता जी की मौत के पश्चात् भैया पर स्वंय बोझ थीं। वह उन पर एक और बोझ बन गयी थी, इसकी अनुभूति उसे कुछ दिनों के पश्चात् ही होने लगी थी। उसे अपना जीवन अन्धकार पूर्ण लगने लगा। अनेक जटिल प्रश्न जो जीवनयापन से सम्बन्धित थे, उसके समक्ष खड़े हाने लगे। उसे माँ में अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगा, जिनकी ज़िन्दगी का अन्तिम पड़ाव दुख भरा व अन्धकार पूर्ण है। 

     उसे इस निरर्थक ज़िन्दगी को जीने योग्य बनाना होगा। प्रकाश के आगमन के लिए कोई खिड़की तो खोलनी होगी। वह अपने जीपनयापन के लिए और जीवन के 

 

अन्तिम पड़ाव पर माँ को भी कुछ अच्छे पल देने के लिए अवश्य प्रयत्न करेगी। ज़िन्दगी में सुख के पल हो तो दिन पंख लगा कर उड़ते चले जाते हैं। किन्तु यदि इनमें दुख ही दुख हों तो जिऩ्दगी कदाचित् लक्ष्यविहीन हो कर पथ में परिवर्तित हो जाती है। जिसमें गंतव्य दृश्य नही होता। जिसे व्यतीत करना असम्भव-सा लगने लगता है। 

उसने सोच लिया है उसे इस दुःखपूर्ण जीवन से संघर्ष कर के उसे जीने योग्य बनाना है। इस संघर्ष में वह समाज की रूढियों से विचलित नही होगी, डरेगी नही। यह उसका अन्तिम निर्णय है। कुछ सकारात्मक करने के लिए वह समाज के सड़े-गले रूढ़ियों को तोड़ कर बाहर अएगी। इन अन्धकार पूर्ण पलों से बाहर आएगी। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि आगे वह अपनी शिक्षा पूर्ण करेगी। अपने सपनों को पूर्ण करने के लिए वह सार्थक प्रयत्न करेगी। उसमें अब साहस आ गया है। दुखों ने ही उसे इतना साहस दिया है और दिया है नव-प्रभात में जीने का अघिकार। उसके कदम सामने विस्तृत खुली सड़क पर बढ़ते ही जा रहे हैं। 

लेखिका-- नीरजा हेमेन्द्र