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स्वांग -शेर से चले बकरी तक पहुंचे

स्वांग -शेर से चले बकरी तक पहुंचे

एक पाठकीय प्रतिक्रिया -

यशवंत कोठारी

मराठी में मधुकर क्षीरसागर की एक पुस्तक स्वांग पूर्व में देखि थी.स्वांग -एक अध्ययन -हिमांशु द्विवेदी व् नवदीप कौर का भी देखा.स्वांग मध्यप्रदेश का एक लोक नाट्य है जैसे राजस्थान में गवरी लोक नाट्य .यह लोक नाट्य बुन्देल खंड में लोकप्रिय है.वैसे आजकल पुष्पा जिज्जी भी बुन्देल खंडी हास्य व्यंग्य से भरपूर विडीओ दे रहीं हैं,जो काफी प्रभावशाली है.इस तरह के स्वांग हर तरफ है.सब स्वांग कर रहे हैं.

स्वांग उपन्यास जल्दी ही अमेज़न से आगया,जल्दी लेने से थोडा महंगा पड़ता है ,लेकिन शुरू का आनंद ही अलग है. मैंने यह आनंद उठाया .लेखक प्रकाशक ने इसे उपन्यास त्रयी का अंतिम उपन्यास बताया है लेकिन पूर्व प्रकाशित उपन्यासों -हम न मरब व बारामासी के प्रकाशन के समय यह शगूफा नहीं छोड़ा गया था,अचानक बाजारवाद हावी हो गया .यह प्रक्रिया भी अंग्रेजी उपन्यासों से आई है ,अब प्रकाशक तीनों उपन्यासों को एक साथ त्रयी के रूप में बेचने का झुगाड कर लेगा . उपन्यास पढने के दौरान ही फेस बुक पर लेखक का वक्तव्य भी आ गया उसे भी देखा,एक लेखक की त्वरित टीप व अन्य लोगों के कमेंट्स भी देखें ,लेखक का एक साक्षात्कार फेस बुक पर एक युवा आलोचक ने लिया उसे भी देखा इसी बीच एक चेनल के पत्रकार ने भी समीक्षा लिख दी,उसे भी पढ़ा गया फिर मैं उपन्यास की भूमिका तक आया .लेखक के अनुसार बुन्देल खंडी जहाँ भी जाता है अपने हिस्से का बुन्देल खंड साथ ले जाता है.आठ नो बार ड्राफ्ट बने जांचा परखा फिर मिला यह ३८४ पन्नों का उपन्यास जिसे व्यंग्य उपन्यास नहीं कहा गया है यह शुद्ध उपन्यास माना गया है.लेकिन लेखक की ख्याति व्यंग्यकार की है इसलिए पाठक व्यंग्य,हास्य,विट,आयरनी ,सेटायर ढूंढता है.कभी मिलता है कभी नहीं मिलता है.

लेखक के पिछले उपन्यास पागलखाना पर शेर का चित्र था इस बार बकरी का है ,अजीब विरोधाभास है शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं,और भेडियें देख रहे हैं.पाठक को भेड़ समझ लिया गया है.उसकी ऊन से लेखक प्रकाशक जाकेट बनवा रहे हैं.

हिंदी में पचास साल पहले राग दरबारी लिखा गया था उस समय श्री लाल शुक्ल को राग दरबारी के प्रकाशन के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ी थी.इस बीच पूरी दुनिया में बहुत कुछ बदल गया पश्चिम में उपन्यास की मौत का फतवा जारी कर दिया गया मगर यह विधा जारी है.पचास साल कम नहीं होते कई पीढ़िया गुजर जाती हैं ,जेनरेशन गेप आ जाते हैं पूरा ढांचा बदल जाता है ,विकास ,परम्पराएँ समाज सरकार सब बदल जाते हैं .मानव मूल्य तक तिरोहित हो जाते हैं .

लेखक के इस छ्टे उपन्यास को मैंने इसी कोण पढना शुरू किया . इसलिए कुछ समय ज्यादा लगा .

लेखकीय परिचय,समर्पण भूमिका के बाद पहले पाठ या चेप्टर तक पहुंचा -जहाँ जय हिन्द बस एक चुटकला है थोडा आगे पढ़ा तो महात्मा गाँधी की जय को भी मजाक का विषय बना दिया गया ,गजानन बाबू पुस्तक के अंत में दिल्ली जाकर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के चक्कर में जेल -थाने में फंस जाते हैं ,पाठक को यह पूछने का हक़ तो है की जय हिन्द क्या केवल एक चुटकला है ?

रागदरबारी की तर्ज़ पर यहाँ भी लंगड़ है ,वैदजी है,बवासीर है थाना पुलिस अदालत है रिश्वत के लम्बे चौड़े प्रकरण है रस्ते में पड़ी कुतिया की तरह शिक्षा व्यवस्था है हर मोड़ पर रिश्वत महादेवी की जय है नथ्थू है ,पत्रकार के नाम पर दलाल है ,महात्मा गाँधी की जय है ,जय हिंद का चुटकला रूप है . तहसील में नक़ल १५ रुपयों की जगह पर २५ रुपयों में मिल जाती है और रिश्वत के १० रूपये पीछे खड़ा आदमी चुकाता है ऐसे सतयुग कब आया भाई , गज़ब.

इसबगोल की भूसी भी है ,लेकिन लेखक तो बवासीर के बजाय कोई दूसरी मोटी बीमारी पकड सकता था.खेर आगे चलते हैं.

कुछ चेप्टर्स के शीर्षक देखियें आप को अच्छे लगेंगे .आनंद महसूस करेंगे आप.

१-कितने ऊपर जाओगे ?

2-मुर्खता का पर्यायवाची

३-ईमानदारी का भगन्दर

४-शिक्षा के खंडहर की पुताई

५-लाइट तो स्त्री ही बंद करेगी

६-अँधेरे की पसलियों में रोशनी के खंजर

७-रामराज्य के लिये जूता

८-थानेदारी का तिलिस्म

९-जमानत का तिलिस्म

१०-सत युग का आदमी

११-जय हिन्द के बावजूद

१२-बेदखल लोग

१३-खाकी संगीत का कोटरा घराना

१४-मान लो आप पिटे ही नहीं

१५-बस ,यह कागज़ मिल जाये तो देश आगे बढे

ऐसे ही मनोरंजक व हास्य व्यंग्य से परिपूर्ण आनंद दायक पाठ है जिन्हें पढने में मज़ा तो आता है लेकिन मगध में विचार की बड़ी कमी है. कई पाठों के शुरू में एक लम्बी भूमिका सी है जो एक अलग लेख लगता है ,बाद में पात्रों को घुसेड़ा-जोड़ा गया है ,यह परम्परा गले नहीं उतरती .

उपन्यास में वार्ताओं के लम्बे लम्बे टुकड़े है जो रचना को भारी बनाते हैं.इन डायलॉग्स के कारण पन्ने तो खूब भर गए लेकिन सपाट बयानी भी काफी हो गयी.स्त्री पात्रों के साथ न्याय नहीं हो सका मार - कुटाई से क्या होना जाना है.लक्ष्मी कोटा में पढेगी यही एक सुकून का विषय है.

गजानन बाबू राजघाट चले गए मगर राष्ट्रपति पद का फार्म नहीं भर सके थाने के लोकअप में जय हिन्द बोलते रहे ,लोगों के लिए यह मनोरंजन हो गया.उनके पास देश को सुधारने की स्कीम है मगर कोई सुनने वाला कोई नहीं.

उपन्यास में ढेरों घटनाएँ है हत्या ,बलात्कार , अदालत जजी , लाल फीता शाही तमंचा बाज़ी,रिश्वंत के ढेरों प्रकरण पंडितजी के षड्यंत्र ,नालायक बेटे से गाली गलोच ,पत्नी पिटाई की रामायण या महाभारत,एक मसालेदार रचना का पूरा ताना बाना है ,कंटेंट्स की कमी के चलते रचना चल जायगी .स्त्री विमर्श भी आधा अधूरा है.

गालियों की कुछ शोर्टेज है लेकिन हरामी महा हरामी खूब है .चू--या शब्द तो शतक पार कर गया.शेष गालियों का अक्षर संयोजन इस तरह किया गया है की सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे.इस उपन्यास को संपादन की जबरदस्त जरूरत है काश ऐसा होता .

रचना में नेहरु जी का भी जिक्र इस अंदाज़ में है की विचार हीनता लगती है ,सफलता के लिए हिन्दू मुस्लिम कार्ड भी खेला गया है.जातिवाद का उल्लेख भी किया गया है. दबंगई के किस्से भी है .शिक्षा व्यवस्था पर काफी पेज है ,मास्टर व माफिया के बीच तमन्चाबाज़ी भी है.एलानिया मर्डर है और जमानत के मज़े भी है.हमारी संसद ही अपने ही नागरिकों से डरती क्यों है?

एक पाठक के रूप में यह उपन्यास लेखक के पूर्व प्रकाशित उपन्यासों की तुलना में कमज़ोर है .त्रयी के नाम से गिफ्ट पेक चल जायगा.

कोटरा गाँव की यह कथा पूरे देश की कथा बन गयी ऐसा दावा किया गया है इसे महागाथा महा काव्य भी बताने की कोशिश है मगर यह एक बड़े लेखक की कमज़ोर रचना है.पूरा उपन्यास एक केरीकेचर बन गया है.पात्र मुखर है,तेज तरार्र है ,स्वार्थ की लड़ाई में सब फिट है .

,यह रचना अकादमी तक जाने की सम्भावना के साथ रची गयी है.मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ,शायद रागदरबारी के बजाय पाठक इसे पढने लगे. पचास साल में हिंदी उपन्यासों में कुछ नहीं बदला यही दुःख का विषय है.पेपर बेक का कागज हल्का है मूल्य ज्यादा .शिपिंग भी काफी लगी .

ज्ञान चतुर्वेदी को इस महाकाय रचना के लिए बधाई ,मैं केवल पाठकीय प्रतिक्रिया दे रहा हूँ बाकि तो हिंदी के बड़े आलोचक तय करेंगे. भूलचूक व् प्रूफ की गलतियों के लिए अग्रिम क्षमा .

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यशवंत कोठारी ,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी ,बाहर जयपुर -३०२००२ मो-९४१४४६१२०७

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