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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 17

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 17

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – पूर्वी, ताल – ध्रुपद

राम कुमर अवलोकि नैन भरि, कहिअ न परति रही सकुचासी।।

स्‍याम गौर अंग संग सुंदर वर दोई,

बरनी नहिं जाइ छटा नयननि उरझासी।।

क्रीट मुकुट धनुष बान रूप सील के निधान,

बांकी भृकुटी विशाल कुंडल झलकासी।।

सोभित उर मनिनि माल पीतांबर लसत गात,

ऐसी छवि देखि – देखि कन्‍हर बलि जासी।।536।।

राग – रागश्री, ताल – चौतारौ

देखौ री सखी धाइ – धाइ, रघुवर छवि सुंदर सुख धाम।।

वन ते आवत बाजि नचावत, सोभित उपमा बहुत ललाम।।

सिर पर क्रीट लटपटी जुलफैं, मुकित माल उरझी तन स्‍याम।।

कन्‍हर के प्रभु क्‍यौं कहि बरनौं, बिसरत नहीं पलक प्रिय राम।।537।।

राग – अलय्या, ताल – त्रिताल

नरहरि हरि रूप धरौ अहि महि कौ भार हरौ,

त्रिभुवन में है विदित ऐसी प्रभुताई।।

कीनौं प्रहलाद अभय खंभ फारि प्रगटे,

गोद लियो मोद कियौ अनंद उर छाई।।

हिरनाकुस मारौ प्रभु ब्रम्‍ह गिरा राखी,

सुर नर मुनि सुख दियौ, हरषै गुन गाई।।

कन्‍हर जय शब्‍द भयौ लोक – लोक पूरि रहौ,

संकर सनकादि आदि रहे ध्‍यान ल्‍याई।।538।।

राग – अलय्या

राग नाम कलि कल्‍प सुहाई, बरन कहौं दोई सुखदाई।।

संसय अंस रहत अब नाहीं, करत उचार पराई।।

जीव अधार और नहिं जग में, समझि सदा गुन गाई।।

पतित अनेक पार करि पावन, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।

सेस महेश मुख रटत निरंतर, वेदहिं पार न पाई।।

कन्‍हर जपि सियाराम नाम कौ, रहै न मन मलिनाई।।539।।

राम नाम सबकौ हित कीनौं।।

वेद पुरान भागवत साखी, अजामिल दुज सुत हित लीनौं।।

सभा मध्‍य द्रोपति पति राखी, तब दुसासन तन पट छीनौं।।

प्रगटि रूप प्रहलाद गिरा सुनि, नरहरि स्‍वरूप अनूप धरीनौं।।

हिरनाकुस कसि उदर विदारौ, छिन में करौ सकल बलहीनौं।।

गज अरू ग्राह भिरे जल भीतर, करूनाकर करि करि पीनौं।।

लियो बचाइ कपोत पोत अब भारथ, अरज भार ही चीनौं।।

ध्रुव उद्धव हनुमान विभीषन प्रियौ सदा, जिन्‍ह नाम अमीनौं।।

गरल पान सिव कियौ नाम जपि, बाढ़त नित नव प्रेम नवीनौं।।

अधिक प्रभाव आदि क‍वि जानौं, राम नाम सत कोटि भनीनौं।।

गीध ब्‍याध सेबरी अरू गनिका, सबय अभय करि निज पद दीनौं।।

कन्‍हर समझि नाम की महिमा, जो न जपै जाकौ धृग जग जीनौं।।540।।

राग – आसावरी

राम नाम मुख लीनौं, जानै सब कुछ कीनौं।।

राम नाम जप राम नाम तप, राम नाम पद चीनौं।।

राम नाम व्रत राम नाम मख, राम नाम धन दीनौं।।

कन्‍हर राम सजीवन जीवन, राम नाम रस पीनौं।।541।।

राम भजन कहि विलम न कीजै।।

समझि – समझि मन समझि सबेरौ, दिन – दिन ही तन छीजै।।

तूं चूकौ बहु बार वृथाई, कहौ मान अब लीजै।।

कन्‍हर त्‍याग – त्‍याग विषय रस, नाम सुधा रस पीजै।।542।।

अवध किसोर सुरति वेगि कीजौ जी।।

मैं तौ विनय करत करूनानिधि, चरन कमल रति दीजौ जी।।

काम क्रोध मद लोभ बसौ मन, अपनी ओर कर लीजौ जी।।

कन्‍हर ग्रसौ कृपा बिन रघुवर, औगुन माफ करीजौ जी।।543।।

राम भजन बिन धृग जग जीवत।।

विषय बारि कह निसि दिन धावत, हरि गुन रस नहिं पीवत।।

काल अचानक चोट करैगो, तब को बीच करीवत।।

कन्‍हर जे जन भूल भूलहै, ते भव कूप परीवत।।544।।

कब चितओ हरि कोर कृपा की।।

सुनौ न गुनौं अधम कह मोसौं, बिसरौ सुर‍ति जपा की।।

काम क्रोध मद लोभ मोह बस, खबर न नफा जफा की।।

कन्‍हर समुझि – समुझि डर लागत, नहिं कर व्रत वफा की।।545।।

राग – झंझौटी

रंगी रंग मैं सामरे तेरे।।

त्‍याग दई कुल कानि बानि सब, लगन लगी मन मेरे।।

नैननि कौं पल जुग सम बीतत, फिरत नहीं है फेरे।।

कन्‍हर छवि अवलोकि माधुरी, तब से भए अनेरे।।546।।

राग – भैरव

आली मुसिक्‍यात जात रघुराई, मैं बरनि सकौं किमि गाई।।

वन तै आवत तुरग नचावत, रज उडि़ जुलफिनि छाई।।

भूषन वसन अंग अंगनि वर, मनमथ देखि लजाई।।

इत उत झांकत मोद बढ़ावत, लखि मन रहत लुभाई।।

मुक्‍तनि माल उरझि रही उर मैं, लट पट पेंच सुहाई।।

कन्‍हर राम दरस के खातिर, ये नयना तरसाई।।547।।

राम धनु – बान लियै कर में।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, पुष्‍प माल उर में।।

काछे कटि का‍छनी जरकसी, गुच्‍छ लसै सिर में।।

कन्‍हर छवि अवलोकि लाल की, मन लगै घर में।।548।।

राम कब करिहौ अवधपुर वासी।।

सुन्‍दर जल सरजू कौ अंचिवन, सियवर चरन सुपासी।।

बहु जन्‍मनि की बिगरी सुधरति, बरनत निगम प्रकासी।।

कन्‍हर धन्‍य पुरी जन जन्‍मैं, बसि छिन पल न विहासी।।549।।

राम किसोर हमारी ओर हेरौ।।

उरझि रहा जग सुरझठ नाहीं, अबकी बार फिरि फेरौ।।

नाम करीब नवाज तुम्‍हारौ, मैं गरीब कस देरौ।।

कन्‍हर नाथ सरन तकि आयौ, करौ कृपा भयौ बेरौ।।550।।

राग – देस

बहिरत रघुवीर लखे री मैं, वन प्रमोद की ओरी।।

छुटकि रहीं अलकैं श्रवननि लगि, चंचल दृग चितचोरी।।

हर्ष गात चपल – चपल गति निंदति, नाचत बार बहोरी।।

कन्‍हर तन छन लसत पीत पट, मानहु दामिनि जोरी।।551।।

राग – काफी

हरि न भजैगा नर सोई पछिताइगौ।।

काटि जतन मन भ्रम नहिं जैहैं, जोनि अनेक भ्रमाइगौ।।

पंक – पंग सों छूटत नाहीं, अधिक – अधिक गपि जाइगौ।।

कन्‍हर बिना कृपा सियावर की, कैसे पार धसाइगौ।।552।।

राग – भोपाली

स्‍याम की जुलफैं बसी करैं।।

कुंडल लोल कपोलनि झलकनि, मनसिज मनहि हरैं।।

कृदु बोलनि चितवनि चित चोरनि, तात न झांकि परैं।

कन्‍हर कमल वदन पर झुकि- झुकि, मानहु भ्रमर लरैं।।553।।

राग – अड़ानौ

जा तन लागी लगनि राम नाम की।।

आनंद मगन रहत निसि वासर, आस नहीं धन धाम की।।

जग के सूल हूल नहिं जा कह, आगति गति निष्‍काम की।।

कन्‍हर राम सिया पद पंकज, सेवत तजि गति बाम की।।554।।

छिन जीवन सुख जीव बंधायौ।।

पाप पराय न जन्‍म व्‍यतीतौ, कहा लाभ कर पायौ।।

अल्‍प दिननि कह जग कह कारन, क्‍यों करि बौरायौ।।

गगन भवन कह गमन भुलानौ, वृथा मूढ़ भरमायौ।।

मैंने कही कही नहीं मानी, माया भरम भुलायौ।।

कन्‍हर हरि कौ करकौ ताकौ, सो नहिं फिरि भव आयौ।।555।।

राग – खमाइच, ताल – त्रिताल

श्रीजानकी वल्‍लभ नाम जपौ जी।।

काम धाम तजि ध्‍यान धरै सो, सो नहिं चाप चपौ जी।।

पार भये भव बार न लागी, फिरि नहिं तपनि तपौ जी।।

कन्‍हर प्रभु पद जो न गहैगौ, सो मतिमंद परयौ जी।।556।।

राग – कालगड़ा

सामरे की छवि लखि नैना म्‍हारे छवि छाके।।

विवस भये री फिरत न फेरे, कस बरनौं गुन ताके।।

रूप अनूप भूप सुत वाके, पट तर दीजै कहु काके।।

कन्‍हर के प्रभु पल नहिं बिसरत, सकुचत तेज प्रभा के।।557।।

सबकी पति राखौ रघुवीर।।

डंवाडोल जग भयौ चहूं दिसि, बाढ़ौ सोच सरीर।।

राउ रंग मन भ्रमत मत भये, जौं रज परसि समीर।।

कोऊ काहू की बात न बूझत, अपनी – अपनी पीर।।

सोच संकोच भयौ सबही कौं, आवत नाहीं धीर।।

कन्‍हर कह प्रभु कृपा वारि करि, हरियौ हरि भय भीर।।558।।

राग – पूरबी, ताल – त्रिताल

कहु री सखी री कब मिलिहैं रघुवीर।।

बिन देखे वह सामली मूरति, नैन धरत नहिं धीर।।

हमरी सुधि बिसराय दई री, कस हो गये बे पीर।।

कन्‍हर मिथिलापुर के वासी, विलग मीन जिमि नीर।।559।।

राग – आसावरी

स्‍याम नहिं आये म्‍हारी सुधि बिसराई।।

कौन उन ढूंढन जाउ सखी री, ऐसी जग सम्‍हराई।।

व्‍याकुल भई खबरि नहिं तन की, कैसे तपनि बुझाई।।

कन्‍हर ऐसी प्रीति कहा की, मिलि करि कै बिलगाई।।560।।

राग – सोहनी

ई मन ऐसी गहनि गही, स्‍याम सुधि न लई।।

जब से गये फिरि पतियां न बतियां, वे बातें बिसरि गई।।

झूठी प्रीति प्रतीति करी री, तासौं गति यह भई।।

कन्‍हर के प्रभु बेगि मिलौ अब, नहिं फिर प्रान पई।।561।।

हरि अबकी बार उबेरौ।।

फिरि भ्रम परिहौं तौ मैं भरिहौं, कीजै नहीं निबेरौ।।

दीनदयाल कहा अब हेरत, कह अब सांझ सबेरौ।।

कन्‍हर चूक माफ अब कीजै, नहिं प्रभु करौ अबेरौ।।562।।

राम सिया पद पल न बिसारी।।

पद रज परसि अहिल्‍या तारी, गौतम श्राप निवारी।।

मुनि मन मधुप चरन कमल महि, निसि दिन रहत सुखारी।।

कन्‍हर नीक सीख हरि पद जप, सुंदर मंगलकारी।।563।।

राग – देस जंगला, ताल – त्रिताल

कब लैहौ म्‍हारी सुरति हरी।।

बाट बिलोकत बहु दिन बीते, का तकसीर परी।।

करूना सुनि करि द्रवत दीन पर, पल में सब सुधरी।।

दीनदयाल खबरि अब लीजौ, मैं बहु-बहु झगरी।।

मो से अधम बहुत तुम तारे, अब कस देर करी।।

कन्‍हर अघ बस बसौ कृपानिधि, लेउ खबरि हमरी।।564।।

अब कब हमरी राम बनैगी।।

अब जग नाथ निबाह नहीं है, कहा लगि तान तनैगी।।

नाम कहत सबकी सब बनि गई, हमरी कस न बनैगी।।

कन्‍हर अरज करत हरि तुम सौं, कब मति गुननि गनैगी।।565।।

राग – काफी, ताल – त्रिताल

पति हमरी हरि सरन रहैगी।।

अंग- अंग अगम कौन निरवारै, नातर बात बहैगी।।

मानि – मानि मन तोहि समझावत, वा दिन कठिन परैगी।।

कन्‍हर तकौ सरन रघुवर कौ, अनत न विपति छटेगी।।566।।

श्री रघुवर सम नहिं कोई।।

दीनदयाल दीन आरतिहर, करत अभय भय खोई।।

बहुत जन्‍मनि की बिगरी सुधरति, चरन सरन जब होई।।

कन्‍हर हरत सकल दुख जन के, करत रहत प्रभु सोई।।567।।

राम बिना दुख कौन हरै रे।।

ऐसी और नहीं कोई जग मंह, मोहि पार करै रे।।

प्रगट प्रभाव नाम कह बरनत, सुनि जमराज डरै रे।।

कन्‍हर दीनदयाल नाम हरि, कहि भव पार परै रे।।568।।

राग – अड़ानौं

अंखिअनि लागि हरि म्‍हारी आली, रामलला प्रिय प्‍यारौ।।

बिन देखै मोहि कल न परति है, बिसरतु नहीं बिसारौ।।

बार – बार सखि तो तन हेरत, दसरथ राज दुलारौ।।

कन्‍हर लखि – लखि मधुर रूप प्रिय , पलक न होत न्‍यारौ।569।।

धनुस कर कमलनि राम लसै।।

कहिअ न परत वनिक कछु, मोपर उपमा बहुत – वसै।।

नवल नवीन पीन वर भूषन, कटि पटपीत कसै।।

कन्‍हर सखी प्रेमरस बस भई, निरखि चकोर ससै।।570।।

मृदु बोलनि आली मनु भावरी।।

रूप अनूप भूप सुत लखि करि, जब तै हो गई बावरी।।

तब तै कल न परति सखि मोकौं, छकी राम छवि रावरी।।

कन्‍हर नयन वयन मृदु प्रभु कौ, चकई चांद लखि चावरी।।571।।

राम सुनी मैंने नाथ तुम्‍हारी प्रभुताई।।

गज अरू ग्राह भिरे जल भीतर, करि – करि कुटुम सहाई।।

वर्ष सहस्‍त्र थके बहु जुध कीनौं, थकित भये सुधि आई।।

करूना करि हरि नाम उचारौ, गिरा गिरन नहिं पाई।।

विनय करी की सुनि करूनानिधि, हृदै बहुत अकुल्‍याई।।

लाघव लियौ बचाय ग्राह तै, तब लगि पल न ढराई।।

जय – जय शब्‍द भयो त्रिभुअन मैं, नारदादि गुन गाई।।

कन्‍हर कलि मल ग्रसौ कृपानिधि, करौ सुरति सुखदाई।।572।।

राम भजन बिन दिन जाई बीते।।

झूठौ यह संसार सार नहिं, सदा नहीं कोऊ जीते।।

माल खजाना संग न जाहै, अंत आइ उड़ मीते।।

कन्‍हर नाम सुधा निसि वासर, मन हरि जपते बीते।।573।।

स्‍याम बिना निसि नींद न आवै।।

परत न चैन नयन बिन देखै, नित नव विरह बढ़ावै।।

मन बसि गई माधुरी मूरति, छिन पल जुग सम जावै।।

कन्‍हर के प्रभु मिलौ कौन विधि, सोई कोई जतन बतावै।।574।।

कब मिलिहौ फिरि राम पियारे।।

मिथिलापुर की सखी प्रेमबस, विधि बुधि कहा की आरे।।

तुम बिन प्रान रहत जे नाहीं, तन ते होत नियारे।।

कन्‍हर बार – बार अवलोकत, सब मिलि मौन लिया रे।।575।।

श्रीराम भव वोहित हित करिया रे।।

कोटि जतन करि – करि कोई – कोई, बिनु हरिकृपा नहिं तरिया रे।।

आनि बानि सब छांडि़ – छांडि़ अब राम सिया जपिया रे।।

कन्‍हर गहौ सरन रघुवर कौ, तासौ जम गन लखि डरिया रे।।576।।

श्री रघुवर पद जपि जल जासी।।

स्‍याम सुभग वर अंग मनोहर, उपमा बहुत लसासी।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, मुक्‍त माल झलकासी।।

कन्‍हर के उर बसौ सदाई, करौ कृपा गुनगासी।।577।।

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