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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 21

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 21

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – देस, ताल – कव्‍वाली

बार – बार सियाराम कहौ रे।।

मुनि वसिष्‍ठ सौरभ रिषि, करदम सबही सरन लहौ रे।।

चिमन पुलस्ति नाम अधिकारी, लोमस ध्‍यान ठयौ रे।।

दुरवासा रिषि सह‍स अठासी, राम नाम उचरौ रे।।

मानदास सोई अब सुमिरन, कन्‍हर हृदै धरौ रे।।676।।

नाम शुभ राम नाम जपना।।

धनुस बान सोहत कर कमलनि, निश्‍चर कुल दमना।।

सुत हित विप्र पुकारि कहौ है, कियौ अधम सरना।।

कन्‍हर प्रभु कौ नाम परायन, कहि – कहि भव तरना।।678।।

कृपा तुम कब करिहौ रघुवीर।।

भव सागर में बहौ जातु हौं, अगम बहत है नीर।।

बो‍झी है अघ नाव जांजरी, लागत नहिं वा तीर।।

कन्‍हर की सुधि लेउ दयानिधि, त्रसित भयौ भय भीर।।679।।

हरि तुम अरज सुनौ जन की।।

लोभ लहरि में निस दिन डोलै, यह गति भई मन की।।

खबरि नहीं बेखबरि भयौ है, सुधि बिसरी तन की।।

कन्‍हर की सुधि करौ कृपानिधि, सुरति करौ प्रन की।।680।।

राग – झंझौटी

जग में राम नाम है सांचौ।।

रे मतिमंद वृथा तै भूलौ, पिंडा लखि जौ कांचौ।।

पंच तत्‍व कौ व्‍याल रचित है, माया प्रेरित नाचौ।।

कन्‍हर जात वादि दिन बीते, हरि चर‍ननि मन राचौ।।681।।

राग – कालगड़ा

स्‍याम थारी छविहि लखि, नैना म्‍हारे उरझानी।।

बिन देखै छिन कल न परति है, रूप प्रेम रस सानी।।

कीजै कृपा कृपानिधि सोई, चरन सरन मन बानी।।

कन्‍हर की अब अर्ज है, दरस देउ जन जानी।।682।।

राग – सारंग

कृपा गुरूनि की ते सब होई।।

ताके मोह महा भ्रम भाजत, सरन चरन जिनि गोई।।

तारिक मति उपदेस करत है मारग सुध बतावत जोई।।

कन्‍हर दया देखि प्रभु गुरू की, तातै अघ समूह भय खोई।।683।।

राग – देस, ताल – कव्‍वाली

जय रघुवीर जक्‍त हितकारी, प्रगट करी विद्या दस चारी।।

ब्रम्‍ह ग्‍यान वेदांत रसायन, भेषज रोगनि टारी।।

ज्‍योतिष नाद नीर कौ तरिवौ, धनुस बान गति न्‍यारी।।

लिखिवौ बरन कोक नट को कृत वाहन वाज सवारी।।

वसु व्‍याकरन और संबोधन, चातुरता बलिहारी।।

कन्‍हर प्रभु प्रसन्‍न जा ऊपर, ताकौ सुलभ सुखारी।।684।।

राग – देस, ताल – तारज

बसौ जी म्‍हारे नैननि सयि रघुवीर।।

दीनदयाल नाम तुम्‍हारौ हरि, हरत जननि की पीर।।

करत अभय सरनागत राखत, मैटत भव भय भीर।।

कन्‍हर चरन सरन तकि आयौ, रामचन्‍द्र रन धीर।।685।।

राग – देस

जाके तन मन हरि गुन हूल, नहीं उर जम डर कौ।।

कंठी तिलक चिन्‍ह धनु सर कौ, संख चक्र सोभित हरि कर कौ।।

जम के दूत निकट नहिं आवत, बानौं देखि रावरे घर कौ।।

कन्‍हर झूठौ व्‍याल समुझि करि, भयौ गुलाम सीया रघुवर कौ।।686।।

मनोहर छवि मोहन जी की।।

पग नूपुर पहौंची कर कमलनि, लसत माल मनि ही की।।

अलकें कुटिल भृकुटी वर बांकी, मुख लखि चन्‍द्र कला फीकी।।

कन्‍हर प्रभु कौ ध्‍यान जुगल वर, संग प्रिया सोभित नीकी।।687।।

राग – देस

सखी री कृष्‍ण हौं मुरली टेरि सुनाई।।

जमुना कूल सघन विंद्रावन, कोटिनि तान जुगाई।।

जीव जंत मुनिगन मन मोहे, गगन देव हरषाई।।

सुनि करि शब्‍द चली वृज वनिता, देह गेह बिसराई।।

सोभित सरद चांदनी निरमल, सब ही के मन भाई।।

यह आनंद पूरि रहौ तिहूं पुर, रहस रचौ जदुराई।।

नटवर भेष गोप गोपिकनि के संग, इत उत छिपि – छिपि जाई।।688।।

कन्‍हर लखि कर ध्‍यान मनोहर, नारदादि उर ल्‍याई।।

श्री मोहर नस रहस रचौ है।।

सुनि मुरली वर शब्‍द मनोहर, मुनि मन ध्‍यान थकौ है।।

करि सिंगार चली बृजवनिता, मन मोहन मैं अटकौ है।।

ग्‍वाल बाल संग रास रचौ है, देवन रूप छकौ है।।

कन्‍हर अद्भुत रास बिरज कौ, मुनि मन ध्‍यान टिकौ है।।689।।

राघव सुनियौ जी अरजी।।

गरजी की मति स्‍वारथ उरझी, फिरि तुम्‍हरी मरजी।।

भूलौ फिरतु खबरि वा दिन की, मानतु नहीं बरजी।।

कन्‍हर तुम्‍हारी कृपा बिना अब, कैसे भव तरजी।।690।।

जय जय अवध राम रजधानी।

प्रनतपाल आरतिहर रघुवर, निगम अगम कहि गानी।।

दीनदयाल दीन हितकारी, सुजस तिहूं पुर जानी।।

कन्‍हर सुमिरत नाम तुम्‍हारौ, तन मन आनंद सानी।।691।।

राग – देस, ताल – त्रिताल

हरि सुमिरौ नर जनम सम्‍हारौ।।

मुक्ति सुमिरौ नर जनम सम्‍हारौ।।

मुक्ति द्वार तन मन नहिं पाहौ, ताय वृथा मति हारौ।।

ऐसौ समयौ बहुरि नहिं पाहौ, याते कहत सवारौ।।

कन्‍हर राम नाम कह धरि उर, चलत लगत नहिं झारौ।।692।।

स्‍याम काम कह तेरौ हमरी बाट हेरौ।।

सांची कहौ हमरी करि सौं, अब मारग रोकत मेरौ।।

आवत जात लगावत घातें, बातें बहुत निवेरौ।।

कन्‍हर के प्रभु छोडि़ कहौ छल, पाइ परौं भयौ देरौ।।693।।

राग – झंझौटी

राम उर मैं सोहैं मोतिनि माला।।

चितवनि मन बस कसौ सखी री, मनहु मनुजाला।।

कुंडल लोल कपोलनि झलके, अलकें झुकि झाला।।

कन्‍हर धनुष बान कर वर धर, तुरग चढ़े लाला।।694।।

राम राज रजयाई रही छवि छाई।।

विगसे सुमन तरून तरू पल्‍लव, कानन लसत सुहाई।।

बोलत मधुप राम गुन गावत, सुनि धुनि मुनि मन भाई।।

कन्‍हर आनंद सदन – सदन महं, भुवन चतुर दस धाई।।695।।

राम म्‍हारे कह विलम किया।।

दीन पीन सबकी अदीन लखि, अब कस मौन लिया।।

मो मति मंद फंद महं उरझी, सिख अघ अघय दिया।।

कन्‍हर तुम्‍हरे भजन बिना जग, नाहक जनम जिया।।696।।

सियावर कब तो तन हेरौ।।

निबल देखि सब आनि सतावत, करत न‍हीं देरौ।।

काम क्रोध मद लोभ मोह मैं, निसि वासर घेरौ।।

कन्‍हर अरज करत करूनानिधि, अबकी बार उबैरौ।।697।।

राम विमुख ऐसो मुख जर जाई।।

पाप परायन पार होतना मानत, न भयौ मलिनाई।।

कूप परे भव सुरूप न जानत, सठ हठि जन्‍म गमाई।।

कन्‍हर जो जन जपैगो हरि पद, सो न जम फांसि पसाई।।698।।

राग – देस, ताल – एकताल

सखी री मैं स्‍याम सौं हारी।।

कहौ न मानत बहुत झिकावत, रोकत बाट हमारी।।

नए – नए ख्‍याल करत नित हमसौं, ऐसौ लाल खिलारी।।

कन्‍हर के प्रभु पकरि लैउ जब, तब कह बात सुधारी।।699।।

स्‍याम अवदि वदि की सुधि बिसरि गई।।

ऐसी चूकि कहा परी मों सौं, तासौ त्‍याग दई।।

तन मन सोच संकोच पोच अब, तबते अधिक भई।।

कन्‍हर के प्रभु दरस बिना मोइ, जुग सम छिन बितई।।700।।

राम लला वर छवि मन अटकी।।

छवि की छटा अटा चढि़ निरखी, तब ते गति नटवट की।।

रहौ न जात दरस बिन देखे, चोट लगी चटपट की।।

कन्‍हर बिना दरस रघुवर के, विकल मीन जल तट की।।701।।

सिय रघुवर कौ भरोसौ मोहिं भारी।।

ग्‍यान विवेक येक नहिं मेरे, नहिं विराग दृढ़कारी।।

काम क्रोध मद लोभ पराइन, सुरति न रहति सम्‍हारी।।

कन्‍हर समझि नाम की महिमा, तातै रहत सुखारी।।702।।

हरि पद त्‍यागी निपट अभागी।।

कोह मोह कामादिक पेरे, फिरत रैनि दिन लागी।।

आपुन करत सिखावत औरनि, नीच – नीच रग पागी।।

कन्‍हर राम नाम कह सुमिरत, सोई जन मन अनुरागी।।703।।

स्‍वास जात ना जानी राम जपि प्रानी।।

नर तन पाय काज करि लीजै, करि लेउ हाथ निसानी।।

जासौं फिरि पछितात नहीं रे, समुझि – समुझि कह मानी।।

कन्‍हर तकौ चरन रघुवर के, झूठी जग पहिचानी।।704।।

राग – देस, ताल – एकताल

आरतिहर हरि नाम तुम्‍हारौ।।

सुनि आरति आतुर तुम धावत, दीन जानि निरवरौ।।

अबकी बार बार कह की‍नी, मैं हू दीन पुकारौ।।

कन्‍हर तुम्‍हारी कृपा बिना प्रभु, अघ नहिं देत दुकारौ।।

आली री प्‍यारौ स्‍याम न आयौ, मो जिय अति तरसायौ।।705।।

कीनौं हरि भेस वेस देस वही भायौ,

अब तौ कहा होतु कहै पाछे पछितायौ।।

जोगिनि कौ भेष करौ, लमै बहु केस करौ,

अंग मैं विभूति रमौ, ऐसौ मत ठायौ।।

कन्‍हर करि चूक माफ दरसन हरि दीजौ,

कीजौ मति नहिं देर बेर, चरननि सिर नायौ।।706।।

सुनियौ जी म्‍हारी रामकुमार।।

नाम गरीब नवाज तुम्‍हारौ, अब कस कीनी बार।।

मोकौं डर लागत वा दिन कौ, लादौ अब बहु भार।।

कन्‍हर बिना कृपा प्रभु तुम्‍हरी, कैसे उतरैं पार।।707।।

राग – पीलू

कीनौं मो पै टोना स्‍याम सलौना।।

तब ते भई बावरी डोलौं, मन ते भ्रमै औना कौना।।

बिना दरस पल जुग सम बीतत, कहौ कहा अब हौना।।

कन्‍हर कल न परति निसि वासर, अस कहि भई सखि मौना।।708।।

धनुष कस हठ कीनौं री माई।।

कोमल कर रघुनाथ गात मृदु, लखि करि कै पछिताई।।

संग सखिनि मिलि कहत जानिकी, कैसे दुख अब जाई।।

कन्‍हर के प्रभु भंजै सिव – धनु, तिहुं पुर जस छाई।।709।।

सांची राम नाम सौं लागी जाकी रूचि रे।।

सोच असोच सोच नहिं वा कह, ताकौ मन तन सुचि रे।।

पार होइ भव बार न लगिहै, जम के द्वार न दुचि रे।।

कन्‍हर सनमुख होत राम के, सकल दास पथ मुचि‍ रे।।710।।

राग – अड़ानौ

मुंदरी हो कह छोड़े रघुवीर।।

सांची कहौं हमरी करि सौं, अब मन न धरत है धीर।।

कहत न बनै आजु मोइ तोसौं, तू बैरिन बेपीर।।

कन्‍हर विकल भई वैदेही, लोचन भरि आये नीर।।711।।

सनकादिक तप तेज प्रकासी।।

सिंधु तीर गंभीर लसत वर, किन्‍हर गढ़ ढिग पासी।।

हरि मंदिर सुंदर छवि सोभित, वन वाटिका सुहासी।।

दरस परस करि ध्‍यान करत मुनि, हरि गुन गुनि हरषासी।।

विप्रवृंद वेद धुनि करई, उपमा बहुत प्रभासी।।

जग हित हेत होत तहां सुंदर, जो जाके मन आसी।।

कन्‍हर धन्‍य निकट तट बहिरत, तिन्‍हके भरम परासी।।712।।

कहु कह कीनौं राम न चीनौं।।

ना कछु लाभ करौ अपनै मन, झूठे जग दीनौ।।

भरम कूप महं डूब भुलानौं, सुधा बिसारि विष पीनौ।।

कन्‍हर बीति गये सब सुभ दिन तन जामा भयौ झीनौ।।713।।

हरि सुमिरौ रे जन्‍म सिरानौ।।

आसा वासा पासा छोड़ौ, छिन मह होत बिरानौ।।

स्‍वारथ हेत सकल जग खोजत, हरि पद हेत हिरानौ।।

कन्‍हर जो न जपैगो प्रभु पद, सो भव कूप गिरानौ।।714।।

स्‍याम सौं कैसे निबहै प्रीति।।

कहौ न मानत बहुत झिखावत, अपनी चलावत रीति।।

निबहन कैसे होइ सखी री, मृदु बोलनि मोहि जीति।।

कन्‍हर कहु कैसे समुझाईये, ताइ न भावति नीति।।715।।

सुनि सुभ तुम्‍हरी रीति सुनी।।

धनपति रंक रंक तै धनपति, यह विधि करत दुनी।।

हरिजन ऊपर कृपा करत हौ, बरनत निगम गुनी।।

कन्‍हर राम चरन रति लागत, जिनि जप मगन मुनी।।716।।

भरो लोक लुभावा हमरे मन भावा।।

वन उपवन वट निकट मनोहर, लता लूमि झुकि छावा।।

अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि देत है, सरनागत तकि आवा।।

कन्‍हर सिव सिव नाम जपत ही, अघ के पुंज नवासा।।717।।

सिंधु तीर कैलासी लसत सुखरासी।।

निर्मल नीर गंभीर बहत है, बरनत मन सकुचासी।।

ध्‍यान करत मुनि विप्र मनोहर, राम नाम गुन गासी।।

कन्‍हर धन्‍य निकट के वासी, मज्‍जन करि हरषासी।।718।।