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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 24

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 24

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – झंझौटी

धन तन भूला मन आपा जी।।

चलता फिरता या दिन आनो, राम नाम न‍हिं जापा जी।।।

भव भ्रम स्रम ना पायौ उरझौ, उरझ – उरझ धापाजी ।।

कन्‍हर चरन सरन रघुवर वर, पावत तन तापा जी।।818।।

अब न बनैगी मन मोसै तोसै।।

मैं तोइ जतन – जतन समुझाऊं, मानत नहीं पोसै।।

राम रंग रंग कस नहिं लागत, अघ बस मल जोसै।।

कन्‍हर विनय करत ही हारौ, कहा कहिये गोसै।।।819।।

मन तोइ बिसरि गईं वे बातैं।।

तजि हरिचरन विषय लिपिटानौ, भूलि गयौ जग नातैं।।

जननी जनक सुरति बिसराई, मोह करौ अबला तैं।।

पर स्‍वारथ सपनै नहिं जानत, अपनै हित की घातैं।।

काम क्रोध मद लोभ भुलानौं, बिसरि गयौ मघ तातैं।।

भव के भौंर बहा तूं डोलत, क्‍या गति होयगी जातैं।।

जम के दूत मारू तोहि दैहैं, तब तन होय निपातैं।।

कन्‍हर राम नाम कै सुमिरै, फिरि नहिं फेर फिरातैं।।820।।

भ्रमना भूलै मग उलझावै, क्‍यों पथ कुपथ रही।।

राम नाम है तारक जग में, रसना क्‍यों न कही।।

साझी होत नीच करमनि महं, ऐसी गहन गही।।

कन्‍हर राम नाम किनु सुमिरै, कै दिन भार लही।।821।।

मन कह कीना तूनै राम न चीना।।

कौन सहाय करैगो तेरौ, ता दिन होय तन छीना।।

कुटम लोग कोऊ काम न आहै, मति होइ इनि महं लीना।।

कन्‍हर फिरि पीछे सुधि आवति, सदा नहीं जग जीना।।822।।

मन सौं रे म्‍हारौ बसन बसावै।।

करमनि के बस फिरत भुलानौं, बरजत बहुत रिसावै।।

हानि लाभ कह जानत नाहीं, फंदन बीच फंसावै।।

कन्‍हर जापर कृपा करत हरि, सो भव पार धसावै।।823।।

मन सियराम नाम कह भजि रे।।

ऐख लखे लखि लावत तोकह, समुझि – समुझि इनि तजि रे।।

राम नाम आधार जगत को, ऐसी समझ समझि रे।।

कन्‍हर नित्‍य नहीं यह देही, समुझि – समुझि सुभ सजि रे।।824।।

कहौ मन सीता सीताराम ।।

बिसरौ मति छिन अर्ध घरी पल, निसि दिन आठौ जाम।।

रसना बसना कसना कीजे, चाम न आहै काम।।

कन्‍हर इनि कह यह मत लागौ, सो जैहैं निज धाम।।825।।

अरे मन तूं कैसी गहनि गही।।

भवन निबह वहां कस डोलत, मानत नहीं कही।।

पायौ लाभ कहां तूं यामै, कहु रे सत्ति सही।।

कन्‍हर कारन करन हरी पद, सो अब क्‍यों न लही।।826।।

बहुत कही मन तूं न फिरौ रे।।

हरि की ओर कोर नहिं लागौ, भरमनि ओर गिरौ रे।।

थिरता लही कहीं तूं नाहीं, जहं तहं रारि भिरौ रे।।

कन्‍हर जो न जपैगो हरि पद, सोई नर मूढ़ निरौ रे।।827।।

राग – झंझौटी

राम नाम की ओढ़ ओढ़नी, जपि हरिनाम सुआदर।।

निर्मल जीवन मलिन कियो क्‍यों, मैली कर दी चादर।।

बोझा बहुत करतु है भारी, कस हो गयौ तू लादर।।

कन्‍हर हरि पद क्‍यों न जपै तूं, छाया यौं जग बादर।।828।।

तोकौं मूढ़ कहा दरकार।।

देखि लिया तूं जग का मेला, समुझि राम जपि हो जा पार।।

ना धरि ल्‍यायौ ना धरि जैहैं, पड़ौ रहैगो सब भ्रम जार।।

कन्‍हर कहत मानि सिख मेरी, म‍ति लादै अघ कौ बहु भार।।829।।

राग – कालगड़ा, ताल – त्रिताल

तूं कब करिहै मेरी कही।।

तो मैं तोइ जानिहौं सांचौ, जपि हरि नाम सही।।

आदि अंत बंधन तै छोरत, ऐसौ नाम वही।।

कन्‍हर यही सिखावन मेरौ, प्रभु पद समुझि गही।।830।।

देखौ मन कौ मन साखी।।

कर अरू अकर करम करि जोवै, ग्रसै काल बन ग्रासी।।

चलती चक्‍की काल चलावै, तू क्‍यूं मन में हासी।।

कन्‍हर राम कहा कह मानव, कर फलनन फल चाखी।।831।।

राग – केदारौ

सीताराम नाम कहना मन रे।।

भव बंधन फंदन ना छूटै, बिना नाम भन रे।।

उरझत फिरि – फिरि सुरझत नाहीं भूलौ है अनरे।।

कन्‍हर वा दिन कठिन परैगी, तजि अघ कौ करने।।832।।

मन हठ छाड़ौ मानौं उपदेस।।

करि परपंच उदर कौ पालत, करि – करि उजरा भेस।।

भक्ति विराग जोग ना साधन, दया नहीं लवलेस।।

कन्‍हर भजौ सियावर सुंदर, जम नहिं पकरै केस।।833।।

मन भ्रम बाढ़त दूना – दूना राम नाम बिन सूना।।

नर तन अयन पाइ करि भूलौ, संग कुसंग परति भइ नूना।।

बरस बसौ ग्रसौ फिरि – फिरि कै, हरि गुन नहिं उर गूना।।

कन्‍हर समुझि कहत मैं तोसौं, मानहु मति तुम ऊना।।834।।

राग – अलय्या

राम नाम से विमुख भये ते उलझे भव शूला।।

मृग तृष्‍णा में भूल गयौ है, उरझि करम झूला।।

कर्म ग्रसत हित अनहित लागै, सोई – सोई सठ भूला।।

कन्‍हर राम नाम नहिं सुमरे, जो नर भ्रम हूला।।835।।

राग – रागश्री, ताल – त्रिताल

तन मन राम नाम रंग लागी।।

तिनिकौं कहा मुक्ति कौं सोचौ, मोह निसा जन जागी।।

दरसन होत सकल भ्रम भाजत, हरिजन परम बिरागी।।

कन्‍हर जिनिकी महिमा बरनत, सकल अमंगल त्‍यागी।।836।।

रे मन तन कौ मरमु न जाना।।

करता धरता डरता नाहीं, क्‍यौं करि कै समुझाना।।

अंत तंत्र कहा मंत्र न जानत, भूलौ भरम भुलाना।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरै, चलत अंत सुख पाना।।837।।

मन बौरानौ सीताराम न जानौ।।

भूलौ डगरि बिगरि पथ भूलौ, माया भ्रमित फिरानौ।।

बीतौ जन्‍म वृथा भरमायौ, हरि चित रे तन नाहीं आनौ।।

कन्‍हर सरन सचेत होउ तूं, कस अब फिरत बुलानौ।।838।।

रघुवर बड़ी भूल मन घेरौ।।

तन कौ तनक तमासा बासा, झूठे बंध निवेरौ।।

भयौ न भाव तार कह तेरौ, बरबस बास बसेरौ।।

मानि – मानि मन हित होय तेरौ, छोडि़ – छोडि़ मघ डेरा।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरत, छूटि जात जम पेरौ।।839।।

अब तोहि क्‍या करना मन रे।।

ना हरि भजे न गृह सुख पायौ, छिन पलहू खन रे।।

काम क्रोध मद लोभ लहर ने, तेरी मति हनि रे।।

कन्‍हर सीख मानि जपि रामै, झूठौ जग तन रे।।840।।

राग – विभास

मन मृग फिरता गली गली।।

मैं बहु जतन करत ही हारौ, मानत नहीं छली।।

राम नाम नहिं सुमिरन कीन्‍हा, प्राण जाय अरू देह जली।।

कन्‍हर हरि पद सुमिरत नाहीं, मति भ्रम फिरति चली।।841।।

मन तोइ नहिं आयौ स्रम रे।।

बार – बार बरबस उरझानौ, भूलो भव भ्रम रे।।

राम भजन कबहू नहिं कीनौ, तूं ने करि क्रम रे।।

कन्‍हर परहित हेत द्रवौ नहिं, जौं सरिता द्रुम रे।।842।।

कुमति हरि हरिहौ कब मन की।।

दै करनी बनि बानै आनौं, खबरि नहीं खन की।।

परमारथ कह पथ ना जानत, चाह बड़ी धन की।।

कन्‍हर अरज करत करूनानिधि, सुरति करौ जन की।।843।।

मन तन धन हरि अरपन कीजै।।

पार होन पथ तोइ लखाऊं, राम सुधा रस पीजै।।

संत सुभाव भाव नहिं दूजौ, सोई – सोई मत लीजै।।

कन्‍हर आन उपाइ नहीं है, रघुवर सरन सहीजै।।844।।

नर तन धरि अरू कुपथ गहौ तू, कैसी मति बौरानी।।

अन्‍त समय जब निकट आयगौ, तब तुहि काल डरानी।।

भ्रमत भ्रमे भरम मद भावत, कबहूं न होति गलानी।।

कन्‍हर हारि परौ नहिं मानत, श्रीपति पद बिसरानी।।845।।

मन तन धन आना जाना भुलाना।।

काम क्रोध लोभादि मोह मद, इन बस होइ बौराना।।

स्रम भ्रम फल पावत हरषावत, लता नता उरझाना।।

कन्‍हर उरझि सुरझि कोई – कोई रघुवर ओर झुकाना।।846।।

सीयवर जानत सबके मन की।।

जो छल छाडि़ चरन रज सेवत, राखत पति जा जन की।।

ध्‍यान मगन मन छिन न बिसारत, ज्‍यों चातक रट घन की।।

कनहर जो धनि संत सिरोमनि, खबरि नहीं घर वन की।।847।।

मन भ्रम लीना हरि नहिं चीना।।

ऐसा जीवन जीव वृथाई, रहत बहत ज्‍यों मीना।।

भव के मोह जाल को तजि कै, राम शरण तकि जीना।।

कन्‍हर पर अपवाद वादि तजि, राम सुधा रस पीना।।848।।

यह मन पापी मानत ना जी।।

रहत अभय अरू भय नहिं मानत, अघ को भय चाहै साजी।।

रारि हारि कबहूं नहिं मानत, ऐसा जड़ बड़पाजी।।

कन्‍हर राम नाम नहिं सुमिरत, नीच संग सगराजी।।849।।

मन न फिरै रे मन भूलौ रे डगरियारे।।

भ्रमतौ अपनी ओर भ्रमावत, घर – घर डग – डग बात बगरियारे।।

कैसी करौं कछू बस नहीं मोरौं, बार – बार हरि सरन झ‍गरियारे।।

कन्‍हर कह प्रभु कर डर लागत लूटहि, जम गन तगरियारे।।850।।

राग – पर्ज, ताल – त्रिताल

मानौं जी कहौ रे मन राम रंग रंगिया रे।।

सठ हठ छाडि़ कहत हरि तोसौं, चलत संग संग कोकरिया रे।।

चारि दिना कह जग रंग झूठा, समुझि – समुझि तू नहिं पगिया रे।।

कन्‍हर कहत रहत कोऊ नाहीं, हरि की शरण ताइ जगिया रे।।851।।

सुमिर मन सियावर सुंदर राम ।।

बीते रीते जग दिवस निसि , दुर्लभ नर तन धाम।।

जग परपंच पंच भल नाहीं, सिखवत नीति निकाम।।

संभ्रम – क्रम – क्रम छोडि – छोडि, अब रसना रस सुभ नाम।।

कपट लपट कह कहा न कीजै, लीजै नहिं पथ बाम।।

कन्‍हर हरि पद ध्‍यावत जो नर, ते न तचे तन चाम।।852।।

जागौ मन जागौ कुपथ पथ त्‍यागौ।।

बेर – बेर फिरि बेर करै मति फिरत काल संग लागौ।।

नर तन पाइ कुपथ सौं नाता, कौ भाग अभागौ।।

कन्‍हर राम सिया पद पंकज, निसि बासर अनुरागौ।।853।।

रगा – भैरों, ताल – चंपक

कहा मन मानि लै मेरौ भजौ हरि, काज होइहै तेरौ।।

मेरौ – मेरौ बहुत निबेरौ, निसि बासर हेरौ।।

चारि दिना कौं जग कौ कारन, चलत नहीं देरौ।।

कन्‍हर राम नाम कौं सुमिरै, फिरि – फिरि नहिं फेरौ।।854।।

मन तूं कहा न स्रवन करा।।

मद नद बहा – बहा बहु डोला, नाहक जनम भरा।।

रोष सोक बस तोष न आवत, भ्रम के भौंर परा।।

कन्‍हर कहि – कहि राम नाम कौं, को नहिं पार तरा।।855।।

राग – कालगड़ा

अब तूं क्‍यों ठानी अपनी।।

बनी –बनी कौ सब कोइ साथी, तासौं कहत धनी।।

मैं बहु बार कहा मन तोसौं, सुमिरौ अवध धनी।।

कन्‍हर नाम सार जा जग में, अरू भ्रम तान तनी।।856।।

मन तोकौं बहुत समझाता।।

अब पछितात होतु कहा है, घरी – घरी पल छिन जाता।।

निकसी स्‍वांस फिरि ना आवति, हरिपद क्‍यों बिसराता।।

कनहर जपि – जपि राम नाम कौं, अन्‍त काल सुख पाता।।857।।

राग – अलय्या

अनेकहु बार मनावा तौं मन तूं न मनौ।।

हरि की ओर जोर न लागत, तातै और तनौ।।

स्‍वान पूंछि फिरि फिरति न सूधी, ऐसी ठानि ठनौ।।

कन्‍हर बिना भजन सियावर के, क्‍यों जग जननि जनौ।।858।।

अरे मन तनक अनख नहिं मानी।।

धरतु रहौ अघ अघ मग मग पग, कस ना होति गलानी।।

परनिंदा पर द्रोह परापर इनमै, रहा ससानी।।

कन्‍हर कही यही सुभ मानहु, सेवहु सारंगपानी।।859।।

मन तूं आया बहु गापा।।

भ्रम बस बसौ कसौ यह जग में, नग – नग अति चापा।।

धावत रहा पार ना पावा, जाफा मन तन तापा।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरत, छूटत तन सापा।।860।।

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