is subah ko kya nam dun - Mahesh katare - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

इस सुबह को नाम क्या दूँ - महेश कटारे - 3

महेश कटारे - इस सुबह को नाम क्या दूँ 3

बाबू के जाने के बाद रेडियो खोलकर शर्मा जाने क्या-क्या सोचते रहे। दूध पीकर सोने की किश्तवार कोशिश करते हुए रात काटी और सुबह नित्यप्रति के अनुसार नहा-धोकर विद्यालय पहुँच, नाक की सीध चलते हुए अपने कार्यालय में घुस गए।

पर्यवेक्षणवाले लगभग सभी शिक्षक उपस्थित थे। डयूटी-चार्ट पर निगाह डालते हुए शर्मा ने आवाज5 में अतिरिकत कड़क भरकर पूछा-''आप लोगों ने अपने-अपने कक्ष नोट कर लिये ?''

''हाँ, के संकेत में सब के सिर हिलने पर शर्मा की घूमती दृष्टि गणित वाले शर्मा के ऊपर जा टिकी-''आपकी डयूटी आठ नबर में है ?''

''जी सर !'' उत्तर मिला।

डयूटी-चार्ट पर लाल स्याही का गोल घेरा बनाते हुए शर्मा बुदबुदाए-''आठ नंबर में हिन्दीवाले वाले कुशवाह जी रहेंगे और फील्ड डयूटी पर। किसी परीक्षार्थी को प्रश्न समझने में कोई कठिनाई आती है, तो आप ही समझा सकेंगे। हम लोगों में कोई और तो मैथेमेटिक्स जानता नहीं है, सो आप यह ध्यान रखें कि किसी लड़के को कोई शिकायत न हो।''

शर्मा को कुछ भी समझ में न आया कि शिकायत न होने का क्या मतलब है ? आठ नंबर में उसकी भूमिका पहले से तय थी। उसने विरोध किया-''आठ नंबर कमरे में डयूटी के िलिए मुझसे मंत्री जी ने कहा है। उसमें वी0आई0पी0 स्टूडैंट्स के रोल नम्बर है।'' गणित वाले शर्मा के स्वर में प्रच्छन्न धमकी थी।

''वी0आई0पी0 से आपका क्या मतलब है ?'' शर्मा ने डाँट के अंदाज में पूछा।

गणित शर्मा दबक तो गए, पर अपने साथी शिक्षकों के चेहरे पढ़ते हुए ''साझा कार्यक्रम'' पर सहमति के प्रस्ताव की तरह कहा- ''सर ! आप बेकार ही उठा-पटक कर रहे हैं। इस तरह नकल नहीं रूकी यहाँ पर। बुरी लेगे या भली, मैं तो साफ-साफ कहता हूँ कि आप दिखावा कुछ भी करते रहे, करना आपको वही पड़ेगा, जो मंत्री जी चाहेंगे। आप उनके विरूध्द नहीं रह सकते।''

गणित शर्मा ने चुनौती फेंककर अपने प्रधान का आंतकिर भय सरे आम करवा दिया था। वह दो दिन के लिए केन्द्र का हीरो था। प्रश्न-पत्र हल करने का पूरा दारोमदार गणित शर्मा और फिजिक्स वाले अस्थाना पर ही था। शेष शिक्षक पर्चियों को इधर-उधर करने के अतिरिक्त गणित के मामले में अधिकांश लड़कों की तरह बुध्दू थे। इस दूर-दराज जगह पर अन्य किसी गणितज्ञ की इतनी शीघ्र व्यवस्था संभव न थी। स्टाफ के लोग तमाशे की प्रतीक्षा में थे कि प्राचार्य रामरज शर्मा अपनी खाल किस तरह बचाते हैं।

शर्मा ने न गंभीरता कम की, न अपना पारा नीचा-किया-''किस बेवकूफ ने आपसे कह दिया कि मैं मंत्री के विरूध्द हूँ ? मैं उन्हें आपसे ज्यादा जानता हूँ, समझे ? मंत्री जी की इच्छा है कि लड़को को सुविधा मिले....सो मिलनी चाहिए....बस। आप गणितवाले हैं....जिम्मेदारी आपकी है कि कोई लड़का शिकायत न कर पाए।

हवा में उड़ते गणित शर्मा पिचकते हुए नीचे की ओर आने लगे-''देखिए साब ! इन गोल-मोल बातों में हमें लेना-देना नहीं है। हमें तो साफ-साफ बताइए कि आज नकल होनी है या नहीं ? और तीन सौ लड़को को मैं अकेले कैसे सँभाल पाऊँगा ?''

''कम से कम सो यानी तीन कमरे अस्थाना जी की जिम्मेदारी में भी रहने चहिएँ।'' अबकी बार रामरज शर्मा ने गणित शर्मा को बुरी तरह झिड़क दिया-''आपको मालूम है कि अस्थाना जी का प्रमोशन डयू है। जरा-सा रिमार्क उनके कैरियर को चौपट कर सकता है। मैं इस वर्ष उन्हें दंद-फंद से दूर रखना चाहता हूँ, ताकि....खैर, स्वयं अस्थाना जी तुम्हें सहयोग करें, तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है ? रामरज शर्मा ने अस्थाना की ओर देखा।

प्रमोशन अस्थाना की दुखती रग थी और वह इस-उस से कई बार चर्चा कर चुके थे कि अपने ही स्वार्थ के लिए लड़ना आदमी को शोभा नहीं देता। अत: उनके प्रमोशन के लिए प्राचार्य यानी रामरज शर्मा को मंत्री से भिड़ना चाहिए, जो कि वह नहीं भिड़ते....जो कि उनकी कायरता है। अस्थाना ने रामरज शर्मा के चेहरे को निगाहों की कसौटी पर कसने का प्रयास किया, पर इतना समय नहीं था। अत: प्रत्युत्पन्नमति के प्रकाश में समीकरण्ा रख, स्वर की यथासंभव दीनता से बोल-''सर- ! मैं तो इन दिनों के लफड़े से बचने के लिए अवकाश लेना चाहता था.... आपने ही स्वीकृत नहीं किया। नकल वगैरह या किसी भी बेईमानी को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर पाती। मैं तो आज ही ''मेडीकल लीव'' लेने के लिए तैयार हूँ।''

निशाना सही था। रामरज आश्वस्त हुए, पर उन्होंने अपनी कड़क और गंभीरताा की लाइन ऐंड लेंग्थ बनाए रखकर कहा- ''नहीं ! आपको अपने दायित्व का निर्वाह करना ही है। आप काम कीजिए....इस तरह की दीन भी सलामत रहे और दुनिया भी खुश । हम सबको इसी तरह अपनी छोटी-बड़ी हैसियत बनाए-बनाए रखनी है।''

इसी बीच बाबू जी आ खड़े हुए-''सर, थाने से पेपर लेने कौन जाएगा ? दीवान जी तैयार खड़े हैं। आने-जाने में आधा घंटा लगेगा...जबकि पहली घंटी का समय हो गया है।''

रामरज शर्मा हड़बड़ाकर खड़े हो गए-''अरे ! फिर तो देर हो गई। किसे भेजना है ? लाओ, अधिकार-परत्र पर हस्ताक्षर कर दूँ।''

''आप नाम बताएँ, तभी तो तैयार होगा !'' बाबू ने झल्लाहट प्रकट की।

शर्मा पुन: उसी कुर्सी पर बैठ गए-''उफ ! दस मिनिट और गए इस लिखा-पढ़ी में। लाओ मैं ही लिख देता हूँ...और अस्थाना जी, आप चले जाइए। एक सिपाही और लेना। आपके कक्ष में साथ वाले मास्टर जी बाँट लेंगे उत्तर-पुस्तिकाएँ....ठीक ?''

अस्थाना से ''जैसा आप कहें' सुनते हुए रामरज शर्मा अधिकार-पत्र लिखने में लग गए और कक्ष-प्रवेश की घंटी बजवा दी।

''नमस्कार शर्मा जी !''

शर्मा ने देखा कि बलवीरसिंह हैं। बलवीरसिंह लंबी-चौड़ी कद-काठी वाले, इसी गाँव के सम्पन्न परिवार से जुड़े शिक्षक हैं। उनका विद्यालय शहर में है, किन्तु परीक्षा-कार्य में सहयोग करने का आदेश लेकर इन दिनों गाँव आ जाते हैं और फसल-कटाई, खलिहान आदि की साज-सँभार कर लेते हैं। खानदानी प्रभाव तथा नकल कराने में मुक्त सहयोग की वजह से वे इन दिनों छात्रों में खासे लोकप्रिय रहते हैं-''आज की क्या व्यवस्था है साब ? सुना है, सक्सेना साब यहाँ का घी पचा नहीं पाए...बीमार हो गए हैं ?'' बलवीरसिंह ने चुटकी लेते हुए पूछा।

सीनाजोरी वाले अधिकार के साथ चोरी करवाने वाले बलवीरसिंह की उपस्थिति में शर्मा सुलग उठते हैं। उन्हें केन्द्र के आसपास भी नहीं देखना चाहते, पर विवशता है। किसी प्रकार कुछ भी तो नहीं बिगाड़ सकते बलवीरसिंह का। उल्टे बलवीर ही चाहें तो उनकी शिकायत करवा दें, धुनवा दें....चाहे तो स्वयं धुन दें। शर्मा पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने यह बात उड़ाई है कि ''चूँकि शर्मा ब्राह्मण हैं और यहाँ 85 प्रतिशत छात्र हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के हैं, अत: शर्मा नहीं चाहता कि लड़केर् उत्तीण होकर आगे बढ़े।'' अगड़ा-पिछड़ा वाला हथियार इन दिनों ऐसा प्रभावी हुआ है कि शर्मा स्वयं को उस घिरे हुए भयभीत कुत्तो की भाँति अनुभव करते हैं, जाो अपने समाजवादी सिध्दान्तों की दुम पिछली टाँगों के बीच लेकर, पेट से चिपका, दाँत दिखा खोखियाताा हुआ किसी तरह बच भागने का अवसर ढँढता है। उसके चारों ओर तनी हुई पूँछों का गुर्राता हुआ झुंड होता है।

''आज हमसे कहाँ सेवा लेंगे श्रीमान् ?'' शर्मा ने बलवीर की आवाज़ सुनी।

दबी हुई पूँछ में कुछ ऐंठन भरकर शर्मा बोले-''आपके लिए दसों दिशाऐं खुली हैं, ठाकुर साहब !''

चौड़े हुँह की हँसी के साथ बलवीरसिंह ने वार किया-महाराज ठाकुर बोले या चमार, सब लीला आपकी है / यह गाँव ठाकुरों का है, स्कूल ठाकुरो का है, फिर भी प्रिसिंपल आप हैं। ठाकुरों में दिमाग कहाँ होता है ?''

बलवीर के व्यंग्य से शर्मा का ब्राह्मण चोटिल हुआ, ठाकुर साहब ! दिमाग को तो लट्ठ के सामने हाथ बाँधकर खड़ा रहना पड़ता है। जमीन आपकी लाठी-बंदूकें आपके पास। राजा, साहूकार सब आप ही तो हैं ! सोने पे सुहागा के कि आप सिर्फर ठाकुर नहीं रहे...मंडल ठाकुर बन गए हैं। सो पशु सहित बड़ नाम तुम्हारा। हमारी बुध्दि तो आपका झाड़ू-पोंछा करनेवाली एलची है साहब !''

''हाँ साब ! एलची तो कमिश्नर, कलेक्टर भी है, जिनके हाथ में हुकूमत है। सब पदों पर पंडित एलची-पचासी पर पंद्रह की हुकूमत । खैर, छोड़िए, बुरा लग रहा है आपको। आप तो आज की व्यवस्था के बारे में हुकुम कीजिए।'' बलवीर उपहास के भाव में आ गए।

शर्मा ने फैली-बिगड़ी व्यवस्था का गोलमाल खुलासा किया-''व्यवस्था वही है, जो चली आ रही है। सक्सेना जी किनारे हाो गए, तो शर्मा जी रखवाली पर आ गए। लठैत रगेद रहे हैं...भैंस हाँफ रही है।''

बाबू जी आ गए- ''घंटा बजवाऊँ साब ?''

''प्रश्नपत्र आ जाने दो, तभी बजवाना। थोड़ी-बहुत देर से अपने देश में क्या अंतर पड़ता है ? काँपी वगैरह का रिकॉड देख लो। नोटिस चिपकवा दो कि जो कोई अनुचित साधनों का प्रयोग करते पाया जाएगा, उसे छोड़ा नहीं जाएगा। सब काम शांतिपूर्वक अंदर ही होना चाहिए। आइए, मैं समझाता हूँ।'' शर्मा जी बाबू के साथ बाहर निकल लिये।

प्रश्न-पत्र आने, खुलने और वितरण की औपचारिकताओं में आधा घंटा जाया हुआ। फिर भी आज की सजा के ढाई घंटे शेष थे। शर्मा जी मैदान के बीच पड़ी कुर्सी पर आ बैठे। केन्द्र के आसपास भाईयो, चाचाओं, पिताओं, मित्रों व भिन्न-भिन्न प्रकार के संबंधियों की भीड़ जुट चुकी थी। पीछे की खिड़कियों, रोशनदानों से प्रश्नपत्र का सामना करने के प्रचुर साधनों की झोंक शीतयुध्द की तरह गति पकड़ रही थी। लोगों में जाने कैसे यह बात फैल गई कि शर्मा अनुचित साधनों के लिए सहमत हैं, पर यह अंदर और चुपचाप चलना चाहिए। बाहर के बवंडर से वह डरता है। केन्द्र के कक्षों में फुसफुसाहट-भीर लूट का आलम हो गया। कोई कुंजी, किताब भीतर पहुँचते ही पुर्जे-पुर्जे हो बँट जाती।

घंटा-बजा- यानी एक-तिहाई समय समाप्त हो गया। अधिकांश कॉपियाँ खाली रहीं, कोरी की कोरी। बिना श्रम किए पा जाने के भरोसे परीक्षाा के लिए कोई तैयार ही नहीं की गई थी। सही उत्तारवाले पृष्ठ सामने थे, पर उनका लाभ उठाए, जाने का कौशल नहीं था। उन्हें तो बना-बनाया चाहिए था- शुरू से अंत तक।

परीक्षा-कक्षों की बेचैनी, व्याकुलता, हड़बड़ी तथा शोरगुल को अनदेखा, अनसुना करते केन्द्राध्यक्ष शर्मा कुर्सी पर गुमसुम बैठे थे। कभी-कभी ऑंखें बंद कर पीछे सिर टिका लेते, तो सोए-से दिखते । कभी बैठे-बैठे सारस की तरह सिर घुमा आसपास का जायजा ले लेते। वह केवल समय पूरा करना चाहते थे। गणित शर्मा को उन्होंने पास बिठा रखा था।