Natya purush - Rajendra lahariya - 6 in Hindi Moral Stories by राज बोहरे books and stories PDF | नाट्यपुरुष - राजेन्द्र लहरिया - 6

नाट्यपुरुष - राजेन्द्र लहरिया - 6

राजेन्द्र लहरिया-नाट्यपुरुष 6

क्यू में लगा बूढ़ा अब अपने साथ था - अपने भीतर- अपनी पीडि़त-कराहती अंतरात्मा के साथ...

बूढ़े का एक परिवार है, घर है...

कुछ समय पहले तक बूढ़े का घर कलाओं और कलाकारों का घर था... बूढ़ा ख़ुद एक नाटककर्मी-मंचकर्मी-रंगकर्मी; बूढ़े का इकलौता बेटा हिन्दुस्तानी क्लासीकल संगीत का एक कंपोज़र-गायक; बूढ़े की पुत्रवधु मोहिनीअट्टम की एक निष्णात नृत्यांगना; और बूढ़े का चौदह वर्षीय पोता एक तैयार होदा फ्लूटिस्ट! ...बूढ़े का घर हमेशा जैसे कलाओं के कलरव से गूँजता रहता था... (बूढ़े की पत्नी इस दुनिया में नहीं थी - वह एक असाध्य बीमारी के चलते कई वर्ष पहले इस फ़ानी दुनिया को त्याग कर चली गई थी। और बूढ़े के परिवार ने उस विवशतापूर्वक हुई मृत्यु की क्षतिपूर्ति अपनी कलाओं के द्वारा की थी।)

कला का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह मनुष्य को उसके भीतर की ओर ले जाती है। तो बूढ़े के परिवार के, खुद उस सहित चारों लोग अपने-अपने भीतर व्यस्त चले आ रहे थे: बूढ़ा प्राय: अपने नाट्य-मंच के साथ होता था; उसके बेटा बहू अपने-अपने रियाज़ में खोये रहते थे; बूढ़े का पोता अपनी स्कूली पढ़ाई के बाद के समय में उस्ताद से बाँसुरी सीखने भी जाता था...

बूढ़े का घर शहर के एक मध्यवर्गीय इलाके में था, जहाँ का माहौल प्राय: शांत और अंतर्मुखी था। बूढ़े के घर में ज़रूरी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। परिवार के पास एक छोटी कार थी, जिसका उपयोग आवश्यक होने पर बूढ़े के बेटा और बहू करते थे। वे दोनों ड्राइव करना जानते थे। उन दोनों में से किसी को भी जब अपना 'कार्यक्रम’ प्रस्तुत करने जाना होता था, तब वे कार से जाते थे। अलबत्ता पोते को स्कूल से लौटने और खाना खाने के बाद उस्ताद के यहाँ बाँसुरी के रियाज़ के लिए बूढ़े का बेटा प्राय: रोज़ ही कार से छोडऩे जाता था...

...उस दिन बूढ़े के बेटे ने कार निकाली थी; और वह ड्राइवंग-सीट पर बैठकर सीट-बैल्ट बाँधने लगा था। उसके पीछे ही बूढ़े का पोता आकर अपनी बाँसुरियों का बैग कार की पीछे वाली सीट पर रख कर अपने पिता की बग़ल वाली सीट पर बैठ गया था। सीट पर बैठने के बाद उसने भी सीट-बेल्ट बाँधा था... उसके बाद बूढ़े के बेटे ने 'वॉकमॅन’ ले कर कानों पर चढ़ा लिया था। यह उसकी आदत थी कि वह जब भी कार ड्राइव करता था, तब उसके कानों पर 'वॉकमॅन’ चढ़ा होता था और वह सारी दुनिया के शोरोगुल से मुक्त होकर अपनी पसंदीदा बंदिशें सुनता हुआ कार आगे बढ़ाता होता था - उस वक़्त कार की रफ्तार बीच-पच्चीस से अधिक नहीं होती थी और वह हमेशा सड़क की बायीं तरफ़ ही बना रहता था।

...उस दिन भी उसने 'वॉकमॅन’ कानों पर चढ़ाने के बाद कार स्टार्ट की और हस्बेमामूल अपनी बँधीबंधाई रफ्तार से कार को सड़क पर आगे बढ़ाने लगा था। ठीक तभी उसके बेटे यानी बूढ़े के पोते ने अपना स्मार्टफोन निकाल कर उसमें कुछ सर्च किया था, उसके बाद फोन में तार जोड़कर प्लग कानों में लगा लिये थे। उसे उसके पिता यानी बूढ़े के बेटे से यह हिदायत मिली हुई थी कि समय बड़ा कीमती होता है इसलिए उसे बिल्कुल भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए; और हर पल का सदुपयोग करना चाहिए - यहाँ तक कि कार में बैठने के समय का भी! और इस हिदायत के साथ ही उसे एक स्मार्टफोन लाकर दिया था, जिसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य बाँसुरी-वादकों, जैसे कि पंडित पन्नालाल घोष, पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया एवं पंडित रोनू मजूमदार आदि की रिकॉर्डिंग्स उपलब्ध थीं।... तो हिदायत के अनुसार बूढ़े के पोते ने उस वक़्त कार में सुनने के लिए पंडित रोनू मजूमदार की बजाई पहाड़ी धुन चुनी थी...

कार अपनी तयशुदा रफ्तार से सड़क की बायीं ओर चलती हुई अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। कार में बैठे पिता-पुत्र अपने-अपने में मगन थे। कहना चाहिए, कार ख़रामा: ख़रामा सरकती हुई यात्रा पर थी और उसके भीतर बैठे पिता-पुत्र अपने-अपने भीतर की यात्रा पर थे। उस समय उन दोनों को यह दूर-दूर तक आभास नहीं था कि वे कार में बैठ कर जिस सड़क पर चल रहे थे, उस पर उनके पीछे-पीछे 'सियासत की आँधी’ चली आ रही है! उन्हें तो उस वक़्त इस बात का भी इल्म नहीं था कि मुल्क में भले ही 'लोकतंत्र’ नामक व्यवस्था लागू है, परंतु जब कभी भी मुल्क में भले ही 'लोकतंत्र’ का कोई 'राजपुरुष’ (गद्दी पर बैठने के बाद पुरुष तो 'राजपुरुष’ होता ही है, स्त्री भी 'राजपुरुष’ ही होती है!) गुज़रता है, तब 'लोक’ उस सड़क पर होने-गुज़रने का हक़ खो देता है; और उस सड़क का चप्पा-चप्पा उस पर से गुज़र रहे 'राजपुरुष’ की जागीर हो जाता है! चलती कार में बैठे बाप-बेटा अभी अपने-अपने 'लोकल’ और 'इन्स्ट्रूमेंटल’ में मुबितला सड़क पर आगे बढ़ रहे थे कि उनके पीछे से आती 'राजपुरुष की सवारी’ उर्फ़ 'सियासत की आँधी’ उनकी कार के पीछे आ पहुँची थी। उस 'आँधी’ के मुहाने पर सैकड़ों की तादाद में धड़धड़ाती हुई मोटरसाइकलें चल रही थीं; मोटरसाइकलों के पीछे लगभग आधा सैकड़ा बड़ी-बड़ी-लंबी कारों की कॉन्वॉइ चल रही थी; और उन सबके पीछे लोकतंत्र के 'राजपुरुष’ की सवारी जेड श्रेणी की सुरक्षा-व्यवस्था के बीच चल रही थी! और आलम यह था कि 'सियासत की उस आँधी’ के चलने से सड़क गोया थर-थर कांप रही थी...

और उस वक़्त अपने पीछे आती उस 'आँधी’ से बेख़बर बूढ़े के बेटा और पोता अपने-अपने संगीत में खोये हुए थे। उनके पीछे धड़धड़ाती मोटरसाइकलें अपने हॉर्नों की कर्कश आवजों के द्वारा गोया उन्हें सड़क से हट जाने की लगातार मुनादी किये जा रही थीं। परंतु अपने कानों को सिर्फ़ संगीत के लिए सुरक्षित-बंद किये पिता-पुत्र के कानों तक वह 'मुनादी’ पहुँच ही नहीं पा रही थी। पिता-पुत्र सड़क की बायीं ओर र$फ्ता-र$फ्ता रेंगती-सी चलती कार में बैठे खुद में डूबे हुए थे। उस वक़्त उनके ज़ेहन में यह बात कहीं भी नहीं थी कि किसी 'राजपुरुष’ की हस्तछाया में मौजूद लोगो के नाखून छह-छह इंच लंबे हो जाते हैं और दाँत पैने-नुकीले एवं दस-दस इंच लंबे!

पर उन पिता-पुत्र के ज़ेहन में किसी बात के होने-न होने से क्या फ़र्क पडऩे वाला था! वे तो अब उस स्थिति के सामने थे: अचानक उन्होंने देखा कि उनकी कार के ठीक आगे चार-पाँच मोटरसाइकिलें आ कर रुक गई थीं जिनमें से हर एक पर दो-दो लोक सवार थे और जिन्होंने जाफ़रानी रंग के गमछों से अपने-अपने मुँह को लपेट रखा था। बूढ़े के बेटे ने यह देखा और कार को ब्रेक दे कर रोक लिया था। वह हैरत से सामने वालों को देख रहा था और समझ नहीं पा रहा था कि माजरा क्या है। इस बीच मोटर साइकल सवार उतर-उतर कर कार के गिर्द जमा हो गये। उनमें से एक ने अपने मुँह पर लपेटा हुआ जाफरानी गमछा हटाया और कार की डाइविंग-सीट की तरफ़ वाली विंडस्क्रीन के पास आकर शीशे को हाथ से ठोका। साथ ही वह कुछ कह रहा था, जो शीशा बंद होने की वजह से भीतर सुनाई नहीं दे रहा था। यह देख कर बूढ़े के बेटे ने कार का इंजन ऑफ़ कर, अपने कानों पर मौजूद 'वॉकमॅन’ उतारा और शीशा नीचे कर उसमें से प्रश्नवाचक निगाहों से सामने वाले की ओर देखा। इसी दरमियान बूढ़े के पोते ने भी अपने कानों में फँसे प्लग निकाल लिये थे: और वह भी स्थिति को समझने की कोशिश में लग गया था। कार का शीशा नीचे सरकने के साथ ही, उसके पास खड़े व्यक्ति ने कार के भीतर हाथ डालाकर ड्राइवर-सीट पर बैठे बूढ़े के बेटे के कुरते का कॉलर पकड़ कर कहा, ''बाहर निकल मादरचोद!... निकल बाहर!...’’

बूढ़े के बेटे के लिए यह नितांत अप्रत्याीिशत था। उसने कहा, ''बात क्या है?’’ और इसके साथ ही उसने कार का डोर खोल दिया था। उसे लेशमात्र भी अन्देशा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। ...डोर खुलते ही वह कार के बाहर खींच लिया गया था और फिर कार के पास खड़े गमछाधारी उस पर टूट पड़े थे - लातें, घूँसे, थप्पड़ मारते हुए वे चिल्ला रहे थे, ''क्यों बे, कितनी देर से हौरन बजा-बजा कर बता रहे थे कि हट जा... बगल को हट जा!... पर तू क्या किसी गवर्नर की औलाद है!... सुन ही नहीं रहा था मादरचोद!... क्या तुझे पता नहीं था कि मंत्रीजी निकल रहे हैं... पर तू टस से मस नहीं हो रहा था... क्यों बे? ...सड़क को अपनी बपौती समझता है!... क्यों बे...?’’ उन लोगों के मुँहों से लगातार फ़ाहश गालियाँ निकल रही थीं और वे लगातार हाथ-पैर चलाये जा रहे थे - घूँसे, थप्पड़, लातें मारे जा रहे थे - एक निर्विरोध बने हुए आदमी पर! बूढ़े का बेटा नीचे-ज़मीन पर गिरा हुआ था और वे लोग उसकी धुनाई करते रहे थे! कार के भीतर बैठे यह सब देखते बूढ़े के पोते की घिघ्घी बँधी हुई थी - वह लगातार रोये जा रहा था - अरण्यरोदन!...

जब उस मारपिटाई से उन गमछाधारियों का अहम संतुष्ट हो गया, तब वे अपनी-अपनी मोटरसाइकलों पर लदे आरै अपने मंत्रीजी के काफिले का हिस्सा बन गये थे। यह सब कुछ- मिनटों के भीतर हो गया था।

कुछ ही देर में मंत्रीजी उर्फ़ 'राजपुरुष’ का उन्मत्त काफ़िला वहाँ से गुज़र गया था!

उसके बाद उस सड़क पर गोया फिर मामूलियत उतर आई थी। पर क्या वास्तव में वह मामूलियत थी?

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