public consciousness in hindi poetry books and stories free download online pdf in Hindi

हिंदी कविता में जनचेतना

काव्य मानव चेतना की एक स्वत: संभूत प्रवृत्ति है जिसका संबंध चेतना के अंतरंग से है। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं अपितु वह समाज का सृष्टा निर्माता और प्रेरणादायक भी होता है। उसमें जन-जन में चेतना के प्राण फूंकने की अटूट सामर्थ भी होती है जीवन और कविता का संबंध अनादिकाल से रहा है हिंदी कविता अतीत का अनुशीलन बताती है कि समाज के मृत प्राय होते जीवन को सदैव कविता कामनीं की संजीवनी ही चेतना वान बनाती रही है

काव्य उत्थान की दृष्टि से विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है क कविता में जनचेतना का प्रथम चरण भारतेंदु हरिश्चंद्र से ही प्रारंभ हो गया था। शताब्दियों से भक्ति या श्रंगार के रंग में रंगी केवल चुंबन और आलिंगन में जकड़ी हुई हिंदी कविता का भारतेंदु ने सर्वप्रथम वित्त भवन और कुंजो से बाहर लाकर लोक जीवन के राजपथ पर लाकर खड़ा कर दिया। हिंदी कविता में सर्वप्रथम समाज के हृदय की धड़कन को सुना गया सामाजिक क्षेत्र मैं मत मतातर के झगड़े जाति पात के टंटे खानपान के पचड़े बाल विवाह पराधीनता दासता उदारहीनता आदि जीवन के यह भिन्न-भिन्न स्वर उनकी वेणु से प्रसूत होने लगे थे भारतेंदु का स्वर का स्वर था काव्य का स्वरूप बदला भाव बदला शताब्दियों से रुग्ण हिंदी कविता कामिनी मानो पुनः चेतना वान होन

हिंदी कविता की इस नवीन जन चेतना ने जो भारतेंदु युग में शैशवावस्था में थी द्विवेदी युग में अपनी बाल्यावस्था कौमार्य और किशोर सभी अवस्थाएं पार कर, यौवन के सिंह द्वार पर चरण निक्षेप कर हिंदी के युग प्रवर्तक लेखक कवि और आचार्य संपादक प्रवर द्विवेदी जी की लोह लेखनी से निर्मित जन चेतना के कलेवर द्वारा पालित और पोषित होकर कविता कामनी संवर्धित समर्थ और सशक्त बन सकी उनकी साधना आज भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित है उसी साधना की सिद्धि आज का समग्र हिंद है
बीसवीं सदी में आकर तो कवि का अपना सुख दुख जनता के सुख-दुख के साथ एकाकार हो गया और कवियों की लेखनी ने सर्वजन हिताय लिखना प्रारंभ कर दिया और कवि की अंतरंग चेतना ही कविता के रूप में समग्र चेतना सांस्कृतिक चेतना नारी चेतना और राष्ट्र चेतना आदि विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित हो गई ऐसी जनजागृति से प्रेरित होकर की मैथिलीशरण गुप्त कह उठते हैं कि

हम कौन थे क्या हो गए
और क्या होंगे अभी
आओ विचारे बैठकर
यह समस्याएं सभी

यह समस्याएं मुट्ठी भर दाने से लेकर राष्ट्र के नैतिक पतन तक विशाल होकर समय-समय पर कवि के अंतर्मन को कचोट रही हैं तभी तो एक भिक्षुक की करुण दशा को देख कर निराला कह उठते हैं

वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता
पेट पीठ दोनों मिलकर है एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
मुंह फटी पुरानी झोली का फैलाता

इसी प्रकार कभी निराला की वाणी में श्रमिक नारी के स्वर घूमते हुए सुनाई पड़ते हैं

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर

कवि हृदय इस जन पीड़ा से केवल द्रवीभूत ही नहीं है अपितु कवि वाणी चेतना के स्वर फुकने में भी सक्षम है दिनकर के शब्दों में

कर आदेश फूंक दूॅ भ्रगी
उठे प्रभाती राग महान
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागे सुप्त भुवन के प्राण

जाति पात के भेदभाव पर उंगली उठाने वालों पर तीखा प्रहार करते हुए करण के माध्यम से जन चेतना का शंख फूकते हुए निराला जी कहते हैं

पूछो मेरी जाती शक्ति हो तो मेरे भुजबल से
रवि समान दीपित ललाट से और कवच कुंडल से

निराला ने कर्ण को नई मानवता का प्रतीक बनाना चाहा है करण के ही शब्दों में

मैं उनका आदर्श किंतु जो तनिक न घबराए
निज चरित्र बल से समाज में पद विशिष्ट पाएंगे
सिंहासन ही नहीं स्वर्ग भी जिसे देखता होगा
धर्म हेतु धन धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा


और अपनी इसी संकल्प शक्ति के बल पर वह उद्घोष करते हैं

हटो व्योम के मेघ पंथ से
स्वर्ग लूटने हम आते हैं

यदि जनचेतना अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः जाग उठे तो निश्चय ही सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत का वह स्वर्णिम भूतकाल फिर से वर्तमान में साकार हो उठेगा कवि दिनकर आश्वस्त होकर कहते हैं

प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने
वर्तमान की चित्र पट्टी पर
भूतकाल संभाव्य बने

दिनकर ने चक्रवात की भूमिका में स्वयं लिखा है की ---"मेरी कविता के भीतर जो अनुभूतियां उत्तरी विशाल भारती जनता की अनुभूतियां हैं यह शक्ति मुझ में भारतीय जनता की आतुरता को आत्मसात करने से स्फूरित हुई हैं" अन्यत्र उन्होंने लिखा है--" मैं तो कालका चारण हूं और उसी के संकेत पर जीवन की टिप्पणियां लिखा करता हूं"

किसी एक कवि द्वारा जनचेतना ला देने से कविता का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता क्योंकि जनचेतना तो हर युग में प्रत्येक कवि द्वारा लाने की चीज है किसी कवि ने ठीक ही कहा है

चार डग हमने भरे तो क्या किया
है पड़ा मैदान कोसों का अभी

श्री जयशंकर प्रसाद के शब्दों में

इस पद का उद्देश्य नहीं है
श्रांत भवन में टिक रहना
किंतु पहुंचना उस सीमा पर
जिसके आगे राह नहीं है

वास्तव में सरल व मधुर वाणी में उपदेश देकर जन जन का पथ प्रदर्शन करना ही काव्य कर्म है मैथिलीशरण गुप्त ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए

इसी कवि कर्म की पूर्ति हेतु कवि जनमानस को सत्कर्म कर जीवन सार्थक बनाने की सलाह देता है

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ ना हो

श्री गिरधर शर्मा शिशु की लोरी में भी उपदेश ही सुनाते हैं

करना ऐसे काम मनोहर
गर्व करें भारतवासी
जन्मभूमि फूली न समांवे
नई नई सुख संपति पावे

पंडित अयोध्या सिंह हरिओध भी कर्म करने की तथा संकट के समय हिम्मत से काम लेने की शिक्षा जन-जन तक पहुंचाना चाहते हैं उन्हीं के शब्दों में

देखकर जो विघ्न बाधाओं को घबराते नहीं
मार्ग पर रह कर के जो पीछे हैं पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो पर जो उकताते नहीं
सब जगह सब काल में रहते हैं वह फूले फले

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो प्रेम का आदर्श ई करण भी लोक सेवा में देखा जिससे वसुधैव कुटुंबकम का आदर्श चरितार्थ हो सके वे कहते हैं

परहित में रत रहो प्यार सबको करो
जिसको देखो दुखी उसी का दुख हरो
वसुधा बने कुटुंब प्रेम धारा बहे
मेरा तेरा भेद नहीं जग में रहे

आदर्श की प्रतिष्ठा ही कविता कला का उपाश्य है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण की वाणी इस बात की प्रमाण है साकेत में वे कहते हैं

हो रहा है जो यहां सो हो रहा
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?
किंतु होना चाहिए कब क्या कहा?
व्यक्त करती है कला ही वह यहां

अतः कवि सदैव ही कर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है


चलो सदा चलना ही तुम्हारा श्रेय है
खड़े रहो मत कर्म मार्ग विस्तीर्ण है

और यह विस्तीर्ण मार्ग ही दीन हीन दलित शोषित पीड़ित लोगों की दयनीय दशा के प्रति द्रवीभूत होकर कवि कर्म बन जाता है कवि कहता है

दीन हीन के अश्रु नीर में
पतितो के परिताप पीर में
संध्या के चंचल समीर में
करता था तू ज्ञान
सरल स्वभाव कृषक के दल में
पतिव्रता रमणी के बल में
श्रम सीकर से सिचित धन में
संशय रहित भिक्षु के मन में
कवि के चिंता पूर्ण वचन में
तेरा मिला प्रमाण

कवि केवल दलित पीड़ित मानव के दुख से ही नहीं अपितु कृषि हृदय के दुख में भी चीत्कार कर उठता है गोवध के जघन्य पाप पर कवि की वाणी गाय के स्वर में द्रवित हो उठती है

दांतो तले हैं तृण दवा कर दिन गाय कह राही हैं
हम पशु और तुम मनुज हो पर योग्य क्या तुमको यही?
हमने तुम्हें मां की तरह है दूध पीने को दिया
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया

मां सदृश्य गाय का वध अनैतिकता की इस पराकाष्ठा को देखकर कवि का हृदय चीत्कार कर उठता है केदारनाथ अग्रवाल के शब्दों में

एक और बनता ही चला जा रहा है
निर्माण का हिंदुस्तान
दूसरी ओर गिरता ही चला जा रहा है
ईमान का हिंदुस्तान

देश में महंगाई बेकारी भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं देश की गिरती नैतिकता वीरेंद्र मिश्र के शब्दों में

नीलगगन सा बेकारी का साया है
कुंहूं निशा सी महंगाई की छाया है
शासन का दीपक मरघट सा जलता है
रिश्वत का रथ राजमार्ग पर चलता है

इस रिश्वत के रथ पर सवार होकर आज का मानव पूंजीवाद का दास हो चुका है श्री विष्णु शर्मा के शब्दों में

हमारे स्वाधीनता के वीर सिपाही
शराब और गाजे के परमिट बेच रहे हैं
तिलक का गीता रहस्य
बनिए ने खरीद लिया है

सुमित्रानंदन पंत जैसे कवि की वाणी जन-जन में पुनः श्रम की आस्था को जागृत करना चाहती है वे श्रमिकों को लोक क्रांति का अग्रदूत बना कर सम्मानित करते हैं श्रमिकों में असाधारण सहनशीलता है नैतिक श्रेष्ठता है संघर्ष करने की दृढ़ता है उनमें अटूट पौरुष और अदम्य साहस है कवि कहता है


लोक क्रांति का अग्रदूत वर वीर जनाद्रत
नव सभ्यता का उन्नायक शासक शासित
चिर पवित्र वह भय अन्याय घृणा से पालित
जीवन का शिल्पी पावन श्रम से प्रक्षालित

अंत तो हम कह सकते हैं कि एक सच्चे कवि की अनुभूति मैं जन सामान्य की भावनाएं ही समाहित रहती हैं उनके दुख से एकाकार होकर ही कवि हृदय जन-जन में चेतना लाने का बीड़ा उठाता है और तभी उसकी लेखनी कवि हृदय की जन चेतना को वाणी रूप में साकार कर पाने में सक्षम होती है कवि वाणी कह उठती है

मैं आस्था हूं
मुझ में निरंतर उठते रहने की शक्ति है

जो मेरा कर्म है उसने मुझे किंचित भी संशय नहीं है

इति