राजेन्द्र लहरिया-नाट्यपुरुष 8
.. उसके बाद एक दिन, एक खबर बूढ़े के हाथ लगी थी... वह ख़बर उसे 'महामहिमावान’ के अभिनंदन के लिए लगी क्यूं में ले आई थी...
...तो बूढ़ा क्यू में लगा हुआ था...
उसने एक बार फिर अभिनंदन-मंच की ओर देखा: अब वह 'महामहिमावान’ के अभिनंदन-मंच से थोड़ी-सी ही दूरी पर था। उसने अपने आगे लगे लोगों को गिना- कुल चार थे!... उसने एक बार फिर माथे पर आ गया पसीना पोंछा था।
और फिर वह पल आ पहुँचा, जिसका इंतज़ार करते हुए बूढ़ा इतने समय से क़तार में लगा हुआ था: अब वह 'महामहिमावान’ के ठीक सामने था। उसके हाथों में गेंदा के फूलों की बनी माला थी। उसने 'महामहिमावान’ के पद और प्रतिष्ठा के दर्प से चमकते चेहरे की भाव-भंगिमा को देखा... और अगले ही पल बूढ़े का माला को थामे कमज़ोर-सा दीखता हाथ, माला को छोड़कर, एक ख़ास वक्रता के हाथ हवा में लहराया और अपने ऊपर का आकाश नापता हुआ पूरे ज़ोर के साथ 'महामहिमावान’ के मुँह के ऊपर पड़़ा था। इसके साथ ही बूढ़े की देह और मुखमुद्रा में नाट्यभंगिमा नमूदार हो उठी थी: वह अब 'महामहिमावान’ की आँखों में देखता हुआ चीख रहा था, ''बताओ! 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति से संपन्न होकर तुम कैसे बन गये 'लोक’ के ही भक्षक?.. 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति के कारण इतराते तुम अपने-आप को कैसे मान बैठे 'लोक’ के ऊपर?... बताओ, तुम बर्बर! यह ज़मीन - देश के नक्शे की ज़मीन क्या तुम्हारी बपौती है?... क्या इस पर चलने का हक़ सिर्फ़ तुम्हारा है कि छेंक दी जायें तुम्हारे लिए चौड़ी-चौड़ी सड़कें; और 'लोक’ सिमट जाये एक तरफ़ को या दुबक जाये अपने-अपने घर में! ...तुम नृशंस ऐसे कि अपने रसूख और रूदबे की रक्षा के लिए अपने मार्ग में आ गये मासूम 'लोक’ को बर्बरता के साथ कुचल डालने पर आमादा..!’’ बूढ़ा लागातार अपने ज़ेहन में मौजूद नाटक के संवाद चीख-चीख कर बोल रहा था, ''तुम बर्बर! ...इंडिविजुअल नहीं हो तुम... तुम समूह हो - एक प्रवृत्ति हो! 'लोक’ की सौंपी शक्ति से उन्मत्त तुम...!’’
अभिनंदन-मंच पर अफरातफरी मच गई थी!... बूढ़े को सुरक्षा के कठोर हाथों में जकड़ लिया गया था।
(2)
बूढ़ा अब मुकदमें का सामना कर रहा था...
ट्रायल-कोर्ट के घुटन-भरे और बोसीदा-से कक्ष में वह दी गई हर तारीख़ को पर समय पर पहुँचता था। ....कार्यवाही के दौरान उसे कठघरे में खड़ा होने को कहा जाता, तो वह बिना हिचके कठघरे के भीतर जाकर खड़ा हो जाता था। कठघरे के भीतर खड़ा-खड़ा वह कोर्ट-कार्यवाही-डायस पर कुर्सी पर बैठे ज्यूडिशियल मस्जिस्ट्रेट फस्र्ट क्लास (जेएनएफसी) की मुखमुद्राओं, डायस के पास खड़े वकीलों के हाव-भावों और विटनेस-बॉक्स में मौजूद साक्षियों के बयान होते देखता रहता। साथ ही वह कोर्ट के पेशकारों - जो कक्ष की एक तरफ़ की दीवाल से सटी रखी अलमारियों के पास लगी टेबिलों के पीछे बैठे अपनी-अपनी टेबिल पर रखी फाइलों में कुछ कर रहे होते थे - और कोर्ट कक्ष के दरवाजे के पास खड़े अर्दली; और कोर्ट-कक्ष में आने-जाने वालों को भी देखता रहता। कठघरे के भीतर खड़े होने के बावजूद बूढ़े की मुद्रा में किसी तरह ही हीनभावना की झलक तक नहीं होती थी। उसकी वेशभूषा भी वही थी - जींस के पैन्ट-कुरता, पैरों में चप्पलें और कंधे पर टँगा डिज़ाइनर झोला। कठघरे में देर तक खड़े होने की ऊब के चलते वह कभी कभार झोले में से कोई किताब निकालता और खड़े-खड़े पढऩे लगता। उससे संबंधित कार्यवाही पूरी हो जाने पर उसे कठघरे से बाहर निकलने के लिए कह दिया जाता; तो वह कठघरे से बाहर निकल कर संबंधित पेशकार के पास पहुँच कर खुद से संबंधित फाइल पर दस्तख़त करता और अगली पेशी की तारीख़ जान कर अपने घर को रवाना हो जाता था।...
... इस तरह से मुकदमे का सामना कर रहा था बूढ़ा!
''तो इसी क्रम में अगली पेशी के लिए मिली तारीख को बूढ़ा समय पर कोर्ट-कक्ष में पहुंच कर दीवाल से सटी रखी बैंच पर बैठ गया था। कुछ समय बाद उसे विटनेस-बॉक्स में जा कर खड़े होने को कहा गया; तो वह चल कर विटनेस-बॉक्स में खड़ा हो गया। अब तक उसे कठघरे में खड़ा किया जाता रहा था; पर उस दिन विटनेस-बॉक्स में खड़ा किया गया था। उसके विटनेस-बॉक्स में पहुँचते ही, डायस की कुर्सी पर बैठे जेएमएफसी ने उसकी ओर देखा और कहा, ''तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?... यदि हाँ, तो कहो!’’
सुनकर बूढ़े ने कुर्सी पर बैठे तक़रीबन पचास वर्षीय जेएमएफसी के चेहरे पर देखा; फिर कहा, 'मुझे जो कुछ कहना था, मैं कह चुका हूँ...’’
''कह चुके हो? लेकिन कब?’’ कहते हुए जेएमएफसी ने बूढ़े के चेहरे पर देखा, ''अभी तक तो तुम कठघरे में रहे थे... सफाई में कुछ कहने के लिए तो आज ही यहाँ बुलाया गया है...?’’
सुनकर बूढ़ा बोला, ''ठीक कह रहे हैं आप... सफाई में कुछ कहने के लिए तो मुझे आज ही यहाँ बुलाया गया है... पर मुझे जो कुछ कहना था, उसे मैं अपने उस मंच से कह चुका हूँ जो मेरे भीतर भी मौजूद है और बाहर भी...’’ कह कर बूढ़े ने अपना हाथ विटनेस-बॉक्स के चौखटे के ऊपर से कुछ इस अंदाज़ में उठाया, जैसे वह किसी के बारे में इंगित कर रहा हो; फिर आगे कहा, ''उनका एक मंच होता है... आपका भी एक मंच है...’’ कह कर उसने उँगली से डायस की ओर इशारा किया, और आगे कहा, ''... इसी तरह मेरा भी एक मंच है... रंग-मंच!... मुझे जो भी कुछ कहना होता है, उसे मैं अपने मंच से कह देता हूँ...’’
यह सुनकर जेएमएफसी ने किंचित् हैरानी के साथ, विटनेस-बॉक्स में खड़े बूढ़े को देखा - ऊपर से नीचे तक; फिर उसकी आँखों की तरफ़ देखा: बूढ़ा गोया न्याय की आँखों में आँखें डाले, अपनी दुबली काया के साथ विटनेस-बॉक्स में तन कर खड़ा हुआ था!...
राजेन्द्र लहरिया
जन्म : 18 सितम्बर 1955 ई. को, मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के सुपावली गाँव
शिक्षा स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) कहानी-संग्रह आदमीबाजार, यहाँ कुछ
•प्रकाशित कृतियाँ
आदमी बाजार,यहां कुछ
लोग थे, बरअक्स, युद्धकाल
जगदीपजी की उत्तरकथा, आलाप-विलाप, यातनाघर, यक्षप्रश्न-त्रासान्त (दो लघु उपन्यास)
सन् 1979-80 के आसपास से कथा-लेखन की शुरुआत एवं बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक के कथाकार के तौर पर पहचाने जाने वाले प्रमुख कथाकारों में शुमार। तब से अद्यावधि निरंतर रचनारत।
हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।
अनेक कहानियाँ महत्त्वपूर्ण कहानी संकलनों में संकलित।
कई कथा-रचनाओं का मलयालम, उर्दू, ओड़िया, मराठी आदि भारतीय भाषाओं एवं अंग्रेजी भाषा में अनुवाद ।
संपर्क: EWS-395, दर्पण कालोनी, थाटीपुर, ग्वालियर 474011 (म.प्र.)
दूरभाष: 09827257361