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मेरा नैनीताल, तेरा नैनीताल

मेरा नैनीताल, तेरा नैनीताल:

मैंने कभी सोचा नहीं था मैं उससे इतना जुड़ जाऊँगा। वह मुझे अच्छी लगती थी,दूर से। वह मेरे पास आती थी जैसे समय आता है और चली जाती थी जैसे समय जाता है। जाड़ों की ठंडी हवाओं में प्यार दौड़ता है और गर्मी आते-आते परीक्षा की सीढ़ियां चढ़ने लगता है। पहाड़ियां पहले की तरह अचल-अटल होती हैं। धूप अपना स्वभाव बदल चुकी होती है। वह प्यार वायवी सा, टलीदार हो चुका है। थिगलीनुमा मेघों सा आकाश में लटका। अपनी सोच के अनुसार वह गोते खाता है।पकड़ कर स्थिर करने का प्रयत्न तब नहीं होता है। सालों बाद स्मृतियां फुरफुराती आती हैं और कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर बैठ जाती हैं। नैनीताल की एक मनमोहक फोटो को देखकर लिख बैठता हूँ-

"मैं यादों को पकड़ लूँगा
झील के किनारे चलकर,
पहाड़ियों पर चढ़-उतरकर
नाव में स्वयं को भुलाकर।

चाहे, तुम अद्भुत से अद्भुत हो जाओ
उन जाड़ों के दिनों पर,
बर्फ की परतों पर
मैं यादों का घूंघट चढ़ा लूँगा।

स्वयं को विस्मृत कर
तुम्हारे साथ बैठ जाऊँगा,
घंटों फिर पूछूंगा नहीं
बस, समय को देखता रहूँगा।

वह वृक्ष याद आता है जिसके नीचे, मैं उससे मिला करता था। यह वृक्ष बोधिवृक्ष जैसा तो नहीं था जहाँ भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। लेकिन उससे कम भी नहीं कह सकता हूँ जहाँ आत्माएं स्नेहिल संवाद करती थीं।
प्यार के नीचे जीवन अद्भुत होता है। उसे बार-बार देखने को मन करता है।फेसबुक पर "नैनीताल लवर्स" में इतनी फोटो नैनीताल की आती हैं कि लगता है सुरसुरी हवा वहीं से आ रही है। कालिदास के "मेघदूत" की याद आ जाती है। फोटोज में सुबह का नैनीताल, दोपहर का नैनीताल, शाम का नैनीताल, फिर रात का नैनीताल आदि। या १९७४ का नैनीताल,१९५० का नैनीताल,१९२० का नैनीताल, १८४२ का नैनीताल,बर्फ से ढका नैनीताल, मेरा नैनीताल, तेरा नैनीताल आदि। या टिफिन टोप,स्नोव्यू, नैनापीक आदि से दिखता नैनीताल। हर फोटो आकर्षित करती है और मैं उनमें आत्मीय क्षणों को ढूंढने का प्रयास करने लगता हूँ।
मैं मल्लीताल से तल्लीताल आता हूँ। फिर नाव में मल्लीताल की ओर चल देता हूँ। भटकाव अपने आप में कभी-कभी आन्दोलित करता है। बिना लक्ष्य के चलने में प्यार की अनुभूतियां जीवित होने लगती हैं। मैं उस वृक्ष को खोजता हूँ जहाँ हम साथ-साथ थे। लेकिन अब अकेला खड़ा हूँ। एक चढ़ाई चढ़ने के बाद ही उस वृक्ष पर पहुँचा हूँ। वृक्ष पर फूल खिले हैं। कुछ लतायें उससे लिपटी हुयी हैं। पक्षियों का कलरव भी है। मेरी सांसों में थकान भरी है और अन्दर कुछ गुदगुदाता,चहकता सा है। बच्चे जो वहाँ से गुजर रहे हैं, वे मेरी भावनाओं से अनजान हैं। उस वृक्ष के नीचे क्या बातें हुयी थीं, वे मुझे अक्षरशः याद नहीं आ रही हैं। तब मैं उसे देखा करता था,अब वृक्ष को देख रहा हूँ। इतना याद है,अधिकांश समय मौन में बीत जाता था।उस आभामंडल को टूटने में देर नहीं लगती थी। कोई फूल टपक पड़ता था या हवा धक्का देने आ जाती थी। या बगल से गुजरते उसके साथी एक संयत,संतुलित,मधुर टिप्पणी दे जाते थे। कहने को मन होता है-
"बैठो,उठो मित्रो, कुछ देर आँखें मूँद
अतीत को उघाड़ लो,
फटी किताब की तरह नहीं
खिले, बड़े फूल की तरह। ---

* महेश रौतेला