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कालिदास के प्राकृतिक सौंदर्य में कौटुंबिक संबंध

किसी भी काव्य में चित्रित प्रकृति सौंदर्य को उदात्त ,अनुपम तथा अनूठी शोभा से मंडित करने हेतु उसमें मानवीय भावनाओं का समावेश होना अत्यावश्यक है। मानव के समान प्रकृति भी प्राणमयी है । चेतना युक्त है । प्रकृति एवं सौंदर्य और प्रेम के कवि कालिदास के काव्यों में सर्वत्र ही प्रकृति में मानव की तथा मानव में प्रकृति की छाया परिणत होती हुई दृष्टिगोचर होती है। प्राकृतिक सौंदर्य में इसी मानवीय भावना के मानवीकरण के कारण ही वह चेतनावान बन गया है। कालिदास के काव्य में प्रकृति के साहचर्य में मानव का मनो- जगत अपने पूर्ण वैभव के साथ उद्द्घटित हुआ है। वस्तुतः प्रकृति के वन के वातावरण में रहकर ही मानव भावनाऐ सौंदर्यउन्मुखी होती है और तभी वह जीवन में छिपे सौंदर्य को ढूंढने में सफल होती है। मानव के सानिध्य के कारण ही कालिदास के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लग गए हैं।

कौटुंबिक संबंध

प्राकृतिक सौंदर्य में मानवीकरण की भावना बलवती होने के कारण ही कालिदास ने अनेक स्थानों पर प्रकृति के साथ मानवीय पात्रों का कौटुंबिक संबंध भी स्थापित किया है।

पुत्र स्नेह

कालिदास के अधिकांश पात्रों में प्रकृति के प्रति पुत्र स्नेह की भावना का पल्लवन होता हुआ देखा जा सकता है। रघुवंश में देवदारू वृक्ष को शिव का पुत्र माना गया है---

"देखा ! वह सामने शिव से पुत्री कृत देवदारू का वृक्ष है । जिस प्रकार उमा का स्तनपान करके कार्तिकेय ह्रष्ट पुष्ट हुए उसी प्रकार उन्होंने हेमकुंभ के गंभीर हृदय से उदगीर्ण सुधा रस से सीच कर इसको लालित किया है "। रघुवंश 2/2

मेघदूत मैं यक्ष प्रिया ने भी अपने घर के आंगन में लगे कल्पवृक्ष को पुत्र की तरह पाला है। अभिज्ञान शाकुंतलम् में भी शकुंतला विदा होते समय पिता से कहती है---" हे तात ! मैं अपनी बहन वन ज्योत्सना लता से भी अंतिम विदा लेना चाहती हूं"---- वह चलने में रुकावट का अनुभव करती है और कहती है ----"अब यह कौन मेरा आंचल पकड़ कर खींच रहा है?" तब कण्व ऋषि उत्तर देते हैं -----"हे पुत्री ! कुशा के कांटे से छिंदे हुए जिसके मुख को अच्छा करने के लिए तुम उस पर हिंगोट का तेल लगाया करती थी, वही तेरे हाथ से दिए हुए मुट्ठी भर साॅव के दानों से पला हुआ पुत्र के समान प्यारा हिरण मार्ग रोके खड़ा है"---

यस्य त्वया ब्रण विरोपणभिंगदोनां
तेलं न्यविच्यत मुखे कुश सूनिविद्धे ।
श्यामा कुमुष्टिं परिवर्धितको जहाति
सोयम् नः पुत्र कृतक: पदवीं मृगस्ते ।। अभिज्ञान शाकुंतलम्


सर्वदमन द्वारा सिंह शावक के दांत गिनने का हट करते समय भी तपस्विनी उन पशुओं को अपनी संतान तुल्य ही बताती हुई कहती हैं किं----

अविनीत किं न खलु अपत्य निरविशेषाणि सत्वानि विप्रकरोषि। अभिज्ञान शाकुंतलम् 7/14 के बाद
अर्थात रे नटखट ! जिन पशुओं को हमने संतान तुल्य पाला है उन्हें तू क्यों इतना सताया करता है ?

पूर्व मेघ में भी मयूर को पार्वती के पुत्र तुल्य ही बताया गया है----

"हे मेघ जब तुम वहां गर्जना करोगे तो कार्तिकेय का मयूर प्रसंता के साथ नाच उठेगा । पुत्र तुल्य उस मयूर के झड़े हुए पंख को पार्वती अपने पुत्र पर प्रेम दिखाने के लिए अपने कान में लगा लेती थी" । पूर्व मेघ 44

निसर्ग कन्या शकुंतला


कालिदास की शकुंतला तो निसर्ग कन्या है। कवि ने शकुंतला को प्रकृति सुंदरी के रूप में देखा है और उसका लता ,वृक्ष, मृग शावक और मयूर से कौटुंबिक संबंध स्वीकार किया है। संपूर्ण चित्रण इस प्रकार अंकित है कि शकुंतला उस तपोवन में खिली हुई एक पुष्प लता के समान दिखाई देती है । कवि ने भोली उभरती हुई आरुढ योवना नारी के तन मन का अद्भुत साक्षात्कार किया है। प्रकृति सुंदरी शकुंतला मानो प्राकृतिक सौंदर्य का ही एक अंग है। अभिज्ञान शाकुंतलम् के प्रथम अंक में ही केसर वृक्ष में पानी देती हुई शकुंतला से प्रियंवदा कहती है कि ----"रुक जाओ ! तुम्हारे यहां रुकने मात्र से ही केसर का वृक्ष लता से संयुक्त लगता है। प्रकृति सुंदरी के रूप में कवि ने उसकी उपमा लता के साथ देकर दांपत्य संबंध स्थापित किया है ।"


प्रकृति की गोद में जन्म लेने वाली तथा नैसर्गिक वातावरण में ही पली वह प्रकृति सुंदरी तपस्वी कन्या शकुंतला दुष्यंत के लिए विद्युत लता और सखियों के लिए नव मालिका थी। जब सखियां प्रकृति के प्रति उसके अनन्य प्रेम का कारण पूछती है तो वह कहती है----" न केवलम लता नियोगे अस्ति में सहोदर स्नेह अपि ऐतेषु "-----। अर्थात मुझे उनसे सहोदर भ्राता की तरह स्नेह है। सहोदर स्नेह ----और वह भी जड़ प्रकृति के वृक्षों से? इतनी अनन्यता के साथ केवल भावुक और कोमल हृदय वाली शकुंतला के लिए ही संभव है। जन्म से लेकर संधि काल तक प्रकृति के अतिरिक्त जिसने कुछ जाना ही नहीं , ऐसी शकुंतला से जब अनसूया पूछती है कि -----"तुम क्या सहकार वृक्ष की स्वयमेव वधू वन ज्योत्सना को भूल गई हो?---- तब वन ज्योत्सना पर बहन की तरह स्नेह रखने वाली शकुंतला का उत्तर अत्यंत सुंदर है। वह कहती है कि

तदात्मानं अपि विस्मरिष्यामि

अर्थात जिस समय वन ज्योत्सना को भूल जाऊंगी , उस समय में अपने आप को भी भूल जाऊंगी। आश्रम की संपूर्ण प्रकृति के प्रति शकुंतला का स्नेह असीम है। उसे भली-भांति विदित है कि किन लताओं में स्तवक प्रकट हुए , कव उनमें मंजरियाॅ दिखाई पड़ी । इन सब का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने वाली शकुंतला प्रकृति में पूर्णरूपेण अपनत्व की भावना अंगीकार किए हुए हैं। ऐसे अनेक उदाहरण से अभिज्ञान शाकुंतलम् का चतुर्थ अंक भरा पड़ा है।

शकुंतला की विदा के समय ऋषि का कथन की युक्ति सार्थक है । वे कहते हैं कि ----"जो वृक्षों को पानी पिलाए बिना पानी नहीं पीती थी, सम्राट दिलीप की गौ सेवा से भी अधिक कठोर साधना का पालन करने वाली, फूल पत्तों को भी व्यर्थ न तोड़ने वाली , वृक्ष में पुष्प आने पर उत्सव मनाने वाली शकुंतला जा रही है, आप लोग आज्ञा प्रदान करें। वह मेरी ही नहीं संपूर्ण
वनस्थली की पुत्री है" ।

पातुम् न प्रथमं व्यवस्यति जलम् युष्मास्वपीतेषु या
ना दत्ते प्रिय मंडता अपि मयताम स्नेहेन या पल्लवम् ।
आद्यै व : कुसुम प्रसूति समये यस्याभति उत्सव:
सेयं याति शकुंतला पति ग्रहं सर्वेरनुज्ञायताम् ।।

नाटक का यह सर्वाधिक रमणीय पक्ष हृदय के मर्म स्थल को छूने वाला है। कोयल की वाणी के रूप में सहकार वृक्ष ने अपनी अनुमति प्रदान की । उसे जाता देख कर मृगो ने दूर्वा खाना छोड़ दिया, मयूरो ने नृत्य करना छोड़ दिया। पीले पीले पत्ते गिरा कर मानो वृक्ष अश्रु विमोचन कर रहे हैं । शकुंतला का प्रकृति के प्रति असीम अनुराग के कारण ही यह वर्णन अधिक मार्मिक बन पड़े हैं।

शकुंतला गर्भवती मृग वधु को भला कैसे विस्मृत कर सकती है। वहां स्वयं भी तो उसी अवस्था में है। वह जाते समय अपने पिता महर्षि कण्व को स्मरण दिलाती हुई कहती है कि-----

यह मृग वधू सुख पूर्वक प्रसव करें तब मुझे इसकी सूचना अवश्य ही प्रदान करें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति सुंदरी शकुंतला के नारीत्व का कुसुम किसी प्राकृतिक वातावरण में ही पूर्ण पुष्पित हुआ है। महर्षि कण्व भी शकुंतला और नव मालिका में समान भाव रखते हुए कहते हैं----" आम्र से लिपटी नव मालिका के प्रति जैसे मैं निश्चिंत हो गया हूं वैसे ही तुम्हें भी रूप गुण संपन्न सर्वथा योग्य वर प्राप्त हो गया है "।


दांपत्य संबंध


महाकवि कालिदास प्रकृति का मानवीकरण करते समय या प्रकृति में मानव भावना खोजते खोजते इतने तल्लीन हो गए हैं कि वे प्रकृति में परस्पर दांपत्य संबंध भी स्थापित करने में नहीं चूके हैं। यह संबंध नदी ----सागर के बीच, सहकार---- वन ज्योत्सना के बीच-तथा पर्वतराज हिमालय और मैंना के बीच स्पष्ट रूप से दिखा देते हैं। दांपत्य सुख के क्षेत्र में समुद्र मानव से भी अधिक भाग्यशाली है। दूसरे लोग तो केवल स्त्रियों का अधर पान करते हैं, अपना अधर उन्हें नहीं पिलाते हैं ,परंतु समुद्र इस बात में औरों से बढ़कर है क्योंकि जब नदियां ढीठ हो कर चुंबन के लिए अपना मुख इनके सामने बढ़ाती है , तब वह बड़ी चतुराई से अपने तरंग रूपी अधर उन्हें पिलाता है और उनका अधर स्वयं पीता है ।


मुखार्पणेषु प्रकृति प्रगल्भा: स्वयं तरंगाधर---दान दंश:।
अनन्य सामान्य कलत्र वृत्ति: नयसौ पाययते च सिंधु:।। रघुवंश 13 /9

सुमेरू के मित्र और मर्यादा को जानने वाले हिमालय ने अपना वंश चलाने के लिए मैना नामक कन्या से विवाह किया ,जिन्हें संतान के रूप में मैनाक नाम के प्रतापी पुत्र की प्राप्ति हुई और द्वितीय संतान के रूप में पार्वती ने जन्म लिया। पर्वत से उत्पन्न होने के कारण ही उनका नाम पार्वती रखा गया।

अभिज्ञान शाकुंतलम् के प्रथम अंक में अनसूया वन ज्योत्सना के आम्र वृक्ष के साथ स्वयंबर होने की बात कहती है-----" यह वही चमेली है न, जिसने आम्र वृक्ष से स्वयंबर कर लिया है और जिसका नाम तूने वन ज्योत्सना रख छोड़ा है , इसे भी तू भूले ही जा रही है "। अभिज्ञान शाकुंतलम् में अनेक स्थानों पर सहकार और वन ज्योत्सना के सुखी दांपत्य जीवन की ओर इंगित किया गया है ।

ऋतुसंहार में शरद ऋतु का एक नववधू के रूप में बड़ा ही मनमोहक रूप वर्णित किया गया है । ऋतुसंहार 3/1

अंत में आचार्य रविंद्र नाथ टैगोर के शब्दों में


"मूक प्रकृति को संस्कृत साहित्य में अत्यावश्यक स्थान दिया गया है। प्रकृति को मनुष्य मानकर उसके मुंह से वार्तालाप की स्थिति भी नाटक में हो सकती है, किंतु प्रकृति को प्रकृति रूप में रखकर भी ,उसे इतना सजीव, इतना प्रत्यक्ष ,इतना व्यापक, इतना अंतरंग ,बना लेना और इसके द्वारा नाटक में इतने कार्य सिद्ध करवा लेना , यह तो मैंने अन्यत्र नहीं देखा।"



इति