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संस्कृत वांग्मय में औषध चिकित्सा

"वेदों अखिलो धर्म मूलम्"----वेद ही अखिल धर्मों के मूल है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का "अथ से इति" तक का संपूर्ण सार वेदों में निहित है। मानव जीवन की उच्चतम संपत्ति वेदों में है। वेद ज्ञान के भंडार हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। अतः जहां एक और वेदों में उच्चतम ज्ञान के दर्शन होते हैं वहीं दूसरी ओर शारीरिक स्वास्थ्य का विषय भी अछूता नहीं है। विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धति ,जिनका उल्लेख वेदों में मिलता है, औषध चिकित्सा भी उनमें से एक है।


औषधि का अर्थ


औषधि--- चिकित्सा के अंतर्गत औषधी शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहा गया है कि

औषं रुजम् धयति इति औषधि:।

अर्थात वेदना को दूर करने वाली वस्तु औषधि कही जाती है । अन्यत्र औषधि की व्याख्या इस प्रकार भी की गई है---

"ओषो नाम रस : सो अस्याम् धीयते इति औषधि:।"

अर्थात ओष नामक रस जिसमें रहे, वही औषधि है । औषधि शारीरिक दोष या रोगों को नष्ट कर आरोग्यता प्रदान करती है

औषधिरारोग्यंमाधत्ते, तस्मात् औषधिरोषध :" काश्यप संहिता"

ऋग्वेद में औषधियों के लिए एक संपूर्ण सूक्त है ,जिसमें औषधि के लिए "माता" शब्द का संबोधन किया गया है ।

औषधिरिति मातरस्त द्व देवी रूप ब्रूवे ऋग्वेद 10 97 4

अर्थात हे मातृवत औषधियों तुम अत्यंत तेजस्विनी हो। अथर्ववेद में औषध चिकित्सा के अंतर्गत 289 औषधियों का उल्लेख है। जिनमें से प्रमुख 94 औषधियों का प्रयोग मिश्रित रूप में न होकर स्वतंत्र रूप में होता था।

औषधि का देवता

वेदों में अश्विनी कुमारों को औषधि चिकित्सा का देवता माना गया है इनका युगल रूप है। काय चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा में प्रवीण होने के कारण ही इनकी कल्पना युगल रूप में की गई है। यह आरोग्य आनंद तथा सुख संपन्नता के प्रदाता के रूप में चिरकाल से प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद में चिर युवा कहा गया है इमे ब्रह्मणि यूवयूनयग्मन
यह देवताओं के चिकित्सक माने जाते हैं। इन्होंने इंद्र के भुज स्तंभ रोग की चिकित्सा की थी । च्यवन ऋषि को वृद्धावस्था से मुक्त कर युवत्व प्रदान किया था । वेदों में अश्विनी के समकक्ष ही रूद्र को भी औषधियों का देवता माना जाता है। रुद्र के लिए प्रयोग किए गए जलाष और जलाषभेषज आदि विशेषण इस बात के सूचक हैं कि रुद्र के पास सैकड़ों औषधियां है। औषधियों द्वारा रोगों का उपचार करने की याचना करते हुए ऋग्वेद में रुद्र से कहा गया है कि

कृश्यते रूद्र मूल्याकुरहस्तो यो अस्ति भेषजो जलाष: ।
ऋग्वेद 2/ 33 /7
अर्थात के श्रेष्ठतम चिकित्सक रूद्र ! जो औषधियां आपके पास हैं ,वह मुझे दें तथा मेरे रोगों का उपचार करें ।

रोगों का मूल कारण


सुश्रुत संहिता में रोग सात प्रकार के बतलाए गए हैं परंतु अथर्ववेद में इनकी संख्या 99 बताई गई है। इन समस्त रोगों का मूल कारण त्रिदोष वायु , पित्त और कफ को ही माना गया है। ऋग्वेद में भी कहां है

सर्वेषां च व्याधिनाम् वात पित्त श्लेषमाण एवं मूलम् । ---ऋग्वेद 1/34/ 6

इस मंत्र द्वारा त्रिधातुओं की विषमता को ही समस्त रोगों का मूल कारण माना गया है । इसीलिए ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में अश्विनी कुमारों से शरीर में त्रिधातुओं के संतुलन की प्रार्थना की गई है।

वेदों में इस त्रिदोष की मान्यता का मूल आधार वैदिक त्रिदेववाद है। निरुक्त कार आचार्य यास्क ने अग्नि, वायु, ( इंद्र) तथा सूर्य (सोम) यह तीन मूलभूत दैव तत्व माने हैं । इन त्रि देवों का सीधा संबंध त्रिदोष (वात ,पित्त कफ) से है । अन्य आचार्यों ने भी ---"वायोरात्मेवात्मा, पित्तमाग्नेय : , श्लेषमा सौम्य इति"--- कहकर इन तीनों देवों को वात पित्त कफ के प्रतिनिधि के रूप में शरीर में स्थित बताया है । जिस प्रकार वायु अग्नि और सूर्य अपनी क्रियाओं के द्वारा जगत को धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार वात पित्त कफ भी मानव शरीर को धारण करते हैं। इन तीनों तत्वों के अकुपित होने पर शरीर निरोगी रहता है तथा कुपित हो जाने पर विभिन्न रोगों की उत्पत्ति होती है । इन त्रिदोष के अतिरिक्त रोग उत्पत्ति के कुछ अन्य कारणों का भी उल्लेख मिलता है जैसे 1, मनोविकार या प्रज्ञा अपराध 2, जीवाणु या कृमि 3, आंतरिक विष संचय आदि।

आचार्य चरक ने भी मनोविकार से उत्पन्न अनेक रोगों का उल्लेख किया है और इन मनोविकार जन्य व्याधियों के निवारणार्थ वेदों में--" शिव संकल्पमस्तु " कहकर उनकी निवृत्ति की याचना की गई है।

कृमि या जीवाणु से उत्पन्न व्याधियों का उल्लेख करते समय विभिन्न प्रकार के जायान्य, खलजा ,पिशाच ,राक्षस ,गंधर्व, अप्सरस आदि कृमियो का भी उल्लेख किया गया है ।

आंतरिक विष संचय का उल्लेख करते हुए अथर्ववेद में लिखा है कि शरीर में , विभिन्न रासायनिक दूषण एवं अन्य अस्वास्थ्य कर भोज्य पदार्थों से विष की मात्रा शनै : शनै : संचित होने लगती है, जो समय पाकर शरीर में विकार उत्पन्न कर देती है । इनके निराकरण हेतु विभिन्न औषधियों एवं मंत्रों का भी प्रयोग किया जाता था । इस प्रकार मानसिक विकार हेतु मनोवैज्ञानिक चिकित्सा तथा आयुर्विज्ञान में त्रिदोष द्वारा रोग उत्पत्ति तथा आधुनिक चिकित्सा पद्धति में "जीवाणु वाद" का सिद्धांत यह सभी वेद--- प्रसूत ही है।

औषधि रूप में विभिन्न तत्वों का प्रयोग----

वर्तमान में औषधी शब्द के द्वारा विभिन्न जड़ी बूटियों तथा भस्म आदि का ही अनुमान लगाया जाता है परंतु वेदों में विभिन्न तत्वों एवं तथ्यों को भी औषधि रूप में प्रयोग किए जाने का उल्लेख मिलता है।


जल तत्व

ऋग्वेद में जल को औषधि के रूप में स्वीकार किया गया है। जल ही औषधि है जल ही अमृत है। ऋग्वेद के सोम प्रकरण में
कहा गया है कि जल के अंदर ही संपूर्ण औषधियां हैं (ऋग्वेद 1/23 /20) जल ही अमृत है जल निश्चय ही समस्त रोगों को दूर करने वाला है (ऋग्वेद 10 /137 /6) इसीलिए संध्या के प्रथम मंत्र में जल की स्तुति करते हुए कहा गया है


शं नो देवीरभिष्टय आपो भवंतु पीतये।
श योरभि : स्रवन्तु न:।।

अथर्ववेद में भी जल को "सुभिषक्तमा :" कहकर उसका औषधि के रूप में उपयोग बताया है। अथर्ववेद में जल चिकित्सा का विशद वर्णन उपलब्ध है। इसके तृतीय कांड का संपूर्ण तृतीय सूक्त जल चिकित्सा पर ही आधारित है।

वर्तमान में प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत जल को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। इतना ही नहीं, आयुर्वेद चिकित्सा में भी जल को महत्वपूर्ण औषधि के रूप में प्राचीन काल से प्रयोग किया जाता रहा है। वास्तव में जल ही शरीर को शुद्ध करने वाला है। "औषधियों में जल ही सोम रूप में स्थित है"--- इस वेदोक्त मान्यता की पुष्टि---" सोमो भूत्वा रसात्मक:" श्रीमद्भगवद्गीता के इस कथन द्वारा भी होती है ।

सूर्य रश्मि


वेदों में सूर्य रश्मियो द्वारा भी विभिन्न रोगों के निदान का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ----"उदयन आदित्य: क्रमीन हन्ति" अर्थात उदित होते हुए सूर्य की किरणों से रोग के कीटाणु समाप्त हो जाते हैं। ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर भी "न सूर्यस्थ संदृशो युयोथा: (ऋग्वेद एक 1/115 /1) कहकर सूर्य को कल्याण करने वाला तथा जगत की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। प्रश्नोपनिषद मैं भी ---"आदित्यो हवे प्राण: " (प्रश्नोपनिषद 1/5) कहकर सूर्य को संपूर्ण जन जीवन का प्राण दाता बताया गया है। ऋग्वेद में सूर्य किरणों द्वारा हृदय रोग तथा यक्ष्मा आदि रोगों के उपचार का भी उल्लेख प्राप्त है। ऋग्वेद में सौर चिकित्सा पर विशेष बल दिया गया है ।

अथर्ववेद में भी उदित होती हुई तथा अस्त होती हुई सूर्य रश्मियो द्वारा रोगों के जीवाणुओं के नष्ट होने का उल्लेख है। ठीक सामने से दिखाई देने वाले सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से अदृश्य रोगाणुओं का भी विनाश हो जाता है (अथर्ववेद 5/ 23/ 7 ) इसीलिए वेदों में सूर्य उपासना, सूर्य नमस्कार और सूर्य स्नान पर विशेष बल दिया गया है।

वायु तत्व


"वायोरात्मेवात्मा" कहकर वायु को शरीर में आत्म रूप में स्थित बतलाया गया है। अथर्ववेद में वायु को " विश्व भेषज : " (अथर्ववेद 4/13/ 3 ) कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि वायु को भी औषधि के रूप में स्वीकार किया गया है। इसे अनेक रोगों का विनाशक माना गया है।


अग्नि तत्व तथा हवन


वेदों में औषधि के रूप में अग्नि चिकित्सा व हवन चिकित्सा का भी महत्व है। इसीलिए ऋग्वेद के प्रारंभ में ही अग्नि की उपासना की गई है

अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवों मृत्विजय् ।
होतारम रत्नाधातमम । । ऋग्वेद 1/1/1

इस ऋचा से स्पष्ट है कि अग्नी को न केवल प्राणी मात्र का अपितु देवों का भी पोषक माना गया है। अग्नि का सेवन करने से तेज ,बल एवं कांति बढ़ती है ,इसीलिए यज्ञ रूप अग्नि का पूजन कर उसे प्रार्थना की जाती है

तेजो असि तेजो मयि धेहि ।
बलमसि बलम मयि धेहि ।
ओजोसि ओजो मयि धेहि । (शुक्ल यजुर्वेद 19 /9)


यज्ञ अग्नि में घृत व हविष्य डालने से जो यज्ञ-- धूम निकलता है वह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है । तथा समस्त वातावरण के रोगाणुओं को दूर कर वायु को शुद्ध करता है और मनुष्यों को रोग आदि से आक्रांत नहीं होने देता । इस प्रकार प्राणी मात्र के स्वास्थ्य के उद्देश्य यज्ञ अग्नि और यज्ञ धूम का विधान श्रेयस्कर है । अग्नि अथवा हवन चिकित्सा का वर्णन अथर्ववेद के( 6 /106 /3 तथा 5 /22 /1)आदि मंत्रों में भी है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में 162 वे सूक्त मैं अग्नि चिकित्सा को प्रसूति संबंधी सभी रोगों को दूर करने हेतु लाभकारी बताया है।

वैदिक काल में अनेक दिव्य औषधियों एवं रसायन के प्रभाव से ऋषि गण दीर्घ जीवी होते थे। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदय या वाग्भट संहिता में अनेको दिव्य औषधियों का वर्णन है। औषध चिकित्सा के क्षेत्र में इन तीनों ग्रंथ को उच्च कोटि का कहा जा सकता है। इन तीनों को ही वृहतत्रयी के नाम से जाना जाता है। आयु आरोग्यता प्राप्त करने हेतु हमें इनका सेवन करना चाहिए क्योंकि शारीरिक आरोग्यता ही सब धर्मों का मूल है


धर्मार्थ काम मोक्षाणां आरोग्यं मूलम् उत्तम्।

सत्कर्म


आयुर्वेद में सत्कर्म या सदाचरण द्वारा भी रोगों के निदान व प्रतिरोधक शक्ति प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। हम अपने सदाचरण तथा संयम के द्वारा भी अनेक रोगों से स्वयं को आक्रांत होने से बचा सकते हैं। अतः यदि यह कहा जाए कि सद्कर्मों को भी औषधि के रूप में प्रयोग करने की सलाह, हमारे संस्कृत वांग्मय में दी गई है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वेदों का मूल मंत्र ही यही है कि सदाचरण करते रहने से मनुष्य आदर्श, सुखी एवं दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है


वेद भारतीय संस्कृति की एक पुनीत धरोहर है । हम सब भारतीयों का कर्तव्य है कि इस के अनुभवों से लाभ उठाएं । वर्तमान समय में यदि हम इन वेदोक्त सदाचरणों का पालन करते हुए विभिन्न प्राकृतिक तत्वों का औषधि के रूप में उपयोग करते रहें तो निश्चय ही हम आरोग्य और सुखी जीवन वितरित कर सकते हैं।
। इति