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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 3

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 3

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

महाराजजी बोले- एक दिन मैं डॉक्टर के0 के0 शर्मा के यहाँ पहुँचा ही था कि अचानक मुझे दोनों आँखों से दिखना बन्द होगया -’ नैना एक पल को तूं खुल जइयो।’...... और यह प्रसंग सोचने लगा जब राम जी अपने चारों भाइयों के साथ वशिष्टजी के यहाँ से अघ्ययन करके अयोध्या लौटकर आये उस दिन एक दृष्टिहीन व्यक्ति गारहा था-’नैना एक पल को तूं खुल जइयो।’यह प्रसंग सोचकर जैसे ही निवृत हुआ कि मुझे दोनों आँखों से दिखाई देने लगा।

यह कहकर महाराजजी गुरु की महिमा गुनगुना रहे थे-

ये तन बिष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,

शीश दिये जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।।

आजकल महाराज जी प्रतिदिन साय 5ः30 बजे से टी0वी0 पर श्रीकृष्ण एवं साईबाबा सीरियल नियमित रुप से देखते थे। कभी-कभी दृश्य देखकर रो उठते थे। मैं भी यथा समय पहुँच जाता था। यदि कभी लेट होगया तो इससे उन्हें देखने में डिस्टर्व होता था , यह बात उन्हें पसन्द नहीं थी। इसके लिये वे डॉट भी दिया करते थे।

एक दिन साईबाबा का सीरियल चल रहा था। उसी समय मेरे मोवाइल की घन्टी बजी। इससे महाराज जी को सीरियल देखने में डिस्टर्व हुआ। महाराज जी बोले-’यहाँ प्रवेश करते समय अपना मोवाइल बन्द कर दिया करें। लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर था, आज भी बैसा ही हूँ।

शनिवार एवं रविवार को ये सीरियल नहीं आते थे। मेरा जाना अक्सर लगा रहता था। इन दिनों महाराजजी मस्ती में बैठकर साधकों से बातें करते रहते थे। जैसे ही मैं पहुँचा कि महाराजजी ने कहना शुरु किया-‘ मैं मेहदीपुर बालाजी धाम में एक मन्दिर में ठहरा था। किसी ने आकर बतलाया-‘अमुक गाँव के भगत जी नहीं रहे। सभी उनके दर्शन करने के लिये जारहे हैं। आप नहीं चलोगे?’

उसकी बात सुनकर मैं भी उनके साथ ही चल पड़ा। वहाँ बहुत भीड़ थी। कुछ नागा बाबा धूनी जमाये बैठे थे। मैं भी उस धूनी पर जा बैठा।

दूसरे दिन दो नागाबाबा तलासते हुये जहाँ ये ठहरे थे वहाँ आगये।.......और बोले-’ बोलों तुम्हें क्या चाहिये? पत्नी, बच्चे या धन तुम्हें जो चाहिये सो कहो?’

मैंने उनसे कहा-’ मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं है।यदि मुझे कुछ चाहिये तो वह है भगवान की कृपा।’

तीसरे दिन वे बाबा मुझे एक वैधजी के औषधालय पर मिल गये। वहाँ भी उनका वही प्रश्न था। ...और मेरा उत्तर भी वही था। उत्तर सुनकर वैधजी सिर ठोक कर रह गये कि ये बाबा लोग मुझ से क्यों नहीं पूछ लेते।

एक दिन मैं भोजन बना रहा था कि ये दोनों बाबा उसी समय आगये ।मैंने उनसे भी भोजन के लिये आग्रह किया।

भोजन उपराँन्त मैंने कहा-’मुझ पर आपका यह ऋण था जो प्रभू की कृपा से आज उतर गया। उनका प्रश्न था -’कैसे?’

मैंने कहा कि याद करो, आप एक-डेढ़ वर्ष पूर्व मिले थे ,उस समय मैं पान की दुकान पर खड़ा था। आपने भोजन करने की इच्छा जाहिर की थी। मैंने कहा था-’ होटल में खिला देता हूँ।’

आप बोले-’ हम घर में बैठ कर भोजन पाते हैं।’आज वही उधारी चुकता कर लीजिये। यों उन्होंने भोजन पाया और चले गये।

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महाराजजी कहते रहते हैं- किसी बात में दृढ निश्चय हो फिर हर काम के लिये समय निकल आता है। अतः समय किसी काम में अवरोधक नहीं बनता।

एक दिन मैंने महाराजजी से प्रश्न किया-’ गुरुदेव , सुना है आपने किसी संत की आज्ञा से इस क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया है। वह प्रसंग सुनने की इच्छा है।’

प्रश्न सुनकर महाराजजी बोले-’रामेश्वरधाम में एक बाबाजी रहते थे। यह स्थान हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर स्थित है। सभी लेाग उन्हे रामेश्वर दास बाबा के नाम से जानते थे। उस धाम का निर्माण भी उन्होंने ही कराया था। दोनों प्रदेश की सरकारों ने अपने-अपने क्षेत्र में अलग-अलग सड़कें बनवा दी हैं वहाँ बिजली भी पहुँच गई है।

मैं वहाँ काफी समय से ही जाता रहता था। उन दिनों वहाँ एक किस्सा चर्चा में था- एक ट्रक आश्रम के लिये माल लेकर आरहा था जो नदी में फस गया। उस ट्रक बाले ने उसे निकलवाने के लिये बाबाजी को टेर लगाई। बाबाने आकर उसे निकलवा दिया। जब वह ट्रक वाला आश्रम में पहुँचा तो वे बाबाजी वहाँ पहले से ही मौजूद थे। उसने वहाँ के लोगों से पूछा-’ बाबाजी अभी ही आये होगे।’

वह बोला-’ नहीं बाबाजी सुवह से यहीं हैं। वे कहीं नहीं गये।’

भैयाजी, उनके ऐसे अनेक चमत्कार इस क्षेत्र में बिखरे हुये है। यदि कोई मन्दिर में चुपचाप कुछ चढ़ा आता है तो बाबाजी को पता लग जाता है। वे उसी वक्त उसे बुलाकर कह देते हैं कि जा अपनी चढ़ोती बापस लेआ। उसे वह पैसे बापस लेना ही पड़ते हैं। ऐसे उनके अनेक किस्से उस क्षेत्र में फैले हुये हैं।

ऐसे ही एक और संत की स्मृति आगई है-मेरे पिताजी गार्ड थे। जोरावर नगर में नदी पार करके एक दम वीराने में वहीं एक सूखा नाला था। उस नाले के किनारे पर दिगम्बर बेश में एक संत पड़े रहते थे। उनका नाम था- संत बाबूराव जी। लोग उन्हें दादाजी कहकर सम्बोधित करते थे। एक बार मेरे पिताजी उनके पास आम्ररस लेकर गये। वे बोले-’ इसे मेरे सिर पर डाल दो।’मेरे पिताजी ने आज्ञा मानकर बैसा ही किया।

वे मिट्टी, आक, धतूरा आदि खाया करते थे। इसीसे उनका पेट बढ़ गया था। जोरावर नगर में उनके एक भक्त थे, वे माह में एक बार पूर्णिमा के दिन उन्हें अपने घर ले जाते थे। उन्हें नहलाते,विधिवत पूजन आदि करके उनके त्रिपुन्ड लगाते थे। नये घोती -कुरता पहनाते। लौटते समय उन बस्त्रों को चिन्दी-चिन्दी करके फाड़ते जाते थे और चलते जाते थे।

एक दिन मेरी बुआ जी कस्तूरी देवी अपनी बेटी विद्या के साथ उनके दर्शन करने गईं। विद्या जीजी अपने साथ में एक रुई का तकिया भी ले गईं थी। वह जाकर उसे उन्हें देते हुये बोलीं-’इसका हमारी मामीजी के लिये भैया बनादो।’

दूसरे दिन जब सब लोग गये तो देखा तकिये की रुई के कण वहाँ हवा में उड़ने लग रहे थे।

मैंने महाराजजी से पूछा-’ उन्होंने ऐसा क्यों किया?’

वे बोले-’ मुझे लगता है, उन्होंने प्रारभ्ध को चिन्दी-चिन्दी करके बिखेरा होगा। ऐसा किये बिना मेरा जन्म कैसे होता!’

जब-जब महाराजजी मौज में हो ते तो संतों के नये-नये किस्से सुनाने लगते। इसी क्रम में महाराजजी ने एक यह किस्सा भी सुनाया- गुरुदेव विष्णूतीर्थ जी के एक ब्रह्मचारी थे। वे बड़े अक्खड़ स्वभाव के थे। एक दिन उन्हें गंगा पार जाना था। उस दिन गंगाजी चढ़ीं थी। नाविक ने पार कराने की मना करदी। उससे फिर भी निवेदन किया। वह बोला-’ इतनी जल्दी है तो इसमें कूद जाओ और तैर कर पार करलो।’

यह सुनकर वे मन ही मन कहने लगे कि पुरानी कहावत है -

गंगा जी को नाहवो और विप्रन सों व्यवहार ,

डूब गये तो पार हैं, पार गये तो पार।

यह सोचकर उन्होंने गंगाजी में छलांग लगा दी। वे बीच धार में जाकर थक गये। सोचने लगे- मैया तूं तो सबको पार लगाने वाली है। अगर तेरी ही शरण में आकर कोई डूब जायेगा तो फिर अन्यत्र कोई कैसे पार होगा। फिर उन्हें होश नहीं रहा। जाने कैसे किनारे पर पहुँच गये। होश आया तो देखा शरीर दिगंवर बना हुआ था। उनकी लुंगी गंगाजी में बह गई थी। एक पशु चराने वाले से फेंटा माँग लिया। उसे कमर में लपेटा और आगे बढ़ते गये। ऐसे मस्तराम थे वे ब्रह्मचारीजी। उनका नाम था रामप्रकाश ब्रह्मचारी।

इसके बाद कुछ क्षणों तक महाराजजी चुप बने रहे फिर बोले-’ ग्वालियर में फूटी कोठरी में एक नग्न संत पड़े रहते थे। वे उसी कोठरी में ही शौच आदि कर लेते थे। मेरे पिताजी मुझे उनके पास लेकर गये थे। उस समय मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह बर्ष की थी। पिताजी ने मेरे सामने उनका कमरा साफ किया था। उनके महानारायण तेल की मालिस की। मुझे याद है जब उनका देहावसान हुआ तो नगर में उनकी सवारी निकाली गई थी। यों मुझे पग-पग पर संतों की छत्रछाया मिलती रही है।

दिनांक 07-12-08 को जब में आश्रम पर पहुँचा महाराजजी चौक में बैठे धूप ले रहे थे। मैं सास्टांग प्रणाम करके उनके पास बैठ गया। महाराजजी बोले-’ आज एक बड़ी बिचित्र घटना घटी। एक मोटा-ताजा व्यक्ति गेट के अन्दर आगया। एक घन्टे तक इधर-उधर की बातें करता रहा। फिर मुझ से उधार माँगने लगा। मैं उसके पिता एवं स्वयम् उसके भी आचरण से परिचित हूँ । जिससे जो उधार मिल जाये फिर उसे वह वापस नहीं करता। मैंने सोचा उधार देने वालों ने इनके आचरण बिगाड़े हैं। ये काम-धाम करते नहीं हैं। पूरे आलसी राम हैं। यह सोचकर मैंने उधार देने की मना करदी। वह बोला-’ तो आप चार-पाँच सौ रुपये भी नहीं दे सकते। ‘

मैंने कह दिया-’ पचास पैसे भी नहीं’ यह सुनकर वह चला गया।

मैं भी वहाँ बैठा-बैठा सोचने लगा-’ क्या पता किस मजबूरी में वह यहाँ माँगने आया होगा। महाराज तो पूरे निर्दयी हैं।’

यही सोच रहा था कि एक इन्टर मैंथ्स में पढ़ने वाली लड़की का आना हुआ। उसे देखते ही महाराजजी बोले-’ तुम्हारी तो मैं कल से ही प्रतिक्षा कर रहा हूँ। क्या टयूसन पर नहीं गई?’

उसने उत्तर दिया-’ गई थी। किन्तु मैं कल नहीं आपाई, आज आई हूँ। ‘

यह सुनकर महाराजजी उठे और अपने कक्ष में चले गये। जब लौटकर आये अपने हाथ में दो सौ पचास रुपये लिये थे। आकर उन्होंने उन रुपयों को उस लड़की को दे दिये और बोले - ‘आज ही अपने टयूसन वाले सर की फीस दे देना।’

वह बोली-’ गुरूजी , आज तो उनके यहाँ नहीं जाऊँगी। कल जाकर दे दूँगी।’

यह कहकर वह लड़की पैसे लेकर चली गई।

महाराजजी स्वयम् ही पुनः बोले-’तिवाड़ीजी, इस लड़की की फीस वाली बात किसी से नहीं कहना।’

मैंने उत्तर दिया-’ गुरूदेव क्षमा करें। एक ही समय में दो अलग-अलग घटनायें ,यह बात जीवन में लिखना ही पड़ेगी।’

यह सुनकर वे बोले-’ तुम लेखकों की यही बातें अच्छी नहीं लगती। साधना में जो बातें छिपाकर रखना चाहिये , उन्हें तुम लोग उजागर करके मानते हो।’

शायद इस लेखकीय आदत के कारण ही गुरुदेव ने मुझे अपने साधना कक्ष में जाने से रोक दिया है। करीब दो बर्ष से गुरूदेव के साधना कक्ष में नहीं गया हूँ। याद हो आती है दो बर्ष पहले की जब में साधना कक्ष में अन्तिम बार गया था।

मेरी पीठ में दर्द रहता है। बिना टिके देर तक बैठना असहय होजाता है। साधना में बिना सहारे के बैठना चाहिये। मैं ऐसा नहीं कर पाता। उस दिन साधना करने के लिये ही उस कक्ष में गया था। जाते ही टिकने के लिये हाल के मध्य में बने पिलर का सहारा लिया। संयोग से उस पिलर के पास माँजी का आसन रखा था। मैंने उसे वहाँ से एक ओर को खिसका दिया और वहाँ अपना आसन जमाकर बैठ गया। जब साधन से उठा तो माँजी का आसन यथा स्थान सरका कर बाहर चला आया।

दूसरे दिन जब मैं साधना करने गुरुनिकेतन पहुँचा। गुरुदेव ने आदेश जारी कर दिया- ‘अब तुम कभी साधना कक्ष में नहीं जाओगे।’

यह सुनकर मैं प्रश्न भरी निगाह से उनके मुँह की ओर देखने लगा । गुरुदेव ही पुनः बोले-’ कल तुमने माँजी के आसन का उपयोग किया था।’मैंने उत्तर दिया-’ नहीं गुरुदेव , मेरे पास अपना आसन था। साधना में कभी किसी दूसरे के आसन का उपयोग नहीं करना चाहिये। यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। ऐसी भूल तीन काल में नहीं कर सकता।’

यह सुनकर वे चुप रह गये थे। उस दिन से मैं कभी उस कक्ष में नहीं गया।

अब इस बारे में तरह-तरह से सोचता रहता हूँ- घर में बारह-पन्द्रह बर्ष से परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा के नाम से ध्यान का कार्यक्रम चलता आरहा है। गुरुदेव भी उन संत में सम्पूर्ण आस्था रखते हैं। दीक्षा के बाद एक दिन गुरुदेव ने कहा-’ तुम्हें अन्य अदीक्षित पात्रों के साथ वहाँ साधना में नहीं बैठना चाहिये।’

यह सुनकर मैं धर्म संकट में पड़ गया। इसका अर्थ निकाला- घर में चल रहे सत्संग को बन्द कर देना। उन साथी पात्रों के साथ यह अन्याय होगा। यह सोचकर मैंने निवेदन किया-’ गुरुदेव , क्षमा करें। मैं उन साधकों से मना नहीं कर पाउँगा। यह भी सम्भव नहीं है कि वे घर में आकर साधना करें और मैं उनके साथ साधना में नहीं बैठूँ । गुरुदेव, इसके बदले आप जो दन्ड़ देंगे , मुझे स्वीकार है। सम्भव है गुरुदेव इस कारण भी मुझे साधना कक्ष में जाने की अनुमति नहीं दे रहे हों। उनकी वे जानें, जिसमें मेरा हित होगा वे वही कर रहे होंगे। माँजी का आसन अपने स्थान से हटाना भी कोई छोटा अपराध नहीं है। अज्ञानताबस भूल तो हो ही गई है । जिसका प्रयश्चित पता नहीं कितने जन्मों तक करना पड़ेगा। इसलिये ऐसे स्थलों पर बहुत सोच समझकर चलना चाहिये। दुधारी तलबार है किधर बार हो जाये, यह प्रभू की इच्छा पर ही निर्भर है। इसी सोच में मैं गुरु निकेतन पहुँचा।

एक आदर्श शिष्या

गुरुजी की परमप्रिय शिष्या, दीक्षा के बाद यहाँ बी0एड0 करने के लिये आई हुई थी। उसने गुरूजी की दिन-रात ऐसी सेवा की, कि वेा सेवा का प्रतीक बन गई। जब वह कालेज जाती गुरुजी उसे छोड़ने और लेने जाते। अन्य शिष्यों को उसकी सेवा के उदाहरण देने लगे। जब मैं भी गुरुनिकेतन पहुँचता, वह मेरा ही नहीं, वहाँ आये आगन्तुकों का आदर-सत्कार करती थी। एक सजग अटेण्डर की तरह महाराज की सेवा में खड़ी रहती। उसने लगभग ढाई बर्ष गुरूजी के पास रहकर उनकी सेवा के अतिरिक्त बी0एड0 की पढ़ाई पूरी करली। उसके जाने के बाद गुरूजी उसकी चिन्ता में रहने लगे। यह देखकर मुझे लगता ,गुरूजी कहीं जड़भरत की तरह भटक तो नहीं रहे हैं। लेकिन गुरू शिष्य रूपी पौधे को कैसे सींचते हैं यह भी मुझे प्रत्यक्ष देखने को मिलता रहा। उसके विवाह का अवसर भी आगया। इन दिनों वे बहुत व्यस्त से दिखते थे। अतः उन्हें परेशान करना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। उनकी व्यस्तता देखते ही बनती थी। जो शिष्य गुरु को जिस भाव से भजता है ,गुरु भी शिष्य का उसी भाव से चिन्तन करते हैं। यही बात मुझे उस शिष्या के सम्बन्ध में कहना पड़ रही है। उसके चित्त में गुरुदेव पूरी तरह समा गये हैं। वह अपने ब्याह में गुरुदेव को पल-पल याद करती रही। जिसका परिणाम यह निकला कि ब्याह कुशलता पूर्वक सम्पन्न हो गया। आज वह सुखी है।