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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 5

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 5

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

अगले दिन जब में आश्रम पहुँचा, अन्य दिन की तुलना में गुरुदेव कुछ गम्भीर दिखे। मैं समझ गया- कहीं कुछ चिन्तन चल रहा है। मैं नमो नारायण कहकर उनके सामने बैठ गया। महाराज जी बोले-’ मुझे याद है इस नगर में मैं जिस मकान में रहता था, उसके पड़ोसी ने एक लूसी नामक कुतिया पाल रखी थी। वह कुतिया मुझे इतना प्यार करती थी कि क्या कहूँ? निश्चय ही किसी जन्म में मेरा उससे कोई नाता रहा होगा।

एक दिन की बात है एक साँड द्वार पर आया। मैं उसे चने की दाल खिलाने द्वार पर गया। मैं उसे दाल खिलाकर जैसे ही खड़ा हुआ उसने मेरे टक्कर मारदी। मैं दीवाल से जा टकराया। वह कुछ और आगे बढ़कर टक्कर मारता, उससे पहले लूसी ने चिल्ला-चिल्ला कर तूफान खड़ाकर दिया। साँड पीछे हट गया। यों उस दिन उस लूसी ने मेरे प्राण बचा दिये थे। निश्चय ही किसी जन्म में उससे मेरा कोई घनिष्ट नाता रहा होगा तभी तो वह मेरी रक्षक बनी थी।

इससे अगले दिन जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा ,बात सन्तोष और त्याग की चल रही थी। किसी प्रसंग के बहाने बात गंगा स्नान पर आकर ठहर गइै थी। महाराज जी बोले-’यों तो हजारो लोग रोज गंगा स्नान करते हैं। प्रश्न उठता है ,क्या वे सभी तर जाते हैं? यदि नहीं ,तो कौन सच में गंगा स्नान करता है? इस प्रश्न के उत्तर में मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ। एक दिन शंकर जी ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया। माँ पार्वती उनके निकट बैठ गई। कोई पूछता तो वे कहतीं-’ कोई ऐसा आदमी जिसने एक लाख बार गंगा स्नान किया हो वह इनको स्पर्श करदे तो ये ठीक होजायेंगे।’जो बर्षें से गंगा स्नान कर रहे थे वे इनको स्पर्श करके गये किन्तु ये ठीक नहीं हुये। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। एक लाख बार स्नान करने में कई जन्म लग जायेंगे। यों कोई कुछ कहता,कोई कुछ। एक दिन एक युवक गंगा स्नान करके आया। उसने पूछा-’ क्या बात है माँ ?’

वे बोलीं-’ जिसने एक लाख बार गंगा स्नान किया हो वह इनको छू दे तो ये ठीक होजायेंगे। इसलिये इस स्थान पर इन्हें लाई हूँ। यह मेरे पति हैं।’

वह बोला-’ मैं इन्हें छूकर देखूं माँ ।’

वे बोलीं-’‘हाँ , छूकर देख लो।’

उसने उन्हें छूकर देखा। ये ठीक होगये। देखने वाले बोले-’ सब नाटक है। इस लड़के की उम्र तो केवल बीस -पच्चीस बर्ष ही होगी। इसने एक लाख बार गंगा स्नान कहाँ से कर लिये?’

तभी प्रगट होकर शंकर जी बोले-’ भैया, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ। इसका घर गंगा जी से एक किलो मीटर दूर है। जब ये घर से निकलता है तो जय गंगे, हर-हर गंगे कहते हुये निकलता है। इसके प्रत्येक श्वाँस के साथ इसे गंगा स्नान का फल मिलता है। इतनी दूर सच्चे मन से आने-जाने में हर कदम पर हर-हर गंगे की जय बोलने से डुबकी लगती जाती है। इसी कारण मैं ठीक होगया हूँ। ष्

महाराज जी बोले-’‘इसी प्रकार हमारी साधना हर कदम पर होती चले तो हम निश्चय ही लक्ष्य तक पहुँच जायेंगे। इसमें हमें किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिये।’

यह कह कर महाराज जी गुनगुना ने लगे-

गंगा जी का नहायवो विप्रन सो व्यवहार।

डूव गये तो पार हैं पार गये तो पार।।

यह पन्तियाँ याद आते ही ,मुझे याद आने लगती है राम प्रकाश ब्रह्मचारी जी की ,जो विष्णू तीर्थ जी के शिष्य थे। जिनका अम्बाह का शरीर था। गंगा जी चढ़ी थी। उन्हें पल्ले पार जाना था। उन्होंने नाव वाले से कहा-’ पल्ली तरफ छोड़ दो।’

नाव वाले ने कहा -’ बहाव बहुत है , अभी नहीं जायेंगे। इतनी जल्दी है तो तैर कर चले जाओ।’यह सुनकर तो वे भड़क उठे, फिर क्या था, वे इसी दोहे का स्मरण करते हुये गंगा में कूद पड़े। बीच धार में पहुँच कर थक गये तो सोचने लगे-’ माँ,सभी तेरे नाम से तर जाते हैं। मैं तेरे बीचों बीच आकर डूब जाऊँगा ?’ यह सोचते ही बेहोशी आगई। आँख खुली तो क्या देखते हैं कि वे किनारे पर पड़े हैं। उनके शरीर पर कोई बस्त्र नहीं हैं। वे उठे और चल दिये। रास्ते में एक गाय चराने वाला मिला उससे उन्होंने साफी माँगी और लपेट ली। आगे जाकर एक स्थान पर प्रसाद ग्रहण किया और आगे की यात्रा करते रहे।

यह कहकर महाराजजी बोले-’‘उनके कहे ,इस वृतान्त को मैं भूल नहीं पा रहा हूँ। इस बहाने मैं गंगा मैया की कृपा का स्मरण भी करता रहता हूँ।

महाराज जी पुनः कहने लगे-’ दिल्ली की बात है। रात्री करीव आठ बजे का समय होगा। मैंने पान की दुकान से एक पान खाने के लिये लिया। मेरे पाँवों के पास बैठी ,एक बुढ़िया, जिसके मुँह में एक भी दाँत नहीं था, मेरे मुँह की तरफ बड़ी ही आत्मियता से देख रही थी। उसके रंग रुप से पता चलता था कि कभी वह अत्यन्त सुन्दर रही होगी। इस समय उसकी आयु सत्तर वर्ष से कम नहीं दिखती थी।मैंने पूछा-’पान खाओगीं।’स्वीकारोक्ति में उसने सिर हिला दिया

पान वाला बोला-’ साहब ये तो पागल औरत है।’

मैंने अनसुना कर दिया और कहा-’इसके लिये भी पान लगाओ।’उसने दो पान लगायें। मैंने पान खाने से पहले एक पान उस माँ के लिये बढ़ाया। उसने अपना वह पोपला मुँह पान खाने के लिये खोल दिया। मैंने उसे बड़े प्यार से पान खिला दिया।

मैं उस पोपले मुँह को पान खिलाते समय का आनन्द आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

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रोज की तरह जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा , गुरुदेव ‘अन्तिम रचना’ पढ़ रहे थे। मुझे देखकर जोर-जोर से पढ़ने लगे। फिर बीच में रुक कर गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज से जुड़े प्रसंग सुनाने लगे-मैंने गुरुदेव के समक्ष पूर्णतः शाँत रहना सीखा है। मैं बहुत ही कम बोलता था। गुरुदेव की बातों को ध्यान से सुनता था। वे किस तरह बात करते हैं ? कैसे दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं , उनकी एक-एक बात ध्यान से देखता रहता था। गुरुदेव कभी कुछ पूछते तो संक्षिप्त उत्तर दे देता था। वे मेरी स्थिति से पूरी तरह अवगत थे।

महाराज जी की मुझ पर अपार कृपा रही है।

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उस दिन की बातें याद आ रही हैं जब महाराजजी स्वस्थ्य नहीं दिख रहे थे। बिस्तर पर पड़े-पड़े ही यह वृतांत सुनाने लगे-’महापुरुषों की कृपा से ही मेरी जीवन भर रक्षा होती रही है। मुझे याद आरहा है ,जब मैं आठ-नौ वर्ष का था रेवाड़ी में सोलाराही नाम का तालाब है। तीन-चार मन्जिल का पक्का बना है। सारी मन्जिलें पानी में डूबी रहती हैं।

एक दिन की बात है , बुआजी के लड़के यानी बड़े भाई साहिब के साथ मैं उसमें नहाने चला गया। मैंने उसमें डुबकी लगाई तो नीचे एक वराण्ड़ा बना था उसमें चला गया। उछला तो ऊपर सिर टकरा गया। मैंने मन ही मन गुरुदेव को याद किया। हे गुरुदेव यह क्या हो रहा है? यहाँ तो गये प्राण।सच मानिये यदि मैं वायीं तरफ चला जाता तो मेरी ल्हाश भी नहीं मिलती। मुझे किसी ने धक्का सा दिया और मैं जल की सतह पर आगया। इस तरह गुरुदेव के स्मरण से मेरे प्राण बच पाये थे।

इस समय ऐसी ही एक घटना और याद आरही है। सन्1963 की है जब मैं नेपाल प्रवास में था। नोतनवा रेल्वे स्टेशन पर उतरा। वहाँ से एक ट्रक में बैठकर उन्तीस किलोमीटर दूर तिनाउ नदी के तट पर जाकर ठहरा।नदी के दोनों तटों पर थेड़ी-थोड़ी बसावट थी।

उस नदी का पाट बहुत चौड़ा था।ऊपर की ओर रस्सी का पुल बना था। वहाँ से जाने पर लगभग चार- पाँच किलो मीटर का चक्कर पड़ता था। उस चक्कर से बचने के लिये मैंने नदी सीधे पार करना चाही। अपना पाजामा कन्धे पर डाल लिया। बैग व चप्पल एक हाथ में पकड़लीं और नदी के पानी में प्रवेश कर गया। आगे चलकर पानी कमर से ऊपर होगया तो पैरों के नीचे की रेत खिसकने लगी। मैं समझ गया अब गये काम से। मैंने अपने आराध्य दादाजी महाराज का स्मरण किया। नदी के उस पार से दो आदमी चिल्लाये-’चिन्ता नहीं करो हम आते हैं। वे झट से मेरे पास आगये और मुझे पकड़ कर निकाल ले गये। यों महापुरुषों की कृपा से इस बार भी जल में से जीवन बच पाया। 00000

अगले दिन जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी गम्भीर से दिखे । जैसे ही मैंने नमो नारायण कहकर प्रणाम किया, महाराज जी बोले-’ बात राजस्थान के दौसा नगर की है।

मैं वहाँ एक नागा बाबा के साथ गया था। वहाँ पहुँच कर पता चला कि नागा बाबा का जन्म स्थान भी यहीं है। उसके पिता ने भिक्षा के लिये अपने घर आमंत्रित किया। साँयकाल हम दोनों एक छोटे से मन्दिर के प्रांगण में पहुँच कर घूमने लगे। मैं घूमते हुये एक ओर चला गया। एकान्त पाकर मन में एक प्रश्न उठा कि क्या पूरा जीवन इसी प्रकार चढ़ते-उतरते ही चला जायेगा। तभी सुषुप्ति में पड़े किसी कौने से किसी ने बड़ी ही आत्मियता के साथ समझाना शुरू किया, देखो वत्स जब तक बालक बहुत छोटा होता है उसकी माता एक क्षण के लिये भी अपनी दृष्टि से दूर नहीं होने देती। ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता जाता है, उसकी आयु बढ़ती जाती है माँ की चिन्ता का समय भी घटता जाता है। जब वही बालक वयस्क होकर कार्यवस चार दिन की कह कर आठ दिन तक घर नहीं आता तो उसकी माता कहती है कि अरे वह समझदार होगया है। वह कोई बच्चा तो है नहीं, व्यर्थ की फिक्र करने की जरुरत नहीं है।

मैं सोचने लगा-ओ हो! तो तुम समझदार होगये हो इसलिये तुम्हारी फिक्र भगवान ने करनी छोड़ दी है। मैंने निश्चय कर लिया कि भाड़ में जाये ऐसी समझदारी। वस अपनी समझ को शिशुवत बना लो सब बखेड़ा ही मिट जायेगा। तभी से मैं निश्चिन्त और सुखी होगया।

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महाराजजी कह रहे थे-मैं अनेकों बार वुटवल गया हूँ, यह नेपाल में है। उस कस्वे के तीन ओर पहाड़ियाँ होने से मनोरम द्रश्य उपस्थित होजाता है। तिनाऊ नदी के ऊपर की ओर सकरा पाट है किन्तु नीचे की ओर चौड़ा होगया है। ऊपर के सकरे भाग में रोप ब्रिज बना है। नीचे के चौड़े पाट से कस्वा लगा है।

ऐसे सुन्दर कस्वे में एक नेपाली दम्पति रहते थे। उनकी पत्नी को मैं दीदी कहता था। जब भी मैं वुटवल जाता उन्हीं के यहाँ ठहरता था। अपना दाम- पैसा दीदी को सँभला देता था। एक बार दशहरे का पर्व था। उस अवसर पर पति-पत्नी दोनों ने मिलकर वहाँ की परम्परा के अनुसार मेरा अभिषेक किया था। नहलाया और दक्षिणा भी दी थी। शाम के वक्त मैदान में झूले डले थे। उस पर मुझे बैठा दिया और झूलाने लगे।

जिस प्रकार विभिन्न प्रान्तों में थोड़े-थोड़े अन्तर के साथ सभी रीति रिवाजों में काफी समानता मिलती है , कहीं किसी का चलन दीपावली पर है तो कहीं किसी अन्य त्योहार पर । यही बात झूला झूलने के विषय में भी कही जा सकती है। नेपाल में वजाय श्रावण के , दशहरे के अवसर पर जगह-जगह झूले दिखाई देने लगते हैं। महिलायें उसी प्रकार गाती हुयीं झूलती हैं।

श्रावण मास की तरह यहाँ दशहरे के पर्व पर झूलने की परम्परा है। किन्तु जुये का खेल यहाँ की तरह ही दशहरे के पर्व से ही शुरू होजाता है। नेपाली रुपये को मोरू और भारतीय रुपये को कम्पनी रुपया कहा जाता है। वहाँ जगह-जगह जुये के फड़ जमे रहते थे। कौतुहलवश मैं भी वहाँ के एक प्रसिद्ध साहूकार सेठ रूमाली साहू के यहाँ देखने चला गया। उसके हाल में कई जगह फड़ जमे थे। जो व्यक्ति मुझे वहाँ लेकर गये थे वह बोले-’आप भी दाव लगायें।

मैंने कहा-’मैं जुआ नहीं खेलता।’

वह बोले-’मैं आपके नाम से दस मोरू लगा देता हूँ।’

मेरे मुँह से निकल गया-’जीत गया तो मेरे और हार गया तो तुम्हारे गये।’वह इस पर भी मान गये और दस मोरू मेरे नाम से लगा दिये। वह मेरे नाम से जीतते चले गये।मुझे रात तीन बजे नीद आने लगी थी। मैं नेपाली दीदी के यहाँ लौट आया और जीते हुये सारे पैसे दीदी को दे दिये। उन्होंने अपनी तिजोरी में रख दिये।

सुवह जो सुनता वही जीत का पुरस्कार मांगता। इस तरह सारे मोरु ठिकाने लग गये। जैसा धन था बैसा ही चला गया।

वुटबल से पहाड़ पर जाने का रास्ता था। विदेशी लोग भी यहाँ आकर ठहरते थे।

उन दिनों नेपाल में वलि प्रथा का चलन अधिक था। प्रत्येक हिन्दू देवताओं के समक्ष वलि चढ़ाई जाती थी। मेरा जीवन तो जाने कैसा-कैसा गुजरा है।

यह कहकर महाराज जी गुनगुनाने लगे-

अजब है दास्ता मेरी ये जिन्दगी।

इसके कुछ क्षण बाद वे गुनगुनाये-

बड़ी कसमकस में गुजरी ये तवीलों ‘गम’ की रातें।

कभी हंस के रो दिये हम कभी रो के मुस्कराये।।

इसके बाद कुछ देर चुप रह कर वे गुनगुना ने लगे-

उम्र भर तो सुनी गालियाँ हमने सब कीं।

आदमी बहुत नेक था मइयत पै हजारों ने कहा।

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जब मैं दिनांक-08-01-09 को गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी बोले-संत ,ज्ञानी और फकीर तो जन्म से ही होते हैं। बुद्धि का दखल हुआ समाप्त कि होगया फकीर। बुद्धि की यात्रा जहाँ समाप्त होती है ,वहीं से आध्यात्म की यात्रा शुरु हो जाती है। इसके बाद महाराजजी गुनगुनाने लगे- सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या हुआ।

गुरुदेव ने संत,ज्ञानी,फकीर और पूर्ण स्वतंत्र व्यक्तित्व की परिभाषा इस प्रकार की है-

संत-संतोषी,(न किसी से कोई शिकवा न कोई शिकायत) शाँतचित्त व्यक्तित्व,कोलाहल रहित जीवन।

ज्ञानी-अव्यक्त आत्म स्वरूप में लीन।

फकीर-कुछ लेना न देना मगन रहना।

पूर्ण स्वतंत्र-उन्मुक्त जीवन (न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर,एक दम बे लिहाज)अपनी मर्जी के मालिक।

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इसके अगले दिन मैंने गुरुदेव से प्रश्न किया-’ गुरुदेव आप से मुक्तिनाथ यात्रा के वृतांत अनेक बार सुने हैं। आज उन्हें पुनः सुनने की इच्छा है।’यह सुनकर वे कुछ समय तक चुपचाप बने रहे फिर बोले-’ एक बार गोपाल स्वामी ने मुझ से कहा -मैं आपके साथ मुक्तिनाथ जाना चाहता हूँ।’मैं उनकी बात टाल नहीं पाया। यात्रा शुरू होगई। गोरखपुर से बस के द्वारा सोनाली वार्डर पर पहुँच गये। वहाँ नोतनवा रेल्वे स्टेशन से भी जाया जा सकता है।

हम लोग सोनाली से बस पकड़कर पूरे दिन में पोखरा पहुँच गये। पोखरा नेपाल का स्विटजर लेंन्ड कहलाता है। यह तीन ओर से ऊँचे- ऊँचे पहाड़ों से घिरा मनोरम स्थान है। अन्नपूर्णा, माछापूछड और हाथीपीठ नामकीं तीन चोटियाँ है।

यहाँ सरस्वति नदी स्वेत गंगा के नाम से पोखरा में गुप्त रूप से वहती है। जिसका स्वर सुना जा सकता है दर्शन नहीं होते। यही इलहाबाद के संगम पर गुप्त रूप से आकर मिलती है।

पोखरा की झील में बाराह का मन्दिर है। यह ऊवड़-खावड़ स्थान है। इसके उपर बस्ती है। यहाँ से फ्लाइट से जोम सोम जाना था। गोपाल स्वामी दण्ड लिये थे। उन्हें दण्ड लेकर जाने देने में बड़ी मुश्किल से अनुमति मिली।

जोम सोम से मुक्तिनाथ के लिये आठ सौ मोरू में घोड़े मिले थे। मुक्तिनाथ आगे गन्डकी नदी का उदगम स्थान दामोदर कुन्ड है। जिसमें सालिग्राम मिलते है।

महाराज जी ने बतलाया-जब हम पोखरा पहुँचे, हमारे सामने भरतीय मुद्रा के पाँच-पाँच सौ के नोटों को बदलने की समस्या थी। संयोग से संत दामोदर दासजी अपनी दस-पन्द्रह शिष्याओं के साथ मिल गये। उन्होंने नोट बदल दिये।उन्होंने ही मुक्तिनाथ में अपने दो ब्रह्मचारियों के पते भी दे दिये। यहाँ से सारे दिन चलने के बाद मुक्तिनाथ पहुँचे।वहाँ ठन्ड बहुत थी। उन दोनों ब्रह्मचारियों ने हमारी खूब सेवा की। कम्बल ओढ़ने के लिये दे दिये। जाते ही चाय पिलादी उसके बाद भगवान मुक्तिनाथ अर्थात शालिग्राम भगवान के दर्शन किये। रात्री विश्राम के बाद प्रातः ही लौट पड़े। उन्हीं घोड़ों से दिन भर चलने के बाद शाम तक जोम सोम लौट आये। वहाँ से फ्लाइट पकड़कर पोखरा आ गये।

दूसरे दिन वहाँ से बस पकड़ कर काठमान्डू आगये। वहाँ रात्री में शासकीय रेस्टहाउस में ठहरने को जगह मिल गई। पशुपतिनाथ के एक सन्यासी ने मन्दिर के दर्शन कराये। यहाँ से दस किलोमीटर दूर बस से गोकर्ण तीर्थ के दर्शन करने गये।

दूसरे दिन बस पकड़कर सोनाली आगये। यहाँ से गोरखपुर होते हुये लखनऊ के रास्ते वापस लौट आये।

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महाराज जी ने नेपाल यात्रा अनेक बार की है। उन्होंने मुझे इस प्रसंग को अनेक बार सुनाया है। महाराज जी ने सुनाया-’ हम नेपाल यात्रा पर थे। पहाड़ों पर घूमना मुझे अच्छा लगता है। एक बार हम गण्डकी नदी के किनारे -किनारे आगे बढ़ रहे थे कि एक पालकी आती दिखी। उस पालकी के आगे-आगे एक आदमी बीन बजाते हुये चल रहा था। उसका दूसरा साथी ढोल बजाते हुये उसके पीछे-पीछे चल रहा था। उनके पीछे पालकी वाले पालकी लेकर चल रहे थे। उस पालकी में आगे की तरफ एक हट्टी-कट्टी औरत लगी थी। उस पालकी के पीछे वाले हिस्से की परफ एक आदमी लगा था। ऐसे कठिन रास्ते पर पालकी लेकर चलना कठिन कार्य था। यह देख कर हम दंग रह गये।

जब हम उस पहाड़ पर पहुँचे तो वे पालकी वाले पालकी में जल भर कर ले आये थे। पता चला-पुत्रेष्ठि यज्ञ हेतु ये लोग गण्डकी नदी से पूजा के लिये जल लेने गये थे। हम लोगों ने भी उस पुत्रेष्ठि यज्ञ का प्रसाद ग्रहण किया था। हम लोग उनकी श्रद्धा भक्ति देखकर आश्चर्य चकित रह गये थे।

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