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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 8

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 8

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

महाराज जी का स्वभाव है कि उनके सभी शिष्यों का कल्याण कैसे हो? वे हमेशा इसी बात को लेकर चिन्तित रहते हैं। जब में गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज अपने परम प्रिय शिष्य अखलेश जी के बारे में कह रहे थे- अखलेश जी का वहुत अच्छा परिबार है। इन दिनों उनकी माँ बहुत बीमार हैं।सभी बहुयें बेटे उनकी सेवा में लगे हैं। यह कह कर महाराज जी ने अखलेश जी को फोन किया-’ माँ कैसी हैं?’

वे बोले -’ दर्द से कराह रही हैं। वेचैन हैं।’

महाराज जी ने कहा-’ मेरा मोवाइल उनके कान से लगा दो। ’उन्होंने वैसा ही किया।

महाराज जी बोले -’माँ जी नारायण कहें। नारायण।’यों महाराज जी उनसे बारम्बार नाराणय कहलाते रहे। उसके बाद अखलेश जी ने मोवाइल अपने कान से लगा लिया और महाराज जी से बोले-’ डॅाक्टर ने कहा है अब ये अन्तिम पड़ाव पर हैं। इन्हें घर ले जाकर सेवा करें।’

थोड़ी देर वाद फिर महाराज जी के मोवाइल की घन्टी बजी। अखलेश जी कह रहे थे-

‘ अब माँ जी पूर्ण शान्त मुद्रा में आराम से हैं। अब कराह नहीं रही है। गुरुदेव, यह आपके मोवाइल आने के बाद हुआ है।

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दिनांक 03-03-09 की बात है। जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा गुरुदेव अपने बगीचे में पानी दे रहे थे। बगिया में फूल खिले थे। मैं जाकर उन फूलों को निहारने लगा। महाराज जी अपने पौधों को बच्चों जैसा प्यार करते हैं। पानी देते समय ध्यान रखते हैं ,कहीं पानी की धार पौधों की जड़ों पर न पड़ जाये। यों चौकस रह कर पानी देते हैं।

जब उनका यह काम निपट गया तो वे बगीचे में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुये बोले-’ मेरी उम्र बारह -तेरह बर्ष की रही होगी। पिताजी कहीं यात्रा पर गये थे। माँ को छुट्टे पैसों की जरुरत थी। माँ मुझ से बोली-’ तूं रुपये तुड़ा लायेगा।’

मैंने माँ से कहा-’ हाँ , तुड़ा लाऊँगा।’माँ ने हजार रुपये का बड़ा नोट मेरे पेट से बाँध दिया। ऊपर से स्वेटर पहना दिया। उसके ऊपर कोट भी पहना दिया। मैं बाड़े पर पहुँच गया।

ट्रेफिक पुलिस के जमादार से जाकर बोला-’ माँ ने कहा है कि आप हमारा नोट तुड़वा दें।’वह मेरे साथ होगया। हम बैंक पहुँच गये। उन्होंने कैसियर से नोट तोड़ने के लिये कहा।

कैसियर बोला-’ नोट लाओ।’मैंने कोट उतारा, स्वेटर उतारा। और पेट पर बँधे उस नोट को खोल कर दे दिया। वे इतने बडे एक हजार के नोट को देखते रह गये। उसने उस नोट के खुले रुपये उसी तरह मेरे पेट से बाँध दिये। वही जमादार मुझे घर तक छोड़ने आये। अपने जीवन की यह घटना आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

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बात याद आती है उस समय की जब मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह वर्ष की रही होगी। मैंने रुई के खिलौने ,क्रीम-पाउडर, पोलिस,और हेयर आयल, बूट पालिस, नहाने तथा कपड़े धोने का साबुन जैसी चीजें बनालीं थीं।

डबरा में हमारी जमीन थी। दो बैलों की जोड़ी भी थी। एक बार हमने वे बैल बैचना चाहे। बैल यह बात समझ गये। जब खरीदार आया तो उनमें से एक बैल बैठकर रह गया था। हमारे वहुत प्रयास करने पर भी नहीं उठा। उसकी आँखें लाल होगई थी। ऐसा लग रहा था यह किसी को मार ही डालेगा। किन्तु जैसे ही ग्राहक गया वह बैल उठकर खड़ा हो गया था। पूरी तरह सामान्य होगया था। पिताजी सोचते -किसी जमाने में इसका उधार लेकर आये होगे। उसे बेचने मेले में लेगये तो उस बैल की वहाँ भी वही हालत रही। वह बैलों की जोड़ी उस समय में मुश्किल से साठ रुपयों में बेचना पड़ी थी। वह प्रारब्ध तो भोगकर ही छूटा।

हम पर कोई संकट आता उस समय हम घूनी वाले दादाजी की याद करने लगते इससे उस संकट का निवारण हो जाता।

महाराज जी यह कथा कह रहे थे, उधर फोन की घन्टी बजे जा रही थी, किन्तु महाराज जी फोन उठा ही नहीं रहे थे। मेरे से रहा नहीं गया । मैंने पूछ ही लिया-’ गुरुदेव, बड़ी देर से फोन की घन्टी बज रही है आज आप उसे उठा ही नहीं रहे हैं।’

महाराज जी बोले -’ यह खुशबू के फोन की घन्टी है। मुझे आज उससे बात नहीं करना है।’मैं सोच में पड़ गया, गुरुदेव की परम् प्रिय शिष्या, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा। आज महाराज जी ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या पता उसके मन की व्याकुलता को और अधिक बढ़ा रहे हों! कहाँ उससे इतना दुलार और कहाँ बात भी नहीं कर रहे हैं! गुरुदेव की यह माया मेरे समझ से बाहर की बात थी। यही सोचते हुये मैं उस दिन घर चला आया था।

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अगले दिन महाराज जी ने यह कथा सुनाई थी-यह बत सन् 1948 ई0 की रही होगी।उस समय मैं युवा था। अपना भला-बुरा समझने लगा था। किसी बात को लेकर एक लड़के से विवाद हो गया । उस लड़के का नाम सानू था। उसने मौहल्ले के एक दादा को पटा लिया। उसे लेकर वह मुझे मारने आगया। वह दादा मुझे देखकर अपने साथी सानू से बोला-’ यह तो सीधा-साधा दिखता है। चल रहने दे , इसे मारना-पीटना उचित नहीं लगता। यह कह कर वे मेरे पास से चले गये।

तीन-चार दिन बाद मुझे पता चला कि दोनों ऊपर छत पर बैठे बातें कर रहे थे। उस दादा ने सानू से कहा-’ तू यदि ऊपर छत से कूद जाये तो मैं तुझे सौ का नोट इनाम में दूंगा।’वह पटठा मुर्ख तो था ही, उसकी बात को सच मान गया और वहीं से नीचे कूद पड़ा। इससे उसका दोनों पैरों की एडियाँ बैठ गई। वह बिस्तर पर पड़ गया। मुझे जब यह बात पता चली तो मैं उसे उसके घर देखने पहुँच गया। मैंने उससे कहा-’ भैया, सोच -समझकर निर्णय लेना चाहिये। आगे जीवन में विवके से काम लेना।’मेरी यह बात उसके समझ में आगई होगी इसीलिये वह मेरा मित्र बन गया था।

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दिनांक 14-4-09 को महाराज जी आरावली की पद यात्रा का वृतांत सुनाने लगे-’ मेरे साथ एक नागा बाबा भी था। जब हम पहाड़ी के नीचे गाँव में पहुँचे ,एक बच्चा हमारे पास आकर बोला-’ बाबा जी आप मेरे शर का खाना खायेंगे?’

मैंने उत्तर दिया-’हाँ, खायेंगे, क्यों?’

वह बोला-’ मैं तो मीना हूँ।’

मैंने उसे फिर उत्तर दिया-’तो क्या हुआ! मैं तुम्हारे घर का खाना खाऊँगा।’

यह सुनकर वह लड़का दौड़ते हुये वहाँ से चला गया और जौ की दो रोटी लेकर आगया। मैंने उससे आधी रोटी लेकर खाली। उसी समय एक गुसाईं भी खाना लेकर आगया। साथी बाबा ने उसका खाना खाया। जो खाना बच गया उसने उसे अपने कम्डल में डाल लिया। कोई छाछ भी ले आया , उसे भी उस बाबा ने अपने कम्डल में डाल ली। यह देखकर वह बालक बोला-’ यहाँ , इन पहाड़ों में से शंकर बाबा आते रहते हैं। वे पीते भी हैं और बड़े-बड़े माल बनवाकर खाते हैं।’

मैंने उस बालक से कहा-’ हम मिलना चाहेंगे उनसे।’

वह बोला-’ आप उनके चक्कर में मत पड़ो, वह उस पहाड़ के पीछे रहते हैं।’उस लड़के की बात सुनकर हम दोनों शंकर बाबा जी से मिलने उस पहाड़ी की तरफ चल दिये। साथी बाबा कुनमुनाते मन से साथ चल पडे।

यह घटना सन् 1965 की है। उस समय मैं बत्तीस-तेतीस वर्ष का था। मुझे घूमने फिरने का शौक था। वहाँ का रास्ता कठिन था। बड़ी -बड़ी घास, रास्तें में सेही के कांटे बिखरे हुये थे। उस बाबा को जोर की प्यास लगने लगी। हम दोनों ने जम्प लगाकर खाई पार की। दूसरी पहाड़ी की तरफ पहुँच गये। वहाँ एक वावड़ी थी। उस नागा बाबा के फेंटा को रस्सी बनाकर उसमें कम्डल बाँधकर पानी निकाला तब कहीं हमारी प्यास बुझी।

वहाँ से चलकर हम दूसरी पहाड़ी पर पहुँच गये। उस पहाड़ी के दूसरी तरफ मैदान था। सीधा खड़ा पहाड था। नीचे आना कठिन था। कूद-फाँद कर कैसे भी नीचे आगये। पास में ही शंकर जी का एक मन्दिर था। पशु चराने वालों ने उसका रास्ता बतला दिया। हम दोनों वहाँ पहुँच गये। उस मन्दिर से गाँव दूर था। मन्दिर का पुजारी गाँव में रहता था, पता लगने पर मक्का की महेरी लेकर आ गया।

यह कथा कहते-कहते महाराज जी ने ‘अपना-अपना सोच’ पुस्तक उठाली। उसके पृष्ठ क्रमांक 53 से प्रथम पेरा पढ़ने लगे और पृष्ठ क्रमांक 55 तक पढ़ते रहे।

उसके बाद बोले-’मेरा सारा ही जीवन एक घुम्कड़ की तरह व्यतीत हुआ है। ‘ उसके बाद महाराज जी गुनगुनाने लगे-‘जब बाँध लिये पग में घुंघरु।’मन ही मन बड़ी देर तक गुनगुनाते रहे। उसके बाद बोले-’ अपना-अपना सोच’ अनुभवों की कहानी है।

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एक यात्रा वृतांत

कोल्हापुर दक्षिण काशी कहलाती है। यहाँ के महालक्ष्मी मन्दिर के श्रीयंत्र की महिमा प्रसिद्ध है।

महाराज जी ने यह यात्रा पाँच-सात लोगों के साथ की थी। नरसिंह वाड़ी कृष्णा नदी के तट पर है। यहाँ से महाराज जी ने ओदुम्बर के लिये प्रस्थान किया। कृष्णा नदी के दूसरे तट पर चौसठ योगिनियों का मन्दिर है। यहाँ स्वामी नरसिह सरस्वति रहे हैं।

ताशगाँव-कोल्हपुर से पंजिम के लिये प्रस्थान किया। वहाँ से वास्कोडिगामा के लिये बस पकड़़ी।

यसवन्तगढ़-यहाँ शिवाजी का किला है।

माड़गाँव-वासुदेवानन्द सरस्वति (टेम्वे स्वामी ) के द्वारा स्थापित दत्तात्रेय का दर्शनिय मन्दिर है।

माड़गाँव से 8 किलोमीटर दूर झारापै ग्राम में प0पू0श्री काका खानवलेकर जी जिनकी उम्र 112 वर्ष की हो चुकी थी, उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगया। इन्हेंाने टेम्वे स्वामी जी से अनुग्रह प्राप्त किया था। ये बीस करोड़ जाप कर चुके थे। इन्हें तीन करोड़ जाप के बाद दत्तात्रेय के दर्शन का लाभ हुआ था।

माड़गाँव में उदुम्वर का वृक्ष है। लोग उसके दर्शन करने व उसकी परिक्रमा करने जाते हैं।

वास्कोडिगामा से गोकर्ण, महावलेश्वर के लिये निकले। गोकर्ण से लौटते समय सागर तटपर अन्य मार्ग से आये जो गहन जंगल था। यहाँ गौड सारस्वत लोग रहते हैं। जो कभी कश्मीर से यहाँ आये थे।

निराकार संस्थान का लक्ष्मीनारायण मन्दिर मासे नामक स्थान पर है। पास में ही कोड़-कोड़ जो कंगन के आकार का है। इस क्षेत्र में कोकण भाषा बोली जाती है। कोकण में मल्लिकाअर्जुन समुद्रतट से थोड़ी दूर पहाड़ों में है। यह स्थान भी श्री शैलम् जैसा ही है। इसे श्री क्षेत्र भी कहते हैं। यों हम 334 किलोमीटर की यात्रा करके वास्कोडिगामा लौट आये।

दूसरे दिन वास्कोडिगामा से गोआ दर्शन के लिये निकले। स्टीमर से झुआरी नदी पार करके दूसरे छोर पर पहुँचे। वहाँ हनुमान मन्दिर के दर्शन किये। रामनाकरी में लक्ष्मीनारायण मन्दिर शान्तेरी में कामाक्षी मन्दिर कवड़े में शान्तादुर्गा। बाँध पड़े में महालक्ष्मी। आगेसी में महारुद्र के दर्शन किये। फरमेागुड़ी में गणपति। भड़के में नवदुर्गा। मगोसी में भगवान मंगेश ‘शंकर’ मासेल में देवकी कृष्ण के मन्दिर के दर्शन करते हुये आमूर्णा में माण्डवी नदी पर जा पहुँचे।

उसके बाद सिइना गोआ में हरवड़े, ध्वश्वा में महारुद्र का मन्दिर। साँखली दत्तवाड़ी में दत्त मन्दिर। साँखड़ी में विठल मन्दिर के दर्शन करते हुये माण्डवी नदी पुनः पार की। ओलुगोआ में विश्व प्रसिद्ध सेन्टफेन्सिस जेवियर चर्च है। इस चर्च में म्यूजियम भी है। पंजी में महालक्ष्मीनारायण मन्दिर एवं हनुमान मन्दिर के दर्शन करते हुये मडकाई में अपनी परम्परा के साधकों की गुरुबार को साधना चलती है। यह संयोग था वहाँ के साधकों के साथ मुझे दो घन्टे रहने का अवसर मिला है। इस तरह मेरी गोआ यात्रा रही है।

गोआ से चलकर हम सीधे पूना लौट आये। अगले दिन पूना के अपने मठ से कार के द्वारा आलंदी के लिये निकले। इन्द्राणी नदी के तट पर संत ज्ञानेश्वर की समाधि है। इसके दर्शन करते हुये यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर दूर देहूरोड़ में संत तुकाराम का स्थान है। वहाँ का विठठल मन्दिर भी इन्द्राणी नदी के तट पर है। इस तपस्थली के दर्शन करते हुये चिंचवड़ में संत मोरिया गोस्वामी की समाधि के दर्शन करते हुये पूना लौट आये।

पूना में अष्टविनायक का विशाल मन्दिर है। इसके दर्शन के बाद ही उस दिन विश्राम किया। अगले दिन महाराष्ट्र में परम पूज्य ब्रम्ह चेतन गोदवले महाराज के दर्शन किये। वहाँ से पण्डरपुर के लिये रवाना होगये। वहाँ पर विठठल भगवान के दर्शन किये। यों यह मेरे जीवन की महत्वपूर्ण यात्रा रही है। जिसे मै आज इस उम्र में भी स्मृति में सजोये हूँ।

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एक दिन चलते समय मेरे मुँह से निकला-’ अच्छा चलता हूँ गुरुदेव, कल आऊँगा।’यह सुनकर गुरुदेव बोले-’ अच्छा है जाते-जाते एक प्रसंग और सुनते जायें।’

गुरुदेव का आदेश पाकर मैं प्रसंग सुनने जम कर बैठ गया। बोला-’सुनायें गुरुदेव।’यह कहकर मैं उनके चेहरे की ओर निहारने लगा।

महाराज जी बोले-’ एक बार मैं नगर के प्रसिद्ध पण्डित प्रहलाद जी स्वामी के निवास शिव कॉलोनी पर उनसे मिलने गया था। जब मैं लौटने को हुआ तो वे बोले-’स्वामी जी बहू ने एकादशी का उद्यापन किया है , प्रसाद लेकर जाये।’मैं रुक गया।

वे बोले -’ स्वामी जी आज मैं आपको नवग्रह के बारें में बतलाना चाहता हूँ।’

उनकी अस्वस्थता के कारण मैंने कहा-’ आज आपका स्वास्थ्य कुछ नरम है। कल आकर सुन लूँगा।’

पण्डित जी बोले-’ कल का क्या भरोसा! आज ही सुना देता हूँ।’यह कह कर उन्हांेने नवग्रह के बारे में बतला दिया। मैं वह सुनकर नोट करके आ गया।

दूसरे दिन पता चला- प्रहलाद जी नहीं रहे। मैं आश्चर्य में रह गया। उस समय मुझे महाराज युधिष्ठर का वह प्रसंग याद आने लगा। महाराज युधिष्ठर के मुँह से किसी प्रसंग बस कल शब्द निकल गया ।

भीम ने उत्सव का आयोजन कर डाला। जब भीम से पूछा गया कि यह उत्सव किस हेतु किया गया है। भीम बोला-’ भइया त्रिकाल दृष्टा हो गये हैं। वे कल के बारे में जानते हैं।’

मैं गुरुदेव से यह प्रसंग सुनकर लौट पड़ा। मैं समझ गया गुरुदेव ने मेरे कल के जबाब में क्या नहीं कह दिया। निश्चय ही बात कल पर नहीं टालना चाहिये। यह सोचते हुये मैं घर लौट आया।

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दिनांक 8-5-09 को महाराज जी बोले-’ बात मुम्वई की है। एक धन्नालाल नामका व्यक्ति मेरे से पूर्व से ही परिचित था। बहुत दिनों बाद वह मेरे पास आया। मैंने पूछा -’ कहँा से आ रहे हो ?’

उसने उत्तर दिया-’जेल से ।’

मैंने पूछा -’ कितने दिनों तक रहे?’

वह बोला‘-’ छह माह।’

‘काम के लिये आये हो’

‘जी।’मैंने उसे काम पर लगा लिया।

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यह बात भी इन्हीं दिनों की है एक 68 वर्षीय साधक बाबा जी के भेष में आश्रम में पधारे। वे टाट पहने व ओढ़े रहते थे। उन्होंने भी महाराज जी से अनुग्रह प्राप्त किया था। किन्तु दीक्षा के बाद उनका कहीं कोई पता नहीं चला। उनके टाट के बिछावन और ओढ़ने का टाट आज भी यहीं है।

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महाराज जी इस बात की चर्चा करते रहते है। उन्होंने सन्यास लेने के बाद प्रथम चार्तुमास की कथा सुनाने लगे। नर्मदा किनारे किटी में पहला चार्तुमास व्यतीत किया था। वहाँ वह झोंपड़ी टपकती रहती थी। नीचे सीड़न थी। सीड़न से बचने के लिये पेड़ों के पत्ते बिछा लेते थे। उस समय बीस दिन तक लगातार बारिस होती रही।

वहाँ साधना के अतिरिक्त निकटवर्ती आदिवासी बालक आने लगे। उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। यह बात सन् 1993 ई0 की है।

जो अपने को नहीं देखता

महाराज जी बोले-’कहते हैं, एक व्यक्ति कलकत्ता से बैंक से पैसे निकाल कर दिल्ली के लिये चला। उसने रेल के प्रथम श्रेणी का टिकिट लिया। उसके पीछे बैंक से ही एक व्यक्ति लग गया। उसने भी प्रथम श्रेणी का टिकिट ले लिया और पास की सीट पर आ बैठा। रास्ते में तीन लोग बदल गये। चौथा आदमी साथ यात्रा करने लगा। जब वह उतर कर जाने लगे तो साथ चल रहे व्यक्ति ने पूछा-’आपके साथ यात्रा अच्छी रही। क्या मैं गलत था।’

उन्होंने उत्तर दिया-’आप गलत नहीं थे।’

‘फिर चूक कहाँ होगई!’

उन्होंने फिर उत्तर दिया-’मैं अपना पैसा तुम्हारे सिरहाने रख देता था।’

‘मेरे सिरहाने!’

‘हाँ, जब आप बाथ रूम जाते , उस समय मैं अपना पैसा आपके सिरहाने रख देता था। मित्र ,गड़बड़ यह रही कि तुम अपन को नहीं देखते थे। इसी कारण तुम चारों लोगों को धोका होता रहा और मैं बच गया।

इसलिये तिवाडी जी ‘ जो अपने को नहीं देखता’ वह जीवन भर धोका खाता रहता है।

महाराज जी द्वारा कही यह कथा मुझे अपनी ओर देखने की प्रेरणा देती रहती है।

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मैं गुरू निकेतन पहुँचा महाराज जी ऐसी भीषण गर्मी में अपने बगीचे के पेड़ोंको पानी दे रहे थे। मुझे उनके पौधों में लहलहाते फूल दिखे। मैंने महाराज जी से कहा-’ इस मौसम में ये फूल?’

महाराज जी बोले-’ दिन रात इनकी सेवा करना पड़ती है तब कहीं, मौसम प्रतिकूल होने पर भी इनमें फूल लग रहे हैं।’

मुझे ज्ञात है महाराज जी अपने पौधों को बच्चे से भी अधिक प्यार करते हैं। एक बार मैंने फूल देखकर उनपर प्यार से हाथ फेर दिया। यह देख कर महाराज जी ने मुझे खूब डाँटा-’ इन पर इतना प्यार उमड़ रहा है तो पहले इनकी सेवा करो फिर इन्हें छुओ। इनमें भी बैसा ही जीवन है जैसा हमारे में।’’ उस दिन से मैं महाराज जी के जीवन के बारे में दृष्टिकोंण को समझ गया हूँ। वे पेड़- पौधों और चल प्रणियों में समान जीवन देखते हैं।

वे अपने बगीचे के खिलते हुये फूलों को देखकर बैसे ही आनन्दित होते हैं, जैसे एक माँ अपने बेटों को देखकर होती है। देश के विभिन्न प्रान्तों के फूलों के पौधे उनके बगीचे में देखे जा सकते हैं। सम्पूर्ण देश से आने वाले शिष्य गुरूदेव की इस इच्छा को जान गये हैं। इसीलिये वे यहाँ आते समय अपने प्रान्त के ऐसे फूलों वाले पौघे लेकर आते हैं। शिष्यों द्वारा लाये पौधें को मैंने कई बार महाराज जी को स्वयम् उन्हें रोपते हुये देखा है। पेड़-पौधें में कब पानी देना है यह कोई महाराज जी से सीखे। इस सम्बन्ध में लोग उनसे परामर्श लेने आते रहते हैं।

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