Sub-biological literature of the form of Bhavabhuti books and stories free download online pdf in Hindi

भवभूति के रूपको का उप जीव्य साहित्य

संस्कृत नाटकों के विशाल साहित्य पर जिन इने गिने नाटककारो के अमिट चरण चिन्ह विद्यमान है उनमें भवभूति अग्रगण्य है । विशेषत : राम नाटकों के तो वे प्राण हैं उनके नाटकों को पृथक करने पर राम नाटकों की सुदीर्घ परंपरा निर्जीव सी प्रतीत होती है। नाटककार भवभूति की नाट्य प्रतिभा का समुचित मूल्यांकन करने हेतु उनके नाटकीय आधार तत्वों एवं उप जीव्य साहित्य का चिंतन एवं विश्लेषण अत्यावश्यक है।


रचना की दृष्टि से काव्य को दो रूपों में विभक्त किया गया है दृश्य और श्रव्य। अर्थात नाटकों का काव्य से सर्वथा स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है। काव्य का ही उत्कृष्ट एवं चरम रूप नाटक के रूप में प्रति फलित होता है नाटकांत कवि त्व। यही कारण है कि भवभूति के नाटक, नाटक कम,काव्य अधिक प्रतीत होते हैं। उनके नाटकों में नाट्य संविज्ञान का उत्कृष्टत्तम रूप वहां मिलता है जहां उनके पात्र कार्य व्यापार के किसी संवेदनशील बिंदु पर काव्य मयी भाषा में अपने अंतर की अभिव्यक्ति करते हैं। यही कारण है कि भारतीय आचार्यो ने श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य को श्रेष्ठ माना है


न तत्ज्ञानम, न तत शिल्पम', न सा विद्या ना सा कला।
न सा योगा न तत्कर्म नाट्ये अश्मिन,` यन्न दृश्यते ।।

इस प्रकार रचना की दृष्टि से भारतीय आचार्यो द्वारा निर्धारित आधार तत्वों को ही अपने नाटकों में समाविष्ट कर उन नाट्य शास्त्रों को ही आचार्य भवभूति ने अपने नाट्य साहित्य का उप जीव्य बनाया है । क्योंकि भारतीय आचार्यो ने सर्वोच्च कवि कर्म को ही ,नाटकों का काव्य धर्म माना है जिसका पालन भवभूति ने अपने नाटकों में बखूबी किया है। वस्तुतः कोई भी साहित्यकार किसी युग विशेष की विशिष्ट प्रवृत्तियों की देन होता है और ऐसी प्रवृत्तियां युग की कभी न बुझने वाली नवीन आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं के ही सहज परिणाम होती हैं। साहित्य के क्षेत्र में जब पहले से चली आती हुई कोई परंपरा युग जीवन की नवीन प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करने में अक्षम सिद्ध होती हैं तो उसी की नींव पर किसी नवीन परंपरा का जन्म ,उस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति के रूप में हो जाता है। फलत : भवभूति जैसे महान नाटककार जो अपनी युग चेतना को नवीन स्वर प्रदान करते हैं ,उनके कृतित्व का मूल्यांकन भी पूर्व से चली आती हुई परंपरा से विच्छेद करके नहीं किया जा सकता। भवभूति के अवतीर्ण होने से पूर्व ,भास, शूद्रक, कालिदास आदि, जिन महारथियों के उज्जवल चरण चिन्ह ,संस्कृत नाट्य साहित्य में विराजमान है, उन सभी का न्यू नाधिक प्रभाव भवभूति की नाट्य शैली के विकास में, यत्र तत्र दृष्टिगोचर होता है।


भवभूति की आदि नाट्य कृति महावीर चरितम,` का उप जीव्य स्पष्टत: बाल्मीकि रामायण ही कहा जा सकता है । नाटक के आमुख में ही कवि ने उप जीव्य की स्पष्ट सूचना स्वयं ही दे दी है

प्राचेतसो मुनिवृषा" प्रथम: कविनाम,।
यत्पावनम, रघुपते : प्रणिनाय वृत्तम,।
भक्तस्य तत्र समरसतमे अपि वाच:।
तत्सुप्रसन्न मनस : कृतिनो भजंताम, ।। महावीर चरितम, 17


इस श्लोक द्वारा ना केवल इस नाटक के उपजीव्य का संकेत मिलता है ,अपितु उसके चरित्र नायक एवं रचयिता के प्रति नाटककार की अपार श्रद्धा एवं भक्ति के भाव भी छलकते हुए से प्रतीत होते हैं। रामायण के प्रति ऐसा सहज आकर्षण केवल भवभूति के कर्तृत्व की ही विशेषता रही हो, ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत --काव्य बीजम, सनातनम,-- के अनुसार अधिकांश संस्कृत कवियों की विशिष्ट कृतियों का उप जीव्य रामायण एवं महाभारत के कतिपय प्रसंग ही रहे हैं। वस्तुतः सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना में महाभारत की अपेक्षा रामायण ही ,अधिक सहायक रही है। यही कारण है कि भवभूति के उत्तररामचरितम् का उप जीव्य भी रामायण होने के कारण ही राम और सीता के वृत्त ने विप्रलंभऔर संयोग श्रृंगार की समर्थ व्यंजना होने पर भी ,उसके मूल में सामाजिक -- आदर्शों की गहन अनुभूति परिलक्षित होती है। वस्तुतः जिन कवियों ने राम के वृत्त को अपने नाटक के लिए चुना है, उनका साहित्यिक दायित्व काफी बढ़ गया है। एक और तो उन्हें लोकमानस पर सैकड़ों वर्षों से चली आती हुई रामचरित्र की पावन मूर्तियों की रक्षा करनी होती है और दूसरी ओर राम वृत्त में कतिपय उलझे हुए संदर्भ को नाटकीय आदर्श के सांचे में ढालकर सुलझाना होता है। इसी कारण भवभूति ने महावीर चरितम, में रामकथा को नाटकीय संवेग देने हेतु उसकी मूल कथा में अनेक आवश्यक परिवर्तन कर दिए हैं। निश्चय ही वृत्त की प्रांत रेखाएं बाल्मीकि की ही है किंतु उसके अभ्यांतर रूपों को भवभूति ने बड़ी कुशलता और मौलिकता के साथ सजा संवार कर नाटकीय औचित्य प्रदान किया है । महावीर चरितम, और उत्तररामचरितम् दोनों ही नाटकों में नाटककार का मुख्य उद्देश्य राम के पावन चरित्र में लगे कथित कलंको का परिमार्जन करना है तथा उनके चरित्र को उन्नयन कर और अधिक निखार लाना है । वस्तुतः भवभूति की पहली दो नाटय कृतियां महावीर चरितम और मालती माधव मैं जो जीवन -मूल्य आधे अधूरे जान पड़ते हैं या जिन नवीन मूल्यों की संभावना दीख पड़ती है प्रायः वे सभी जीवन मूल्य उत्तररामचरितम् में अपने पूर्ण परिपाक में दृष्टिगोचर होते हैं।


उत्तररामचरितम् में जो "उत्तर "पद विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है ,वह न केवल राम के पूर्ववर्ती जीवन वृत्त का बोधक है बल्कि प्रत्यक्षत: उसका संबंध बाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड से भी प्रतीत होता है। उत्तररामचरितम् में आत्रेयी का यह कथन


ऋषे प्रबुद्धोऽसि वागात्मनि ब्रह्मणि तद, ब्रुहि रामचरितम,। आद्य: कविरसि।

तथा अन्य एक स्थान पर कुश के द्वारा लव से यह कहना


किम, एवं त्वम, प्रच्छस्यनधिगत रामायण इव। उत्तररामचरित 6/30

अर्थात तुम तो ऐसी बातें कर रहे हो जैसे तुमने रामायण पढ़ी ही न हो। यह दोनों ही कथन जहां एक और रामायण और उसके रचनाकार के प्रति आस्था प्रकट करते हैं वहीं दूसरी ओर उत्तररामचरित की कथा से मूल उप जीव्य की और भी इंगित करते हुए प्रतीत होते हैं । इतना तो निश्चित है कि सीता का परित्याग तथा राम का दु:सह बिरह भाव आदि घटनाएं रामायण का आधार लेकर ही उत्तररामचरित में निबद्ध की गई हैं । यहां प्रश्न यह उठता है कि वाल्मीकि कृत रामायण की दु:खांत कथा यहां सुखांत रूप में क्यों परिवर्तित हो गई? वस्तुतः राम कथा रामायण के अतिरिक्त ब्रह्म पुराण, भागवत पुराण ,स्कंद पुराण ,गरुण पुराण ,अग्नि पुराण ,पद्म पुराण ,कूर्म पुराण आदि कई पुराणों में किंचित परिवर्तन या परिवर्तन के साथ प्रस्तुत की गई है। भवभूति द्वारा राम कथा में किए गए परिवर्तन, पद्म पुराण की राम कथा के अधिक निकट प्रतीत होते हैं। पद्म पुराण के पाताल खंड में राम का उत्तर वृत्त एक नए परिवेश में खड़ा किया गया है । यहां रामायण के वर्तमान दु:खांत रूप से भिन्न एक ऐसे सुखांत रूप की कल्पना की गई है जहां बाल्मीकि के प्रयत्न से निर्वासिता सीता का राम से पुनर्मिलन हो जाता है । यहां सीता के पृथ्वी में अंतर्निहित होने का प्रसंग लाया ही नहीं गया है । इतना ही नहीं अपितु इस कथा के मध्य भागों में भी रामायण से कई भेद परिलक्षित होते हैं--- जैसे राम के यज्ञ अश्व का वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश, वहां लव कुश का राम की सेना के साथ प्रबल युद्ध, पराजित राम सेना का पलायन आदि। यदि उत्तररामचरित के पंचम तथा षष्टम अंक में चित्रित युद्ध आदि घटनाओं की पदम पुराण के इन अंशो से तुलना की जाए तो दोनों में बहुत कुछ साम्य दृष्टिगोचर होता है । डॉक्टर बेलवलकर की मान्यता भी यही है कि संभवत: भवभूति ने उत्तररामचरित की कथावस्तु में जहां-जहां रामायण की कथावस्तु से प्रमुख भेद उपस्थित किए हैं वहां वह पद्म पुराण में निबद्ध रामचरित से अधिक प्रभावित जान पड़ते हैं। निश्चित ही उनकी कथा वस्तु का मूल उप जीव्य रामायण ही है किंतु यदि ऐसा कहा जाए कि कवि ने उत्तररामचरित की नाटकीय कथा भित्ति की रूपरेखा तैयार करने में पद्म पुराण से सहायता ली है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।


जहां तक नाटक के दुखांत या सुखांत स्वरूप का प्रश्न है तो हम देखते हैं कि रामायण में राम, सीता के समक्ष जब पुन: अग्नि परीक्षा देने का प्रस्ताव रखते हैं तो सीता स्पष्टत : इसे अपना पराभव मानती हैं और इसी पराभव की ज्वाला में झुलसी हुई सी वे पृथ्वी की गोद में अनंत शरण ले लेती हैं। उत्तररामचरित (7 प्रश्ठ 152 )मैं भी सीता जीव लोक के जिस पराभव से मर्म आहत होकर पृथ्वी के अंक में विलीन होने की बात करती है वह रामायण में निबद्ध उनके उक्त अपमान रूप का ही स्मरण दिलाता है। रामायण में सीता को पृथ्वी के उदर में सर्वदा के लिए विलीन होते देखकर राम जिस प्रकार शोकाकुल हो जाते हैं ,ठीक उसी की ध्वनि यहां विलीना सीता को देखकर राम की मर्मान्तक वेदना में प्राप्त होती है। उनके--- लोकांतार; पर्यवसितासि ----जैसे शोक उद्गार रामायण में चित्रित सीता के करुण अवसान का ही स्मरण दिलाते हैं और उसके तुरंत बाद लक्ष्मण का यहकथन ----एष ते काव्यार्थ:---- अर्थात क्या यह दुखांत रूप ही आपके काव्य का प्रयोजन है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि भवभूति दुखांत रामायण से परिचित थे परंतु फिर भी भारतीय नाट्य परंपरा को दृष्टि में रखकर उन्होंने अपने नाटक को सुखांत बना दिया है । वस्तुतः भवभूति की विशेषता इसी में है कि उन्होंने अपने नायक एवं नायिका के मिलन सुखो को बिरह, दु:ख यहां तक कि करुण मृत्यु के,निविड़ आंसुओं से सीचकर ही पुष्ट किया है । ब्राह्मण के पुत्र विजय सेन नामक क्षत्रिय युवक की बहन मदरावती की प्रेम गाथा को ,मालती माधव में ,मालती और माधव की प्रेम कथा का स्पष्ट आधार माना जा सकता है। इसी प्रकार मालती माधव के पंचम अंक में वर्णित कथानक में प्रेमियों का देवालय में मिलन ,उनका छद्म वेश में विवाहित होना तथा बलि रूप में प्रदान की जाने वाली प्रेमिका का उद्धार आदि इन प्रमुख घटनाओं के अतिरिक्त वे जंगली हिंसक पशु के आक्रमण से प्रेमिका की प्राण रक्षा ,शमशन में भूत प्रेतों को महा मांस चढ़ाना तथा उन से सहायता की याचना करना नायिका का अपहरण तथा पुन: प्राप्ति आदि अनेकों घटनाओं का उपजीव्य संस्कृत कथा साहित्य को माना जा सकता है। इस प्रकार मालती माधव के अधिकारिक व प्रासंगिक दोनों प्रकार की कथावस्तु का उप जीव्य साहित्य ,कथासरित्सागर एवं बृहद कथामंजरी को ही माना जाना अधिक उचित प्रतीत होता है। परंतु भवभूति ने इन उप जीव्य साहित्य की कथा के असंस्कृत शरीर में हृदय एवं आत्मा के प्राण तंतु प्रतिष्ठापित कर पूर्णत: परिष्कृत कर दिया है।


अंततः हम कह सकते हैं कि भवभूति के महावीर चरितम तथा उत्तररामचरितम् जैसे प्रसिद्ध नाटकों का उपजीव्य साहित्य यदि रामायण जैसे प्रख्यात ग्रंथ ,अक्षय स्रोत रहा है तो मालती माधव का उपजीव्य बृहद कथा एवं सरित सागर की रोचक कहानियां बनी है । इन कथाओं की वाहय रेखाओं में अपनी उदात्त कल्पना के मोहक रंग भर कर उन्हें संजीवित एवं सुसंस्कृत स्वरूप प्रदान करना भवभूति की अपनी विशेषता है।




। इति