Human beauty in Kalidasa's poetry books and stories free download online pdf in Hindi

कालिदास के काव्य मै मानवीय सौंदर्य

मानव संवेदना सदैव से ही सौंदर्य की अभिलाषणी रही है । मानव जीवन के समस्त लक्ष्यों में सौंदर्य ही सर्वोपरि है । प्रकृति के कण-कण में सौंदर्य परिव्याप्त है और अनादिकाल से मानव चेतना इस सौंदर्य को आत्मसात करती रही है। इस सौंदर्य उपासना में मानवीय सौंदर्य का स्थान सर्वोत्कृष्ट है।


काव्य जगत के लिए भी मानव सौंदर्य ही प्रेरणा का एक अखंड स्रोत रहा है। वैसे तो परम सौंर्यमय उस अनंत सत्ता का लावण्यमय रूप सृष्टि के कण-कण में बिखरा हुआ है और भावना एवं कल्पना लोक का चितेरा कवि उस निखिल सौंदर्य के स्पंदन से आप्लावित होकर नित्य नूतन भावनाएं संजोता रहता है तथापि मानवीय सौंदर्य मूक होने पर भी मुखर है पंगु होने पर भी गतिमान है जो अपनी चेतना के परिणाम स्वरूप ह्रदय तंत्री के तारों में एक मधुर झंकार उत्पन्न कर देता है।


विधाता ने मानव को जब निर्मित किया ,--तब वह स्वयं नहीं जानता था कि वह क्या से क्या करने जा रहा है। उसने
सौंदर्य के अनन्य उपकरणों को एक साथ रखने का प्रयास किया और अंत में उसमें अपना अंश और रख दिया। यही कारण है कि मानव में हमें कोकिल की वाणी, केकी का नृत्य, चकोर का प्रेम ,चंद्रमा की शीतलता ,सूरज का तेज और सुमनो की रमणीयता, एक साथ दिखाई दे जाती है। पुरुष और नारी दोनों ही सौंदर्य के महान आगार हैं । यदि नारी का कोमल रूप सौंदर्य मन को आकर्षित करता है तो पुरुष का कठोर रूप भी सौंदर्य प्रदर्शन करता है।

कालिदास मूलतः सौंदर्य के कवि हैं। उन्होंने अपने काव्य मैं जीवन की अग्नि को, सौंदर्य के स्वर्ण कलश से मंडित कर दिया है। वह अपने पाठकों को सौंदर्य सागर में निमज्जित करा कर उसे शिवम के पुनीत आदर्श की ओर मोड़ देते हैं और अंततः लौकिक प्रेयस के ऊपर पारलौकिक श्रेयस का अमर संदेश सुना जाते हैं। कवि की दृष्टि में सौंदर्य दैवी विभूति है । दैवी सौंदर्य ही नारी रूप में प्रस्फुटित होकर विश्व को आकर्षित किए हुए हैं। यही कारण है कि कवि की दृष्टि ,नारी रूप में प्रकृति जगत का अनुसंधान करने लगती है। उनकी नायिका स्तन रूपी फूलों के गुच्छे के भार से झुकी हुई ,नवीन रक्तिम कोपलों वाली चलती फिरती लता ही है---



आवर्जितता किंचदिव स्तनाभ्यां
वासो वसाना तस्मांकरागम्।
पर्याप्त पुष्पस्तवकावनम्रा
संचारिणी पल्लवनी लतेव।। कुमारसंभव 3/54


इसी प्रकार नायिका शकुंतला के लाल ओठ कोपलो के समान एवं यौवन लुभावने कुसुम के समान प्रतीत होता है।

अधर: किसलय राग:
कोमल विटपानु कारिणौ बाहु ।
कुसुमिव लोभनीयम्
यौवनमंगेषु संनध्वयम्।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 1/20


कुमारसंभव में वसंत शोभा के श्रंगार सौंदर्य का वर्णन भी पूर्णत: प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। (कुमारसंभव 3/30 )देवी पार्वती के रूप सौंदर्य को देखकर ऐसा जान पड़ता है कि संसार का संपूर्ण सौंदर्य, ब्रह्मा एक स्थान पर देखना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उपमा योग्य सभी वस्तुओं को प्रयत्न पूर्वक एक स्थान पर एकत्रित कर पार्वती का सृजन किया । तभी तो

संजोकर सभी सृष्टि की कांति
विधाता ने तुमको ढाला ।।

शकुंतला का अभूतपूर्व सौंदर्य तो विधाता की मानसिक सृष्टि द्वारा ही संभव है तभी तो कवि ने उसे स्त्री -रत्न की संज्ञा दी है


चित्ते निवेश्य परिकल्पित सत्त्व योगा
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु।
स्त्री रत्न सृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे
धातु: विमुत्वम् अनुचिंत्य वपु: च तस्या: ।। अभिज्ञान शाकुंतलम् 2/9


सौंदर्य- पारखी सभी जानते हैं कि आश्चर्य सागर में डुबो देने वाले सौंदर्य की उत्पत्ति वसुधा -तल से संभव नहीं है


मानुषीषु कथम् वा स्यादस्य रूपस्य संभव:।
नव प्रभातरलम् ज्योतिरुदेति वसुधातलम्। अभि शा 1/24

और इसीलिए शकुंतला के अनिन्द्य सौंदर्य को बिना सूघाॅ हुआ पुष्प तथा बिना छेदन किए हुए रत्न के समान अछूता बताया है


अनाघ्रातं पुष्पम् किसलय मलूनं कररुहै:।
अनाविद्धं रत्नम् मधु नवमनास्वादित रसम्।
अखंडं पुण्यानाम् फलमिव च तद्रूपमनघम्।
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधि :।। अभि शा 2/10

पुरुष सौंदर्य चित्रण में भी कालिदास को सहज गुणों से उत्पन्न सौंदर्य ही अधिक आकृष्ट कर सका है। वास्तव में कवि के पुरुष पात्र केवल पृथ्वी तल के ही सौंदर्य नहीं है अपितु वे अपनी तेजस्विता से स्वर्ग तक को आलोकित करने वाले हैं


सोहम् आजन्म् शुद्धानाम् आफलोदय कर्मणां।
आसमुद्र क्षितीशानाम् अनाक रथ वर्तमनाम्।। रघुवंश 1/5


विक्रमोर्वशीयम् में नायक पुरुरवा नाटक के प्रारंभ में ही सूर्य मंडल से लौटते हुए बताए जाते हैं। राजा दुष्यंत भी देवराज इंद्र की सहायतार्थ स्वर्ग तक आरोहण करते हैं।


महाकवि कालिदास की दृष्टि में मानवगत सौंदर्य उसकी चारित्रिक उन्नति में ही निहित है। इन्हीं चारित्रिक गुणों के विकास हेतु कवि ने आश्रम व्यवस्था अर्थात समय के अनुसार कार्य व्यवस्था को वांछनीय माना है

शैशवे अभ्यस्त विद्यानाम् यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनि वृत्तिनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम्।। रघुवंश 1/8


इतना ही नहीं वल्कि चौड़ी छाती बलिष्ठ कंधे चेहरे पर अद्भुत तेज, माधुर्य, गांभीर्य ,शौर्य, धैर्य ,क्षमा ,ललित एवं औदार्य आदि गुणों से संपन्न पुरुष सौंदर्य से भला कौन प्रभावित न होगा। परोपकार के लिए धन का और दूसरों की रक्षा के लिए शक्ति का संचय करने वाले रघुवंशीयों के गुणों पर कवि कालिदास सहज ही आकृष्ट थे । तभी तो

रघुणामन्वयम् वक्षये तनुवांग्विभवोऽपिसन् ।
तद् गुणै : कर्णमागत्य, चापलाय प्रचोदित : ।। रघुवंश 1/9

ऐश्वर्य के साथ त्याग और प्रेम के साथ तपस्या के मिलन में ही मानव जीवन की सार्थकता में कालिदास विश्वास करते हैं। इसीलिए समुद्र पर्यंत वसुंधरा पर एकछत्र शासन करने वाले राजा दिलीप तपोवन में निष्ठा पूर्वक गौ सेवा करते हुए त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं।

विश्व के विभिन्न देशों में भले ही मानव सौंदर्य में भिन्नता रही हो परंतु कालिदास ने जिस कुशलता से सौंदर्य -अंकन किया है, उसमें किसी के द्वारा भी ननु नच करने की गुंजाइश नहीं है। कवि कृत रघुवंश महाकाव्य तो मानो पुरुष सौंदर्य के श्रेष्ठतम नमूनों की अनुपम चित्रशाला है । कुमारसंभव में विवाह के समय शिव का माधुर्य संपन्न रूप सौंदर्य चरम अवस्था की सीमा को स्पर्श करता हुआ दिखाई पड़ता है। नारियाॅ विश्वास ही न कर सकी कि इनके क्रोध से कामदेव भस्म हुआ होगा । उनका विचार था कि इनके सुंदर रूप को देखकर कामदेव ने स्वयं ही आत्महत्या कर ली होगी। रूप को देखकर दूसरा रूपवान ग्लानि के मारे मर मिटे इससे बढ़कर रूप सौंदर्य की पराकाष्ठा और क्या हो सकती है?

मानव पात्रों में केवल स्त्री और पुरुष ही नहीं अपितु बाल सौंदर्य चित्रण में भी कालिदास कुशल हस्त हैं। नटखट बालक भरत के प्रति राजा दुष्यंत के उद्गार दृष्टव्य है

बिना किसी कारण ही हंसी से किंचित दिखाई पड़ने वाली कली के समान दांतो से सुशोभित अस्पष्ट अक्षरों के कारण सुनने योग्य तोतली बोली बोलने वाले और गोद में बैठने के लिए मचलते हुए पुत्रों को गोद में लेकर जो उनके शरीर की धूल से धूसरित होजाते हैं वे भाग्यवान पुरुष धन्य है। ऐसे बाल माधुर्य सौंदर्य पर भला कौन मुग्ध न होगा?

मानव सौंदर्य के ठोस आधार प्रेम के क्षेत्र में भी, प्रेम -कौशल में पारखी कवि कालिदास की नई सूझ को देखकर विश्व मानो दंग रह गया और मानव हृदय को वह चेतना मिली जो आज भी मानव जीवन का सार है। आज का मानव प्रेम के पक्ष में अपना कुछ भी तर्क क्यों न दे परंतु कालिदास का अपना सिद्धांत तो यही है कि

"प्रेम की परिपक्वता विरह में ही संभव है । (उ मे 52 )कहते हैं, कुछ लोग अवश्य कहते हैं, कि भोग के अभाव में स्नेह ध्वस्त हो जाता है किंतु उनसे कौन कहे? अरे सच्ची बात तो यह है कि
इस प्रकार का जमा हुआ स्नेह प्रेम का पुंज बन जाता है। तपस्वी जानते ही नहीं कि प्रेम का रसायन बिरह के पुटपाक में ही सिद्ध होता है वस्तुतः है भी यही। प्रेम भोग का नहीं, योग का नाम है। मानव जीवन का सौंदर्य इसी में है।


तप की एक निष्ठा के कारण ही सती शिव की अर्धांगिनी बन सकी और तभी कालिदास अर्धनारीश्वर शिव की कल्पना कर सके। वे जानते हैं कि वह साधना ही क्या जो साधक और साध्य को एक न कर दे। तप की अग्नि में तप कर निखरा हुआ रूप कंचन ही सत्कार का पात्र बनता है।

सदाचार के अभाव में सौंदर्य भी अभिशाप बन जाता है । इसलिए कालिदास ने--" यदुच्यते पार्वती पापवृत्तये न रूपमित्य व्यभिचारीतत्वच: "--कहकर शरीर और आत्मा के समन्वित सौंदर्य का अद्भुत चित्रण किया है। वास्तव में दु:ख में पला त्याग और धर्म से समन्वित आदर्श प्रेम ही मानव का अंत : सौंदर्य है जो सौंदर्य की परिपूर्णता के लिए परम आवश्यक है। मानस के अंतस में पुष्पित और पल्लवित होने वाला सहज-- सौंदर्य प्रथम दर्शन मेंही आकर्षण की वस्तु है। इसीलिए राजा दुष्यंत शकुंतला के सहज सौंदर्य पर प्रथम दृष्टि में ही आकर्षित हो जाते हैं। ऐसे अंत: सौंदर्य पर मुग्ध होकर ही शिव कह उठते हैं --'अहम प्रभृत्य वनितांगितवस्मि दास: अर्थात मैं तुम्हारा तपस्या द्वारा खरीदा गया दास हूं। आभ्यान्तर सौंदर्य की चरम परिणति इससे अधिक बढ़कर और क्या हो सकती है?


वास्तव में मानव सौंदर्य का अनूठा वर्णन जैसा महाकवि कालिदास ने किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। "सौंदर्य ही सत्य है और सत्य ही सौंदर्य है "---कीट्स के इस सिद्धांत की व्यावहारिक परिणति कीट्स की कविता में उतनी नहीं मिलती जितनी कि कालिदास के काव्य में।

कालिदास का सौंदर्य वर्णन विश्व के लिए एक अनूठी देन है।


जिस की वाणी ऊंच- नीचे निर्बंध कलुष को लांघ गई।
अपने मधुर स्नेह रस जल से दुर्जनता को बांध गई ।
ऐसी धारा वही कि जिसने भू को स्वर्ग बनाया ।
तूने ही ओ अमर पुत्र विष से अमी बनाया ।।



इति