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तू दुर्गा है दुर्गा सी लग - सलमान फराज

   ‘तू दुर्गा है दुर्गा सी लग’ में भारतीयता की पड़ताल

 

                                   रामगोपाल भावुक

 

      विज्ञान के नये- नये प्रयोगों की तरह ही साहित्य के क्षेत्र में भी नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं। चाहे कवितायें हो, गीत हो, नव गीत हो, कहानियाँ हो अथवा उपन्यास लेखन हो; सभी विषयों में नये -नये प्रयोग किये जा रहे हैं। दूरदर्शन के युग में पुस्तकों की पठनीयता कैसे बढ़े? इस हेतु नये-नये रास्ते खोजे जा रहे हैं। आज  नवोदित कवि सलमान फराज की पहली कृति विमोचन के अवसर पर मेरे हाथ में थी। आवरण पर एक महिला हाथ में क्रन्ति का प्रतीक चिन्ह लिये हुए दिखाई दे रही थी। उसके ऊपर नाम लिखा था ‘तू दुर्गा है दुर्गा सी लग’ को सभी दर्शकों को दिखाते हुए मैं सोच रहा था कि निश्चय ही यह कृति शीध्र पढी जानी चाहिए। विमोचन के बाद ट्रेन से लौटते समय इसके पन्ने पलटना शुरू कर दिये । सबसे पहले सर्मपण देखा-

        समर्पण-

 यह पुस्तक दुनिया की सबसे हिम्मती महिला मेरी माँ को समर्पित

इस वाक्य ने तो इसे पढ़़ने के लिये और अधिक आकर्षित कर दिया।

        संकलन में पचास कविताओं का संग्रह है। संकलन की पहली कविता ‘तू दुर्गा है दुर्गा सी लग में’ कवि पूरे आत्म विश्वास के साथ कहता है-

     क्या नारी होना भय होना है?

    पीड़ित शोषित तय होना है?

    तू खड़़ग उठा तू भरम मिटा

    यह मिथक शीघ्र क्षय होना हैं

     और उठ सिकंदर उठ कविता में तो-

    ये रिश्ते नाते भंवर जाल है

     आँसू छल है प्रेम चाल हैं

        फिर कैसी चिन्ता कैसा दुःख

        उठ सिकंदर उठ

         जैसे गहरे भाव उडे़लते हुए कवि आगे बढ़ता है और कहता है- एक कविता पीछे पड़ गई है। कहती है मुझको लिख।

     इसी शीर्षक के तहत दूसरी रचना में ईश्वरी सत्ता को कवि किस रूप में स्वीकरता है-

 मन में मक्का मन में तीरथ मन में चारों धाम हैं,

  आप ही हजरत अली हैं आप ही तो राम हैं।

रात के अंधेरे में रचना में तो-

            रात के अंधेरे में

                   बहती हुई

            नदी देखी है कभी

            कैसे चली जाती है।

और इसी शीर्षक की अगली रचना में-

      ये कौन देश की वासी है

     कहाँ रहती है किस घर की है।

      नटनी डरती है

अब कवि नाच फकीरा के आँगन में आ खड़ा होता है-

                              ऐसी वैसी बना के बातें

                   लोभ मोह में धंस जा तू

                    खुदका पिंजरा खुदका जाल

                     आज तो आजा फस जा तू

और अगली रचना में-

                                कहीं ये मेरी माँ तो नहीं

                    जो मेरी बाट जुहते जुहते

                       थक गई हो।

    माँ की थकान महसूस करके ही शायद कवि ने यह संकलन माँ को समर्पित किया हैं।

     कवि सच्चा मुसलमान होते हुए भी ऐसा मुसलमां नहीं रहना चाहता है -

    दाड़ी के लिए जीना हूरों के लिए मरना

    इस्लाम यही है मुसलमां मैं तो नहीं हूँ ।

फकीर परम्परा पर उनकी ये कहन-

     बूढ़ा फकीर सर पे हाथ रख गया

     एक ही तो दुआ है जिसे दिए दिए फिरता हैं

 बूढ़ी मजदूरन को कवि किस नजरिये से देखता है, देखें-

        ये सूरज, जमीदार का

          बहनोई सा लगता है

      दोपहर के बाद

       आ जाता है

       ठसक बताने

ओह जादूगर! कविता में-

तू इतना हँसा के रो लूं मैं

मन के मैल को धो लू मैं

कवि जन्नत की तलाश में भी रहता है-

         जन्नत यहीं कहीं होगी

                ध्यान से देख गौर से सुन

जन्नत के वारे में कवि के ये विचार -

         बिलख रही है कचरे में हूर सी एक परी

         ये किसने गुनाह किया किसको सजा मिली

      इस तरह कवि हूर की पीड़ा को भी व्यक्त कर जाता है।

अगले प्रसंग में कवि मोक्ष से श्रेष्ठ भक्ति को मानता है-

     मुझे मोक्ष नहीं मुझे मक्ति दो।

     चलिये अब हम उनकी कविता-तुम आओ तो पर दृष्टि डालें- तुम आओ तो ऐसे आना

     जैसे धूप उतर आती है

     दालान में

     .................

                      जैसे आजाती है

              आदमियत

               आदमी में

 व्यवस्था पर ऐसा तीख व्यंग्य-

 शतरंज की विसात बिछी पड़ी है हर तरफ

 काले से बच के भी निकले तो

 सफेद मार डालेगा

     नारी रूपी नदी की शक्ति तो देखिये-

     तू पत्थर हो चाहे पहाड़ हो तुझे चीर देंगी

     मैं नदी हूँ आ देखले सफर मेरे

आदम के बारे में कवि का दृष्टिकोण पहचानिये-

          ये जन्नतें ये दोजखें आदम के हैं फितूर

          आदम झूठा है मक्कार है छलिया हैं।

 मुझे लगता है आदम पर इतना अविश्वास ठीक नहीं है। हम जानते हैं व्यवस्था में फासले बहुत हैं।

                   रोटी महँगी जान है सस्ती

                   देख गरीबी नाच उठी है।

गरीबी देखकर नाच उठना यानी खुश होना। इसके अर्थ से कुछ  समन्वय रुचा नहीं, लेकिन-

   हीरे मोती वजन लादकर दूर चलेगा कितना रे

      तू भूखे के लिए दो निवाले लिए चल

     कवि का यह परामर्श बहुत रुचिकर लगा है।

     क्योंकि-क्या तुम जानते हो

     उड़ने के लिए

     पंख जरूरी नहीं थे।

कवि की अधिकांश रचनाओं में आत्मविश्वास छलका पड़ रहा है-

      डर एक था मेरा मर गया वो एक दिन

         अब इंकालाबी हो गई है रूह बेधड़क मेरी

 कवि जिन्दगी को पूरी तरह समझने के प्रयास में हैं-

       जन्नत बहुत अच्छी होगी बेशक

       मगर उसके लिये मरना पड़ता है

       कब्र की मिटटी रोज पैगाम देती है

       जो सजता संवरता है उसे उजड़ना पड़ता हैं

लेकिन-

    आदमी की जात है कब तलक सबर रखे

    अभी अभी खामोश था अभी अभी भड़क उठा

  कवि ने अपनी अनेक रचनाओं में ईश्वर को समझने की भरसक कोशिश की है।

        ईश्वर को भाषायें नहीं आतीं

       वो नहीं समझ पाता होगा अच्छर

       जे, जवर, हलंत, विराम

       फिर कैसे सुनता होगा प्रार्थनायें

     कवि ने एक कविता में तो कलिया नाग और श्री कृष्ण संवाद देकर प्रश्न उत्तर शैली में भारतीय संस्कृति की खूब पड़ताल की है। लेकिन-

        हाँ में हाँ मिलाई तो अच्छा रहा सब

        मना जो किया तो नजर से उतर गया मैं

  कवि संकलन के अंतिम पड़ाव पर पहुँचते पहुँचते केवल दो पक्तियों में अपनी पूरी बात कहना चाहता है-

मेरे हुनर ने बदल दिए हैं जमाने के नजरिए

मैं इन्हें पागल लगता हूँ ये मुझे पागल लगते हैं

      संकलन की भाषा सहज सरल है। पाठक इसे आसानी से ग्रहण करता चला जाता हैं। कवि सलमान फराज को मेरा तो यही आशीष है कि जब अभी से ये हाल हैं इस कवि के, तो आगे जाने क्या क्या गुल खिलाये?

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कृति का नाम- तू दुर्गा है दुर्गा सी लग

कृतिकार का नाम- सलमान फराज

प्रकाशक-बुक्स किलीनिक पब्लिसिंग विलासपुर छ. ग.

मुल्य- 150 रू.

वर्ष-2022

पता- कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर

जिला ग्वालियर म0 प्र0  475110   

 मो0 9425715707ए 8770554097