Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 15

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होली की रंगों भरी ठिठोली

राजा कृष्णदेव राय होली पर पूरी तरह आनंदविभोर होकर फाग के रंगों में रँग जाते। लिहाजा विजयनगर में होली के अवसर पर धूमधाम देखते ही बनती थी। कई दिन पहले से फाग की तैयारियाँ शुरू हो जातीं। तरह-तरह की मिठाइयाँ और पकवान बनते। राजदरबार में आकर होली मनाने वाले खास मेहमानों के लिए मिठाई के साथ-साथ केवड़ा मिली खुशबूदार ठंडाई का इंतजाम होता।

फागुन की बहार आते ही पूरा शहर रंग-बिरंगी झंडियों से सज जाता। दूर-दूर के गाँवों से लोकगायक और लोकनर्तक राजधानी आकर अपने रंग-रँगीले कार्यक्रम पेश करते। इस अवसर पर विदूषकों की मंडली अपने करतबों से हास्य-विनोद की अलग फुहार छोड़ती। कुछ कलाकार तरह-तरह के रंगीन मुखौटे लगाकर लोगों का मनोरंजन करते। राजा कृष्णदेव राय होली वाले दिन सबको इनाम देते। सब प्रसन्न होकर राजा कृष्णदेव राय का यशगान करते हुए अपने-अपने घर जाते।

ऐसे रस-रंगपूर्ण माहौल में राजा कृष्णदेव राय दरबारियों और राज्य के प्रमुख लोगों के साथ खुलकर होली खेलते। जमकर रंगों की वर्षा होती, फिर होली गीत गाए जाते। सब ओर आनंद की फुहारें छूटने लगतीं। लगता, विजयनगर की हवाओं में भी फागुन की मस्ती भरी रस-गंध आकर बस गई है। कभी-कभी तो राजा कृष्णदेव राय प्रजा के बीच भी पहुँच जाते थे। ऐसे क्षणों में लोग अपने प्यारे राजा को गुलाल-अबीर लगाकर आनंदित होते थे। पूरा विजयनगर मस्ती के रंगों में सराबोर हो उठता था। राजा कृष्णदेव राय सभी को कुछ न कुछ उपहार भी देते थे।

एक बार की बात, विजयनगर में हमेशा की तरह होली का उत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा था। लोग एक-दूसरे पर प्यार के रंग छिटकर जोर से ‘होली है, होली है’ की धूम मचाते, तो सब और आनंद ही आनंद बरस उठता। कुछ लोग गले में बड़े-बड़े ढोल लटकाकर मस्ती की धुनें बिखेर रहे थे। हजारों लोग एक साथ ढोल की थाप पर नाच और गा भी रहे थे।

राजा कृष्णदेव राय के महल में और बाहर हर ओर रंग और गुलाल की बहार थी। चारों ओर से जैसे रंगों की बरसात हो रही थी। फूलों की खुशबू फैली थी। दरबारी एक-दूसरे को रंग से भिगो रहे थे। राजा को भी सबने गुलाल लगाया। राजा कृष्णदेव राय भी आनंदित थे और हँस-हँसकर सबको लाल, पीले, हरे रंगों से रँग रहे थे।

फिर राजा ने सेवकों को इशारा किया। जल्दी ही मिठाइयों और नमकीन से भरे चाँदी के बड़े-बड़े थाल लेकर वे आ गए। साथ ही बड़ी सी नाँद में ठंडाई तैयार थी। सब लोग स्वादिष्ट मिठाइयों और केवड़ा पड़ी सुगंधित ठंडाई का आनंद ले रहे थे और उनके स्वाद की जी भरकर प्रशंसा कर रहे थे।

सभी दरबारियों ने जी भरकर मिठाई, नमकीन और स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लिया। पर राजपुरोहित ताताचार्य के चेहरे पर सबसे अधिक चमक थी। आज होली पर उनकी भूख खुल गई थी। मिठाइयाँ उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय थीं। लिहाजा उन्होंने खूब डटकर मिठाई खाई। फिर ढेर सारी ठंडाई पी। ठंडाई पीने के बाद फिर एक-एक कर पचास लड्डू खा लिए।

राजा कृष्णदेव राय और सब दरबारी हैरान होकर उन्हें देखे जा रहे थे। कुछ देर बाद राजा ने कहा, “हमें मालूम नहीं था, पुरोहित जी पर होली का ऐसा रंग और खुमार चढ़ेगा कि भूल जाएँगे, पेट भरा है कि नहीं। इतनी मिठाइयाँ खाने और ठंडाई पीने के बाद भी पूरे पचास लड्डू खा लेंगे।”

इस पर सब दरबारी हँसने लगे। सबको हैरानी हो रही थी कि राजपुरोहित ताताचार्य पर आज कैसा खुमार चढ़ा है।

पर राजपुरोहित ताताचार्य सचमुच होली की तरंग में थे। अपनी विशाल तोंद पर हाथ फिराते हुए हँसकर बोले, “महाराज, खिलाने वाला आप जैसा खुशदिल और उदार राजा हो, विजयनगर के कुशल हलवाइयों की बनी एक से एक नायाब और स्वाद भरी मिठाइयाँ हों, और ऊपर से फागुन का मस्ती वाला मौसम हो, तो खाने में भी अपार सुख मिलता है।...ऐसे में मैंने खूब सारी मिठाई खाने के बाद ऊपर से पचास लड्डू और खा लिए, तो इसमें हैरानी की क्या बात है!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय समेत वहाँ हर कोई अचंभित था। राजा बोले, “पर पुरोहित जी, आपने इस होली पर सचमुच कमाल का रंग जमा दिया। मैं तो नहीं समझता कि हमारे दरबार में कोई और एक साथ पचास लड्डू खा सकता है।...आपको इस बार होली पर जरूर कोई खास पुरस्कार मिलना चाहिए।”

मंत्री बोला, “हाँ महाराज, इस होली पर जरूर राजपुरोहित को पुरस्कार मिलना चाहिए। वैसे भी सारे पुरस्कार तो हर बार तेनालीराम ही हड़प जाता है। कम से कम एक पुरस्कार तो हमारे राजपुरोहित जी को...!”

मंत्री की बात पूरी होती, इससे पहले ही तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा, “महाराज, पुरोहित जी ने पचास लड्डू खाए हैं, तो इसमें कौन सी बड़ी बात है! मैं तो मन भर लड्डू खा सकता हूँ।”

“अरे, क्या सचमुच!” राजा ने हैरानी से उसके दुबले-पतले शरीर को देखते हुए कहा। उन्हें तेनालीराम की बात पर बिल्कुल यकीन नहीं हो रहा था।

मंत्री और दरबारी भी हक्के-बक्के थे।

मंत्री हँसकर बोला, “महाराज, जरूर तेनालीराम पर होली का कुछ ज्यादा रंग चढ़ गया है। वरना ऐसी अटपटी बात क्यों करना!...जरा इसका शरीर तो देखिए। इसमें मन भर लड्डू समाएँगे कहाँ?”

मंत्री की बात सुनकर राजपुरोहित ताताचार्य और दरबारी ठहाका मारकर हँस पड़े। राजा कृष्णदेव राय भी अपनी हँसी नहीं रोक पाए।

पर तेनालीराम गंभीर था। बोला, “महाराज, मैं आपको मन भर लड्डू खाकर दिखा दूँगा। जरा आप मँगाकर तो देखिए।” उसने तिरछी आँखों से राजपुरोहित ताताचार्य की विकट तोंद की ओर निहारते हुए जवाब दिया।

अब तो राजा कृष्णदेव राय के मन में भी कौतुक हुआ। बोले, “ठीक है, खाकर दिखाओ। शायद इसी अनूठी प्रतियोगिता की वजह से इस बार की होली यादगार बन जाए। हाँ, याद रखना, यहाँ सारे दरबारी तुम्हारी यह कला देखने के लिए मौजूद हैं, इसलिए तुम्हारी कोई चालाकी चल नहीं पाएगी।...अगर तुमने अपनी बात साबित कर दी तो तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ इनाम के रूप में दी जाएँगी। पर अगर तुम अपनी बात साबित नहीं कर पाए तो तुम्हें शर्त हारने पर दंड के रूप में राजपुरोहित ताताचार्य जी को एक मन लड्डू के पैसे देने होंगे।”

सुनते ही सब अपनी-अपनी जगह चौकन्ने होकर बैठ गए। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुसकरा रहा था।

राजा कृष्णदेव राय के संकेत पर एक सेवक दौड़ा-दौड़ा गया, एक विशाल परात में मन भर लड्डू रखकर ले आया। राजा ने चाँदी की एक बड़ी सी चौकी मँगवाई। उसे दुबले-पतले, सींकिया तेनालीराम के आगे रखवाया। फिर उस चौकी पर मन भर लड्डुओं से भरी विशाल परात रख दी गई।

सारे दरबारी अचरज से भरकर पहले एक नजर दुबले-पतले तेनालीराम पर डालते और दूसरी नजर लड्डुओं से भरी उस विशालकाय परात पर...! उनके लिए अपनी हँसी को रोकना मुश्किल हो रहा था।

राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर बोले, “हाँ तो तेनालीराम, अब खाना शुरू करो। पर ध्यान रखना यहाँ तुम्हारी कोई चालाकी नहीं चलेगी। इतने लोगों की चौकन्नी निगाहें तुम पर हैं।”

“हाँ महाराज, जानता हूँ। बेचारे मंत्री और राजपुरोहित जी की तो जान सूख जाएगी, अगर मैंने अपनी बात साबित कर दी। पर अफसोस, इन्हें नहीं पता कि तेनालीराम जो कहता है, उसे साबित करके दिखाना भी जानता है।”

कहते-कहते तेनालीराम ने मुसकराते हुए उस विशाल परात में से दो लड्डू उठाकर खा लिए। फिर एक लड्डू और खाया। हिम्मत करके फिर चौथा लड्डू भी उठा लिया। उसके बाद हाथ जोड़कर बोला, “बस महाराज, अब मन नहीं है।”

“महाराज, तेनालीराम शर्त हार गया! अब इसे मन भर लड्डू के पैसे देने के लिए कहिए।” राजपुरोहित ताताचार्य ने व्यंग्यपूर्वक कहा। वे उत्तेजना से भरकर एकाएक अपनी जगह खड़े हुए, तो उनकी भद-भद तोद विचित्र नजारा पेश कर रही थी।

मंत्री और दरबारियों ने भी हँसते और ठिठोली करते हुए कहा, “हमें तो पहले ही पता था कि तेनालीराम की मन भर लड्डू खाने की बात केवल नाटक है।...अच्छा है न, अब हार का मुँह देखना पड़ा।”

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा। बोले, “तेनालीराम, तुम तो शर्त हार गए।”

वह मंद-मंद मुसकरा रहा था। बोला, “महाराज, मैं शर्त कहाँ हारा! मैंने यही तो कहा था कि मन भर लड्डू खा सकता हूँ। इसलिए जितना मन था, उतने खाए, मन भर गया तो छोड़ दिए। इसमें गलत क्या है?”

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। उन्होंने उसी समय खजानची को कहकर एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ मँगवाईं। तेनालीराम को एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के साथ सोने से बनी वनदेवता की विशाल मूर्ति भी भेंट की गई। राजा ने शाही हाथी पर बैठाकर उसे घर भिजवाने का इंतजाम किया। साथ ही चलते-चलते उसे अपने हाथों से फिर गुलाल के रंगों से रँगा। बोले, “यह होली तुम्हारे इस मनोरंजक कारनामे की वजह से हमेशा याद रहेगी तेनालीराम!”

सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई। फागुन के रंगों में रँगा तेनालीराम आज और भी बाँका लग रहा था।

उधर राजपुरोहित ताताचार्य की हालत देखने लायक थी। वे तो सोच रहे थे, आज राजा कृष्णदेव राय को प्रभावित करके मैंने बाजी जीत ली। अपनी खुराक और खूब पली हुई तोंद पर उन्हें भरोसा था। सो होली पर खास पुरस्कार मिलने का सपना देखते हुए मन ही मन गद्गद थे। पर तेनालीराम ने अच्छी किरकिरी की!

मंत्री और चाटुकार दरबारी तो इतने लज्जित थे कि मुँह भी नहीं उठा पा रहे थे। इस होली पर उन सबका रंग उतर गया, पर तेनालीराम की कीर्ति पर कुछ और नए रंग चढ़ गए थे।