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पृथ्वीराज - फ़िल्म समीक्षा

बाहुबली के बाद से हमारे यहाँ के जितने भी डायरेक्टर पचास की उम्र के करीब हैं। और जो बड़े प्रोडक्शन हॉउस हैं। उन्हें इतिहास पर फ़िल्म बनाने का बुखार चढ़ा हुआ हैं। ताकि कोई ये ना कहें कि बताओ इतना पैसा हैं। और अभी तक ऐतिहासिक फ़िल्म नहीं बनाई। बस उसी परंपरा की ये एक फ़िल्म हैं। वैसे इसे फ़िल्म ना कहकर अच्छे-खासे पैसे खर्च करके किया गया प्रैंक ज्यादा कहें। तो अच्छा हैं। क्योंकि फ़िल्म तो बस इसे एक ही एंगेल से कहा जा सकता हैं। कि ये फ़िल्म चलाने के लिए बनाए गया थिएटर में दिखाई जा रही हैं। वरना दूर-दूर तक फ़िल्म नाम की चीज़ से इसका कोई लेना देना नहीं हैं।

कहानी; कहानी ऐसी ही हैं। जो बॉलीवुड हमेशा करता हैं। इस तरह की फिल्मों में इतिहास की ऐसी-तैसी, और फिर नया इतिहास गड़ता हैं। कि देखो मैंने नया कमाल कर दिया।

फिर भी एक छोटा सा सारांश कहानी का; गौरी अजमेर पर आक्रमण करता हैं। और तराइन के मैदान में युद्ध होता हैं। जिसमें पृथ्वीराज गौरी को हरा देता हैं। और फिर दो चार दिन जेल में रखकर ज़िंदा छोड़ देता हैं। जिससे खुश होकर पृथ्वी का नाना उसे दिल्ली का राजा बना देता हैं। इसके बाद अब जब पृथ्वीराज के पास करने को कुछ नहीं हैं। तो वो सोचता हैं। चलो एक शादी और कर ली जाए और वो भी अपने मौसी के लड़के की बेटी से, मतलब पृथ्वीराज जिस लड़की(संयोगिता) से शादी कर रहा हैं। रिश्ते में उसका मामा लगता हैं। शादी के बाद एक युद्ध अब संयोगिता के बाप से होता हैं। और उसके बाद फिर गौरी से जिसे भी पृथ्वीराज हारता नहीं हैं। लेकिन गौरी छल-कपट से उसे किडनैप कर लेता हैं। और फिर अंत में गज़नी के मैदान में एक प्रतियोगिता होती हैं। जिसे पृथ्वी जीतकर भी हार जाता हैं। और दूसरी तरफ संयोगिता गाना गाते हुए अग्नि में कूद जाती हैं।

मेरी एक बात समझ नहीं आती की अगर इतिहास में कोई राजा युद्ध हारा हैं। तो उसे हारते हुए दिखाने में क्या बुराई हैं। जब सब लोग जानते ही हैं। कि राजा युद्ध हारा था लेकिन पता नहीं इन फ़िल्म बनाने वालों ने कौन सी भांग फूंक रखी हैं। जो इन्हें ये बात समझ नहीं आती।

एक्टिंग; अक्षय कुमार, संजय दत्त, मानव वीज़ और मानुषी छिल्लर को छोड़कर बाकी सबने अपने रोल को अच्छे से निभाया हैं।

अक्षय कुमार की एक खास बात हैं। कि वो किरदार के हिसाब से खुद को नहीं, बल्कि किरदार को अक्षय कुमार के रूप में बदल देते हैं। और जब से उन्हें ये पता चला हैं। कि टॉम क्रूज ने मिशन इम्पॉसिबल-5 की शूटिंग 42 दिन में खत्म कर दी थी। तब से उन्होंने ये कसम खाली हैं। कि वो किसी भी फ़िल्म को 40-50 दिन में खत्म कर देंगे और फिर मीडिया में अपनी तरफ करते हुए घूमेंगे

मानुषी छिल्लर ने 2017 में मिस वर्ल्ड का खिताब जीता था। पढ़ाई इन्होंने डॉक्टर की, की हैं। सामान्य परिवार से ये आती हैं। कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं कि चलो थोड़ी बहुत एक्टिंग देखकर आ गई हो।, अब कोई ये बताएं कि मानुषी ने फिर एक्टिंग कैसे की, या ये फ़िल्म मिस वर्ल्ड बनकर भारत का नाम रोशन करने का भारत की तरफ से गिफ्ट हैं। क्योंकि अगर ये ही हाल रहा। तो ये तय हैं। कि ऐसे गिफ्ट ज्यादा वक्त तक नहीं दिए जाएँगे।

संजय दत्त जवानी में इनकी एक्टिंग सही थी। पर अब तो एक्टिंग के नाम पर ऐसा लगता हैं। जैसे कैमरे के सामने खड़े होने की जो आदत हैं। वो छूट नहीं रही, इसलिए फिल्मों में काम करना जरूरी हैं। और डॉयलोग तो संजय दत्त ऐसे बोलते हैं। जैसे पेट पर बहुत कसकर बैल्ट बांध रखी हो और बोलने के लिए हवा का प्रवाह ढंग से नहीं हो पा रहा हो, इसलिए बोलने के लिए बहुत ताक़त की जरूरत पड़ती हैं।

मानव वीज़ इनकी एक्टिंग तो ऐसी हैं। कि अगर थोड़ी देर फ़िल्म और चलती तो ऑडिएंस पक्का पृथ्वीराज से पहले पर्दे में अंदर घुसकर गौरी को मार देती।

डायरेक्शन; एक दम बकवास, स्क्रीन पर जो भी हो रहा हैं। वो क्यों हो रहा हैं। इसका कुछ पता नहीं चलता, अब अगर ऐसा किसी वर्तमानकालिक समय पर फ़िल्म बनी हो तो समझ आता हैं। जैसे- कैथी, राधे, वांटेड, रहीस जैसी फिल्मों में, लेकिन एक इतिहास आधारित फिल्म में बिना रेफरेंस के चीज़े हो रही, ये चीज़ किसी भी आम इंसान को बीमार कर सकती हैं।

दूसरा पूरी फिल्म में तीन सीन युद्ध के हैं। और युद्ध दिखाया नहीं, फिर ये 300 करोड़ रुपए डायरेक्टर ने कहा खर्च किये ये बात किसी को भी पागल करने के लिए काफी हैं।

एक सीन में पृथ्वी गौरी के भाई के पैरों पर माथा टिका रहा हैं।

फ़िल्म के अंदर वीर शब्द इतनी बार सुनने को मिलेगा की दिमाग मे इस शब्द से एक् झुंझुलाहट पैदा हो जाती हैं।

संयोगिता अपने अधिकारों को लेकर ऐसे लड़ रही हैं। जैसे फ़िल्म 12 वी शताब्दी की ना होकर अमेरिका के 2022 के समाज की हैं।( ध्यान रखना भारत में अभी भी स्त्रियों को इतनी आज़ादी नहीं हैं। इसलिए संयोगिता के सीन देखकर अमेरिका ही याद आएगा)

सबसे बड़ी कमी डायरेक्टर ने इस कहानी को लिखने के लिए 18 साल लगाए। जिसे देखकर लगता हैं। कि या तो डायरेक्टर के मुँह से 18 मिनट की जगह गलती से 18 साल निकल गया या फिर डायरेक्टर की फ़िल्म चलाने के लिए बेवजह बनाई गई हाइप हैं। क्योंकि ये 18 साल का कांड तो नहीं हो सकता। तो डायरेक्टर साहब कसम से अगर आप एक साल लगाकर किताब भी लिख देते या कोई रिसर्च पेपर तो ज्यादा अच्छा होता क्योंकि ये जो कारनामा आपने किया हैं। इसके बाद से वो लोग जिनकी याददाश्त अच्छी वो आपको माफ नहीं करेंगे।

मतलब साफ हैं। पूरी फिल्म ही डायरेक्शन लेवल पर बेकार हैं।

डायलॉग; अब क्या कहें इस बारे में, फ़िल्म देखकर लगेगा की किरदारों में आपस में होड़ लगी हैं। कि कौन ज्यादा वनलाइनर खतरनाक बोलेगा, अक्षय कुमार के जितने भी डॉयलोग हैं। वो सिंगल स्क्रीन वालों के लिए हैं। मानुषी छिल्लर के डायलॉग हिंदी की किसी पर्यावाची किताब का सारांश लगते हैं। और बाकी लोगों के डायलॉग या तो मज़ाक हैं। या दूसरे को नीचा दिखाने के लिए।

जैसे जब पृथ्वीराज संयोगिता को लेकर जा रहा होता है। तो संयोगिता की माँ इतने टेंशन से भरपूर माहौल में पीछे से चिल्लाकर कहती हैं। " जमाई राजा ख्याल रखना, सोने चांदी के सिक्के लुटाओ"

इसी सीन से अगले सीन का डायलॉग- कसके पकड़ ले सुंदरी" जिसके जवाबी संवाद हैं। अब तो मौत भी ना छूटा पाएगी।

क्या मतलब था इस जगह पर इन सबका पर क्या करे। कुछ तो करना था तो डायरेक्टर ने ये कर दिया।

तकनीकी रूप से फ़िल्म; तकनीकी रूप से फ़िल्म में कुछ भी नया नहीं हैं। युद्ध के सीन फिल्माने में बिल्कुल भी दिमाग खर्च नहीं किया गया हैं। एक्शन डायरेक्टर तो जैसे सेट पर मौजूद ही ना हो युद्ध के दृश्य देखकर ऐसा लगता हैं। लोग तलवार कम चलाते हैं। और चिलाते ज्यादा हैं। हाँ लेकिन प्रेम के ऊपर अच्छा-खासा लेक्चर फ़िल्म में देखने को मिलेगा। जितना ज्ञान प्रेम पर दिया हैं। अगर इसका दस प्रतिशत भी फ़िल्म के किसी और डिपार्टमेंट पर लगा दिया होता तो शायद फ़िल्म थोड़ी अच्छी लग जाती हैं। पर अफसोस, ऐसा नहीं हुआ।




सच कहूँ तो पूरी फिल्म पैराग्राफ स्टाइल में बनाई गई हैं। दो घण्टे 25 मिनट की फ़िल्म ऐसी लगेगी जैसे 15-15 मिनट में पैराग्राफ बनाये गए हो, ऊपर से एक बात समझ नहीं आती जब डायरेक्टर कहानी पर 18 साल खर्च कर सकता हैं। तो पटकथा पर एक साल भी खर्च क्यों नहीं कर सकता। और यही हमारे यहाँ की समस्या हैं। इन्हें लगता हैं। कहानी लिखी गयी अब बस फ़िल्म बन गयी लेकिन ये भूल जाते हैं। कि फ़िल्म बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण भाग पटकथा होता हैं। जिस पर बिल्कुल मेहनत नहीं की जाती। टेनेट फ़िल्म के लिए क्रिस्टोफर नोलन ने कहानी एक साल में और उसकी पटकथा पाँच साल में लिखी थी और यही उन्होंने अपनी फिल्म इन्सेप्शन के लिए किया था। जिसकी पटकथा लिखने के लिए उन्हें दस साल लगे थे। एक हमारे यहाँ के डायरेक्टर हैं। जो शूटिंग करते-करते पटकथा लिखते हैं। और एक बात तो मेरी बिल्कुल समझ नहीं आती की जब फ़िल्म ऐतिहासिक हैं। तो उसको बनाने के लिए सोच आधुनिक क्यों लगाई जाए। पूरी फिल्म में 22 मिनट नारीवाद को दिए गए हैं। और वो सारे दृश्य इतने बचकाने लगते हैं। कि एक बार को लगने लगेगा कि 1191-1192 में ऐसा होता था। और अगर ऐसा होता था। तो हम बाद में ऐसे कैसे हो गए। पर क्या करे नारीवाद का कीड़ा जब काट जाए तो यही होता हैं। तो बात ये हैं। कि अगर गर्मियों को अच्छी तरह बिताना चाहते हो, बिना हॉस्पिटल जाए तो गलती से भी थिएटर मत चले जाना वरना कोरोना ने तो क्या बिगाड़ा होगा इस देश का जो ये फ़िल्म बिगड़ेगी।