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777 चार्ली फ़िल्म समीक्षा

जब भारत में कॉमर्सियल फ़िल्म बनाने की होड़ लगी हुई हो तब एक सीधी-सादी सपाट, साफ-सुथरी फ़िल्म बनाना काफ़ी बड़ा काम हैं। और फिर अपने आईडिया पर खरा उतरना और भी ज्यादा बड़ा काम हैं। अगर एक लाइन में अपनी बात कहूँ तो ये एक उम्दा फ़िल्म हैं। जिसकी तुलना बाकी फिल्मों से ना करकर इसके जैसी ही और फिल्मों से करनी होगी। पर समस्या यह हैं। कि क्या इस जैसी और फिल्में हमारे यहाँ पर बनी हैं। देखा जाए तो नहीं, पर इस बात से दरअसल फ़र्क़ भी नहीं पड़ता। क्योंकि ये फ़िल्म अपने आप में एक मास्टरपीस हैं। जिसको देखते हुए आप हँस सकते हो, रो सकते हो, दुखी हो सकते हो, तालियां बजा सकते हो, मतलब कि ये पूरी फिल्म संवेदना से भरपूर हैं।

कहानी; कहानी में ऐसा कुछ ख़ास नयापन नहीं हैं। एक हीरो है। धर्मा नाम का जिसके माँ-बाप की बचपन में ही कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। इस वजह से उसे जो सदमा लगा, उस कारण वो अपने आप में ही रहता हैं। ना किसी से फालतू बोलना, ना लोगों में घुल मिलना, बस अकेले ही रहना। दूसरी तरफ एक फीमेल डॉग हैं। जो एक ब्रीड सेन्टर से अपने मालिक के द्वारा तांग करने पर भागी हुई हैं। किसी वजह से ये दोनों एक-दूसरे के साथ रहना शुरू कर देते हैं। फिर अचानक डॉग को एक बीमारी निकल आती हैं। जिसके कारण हीरो डॉग की एक इच्छा स्नोफॉल देखने की पूरी करने के लिए उसे हिमाचल प्रदेश लेकर जाता हैं।

एक्टिंग; फ़िल्म के अंदर जितने भी किरदार हैं। सबने अपने रोल को बड़े अच्छे से निभाया हैं। पर जिसको फ़िल्म में सबसे ज्यादा देखने का मन करता हैं। वो हैं। डॉग। ऐसा लगता हैं। बस ये स्क्रीन पर ही रहे और हम इसे देखते रहे। कितनी मासूमियत के साथ चार्ली अपने किरदार को करता हैं। और जब अपनी भवनाएं दिखाने की बारी आती हैं। तब तो कोई ही ऐसा इंसान होगा जिसका दिल ना पसीजता हो, वरना उस वक़्त अपने आप ही आँशु आँखों से गिरने लगते हैं। जिन्हें हम चाहकर भी रोकने की कोशिश नहीं करते। क्योंकि वो आंसू हमें सुकून देते हैं।

डायरेक्शन; डायरेक्शन जैसा होना चाहिए था। बिल्कुल वैसा ही हैं। अब इस तरह की फिल्मों में सारा खेल एक्सप्रेसन का होता हैं। जिन्हें डायरेक्टर ने बखूबी दिखाया हैं।


अंत में, मैं यहीं कहना चाहूंगा कि यह फ़िल्म जरूर सबको देखनी चाहिए। क्योंकि इस फ़िल्म को देखने से सड़क पर घूमने वाले जानवरों के प्रति हो सकें तो शायद लोगों की सोच में परिवर्तन आएगा। और जो लोग एनिमल लवर हैं। उन्हें ये फ़िल्म अपनी खुद की ज़िंदगी को ही पर्दे पर देखने का एक सुनहरा अवसर हैं। वाकई फ़िल्म के अंदर ह्यूमन और एनिमल के बीच जो रिलेशन दिखाया हैं। वो वाकई काबिलेतारीफ हैं। लेकिन एक समस्या जो मुझे हमेशा लगती थी कि इंसान तो अपने भाव बोलकर बता देता हैं। लेकिन जानवर कैसै बताएँ। लेकिन इस फ़िल्म के अंदर कई ऐसे दृश्य हैं। जिनमें डॉग जिस तरह से अपनी फीलिंग्स बताता हैं। ऐसा लगता हैं। जैसे इस तरह इंसान शायद ही कभी अपनी फीलिंग्स बता पाएगा। तो इसलिए अंत में,मैं फिर अपनी बात दोहराना चाहूँगा कि ये फ़िल्म हर इंसान को एक बार तो देखनी ही चाहिए।