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संगीत व साहित्य के सुरूर से मचलकर पटरी से उत्तर गई मालगाड़ी

विश्व संगीत दिवस 21 जून पर विशेष

[ संस्मरण --सन 2006 ]

[नीलम कुलश्रेष्ठ]

‘ऐसे हैं सुख-सुपन हमारे, बन-बन कर मिट जाएं जैसे बालू के घर नदी किनारे ।’ पंडित नरेन्द्र शर्मा की कविता की पंक्तियाँ, सिंधु भैरवी शास्त्रीय राग में बँधी, सुमित्रा राय चौधरी के कंठ से फूटतीं, रेलवे ऑफ़िसर्स क्लब, बड़ौदा के लॉन के अँधेरे को बेधती रोशनियाँ, लॉन की धारा में उलझती, निकलती हवा में तैरती बही जा रही है।

‘कुमार संभव’ व ‘शाकुंतलम्’ को एक संगीतमय नृत्य नाटिका में प्रस्तुत करने वाली ये शास्त्रीय संगीत गायिका जब गीत राग दरबारी कानडा में गाती है-

‘मधुर-मधुर मोरे दीपक जल, युग-युग प्रतिदिन प्रतिपल।’

बस ऐसा लग रहा है स्वर के अनुशासित आरोह-अवरोह पर महादेवी जी के साहित्यिक शब्दों के पाँव, पायल की रुनझुन लिये लहरों पर फिसल रहे हैं ।

“छू गया है कौन मन के तार, वीणा बोलती है ।”

राग मियाँ की तोड़ी से बच्चन जी की कविता तबले, हारमोनियम, गिटार व सारंगी से झंकृत हो, सुमित्रा जी का कंठ स्वर पाकर जैसे मंच से बिखर-बिखर कर मन के तार को छूने चल पड़ती है ।

“बीती विभावरी जाग री ।”

राग भैरवी में बँधी इन पंक्तियोँ ने श्रोताओं की कलात्मक रुचि को संपूर्ण जागृत कर दिया है या सुमित्रा जी की सूझबूझ ने कविता को शास्त्रीय रागों में पिरोकर इतना निखार दिया है, जैसे कि कोई युवती नख से शिख तक सँवर ले तो उसे पहचानना मुश्किल हो जाये । बहरहाल, विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि हम गुजरात की भूमि पर बैठे हुए हैं ।

कार्यक्रम का शुभारंभ किया था सीनियर डिवीज़नल ऑपरेटिंग मैनेजर श्री संतोष झा जी ने अपनी काव्यमयी भाषा में । कार्यक्रम के संचालन का भार सँभाल लेते हैं संगीत के लिये प्रतिबद्ध ‘कोमल निषाद’ के संस्थापक व ओ एन जी सी के अधिकारी, साहित्य मर्मज्ञ श्री शंकर कुमार झा । श्री झा ने अपने गहरी साहित्यिक ज्ञान से श्रोताओं को इस कला यात्रा में डुबो दिया है । वे घोषणा करते हैं, “आइये, अब सुनें सुमित्रा जी से राग यमन कल्याण में, आपके मंडल रेल प्रबंधक श्री के.एल. पांडेयय जी की रचना ।” 

तभी एक हूटर बजता है । मैं पास बैठे अपने पति से धीमे से पूछती हूँ, “ये आप के वर्कशॉप का हूटर है, अब तो आपको जाना होगा ।”

“नहीं, ये हूटर डिवीज़न का है । लगता है कोई रेलवे एक्सीडेन्ट हो गया है ।”

श्री संतोष झा जी का मोबाइल बजता है । वे बात करते हुए, प्रथम पंक्ति में बैठे श्री पांडेय जी के पास आते हैं । श्री पांडेय जी बैठे-बैठे मोबाइल पर बात कर रहे हैं । वे फिर सोफ़े से उठते हैं, मोबाइल पर बात करते हुए दाईं तरफ़ चल पड़ते हैं ।

मंच से सुमित्रा जी कोमलता से पांडेयय जी की रचना गा उठती हैं 

“छिप गया यह कौन आ कर ?

मन क्षितिज से टूट उड़ता 

चहचहाता नभ समेटे

धूप से डरता हुआ ज्यों 

चाँद की किरणें लपेटे ।”

तब तक अपनी ही पंक्तियों को सुनते हुए पांडेय जी मंच की दाईं तरफ़ आ चुके हैं । मोबाइल पर बातचीत जारी है, आँखें मंच की तरफ़ बेबस जकड़ी हुई हैं । सुमित्रा जी व सभी वादकों के चेहरों पर एक बेबसी है । जिसके आमंत्रण पर वे आयें हैं, उसी व्यक्ति को जाना है । लगता है स्वरलहरियाँ उनके पैरों से लिपटी हुईं उन्हें जकड़ कर जाने से रोक रही हैं । वे असमंजस में रुक भी गये हैं या अपनी ये पंक्तियाँ उन्हें रोक ही लेती हैं 

“लौट कर उस देहरी पर, हो गया फिर मौन आ कर ।”

कला के समक्ष कर्तव्य को ही जीतना है । वह अपनी इस बेबसी पर दृढ़ता से पैर रखते तेज़ कदमों से दाईं तरफ़ बने क्लब के हॉल में चले जाते हैं । उधर श्रोताओं में से यहाँ-वहाँ से छः सात अधिकारी अपनी कुर्सियों से उठकर अपने मोबाइल कान पर लगाये हॉल में चले गये हैँ । अब हूटर दो बार और बज चुका है । रेलवे एक्सीडेंट का नाम सुन सब के मन में भयावह आशंकाएं बन/बिगड़ रही हैं ।

श्री शंकर जी माइक पर बोल रहे हैं, “हिंदू उर्दू भाषा के लिये अमीर खुसरो ने बहुत कुछ किया है, उनके बारे में जितना कहा जाये, उतना कम है । अब राग देस की छाया में सुनिये उन का लोकप्रिय गीत ।”

सुमित्रा जी का करुण स्वर गा उठता है 

“काहे को ब्याही बिदेस ।”

उधर क्लब के हॉल का दरवाज़ा बंद हो गया है । दरवाज़े के उस पार प्रशासन यहाँ-वहाँ मोबाइल पर बातचीत करता निर्देश देता व्यस्त है ।

लॉन में बैठे व्यक्तियों का ध्यान संगीत के साथ बंद दरवाज़े के उस पार भी उलझा हुआ है ।

राग झिंझोटी/हिंडोल में श्रीमती चौधरी खुमार बाराबंकवी की ग़जल गा उठती हैं 

“दो दिल शिकस्ता होके जुदा 

ख़ैरियत से हैं ।”

क्लब के हॉल का दरवाज़ा खुलता है । सभी अधिकारीगण एक-एक करके निकल कर लॉन में अपने स्थान पर बैठ जाते हैं ।

श्री संतोष झा उद्घोषणा करते हैं, “आज की संगीतमयी साहित्यिक शाम के सुरूर में एक मालगाड़ी कुछ इस तरह मचली कि वह पटरियों से उतर गई । एक डेढ़ घंटे में सब ठीक हो जायेगा । एक बात मैं और कहना चाहूँगा । सारे देश में बस बिहार में एक स्थान है, जिस में `झा` `झा` शब्द दो बार आता है । उसका नाम है `झाझा`। शायद गुजरात में भी पहली बार उद्घोषणा करने दो झा इकट्ठे हुए हैं ।”

सबकी हँसी के साथ रात, सुमित्रा जी की स्वर लहरियों की उँगलियाँ थामे, फ़िराक गोरखपुरी के शब्दों का राग मालगुंजी में अपनी वेणी में गूँथती, फिज़ा महकाती इतराती चल पड़ती हैं 

“किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर, फिर भी

ये हुस्नो इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी ।”

सच ही साहित्य या कला जिंदगी का आइना है । लाख दुर्घटनाएँ हों, दुर्गम पथ हों, काँटे बिछे हुए हों, वह इन सारे शिकंजो की क़ैद से छूट-छूट यूँ ही मचल-मचल अपना रास्ता बना ही लेती है ।

नीलम कुलश्रेष्ठ

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