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रेत समाधि याने टोम्ब ऑफ़ सेंड

मातृशक्ति की महागाथा --एक पाठकीय प्रतिक्रिया 

यशवंत कोठारी

कुछ समय पहले तक गीतांजलि श्री के नाम से परिचित नहीं था. अचानक टाइम्स ऑफ़ इंडिया में उनकी पुस्तक को अंतर राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए लम्बी सूची में शामिल होने का समाचार देखा हिंदी के अख़बारों में ब्लैक आउट था. बाद में रेत समाधि छोटी सूची में शामिल हुआ, और टोम्ब ऑफ़ सेंड ने अंतर राष्ट्रीय बुकर जीत लिया. अचानक लेखिका का कद बढ़ गया. एक साक्षात्कार में प्रकाशक ने बताया की पुरस्कार की सूचना के बाद पैतीस हज़ार का प्रिंट आर्डर गया, इंग्लिश अनुवाद का प्रिंट आर्डर एक लाख से ज्यादा का. भारतीय व हिंदी के लेखक के लिए यह बहुत बड़ी घटना है. किसी के बधाई देने और देने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आज़ादी के अमृत महोत्सव पर यह एक महती उपलब्धि है. 

बात शुरू करते हैं -

पश्चिम में उपन्यास विधा के मरने की बात होती है मगर भारत में यह इस विधा की वापसी के संकेत है वैसे भी इस वर्ष को उपन्यास वर्ष माना गया है. 

पुस्तक के प्रचार के लिए अमेज़न पर निम्न परिचय है -

अस्सी की होने चली दादी ने विधवा होकर परिवार से पीठ कर खटिया पकड़ ली। परिवार उसे वापस अपने बीच खींचने में लगा। प्रेम, वैर, आपसी नोकझोंक में खदबदाता संयुक्त परिवार। दादी बजि़द कि अब नहीं उठूँगी। फिर इन्हीं शब्दों की ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द। हर साधारण औरत में छिपी एक असाधारण स्त्री की महागाथा तो है ही रेत-समाधि, संयुक्त परिवार की तत्कालीन स्थिति, देश के हालात और सामान्य मानवीय नियति का विलक्षण चित्रण भी है। और है एक अमर प्रेम प्रसंग व रोज़ी जैसा अविस्मरणीय चरित्र। कथा लेखन की एक नयी छटा है इस उपन्यास में। इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज़ में चलते हैं। हमारी चिर-परिचित हदों-सरहदों को नकारते लाँघते। जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहाँ। इसका संसार परिचित भी है और जादुई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता। काल भी यहाँ अपनी निरंतरता में आता है। हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियाँ। मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं ‘कत्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर’, और संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लम्बे साए। और सरहदें भी हैं जिन्हें लाँघकर यह कृति अनूठी बन जाती है, जैसे स्त्री और पुरुष, युवक और बूढ़ा, तन व मन, प्यार और द्वेष, सोना और जागना, संयुक्त और एकल परिवार, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, मानव और अन्य जीव-जन्तु (अकारण नहीं कि यह कहानी कई बार तितली या कौवे या तीतर या सडक़ या पुश्तैनी दरवाज़े की आवाज़ में बयान होती है) या गद्य और काव्य : ‘धम्म से आँसू गिरते हैं जैसे पत्थर। बरसात की बूँद।’

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पुस्तक पर एक परिचर्चा काफी समय पूर्व हुई थी जिसकी जानकारी अनूप शुक्ल की वाल से मिली थी. 

पुस्तक जल्दी ही अमेज़न से आ गई, थोड़ी महँगी आई लेकिन ऐसे मौके भी तो बार बार नहीं आते. 

पुस्तक के कवर भी अनुवादिका डेज़ी रोक्वेल द्वारा बनाये गए हैं. वे स्वयं चित्रकार भी हैं. अनुवाद भी पढ़ा और मूल भी. अब इस किताब पर कई थीसिस लिखी जायगी, आलोचक समीक्षक अपनी जून सुधारेंगे, हजारों पन्ने लिखे जायेंगे. 

लेकिन मेरी यह पाठकीय प्रतिक्रिया इस समंदर में एक बूंद की तरह है, ये भी सही है की अब साहित्यिक एजेंट, प्रकाशक, लेखक, अनुवादिका तक यह प्रतिक्रिया नहीं पहुंचेगी. 

रचनात्मक लेखन में बहुत समय लगता है और कई बार लेखक लम्बा समय लेता है. लिखते लिखते खून कम हो जाता है और रचना और समय मांगती है. रचना को कितना खून चढ़ाना पड़ता है? खानखाना ने आईने - अकबरी में ठीक लिखा -लिखता हूँ गो की कतरा-ए- खून अपने जिस्म से अलग करता हूँ. पूर्व में बुकर से सम्मानित अरुंधती रॉय ने भी ऐसा ही कुछ लिखा था. खैर आगे चलते हैं. 

उपन्यास का पहला पाठ याने चेप्टर कुछ मुश्किल समझ आया दो बार पढ़ गया. पुस्तक में एक पात्र के हंसने की कोशिश को भी काफी महत्व दिया गया है. एक छोटी छड़ी को ले कर भी काफी रोचक प्रसंग है. जैसा की संयुक्त परिवार में होता है हर काम का श्रेय घर की बड़ी ले जाती है. सिड भी सब भूल भाल कर कभी कभी दादी को निहाल कर देता है. दुरूह व जटिल है उपन्यास इसे एक सिटिंग में न पढ़ा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है. मैंने भी धेर्य बनाये रखा. बूढी विधवा की अधूरी कहानी है. 

सेवा निवृति पर घर खा ली करना कितना असहज होता हैं उपन्यास छोटी छोटी बातों को बहुत गहरे तक जा कर पड़ताल करता है, बीच बीच में दादी जो हमेशा के लिए दुनिया से पीठ कर के बैठ गयी है उसे परिवार की मुख्य धारा में लाने के प्रयास भी जारी रहते हैं, दादी किसी की नहीं सुनती या की सबकी सुनती है और चुप रहती है. कोई प्रतिक्रिया नहीं. सब उदास सब चुप सब निराश उदासी की इस महागाथा में अंग्रेजी शब्द भी काफी है, कई बार वे उलझन भी पैदा करते हैं. 

बुद्ध की मूर्ति का अलमारी से निकलना, बोद्धिसत्व हो जाना नहीं है -पर खुदाई तो खुदाई है. खुदा भी, खोदना भी (पेज -८५ )

समाधि मरती नहीं. मकबरा भी नहीं मरता. 

कथा आगे बढती है. 

कहानी अनकाही न रह जाये इस लिए कथा को गाथा गाथा को कथा की शैली में विस्तार दिया गया लेखिका उलझनों को सुलझाती है और कभी कभी और ज्यादा जटिल बना कर पेश करती है याने दादी दीवार की और मुहँ कर के दुनिया की और पीठ फेर पड़ी है. 

कोहिनूर गया तो गया, टेगोर का तमगा गया तो गया. ( पेज ८७)

सोग क्या मनाना आगे बढ़ना है. पिताजी गए तो गए. फिर इस घर में रोज़ी बुआ आ गयी चप्पल से लेकर चरित्र तक छा गयी. माँ कहाँ है कैसी है की चर्चा हर सदस्य अपने हिसाब से करता हैं और माँ की फ़िक्र कौन करे क्यों करे कब तक करे. और माँ याने अम्मा याने की दादी गायब हो गयी, अस्सी साल की दादी अचनक कहाँ चली गयी. 

बिस्तरा तक झटक कर देख किया, नौकरानी तक रो दी बड़े बेटे ने अमेरिका से ही हडकाया पुलिस में रपट करो आखिर बड़े बेटे की की बात मानी गयी. और कुछ ऐसा हुआ की गायब दादी जिसे चूहा या बिल्ली का बच्चा समझ गद्दे रजाई में ढूंढा जा रहा था, थानेमें मय छड़ी के बरामद हो गयी. घर खा ली करना था सो सब ने दिमाग सामान पर लगाया. दादी को बेटी अपने घर ले गयी. मानवीय रिश्तों की जटिलताओं को समझना जितना मुशकिल है उस से ज्यादा मुश्किल है उनको कागज पर उतारना. परिवार है या महाभारत, क्या शानदार गध्य कविता है (पेज१०९-१११)सशक्त नारी का छोटा सा परिचय भी है. उपन्यास का पहला भाग -पीठ हुआ पूरा. दादी गयी बेटी के पास और बहू रेबोक के जजूते पहन कर बाहर याने बेटी अन्दर बहू बाहर, रिश्ते होने लगे तार तार. 

भाग 2 याने धूप याने दूसरा दरवाजा कब खुले कब बंद हो. नया दरवाजा याने बेटी का घर. रजा की पेंटिंग और कमरा नया नया सा दादी और बेटी बस. बेटी माँ की चिंता में व्यस्त माँ अस्त व्यस्त रात में चिंता दिन में भी चिंता दादी धू प की तरह फ़ैल गयी कमरे में. धू प माँ की सहेली सी. दादी को पौधों की याद आई बालकोनी में लगेंगे मगर बेटी नहीं सहेज पाई. माँ पलुस्कर का गाना सुन रही हैं धू प माँ को ख़ुशी दे रही हैं दोनों खुश है. माँ परांठा और साग खाएगी यहीं तो रिश्ता है. 

एक कामवाली बना देगी. चिड़िया लम्बी सिटी मारती है. उपन्यास में कौवे का जिक्र बार बार है जैसे निर्मल वर्मा की कहानी हो जो कभी धर्मयुग में तीन किस्तों में छपी फिर अकादमी पुरस्कार के लायक बनी. कई अन्य पशुओं पक्षियों का भी जिक्र है, टोबा टेकसिंह याने मंटों भी मौजूद है. कृष्णा सोबती को उपन्यास समर्पित है, वे बार बार रचना में आती हैं शायद रचना को संवारती हैं, आशीष देती है. 

बहू ननद के घर आई, सास को प्रणाम, ऑस्ट्रेलिया वाले बेटे ने दादी को आराम बताया बड़े को दादी का उपयोग चेक पर साईन चाहिए बस. 

रोज़ी भी एक किन्नर और उसकी एंट्री. 

उपन्यास फिर मानवता को नए सिरे से देखता है. कथ्य शिल्प और भाषा का अनूठा संगम कविता भी प्रोज भी जटिल है मगर आनंद भी है. समकालीन समाज, राजनीति गिरते मानव मूल्यों को भी परिभाषित करता है यह उपन्यास. मानवीयता का नया चेहरा है यहाँ. खिले फूल सा. 

बड़े आए है दादी को लिवाने मगर दादी याने माँ कह देती है -घर जमा नहीं है अभी तुम्हारा, बहू ने बक्से खोले नहीं है सब ठीक करो. 

रोज़ी और दादी माँ का याराना. . चलता रहता है रज़ा भी टेलर बन कर नाप लेता रहता है. किस्सा फिर रेत उडाने लगता है. 

लेकिन दादी माँ गिर गयी, क्यों गिरी, कहाँ गिरी, कैसे गिरी, गिरी तो उठी क्यों नहीं सब क्या कर रहे थे ?अनंत प्रश्न, उत्तर हीन. मगर ठहरों किस्सा कौवो की कांफ्रेंस का पहले सुन ले. (पेज १८१-२००) कोवो -कौवियों ने कांफ्रेंस कर ली. प्रदुषण, पर्यावरण अन -लिलो और कई अन्य मुद्दों पर, साड़ियों के बारे मे भी गहरी जानकारी मिल गयी. दादी न पहने तो बहू पहन लेगी. सिड अपनी मस्ती में जिन्दगी को धुंए में उड़ाते चले जा रहे हैं बड़े दादी को ले जाना चाहते हैं मगर कैसे? और आखिर में दादी को अस्पताल के एक बेड पर रेस्ट मिला. 

दादी बच्ची बन जाती है गाने लगती है सिटी बजाती है. मस्त मौला बन जाती है बड़े लिवाना चाहते हैं मगर कैसे. रोज़ी अपने मस्ती में मगन, दादी फ्लेट में आ गई. पूरी दुनिया को खबर हो गयी. माँ का कुछ भी व्यक्तिगत न रहा. 

रोज़ी का बदन याने विष्णु प्रभाकर का अर्धनारीश्वर या शंकर पार्वती या दादी भी नयी बच्ची बन गयी. आनद का ऐसा अवसर. दादी की चूड़िया खनकने लगी. बेटी को के के याद आता है घिन भी आती है. माँ सब छोड़छाड़ कर निकल जाना चाहती है. रोज़ी को रजा मिला एक जैसा मगर मरदाना किन्नर, किस्सा LGBTQ तक चला. 

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मगर -सौ पत्थर. संगेमरमर. धुएं से उठता. लिंगेमरमर. (पेज२१7-२१९)माँ नयी परेशानी. 

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चलो डाक्टर के, पूरा घर माँ को ले जाने को उतावला, बेचारे डाक्टर नया अंग उगा है ओपरेशन होगा. माँ ने रोज़ी को बुलाया. और रोज़ी मर गयी तो मर ही गयी. दुनिया को कोई फरक नहीं पड़ा. बड़े को चेक, जमीन के कागजों की फ़िक्र, खाली कागज पर भी माँ के साईन मिल जाये क्या पता कब क्या हो जाये. रोज़ी की मौत के साथ अम्मा का भी एक हिस्सा मर गया अस्पताल थाना पुलिस सब हो गया. बड़े माँ को बेटी के घर से लिवाना चाहते है कृष्णा सोबती ने ए लड़की में यही कह दिखाया. . 

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धम्म से आंसू गिरता है जैसे पत्थर !बरसात की एक बून्द. (पेज२६०)

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रेत का इंतजार रेत की समाधि और रेत का ताबूत. औरत याने माँ सिटी बजाती है. रेत इंतजार करती है 

उपन्यास तीसरे मोड़ पर खड़ा है, अम्मा पाकिस्तान जाएगी, जाने दो अपना क्या. हद सरहद है उपन्यास के भाग तीन का नाम याने चलो पाकिस्तान या फिर हवा में उछला नारा -पाकिस्तान भिजवा देगे या फिर चले जाओ पाकिस्तान. आज़ादी के अमृत महोत्सव में सरहद व बंटवारे की याद आना स्वाभाविक है. 

लो आ गये बाघा बोर्डेर, अटारी पर भी नहीं रुके, अमृतसर भी नहीं लाहोर के बिल्कुल पास क्योकि यहाँ पर मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मंटो रज़ा, खुशवंत सिंह सब है, जिंदगीनामा के पन्ने फडफडा रहे हैं सरहद की हद आगई. माँ लड़की बन गयी बेटी बड़ी हो गयी अम्मा छोटी लड़की बन गयी मगर नाटकों व किरदारों को इस से क्या. वे अपने में मगन. लाहोर के आनंद लेगी माँ -बेटी. दिल्ली से लाहोर तक खोज मच गयी. बिना वीजा के चली कैसे गयी 

अब तीसरी कहानी रेत समंदर, फिर चौथी-डूबों का होना. 

माँ का इन्टेरोगे शन- सरकारों का रवेय्या एक जैसा. कौवा फिर कहानी में दाखिल हो जाता है. बिना वीजा के पकड़ी गयी बस लेकिन चाँद को विजा कौन देता है. हवा वर्षा धूप, अकाल को विजा कौन देता है मेरे मालिकों ?बड़े ने माँ को छुड़ाने के जतन किये मगर कोर्ट नहीं माना बड़े थक गए मगर कौवा नहीं थका आ गया माँ के पास. अम्मा खैबर तक चली गयी, बड़े ने दिल्ली से पाकिस्तान तक सब जगह कोशिश कर ली एक जवान होती दादी व छोटी होती बेटी का कोई पता नहीं चला सियासत के कोई फर्क नहीं पड़ा सत्ता के गलियारे भरे ही रहे. दादी अनवर से मिली बंदूकें तन गयी किसी ने चला भी दी जिन्दगी का क्या ?

कहानी ख़त्म नहीं हुई चल रही है ये कहानिया अनकही रह जाती है पाठक का पेट नहीं भरता. दर्द बढ़ता ही है काम नहीं होता. 

उपन्यास में उपसंहार भी है, एक फुल टाइम नर्स रखी जाती हैं कौवा फिर खिड़की पर आ जाता है किस्सा है की ख़तम ही नहीं होता. माँ, बेटी बहू, बड़े, छोटे, के के, अनवर सब जिन्दा क्योकि कहानी मरती नहीं. चलती रहती है. रेत इंतजार करती रहती है मकबरे का भी और समाधि का भी 

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उपन्यास के चार भाग है-पीठ, धूप, हद सरहद और उपसंहार, इसलिए इस पाठकीय प्रतिक्रिया में भी अंत में उपसंहार. 

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लगभग बीस दिनों तक यह उपन्यास तफसील (376पेज ) से पढ़ा, कवर पर जो सम्मतियाँ दी गयी है वे बड़े लेखकों की है निस्संदेह अच्छी होगी मगर उपन्यास का इंट्रो नहीं देती. लेखिका ने विभाजन का दर्द नहीं झेला मैंने भी नहीं लेकिन विभाजन की त्रासदी को बहुत शिद्दत से इस में उकेरा गया है. बहुत सारे लेखकों, कवियों, कलाकारों, संगीत कारों के नाम व उनकी रचनाओं को याद किया गया है. हिंदी में ऐसी परम्परा नहीं है लेखिका को इसकी दाद देता हूँ. अंग्रेजी के शब्दोंका प्रयोग है जो शुद्धतावादियों को नागवार गुजरेगा लेकिन नयी हिंदी वाले इसे हाथो हाथ लेंगे . अंग्रेजी अनुवाद निस्संदेह बेहतर है, अनुवाद ने ही पुस्तक को शत प्रतिशत ओक्सिजन दी है. 

LGBTQ नहीं भी होता तो भी यह रचना शानदार ही रहती. एक शुद्ध साहित्यिक रचना कैसी होनी चाहिए ये इस किस्से से समझा जा सकता है. ये, दिल को छूनेवाला आख्यान है, कथ्य, शिल्प और भाषा सभी स्तरों पर एक पठनीय कृति है, संयुक्त परिवार की शानदार धारदार जानदार रचना है व्यंग्य के पञ्च भी है. गद्ध्य कविता भी और गद्ध्य भी. कथा पुरानी लग सकती है मगर कथन नया है. सिलसिला टूटता है मगर लय बनी रहती है. इटेलिक्स में जो हिस्सा है वो मुख्य टेक्स्ट से बेहतर है उसे बार बार पढ़ा जा सकता है. 

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प्रत्यक्षा ने वायर में सही लिखा -

*** कोई किताब आपको पुराने दिनों की दुनिया में झम्म से ले जाए, वही दरवाज़ा, वही लड़की-लड़कौरी-सी अम्मा, जिनके बूढ़े बदन में पंद्रह साला लड़की बसे. जो चलते न चलते झपाझप कूदने-उड़ने लगे और आप अम्मा बन जाएं और अम्मा बन जाए किशोरी. इस उलट झापे में जीवन रिवाइंड हो, कि चलो एक बार फिर बीतते हैं, कि पहली दफा कुछ चूक-सी रह गई थी, कुछ जल्दीबाज़ी भी, अब इस बार ज़रा फिर से करते हैं जीवन के हिसाब-किताब. 

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पीठ वाले भाग में भाषा का जो खिलंदड -पन है वो दूसरे व तीसरे भाग में मानवता की और ले जाता है यही शायद गीतांजली की खूबी है . कुछ चैप्टर्स बहुत छोटे हैं और कई पैराग्राफ बहु त लम्बे लेकिन पठनीयता बनी रहती है. औपचारिक हार्दिक बधाई भी. वे और लिखे और देश का नाम रौशन करे. आमीन. 

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यशवंत कोठारी, ८६, लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर -३०२००२ मो-९४१४४६१२०७