Kimbhuna - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

किंबहुना - 11

11

बहन की शादी जो उसकी जगह राकेश से होनी थी, उसका समय पास आने लगा। घर में आलम का मान और बढ़ गया। पहला दामाद था वो, और सब भाई बहन छोटे थे, इसलिए यह सोच कर कि वही सब काम सँभालेगा, उसे सारी जिम्मेदारियाँ दे दी गईं। सामान लाने, सारी व्यवस्थाएँ करने, वो जब जितने पैसे माँगता दे दिए जाते। शादी निबटने तक आलम ने किसी से दुव्र्यवहार नहीं किया, सिवाय आरती के। वह उसके पास आकर भुनभुनता रहता। गालियाँ देते हुए कहता, तुम्हारी मम्मी ने ऐसा कह दिया, वैसा कह दिया। तुम्हारा भाई किस काम का! क्या करता है वो? उसने मेरा इस बात में अपमान कर दिया, उसमें कर दिया।

यों वो तमाम अंटशंट बकता और आरती इस डर से चुपचाप सुन लेती कि सब के सामने कोई हंगामा खड़ा न हो जाए। एक गैर जातीय दामाद को घर में सम्मान मिल रहा है यही क्या कम है! पर उसे वो भी कम लगता, उसमें भी अपमान नजर आता। आरती उससे कहती कि सब अपना समझ कर ही बात कर रहे हैं। पर उसे समझ नहीं आता। वो उस पर बरसता ही रहता।

यों बहन की शादी जैसे-तैसे निबट गई। शादी के दो दिन बाद वह और आलम घर लौटने के लिए तैयार हुए। इस तरह वह मम्मी के घर से फिर एक बार आलम के घर जा रही थी। एक बार फिर विदाई हुई भी...यूँ लग रहा था, वह बहुत उदास थी।

मम्मी ने कहा, अरे- तुम तो यहीं रहती हो, जब चाहे आधे घण्टे में आ जाओगी, फिर क्यों उदास हो?

वह क्या कहती कि मैं आलम के साथ जाना नहीं चाहती। किस मुँह से कहती। और अब जगत में ऐसा कौन था, जो यह जाल काट उसे आजाद कर देता!

घर से थोड़ी दूर चल कर मेनरोड से रिक्शा लिया। वह और आलम रिक्शे में बैठे और चल दिए। रिक्शा अपनी धीमी रफ्तार मैं चल रहा था। और आलम शुरू हो गया, बोला, तुम्हारी मम्मी ने मुझसे इतना काम कराया, मैं क्या नौकर हूँ उनका। मुझे काम वाला समझती हैं।

उलाहने में वो जब भी किसी का नाम लेता, साथ मैं एक गाली जरूर देता।

आरती ने समझाया, तुम दामाद की जगह बेटे होते तो क्या ये सब काम नहीं करते।

पर उसने उसकी कोई बात नहीं सुनी। अपनी कहता रहा, मुझे कोई पूछता नहीं था, मेरी कोई इज्जत नहीं हुई। तुम्हारा भाई.... उसने खुद खाना खा लिया मुझे नहीं पूछा। तुम्हारी मम्मी... गिन-गिन कर पैसे देती थीं। मैं क्या उनका पैसा खा जाता। तुम्हारे रिश्तेदार मुझे म्लेच्छ समझते थे, काफिर कहीं के! अब कभी उस घर में कदम नहीं रखूँगा।

सुन कर उसे रोना आ गया। उस दिन रास्ते भर वो गालियाँ ही बकता रहा। आरती सारे रास्ते रिक्शे में बैठी रोती रही। उसने ये भी नहीं सोचा कि सड़क पर आते-जाते लोग देख रहे हैं, कोई क्या सोचेगा! वह रोते-रोते ही घर पहुँची। वह बहुत थकी हुई थी शादी के कामों से। मई के महीने की तेज गर्मी थी। दोपहर का समय था। मम्मी के घर से खाना खाकर आए थे। घर पहुँचते ही आलम पलंग पर लेट गया पर उसका गालियाँ बकना बंद नहीं हुआ। घर कई दिनों से बंद था, सो बहुत धूल जम गई थी। उसने आते ही रोते-रोते झाड़ू पोंछा किया, फिर नीचे चटाई बिछा कर लेट गई। आलम दो घण्टे तक गालियाँ बकता-बकता सो गया। आरती सो नहीं सकी। बार-बार यही सोचती कि दस दिन मम्मी के घर रह कर फिर इस नर्क में आना पड़ा।

अगले दिन शाम को भरत का फोन आया, तुम कैसी हो!

हम ठीक हैं, आप!

हम तो आपके बिना खाक हैं।

ऐसा क्यों?

इसलिए कि मिले न थे तो कोई आस न थी, मिल गए तो आस बँध गई तो अब रहा नहीं जाता।

हम क्या करें, आपका केस भी तो लम्बा खिंच रहा है। लगता नहीं, वे आपको तलाक देंगी!

नहीं देंगी तो क्या साथ रह लेंगी! साथ तो हम आपके ही रहेंगे। अब शेष जिंदगी तो आपके ही साथ कटेगी...।

वह खामोश रह गई। यह बहुत मुश्किल था। इसलिए कि किसी के साथ अवैध रूप से नहीं रहना चाहती थी। फिर उसे प्यार भी नहीं था। आलम से नहीं तो भरत से भी नहीं। और जाने क्यों मन में एक ही बात थी कि आप भी हमारी बिरादरी के कहाँ हो! कुछ भी हो जाए, रोटी-बेटी का सम्बंध तो बिरादरी भीतर ही होना चाहिए! जैसे आलम के साथ जुड़ी थी, वैसे ही भरत के साथ भी वह एक बार फिर मजबूरी में ही जुड़ गई थी।

तीन-चार दिन बाद भरत ने याद दिलाया, क्यों रुक्कू के बारे में क्या सोचा?

अभी तो कुछ नहीं!

क्यों?

क्या सोचें!

अरे क्या सोचना, सिंधुजा के खैराती स्कूल से निकाल उसे यहाँ रायपुर के सिटीसेंटर में दाखिला दिला दो, ना! यहाँ से टेंथ पास आउट करके निकले तो कोटा भिजवा देंगे!

सोचा उसने भी यही था, यदि वह जयपुर बनी रहती। पर मूढ़ मति हुई और वो छत्तीसगढ़ में आ मरी! जहाँ दुर्भाग्य साथ चला आया नीलिमा के रूप में!

क्या सोचती हो!

सोचूँगी!

नहीं, तुम्हें कुछ नहीं सोचना, कल हम फार्म डाल देते हैं टेस्ट की डेट बता देंगे! लेकर आ जाना।

खामोश रह गई। जो भी हो रहा है, अच्छा है।

आलम की माँ और बहन जो कुछ दिनों के लिए अपनी बहन के घर गई थीं वापस आ गईं।

सब पूर्ववत् बदस्तूर चलता रहा। इधर-उधर से पैसों का जुगाड़ कर घर खर्च भी। आलम अपनी माँ या आरती के हाथ में जरा से भी पैसे देखता तो तुरंत माँग लेता। आलम की माँ जब अपनी बहन के घर से आईं तो वे वहाँ से कुछ पैसे लाईं जो शायद रिवाज के तौर पर आते समय दिए होंगे। और शायद कुछ पैसे उन्होंने माँगे भी होंगे। आलम ने वे पैसे उनसे छीन लिए। और बुरी तरह छीन लिए! उसकी माँ के पास जो टीन का संदूक था, चाबी न देने पर उसे गली में पटक-पटक कर तोड़ दिया और रुपए निकाल लिए। द्वार पर तमाशा जुड़ गया था। आरती शर्म से भीतर जा छुपी थी। माँ द्वार पर ही छाती पीटती फिफिया रही थी।

उन्ही पैसों से कुछ किराने का सामान लाया गया। जो थोड़ा-थोड़ा करके कुछ दिन चला। फिर वो आरती पर अपनी जान-पहचान वालों से पैसे माँगने का दबाव बनाने लगा। मजबूरी में कुछ जगहों से उसने माँगे भी। ईश्वर जाने ये मानसिक तनाव का नतीजा था या कोई सत्य कि उसे उस घर में भूत-प्रेत, चुड़ैल होने का एहसास होने लगा। रात को घर की छत पर किसी के बड़े-बड़े जूते पहन कर चलने की आवाज आती। कमरे की दीवार जो बगल में एक गैलरी से जुडी थी उस दीवार पर यूँ लगता जैसे कोई हथौड़ी से कील ठोक रहा है।

वो किराए का घर था। जिसमें दो कमरे थे। एक आरती और आलम का, दूसरा आलम की माँ और बहन का। माँ के कमरे से लगी रसोई, और रसोई से लगा बाथरूम था। रसोई में एक बड़ी सी खिड़की थी। बाथरूम के दूसरी ओर एक जाली वाला दरवाजा था। दरवाजे के बाहर एक गैलरी थी। गैलरी के उस पार बिलकुल उसी डिजाइन का एक और मकान था।

एक रात आलम खाना खाकर सोया तो रात का एक बज गया था। आलम की नींद लग चुकी थी। आरती को नींद नहीं आ रही थी। वह बाथरूम जाने के लिए उठी। उसे बाथरूम जाने में डर लगता था। पर आलम को उठाना उसे अच्छा नहीं लगता था। इसलिए हिम्मत जुटाई, बाथरूम की लाइट जला कर धीरे-धीरे गई। वहाँ से लौटते समय उसे पायल के बजने की आवाज आई। तो बुरी तरह डर गई। जल्दी-जल्दी चल कर कमरे में पहुँची, और आलम को जगा कर कहा कि पीछे किसी की पायल की आवाज आ रही है। उसने उसे डाँट दिया बोला, सो जाओ पागल हो गई हो। बाजू वाली भाभी की पायल की आवाज होगी। फालतू नाटक मत करो सोने दो मुझे।

पर वह रात भर इसी इंतजार में जागती रही कि कब सुबह हो और मैं बाजू वाली भाभी से पूछूँ कि क्या आप रात एक बजे के आसपास बाथरूम जाने उठी थीं? बड़ी मुश्किल से सुबह हुई। सुबह वह झाड़ू लगाने के बहाने बार-बार देखती कि भाभी कब बाहर आएँ और मैं अपनी शंका-समाधान करूँ! करीब सात बजे भाभी की आवाज आई तब वह बाहर आई। इससे पहले कि वह कुछ पूछती उसकी नजर भाभी के पाँवों पड़ी, उन्होंने कोई पायल पहनी ही नहीं थी! वह और डर गई। उसे लगा कि जरूर कोई भूतनी ही होगी। हो सकता है ये उसका वहम हो या दिमाग की उपज जो मानसिक तनाव और आराम न मिलने, नींद पूरी न होने से दिमाग पर ऐसा असर हुआ हो। पर उस समय वह पागल सी होने लगी थी।

कुछ दिनों बाद भरत ने फोन किया कि कल टेस्ट है, रुक्कू को लेकर आ जाओ!

उसने कहा, और हर्ष को कहाँ छोड़ें?

तो उसने कहा, छोड़ना क्यों, उसे भी ले आना!

अगले दिन तीनों पहली बस से बैठ कर रायपुर पहुँच गए। भरत बस स्टेंड पर ही आ गया था। तीनों को फ्लैट पर ले गया। वहाँ से वह रेश्मा को लेकर टेस्ट दिलाने चला गया। दोपहर बाद लौट आया, तब तक आरती ने खाना बना लिया। चारों ने साथ बैठ कर खाया। बच्चे अब बे-झिझक उसे पापा कहने लगे थे। थोड़ी देर घर में आराम कर वह लिस्ट देखने गया। लौट कर बताया, रेश्मा ने टेस्ट निकाल लिया! माँ-बेटी खुशी से भर गईं। अब पंद्रह-बीस दिन बाद स्कूल-बोर्डिंग में दाखिला तय था। शाम को चारों पैदल राममंदिर घूमने गए। बच्चों ने खूब फोटोग्राफी और मस्ती की। क्योंकि दोपहर में ही भरत दो नए मोबाइल ले आया था। एक रुकू के लिए, दूसरा आरती के लिए। हालाँकि उसने मना किया था कि मेरे पास तो है। पर उसने जबरन दे दिया।

लौट कर फिर खाना और खाने के बाद बच्चे बड़े वाले बेडरूम में सो गए तो वह छोटे में, जिसमें फर्श पर ही गद्दे लगा लिए थे और भरत अपने मोबाइल से खेलता उसका इंतजार कर रहा था, दबे पाँव बिना बुलाए आ गई।

उसे सजाधजा देख भरत का दिल अपनी चाल चूकने लगा। मगर आरती उसके पास आते ही उदास हो गई। भरत ने कारण पूछा तो भरी-भरी आँखों से गीले स्वर में बोली, सात साल तक जिस आदमी ने तिल-तिल कर जलाया, वही दानव अब भी खून पी रहा है, वह छोड़ना नहीं चाहता, क्यों? दिल पर हमेशा पत्थर-सा रखा रहता है, हम क्या करें! कहते वह सुबकने लगी।

ओह! भरत ने उसे दुख, करुणा और अफसोस के साथ देखा। फिर ढाढ़स बँधाने, अपने सीने से लगा लिया! और वह शांत हो गई तो उसके रेशम से काले बालों में अपनी उँगलियों से कंघी करता हुआ कहने लगा, तुम में ऐसा कुछ खास है कि वह तुम्हें दुबारा पाना चाहता है, आरती!

हाँ! उसने कहा और एक लम्बी सुबकी के बाद जोड़ा, ताकि जिंदगी भर के लिए सलीब पर लटकाए रखे, यही खास है हम में! क्योंकि मूक पशु की तरह प्रतिरोध-रहित जिबह होना जानते हैं, हम!

मगर भरत उसके सदमे को कम करना चाहता था। उसने हिम्मत नहीं हारी। प्यार से उसके रुखसार चूमते हुए कहने लगा, उसे तुम्हारी भूख लगती होगी, यार!

सुन कर वह भौंचक्की रह गई। फिर उसके सफेद गाल रक्तिम पड़ने लगे और उनका गीलापन नाइटलैम्प की रोशनी में चमकने लगा। और फिर घड़ी रुक गई और चुम्बनों की मार से उसे होश नहीं रहा कि वह धरती, आकाश या पाताल में कहाँ खड़ी है? यही प्यार था, शायद! और इसे पाने वह कब से तड़प रही थी! इसी की खोज में विवाह की रस्म में बँध कर अपना घर छोड़ कर आलम के घर गई थी और यही नहीं मिला! लग रह था, यह आज भी नहीं मिलता तो फिर एक बार फिर ठग ली जाती, शायद!

दो बच्चों के बाद आज पहली बार जाना कि उमंग क्या होती है! भरत ने भी यही महसूस किया और कहा कि लग ही नहीं रहा कि तुम दो बच्चों की माँ हो! फिर उसने मजाक किया कि आलम ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं पाया! तो उसने मन ही मन कहा कि तभी तो तुम लट्टू बने घूमते हो!

बीच में हर्ष की नींद खुल गई और उसने माँ को अपने साथ नहीं पाया तो बाथरूम में झाँकने के बाद पापा के कमरे की ओर चला आया। मगर गेट खटकाता इसके पहले ही वहाँ रुकू आ गई। वह उसे वापस खींच ले गई और सीने से सटा कर सुला दिया। यों भरत और न आरती को ही बच्चों की इस गतिविधि का पता चला! मिलन-सुख के बाद वे दोनों एक बार फिर अतीत की नदी में गोते लगाने लगे। भरत ने पूछा कि- तुमने बहुत सहन किया, इतना क्यों? तो वह बताने लगी:

हम कितना ही कुछ चाहें उससे क्या होता है, होता वही है जो नियति ने निर्धारित किया हुआ है। अपने चाहने से मर पाते तो जहर खाया था तब ही मर गए होते। पर नहीं मरे तो फिर कैसे मरते। इस बार ईश्वर ने कहा कि लो अब मरने की सोचोगी कभी?

समझ में नहीं आया कि रोऊँ या हँसू! ये बात खुश होने की है या दुखी होने की! जब मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ। डर ये कि इन परिस्थितियों में बच्चा आएगा तो वो भी मेरी तरह दुख पाएगा। मैं पाप की भागी बनूँगी, अगर अपने बच्चे को अच्छी जिन्दगी नहीं दे सकी। पर माँ बनने की खुशी ने सारे खयाल झटक दिए। मन में एक और उम्मीद जागी कि शायद अब आलम जिम्मेदार हो जाए! ये भी लगा कि अब कोई होगा, जो सच में मेरा अपना होगा। उसी के सहारे जीवन कट जाएगा।

इस खबर से घर में सब बहुत खुश थे। घर में सबने मिठाई खाई। आलम भी खुश था। मैंने उससे फिर कहा कि- कुछ करो, क्या बच्चा भी इसी भुखमरी में जन्म लेगा?

आलम बच्चे के लिए खुशी तो दिखाता पर काम करने तैयार नहीं होता। बातें बनाता रहता पर करता कुछ नहीं। दिन बड़े बुरे बीत रहे थे।

जीवन की वो सब घटनाएँ जैसे प्रेम, शादी और माँ बनना, जिनके लिए एक स्त्री सपने सजाती है, कल्पना करती है; मेरे लिए वे सब दुख-पीड़ा ही लेकर आईं! अब रात-रात भर मैं यही सोचती कि कैसे क्या होगा! बच्चे के लिए सब सुविधाएँ तो छोडो, आवश्यक सामान भी कहाँ से आएगा, कैसे पलेगा बच्चा, उसका शारीरिक मानसिक विकास कैसे होगा, जब वो आलम के ऐसे व्यवहार को देखेगा तो क्या सीखेगा, क्या समझेगा...। चिंताएँ अब अपनी न रहीं, अब मैं अपने कष्ट अपने दुख दर्द सब भूल गई, अब बच्चे को होने वाले दुख दर्द की चिंता होने लगी।

डॉक्टर को दिखा कर जाँच कराने की बारी आई तो आलम ने किनारा कर लिया। बोला, डॉक्टर के पास जाकर मैं क्या करूँगा, अपनी मम्मी के साथ चली जाना। मैंने कहा कि- फीस के पैसे भी लगेंगे। बोला- मम्मी से माँग लेना मैं बाद में दे दूँगा।

घर का सारा काम निबटा कर भी मैं जल्दी से तैयार हो गई। पर आलम बहुत आराम से उठा। फिर धीरे-धीरे तैयार होता रहा। उसे कोई उत्साह नहीं था। मैं कपड़े पहने तैयार बैठी थी। और वो अपने काम में लगा बार-बार कहता, अरे पानी दो, वो टाॅवेल दो, ये दो, वो दो। उसके बाद वह तैयार हुआ। पर वो मुझे मम्मी के घर छोड़ कर घूमने चला गया। आज फिर मम्मी की दहलीज चढ़ने में मेरे पाँव काँप रहे थे। यही सोच कर कि आज फिर मम्मी से याचना करना होगी। मैंने धीरे से गेट खोला, और अंदर आकर धीरे से बंद कर दिया। बीस फीट के आँगन को पार करने का साहस नहीं हो रहा था, और वो भी वही आँगन, जहाँ खेले-खाए और बड़े हुए। शादी के बाद बेटी सच में पराई हो जाती है और मायका भी पराया लगने लगता है... यही सोच कर आँख भर आई। अगर ससुराल में सब ठीक होता तो आज शान से आती। या ये शादी घर वालों ने की होती तो सब कुछ छोड़ कर कब की इनके पास आ जाती। पर आज परिस्थितियाँ अलग हैं, बर्बादी का रास्ता मैंने खुद चुना है और इसके लिए एक रत्ती तकलीफ भी किसी को देने में मन कचोट जाता।

आँखे पोंछ कर घर के अंदर घुसी। मम्मी को बताया कि- चलो चेकअप के लिए जाना है। मम्मी ने पूछा, आलम कहाँ है, वो नहीं जा रहा? मैंने कहा, नहीं। सुन कर मम्मी बड़बड़ाने लगीं, उसे बड़ा काम है जो नहीं जा रहा! किसी चीज की जिम्मेदारी नहीं लेता। बस, आवारा बना घूमता-फिरता है।

फिर भी माँ, माँ होती है! वे तैयार हो गईं।

उन्हें अंदाजा तो था ही कि पैसा नहीं है। फिर भी मुझे तो मन मार कर कहना ही था, सो दबी आवाज में कहा, मम्मी कुछ पैसे रख लेना। वे जैसे ताना कसने इंतजार ही कर रही थीं, अच्छा आलम ने इसके लिए भी पैसा नहीं दिया! मैंने कहा, वे बोले तो हैं, बाद में दे देंगे। मम्मी ने कहा, पता है, कब देगा, कहाँ से देगा। बातें ही बड़ी-बड़ी करता है बस।

घर से निकल कर रिक्शा किया और क्लीनिक आए। डॉक्टर ने चेक-अप करके कहा कि- कमजोरी है, पौष्टिक खाना, दूध-दही, फल सब खूब खाओ। कुछ दवाएँ लिखीं, आयरन-कैल्ष्सियम की। मुझे मम्मी के सामने अजीब-सा लगने लगा। मुझे लगा कि आलम के घर में दो वक्त का खाना तो पेट भर मिलता नहीं, फिर इतनी चीजें, दवाएंँ, कहाँ से मिलेंगी!

और वे भी कुढ़ते हुए बड़बड़ा रही थीं- कहाँ से पौष्टिक खाना मिलेगा... कुछ और भी कह रही थीं जो मैंने सुनना नहीं चाहा। यही कि पड़े का गोश्त ही सस्ता है, वही ला कर रँधवा दिया करेगा!

मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। पर पता था कि ये प्यार और चिंता है।

अभी क्या, न जाने कितनी मुश्किलें अभी और थीं।

गर्भावस्था के चैथे महीने से ही मेरी तबीयत खराब हो गई। खाँसी और बुखार ने ऐसा पकड़ा कि छोड़ता ही नहीं था। एक बार डॉक्टर को दिखाया पर दवाएँ महँगी थीं तो पूरा इलाज नहीं मिल सका। तब आलम ने कहा कि- ऐसा करते हैं, हम उसी होम्योपैथी के डॉक्टर को दिखा देते हैं जिससे में दवा लेता हूँ। वे बहुत बढ़िया डॉक्टर हैं, कोई भी बीमारी ऐसी नहीं जिसका इलाज उनके पास न हो। जबकि मैं जानती थी कि उसकी साबूदाने जैसी गोलियों से कुछ न होगा। पर एक दिन जिद कर के आलम उस डॉक्टर के पास मुझे ले गया। डॉक्टर का क्लीनिक एक छोटे से दस फीट लम्बे और दस फीट चैड़े कमरे में था। कमरे में एक टेबल और एक कुर्सी थी। देख कर समझ आता था कि यही डॉक्टर की कुर्सी है। उसके तीनों ओर बेंचें लगी हुई थीं जो मरीजों के लिए थीं। इन पर पहले से ही कुछ लोग बैठे थे जो डॉक्टर का इंतजार कर रहे थे। हम भी वहीं बैठ गए। आधा घण्टे इंतजार करने के बाद डॉक्टर ने एक झलक दिखाई और वे कुछ पेन कॉपी आदि टेबल पर रख कर अभी आते हैं, कह कर चले गए। सब मरीज बेचैन थे कि डॉक्टर कब आएँगे। मरीजों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। जब सारी जगह भर गई तब डॉक्टर बाहर आए। और पहले आओ पहले पाओ के आधार पर मरीज देखना शुरू किया।

एक बेंच, उस पर चार से पाँच मरीज ठस कर बैठे हुए थे। मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी। जी घबरा रहा था। डॉक्टर ने एक मरीज देखा, उससे बात की, सब के सामने हाल पूछा, फिर रजिस्टर में लिखा और अंदर चले गए। मैंने धीरे से पूछा क्या हुआ? तो आलम ने बताया कि डॉक्टर तुरन्त दवा बनाते हैं, वो दवा बनाने गए हैं। डॉक्टर ने दवा बना कर बाहर आने में आधा घण्टा लगाया। मैं बुखार और खाँसी से परेशान थी। बैठना कठिन था, पर आलम ने कहा दिखा कर ही जाएँगे, तो बैठे रहना पड़ा। पीठ में भी तेज दर्द होने लगा। शाम पाँच बजे से आए थे पर दवा मिली रात के साढ़े दस बजे।

किसी तरह मोतीदाने-सी शक्कर की गोलियों की दो-दो अँगुल की शीशियाँ लेकर घर आए। रात बारह बजे तक घर के काम किए, थक कर हालत खराब हो गई थी।

दवाएँ खाईं पर तबीयत ठीक नहीं हुई।

यों रोज-रोज वही होम्योपैथी की दवा खाती रही और तबीयत बिगड़ती रही। उस पर न ढंग का खाना न आराम। हाँ, कभी-कभी मम्मी के घर जा कर अच्छे से खाना खा लेती। मम्मी कुछ फल-वल होते तो खिला देतीं। तबीयत बिगड़ती रही। मगर आलम उसी होम्योपैथिक डॉक्टर से दवाएँ दिलाता रहा। गर्भ के दौरान जहाँ वजन बढ़ना था, कम हो गया। डॉक्टर ने कहा कि मुझे बेड रेस्ट करना चाहिए। हालाँकि ये काम कठिन था पर कोशिश की, कुछ आराम मिले। पर मेरी तबीयत ठीक नहीं हुई। बुखार, दर्द, खाँसी के मारे बुरा हाल। इस सब के कारण रात में नींद नहीं आती। तो आलम ने नींद की गोलियाँ लाकर दे दीं। इसका परिणाम यह हुआ कि मुझे रोज गोली खाने की लत लग गई। अब ये हाल हो गया कि जब तक मैं एक गोली खा न लूँ, नींद नहीं आती। पीठ का दर्द न जाता।

रात-रात भर जागने, बीमार होने, और भूत-प्रेत वाले खयाल के कारण किसी तरह मकान का किराया देकर वह किराए का मकान बदल लिया गया। इसका ये फायदा हुआ कि भूत-प्रेत का डर तो मिट गया, पर तबीयत ठीक न हुई। जब कमजोरी बहुत बढ़ गई। मेरा उठना-बैठना मुश्किल हो गया। एक तो कमजोरी उस पर गर्भावस्था और खाँसी, बुखार, पीठ दर्द; में पागल हो गई थी। उस पर आलम जो जरा भी नहीं बदला था... माँ को मारना-पीटना, गालियाँ बकना, घूमना-फिरना बदस्तूर जारी था।

इलाज के लिए कुछ-कुछ दिनों में उसी डॉक्टर के पास जाना, चार-चार घण्टे परेशान हो दवा लाना, और उसका कोई असर न होना। पर आलम की जिद कि इलाज तो उसी से लेना है! वो बहुत अच्छा है। जब कमजोरी बहुत बढ़ गई तो डॉक्टर ने कहा कि कमजोरी दूर करने के लिए ग्लूकोज की बोतल चढ़वाइए जिससे थोड़ी ताकत आए। तब सिलसिला शुरू हुआ बोतल चढ़ने का। हर दूसरे दिन पड़ोस के एक कम्पाउण्डर को बुला कर बोतल लगवाई जाती। अधिकतर बोतल मम्मी के घर पर लगाई गईं। पर मैं किसी तरह ठीक नहीं हुई।

सुनते-सुनते भरत झपक गया था। हूँका मिला नहीं तो उसने उसके कान से मुँह लगा कर आर्त स्वर में पूछा, होती भी कैसे, जो मरीज जीने की इच्छा खो दे, उस पर किसी दवा का असर कैसे हो? तो उसने नींद में यही कहा, सो जाओ, प्लीज! रात बहुत हो गई!

देर तक जागने से गला फट गया था। उसने भर्राए कंठ से कहा, आप सोओ, हमें नींद नहीं आ रही।

ऐइ! सो-जाओ, सुबह हम सबको जल्दी निकलना पड़ेगा। भरत ने विनय की!

मगर वह अपने अतीत में विह्वल थी। सो न सकी। मन में एक कविता घुमड़ने लगीः

रति के कालखण्ड में

अक्सर

देवी की तरह लगती है औरत

देवीदेवी

की पुकार से

भरने लगती है उसकी आत्मा

तब अचानक मुस्करा कर

कहती है औरत

-देखो

मैं देवी हूँ साक्षात!

 

मर्द देखता है उसे

और देवी को पा लेने के दर्प से चूर

फेर लेता है अपना मुख

आगामी

रति तक के लिए!

 

एक दिन शाम को कम्पाउण्डर बोतल लगाने आया। वह मम्मी के घर बिस्तर पर सोई हुई थी। कम्पाउण्डर ड्रिप चढ़ाने बहुत देर से हाथ की नस ढूँढ़ रहा था। कई जगह सुई चुभोने के बाद भी नस मिल नहीं रही थी। तब उसने कहा कि कमजोरी बहुत होने के कारण शरीर में खून ही नहीं है, जब नसों में खून ही नहीं होगा तो नस कैसे मिलेगी?

सुन कर मम्मी टेंशन में आ गई, बोलीं, देखा, खाने-पीने को मिलता नहीं, खून कहाँ से रहेगा। घर में हल्ला मच गया। सब भाई-बहन भी बोलने लगे, हाँ- सही बात है, कोई ध्यान नहीं देता, जीजा जी कुछ ध्यान नहीं देते, दीदी की तबीयत कितनी खराब है। मम्मी बोलीं, आलम का तो यही है, इसको यहाँ छोड़ जाता है, उसका काम खत्म। न दवा की चिन्ता, न खाने-पीने की। घूमने से फुर्सत मिले तब न। घूम रहा होगा अभी भी, पता नहीं कहाँ गया है दिन भर से?

कम्पाउण्डर कह कर चला गया कि इन्हें दो-तीन गिलास पानी पिलाओ, कुछ जूस-ऊस दो, फिर एक दो धंटे बाद मुझे बुलाना।

घर में सब लोग तनाव में आकर काम में लग गए। कोई जूस बना रहा है, कोई पानी ला रहा है, कोई खाना बना रहा है। सब लगे हुए थे, चिंता में डूबे हुए। मम्मी की बड़बड़ाहट भी साथ-साथ चल रही थी। पापा सूखे से मुँह बार-बार उसके पास आकर पूछते, क्या हुआ! भाई-बहनों और माँ से पूछते। वे झुँझला जाते, तुम्हें क्या बताएँ!

लगभग दो-तीन घंटे का समय बीतने के बाद आलम आया। जैसे ही मम्मी ने उसे देखा उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने कहा कि कम्पाउण्डर कह रहा था कि शरीर में खून ही नहीं है, बहुत कमजोर है। तुम बिलकुल खयाल नहीं रखते। इतना सुनना था कि आलम गुस्से से भर गया। उसका चेहरा देख आरती डर गई। उसे पता था, वह अभी अपना आपा खो देगा, और चिल्लाने लगेगा, गालियाँ बकने लगेगा। और वही हुआ, आलम का चिल्लाना शुरू हो गया, वो जोर से चिल्लाया, शरीर में खून नहीं है तो जिन्दा कैसे हैऽ! बिना खून के भी कोई जिन्दा रहता हैऽ! बकवास करते हो तुम लोगऽ! अपने आपको बहुत हुशियार समझते हो...।

मम्मी ने कहा, चिल्ला क्यों रहे हो, कम्पाउण्डर बोल कर गया है। उसकी नस नहीं मिल रही, बोतल लगाने के लिए!

वो फिर चिल्लाया, कम्पाउण्डर कोई डाक्टर है क्या? तुम लोगों का यही नाटक है, मैं क्या फालतू घूमता हूँ, मुझे बहुत काम रहते हैं। इसे लेकर बैठा नहीं रह सकता।

मम्मी ने रोना शुरू कर दिया।

आलम जोर से चिल्ला कर आरती से बोला, चलो घर, इस दर पे आने की जरूरत नहीं। यहाँ आते हैं तो साले एहसान बघारते हैं। मेरे को ज्ञान दे रहे हैं।

तब कमजोर स्वर में आरती ने धीरे से कहा, इतना चिल्ला क्यों रहे हो, अगर मम्मी ने कह दिया तो क्या हुआ!

पर उसका इतना कहना था कि वो और भी जोर से चिल्लाया, हाँऽ क्यों नहीं, तुम्हारी मम्मी कुछ भी बोले, तुम उनकी तरफ ही बोलोगी।

उसने कहा, ऐसा नहीं है, वो सही तो कह रही हैं...

सुनते ही उसका गुस्सा और बढ़ गया, और वो अनाप-शनाप गालियाँ बकने लगा।

उसे मम्मी का लिहाज भी नहीं रहा, रहता भी कैसे जो अपनी माँ की मारपीट करता हो, उसकी नजर में दूसरे की माँ की क्या इज्जत! बोला, तुम्हें चलना है तो चलो, वरना मरो यहीं, मैं जा रहा हूँ, दुबारा इस घर में कदम नहीं रखूँगा।

तब आरती ने मम्मी की तरफ देखा, और मम्मी उसकी बात बिना कहे समझ गईं।

बोलीं, जाओ, हम क्या करें।

वह चल दी आलम के पीछे-पीछे रोती हुई। और वह बकता जा रहा था। उसे पता था, ये घण्टों यूँ ही बकता रहेगा। मन किया, आलम से कहूँ कि दुबारा मत आना। और भाग कर वापस चली जाऊँ! पर खयाल आया कि जिस परिवार का बहनों की शादी का खयाल करके आलम के साथ शादी मंजूर की, वो सब बर्बाद हो जाएगा। अभी भी एक बहन और एक भाई की शादी शेष थी। और फिर कुछ भी हो, शादी के बाद लड़की पराई हो जाती है। एक बार आलम को चुन कर सब को रुलाया, बेइज्जत कराया, अब छोड़ कर और रुलाउँ, और अधिक बेइज्जत कराऊँ, इससे तो मर जाना भला! मुझे तो अपने किए पर रोना ही है, ये सब मेरे कारण क्यों रोएँ।

मन मार कर अंततः वह आलम के साथ चली आई। उसे ही पता है, वो आधा किलो मीटर का रास्ता लड़खड़ाते कदमों से कैसे पार किया! पेट में बच्चा लिए बीमार शरीर और टूटा हुआ मन लेकर नर्क का सफर तय किया था आरती ने।

अब आलम के घर सारे दुख सहते, काम करते दिन बीत रहे थे।

आलम ने मम्मी के घर जाना छोड़ दिया था। अब वो उसे भी नहीं जाने देता। इससे जो कुछ समय मम्मी के घर थोड़ा सुकून-आराम में बीत जाता था, वो भी छिन गया। कुछ समय बाद बहुत कहने पर आलम ने कहा तुम्हें जाना हो तो चली जाया करो, मैं न छोड़ने जाऊँगा न लेने। सो, एक दो बार पैदल चल कर गई भी, पर तबीयत ठीक नहीं थी तो बार-बार जाना नहीं हो पाया। तब मम्मी ही एक बार देखने आईं। और वे आरती के पास बैठी थीं। आलम कहीं गया हुआ था। कुछ देर बाद आया, मम्मी को देख बिना कुछ बोले अंदर चला गया। मम्मी की आँख में आँसू आ गए! आरती ने देखा तो पूछा क्या हुआ? वे इशारे से बोलीं, देखो आलम मुझसे बोला भी नहीं, अजनबी सा निकल गया सामने से। उसने मम्मी को समझाया कि दुखी क्यों होती हो, आलम को तो जानती हो, उसकी बात पर क्या दुख करना।

पर इस घटना से यह परिवर्तन जरूर आया कि आलम ने धीरे-धीरे उसे मम्मी के घर छोड़ना शुरू कर दिया। यह तो बाद में समझ आया कि उसका कारण क्या था! दरअसल, उसे पता था कि डिलीवरी के लिए पैसे की जरूरत पड़ेगी तो कहाँ से आएगा! यही सोच कर उसने थोड़ा आना-जाना शुरू किया था।

इधर कुछ समय उपरांत इस मकान मालिक ने भी आलम के व्यवहार और किराया न देने की आदत से मकान खाली करने को कह दिया। तब उसकी बीमार हालत में ही मकान एक बार फिर बदला गया। पर नए मकान में भी आलम के नाटक चलते रहे। नया मकान मालिक भी आलम की हरकतों से जल्द परेशान हो गया।

लेकिन समय कैसे भी कट गया।

कुछ समय बाद उसने एक बहुत ही प्यारी और सुंदर सी बेटी को जन्म दिया। मन अद्भुत सुख से भर गया। लगा, आज प्रेम ने दस्तक दी है! बेटी को देख वह सारे दुख-दर्द भूल जाती। डिलीवरी का सारा खर्च मम्मी ने उठाया था। आलम फिर भी सीधे मुँह बात न करता। कहता कि पैसा मैं वापस कर दूँगा। खाने-पीने की सारी व्यवस्था भी मम्मी ने की। उसे अपने घर रख कर जापा कराया।

रात का अंतिम पहर था। भरत को हल्के-हल्के खर्राटे आ रहे थे। आरती उठ कर बच्चों के पास आ गई और सोती हुई रेश्मा को आत्मा की गहराई से प्यार करने लगी।

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