Kimbhuna - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

किंबहुना - 16

16

जाहिर है, अब आरती की समझ साफ थी और यह परिस्थितियों की देन थी। अनुभव ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। उससे बड़ी कोई पाठशाला नहीं। इसी को कहते हैं, बिना मरे स्वर्ग नहीं सूझता! उसने बिना आहत हुए भरत के अनुबंध से अपने आपको मुक्त कर लिया था। अब उसके सामने एक दूसरी ही राह थी। अब वह अपने बलबूते पर ही खुद को और अपनी गृहस्थी को उबारेगी, ऐसा निश्चय कर लिया था। क्योंकि मनुष्य मनस्वी है। उसके पास मन की शक्ति है, तो संकल्प ले सकता है जो निश्चित रूप से कार्य में परिणित हो जाता है।

वह देख रही थी कि घर, दफ्तर और साहित्यिक जगत में उसकी बड़ी अहमियत है। वह अपनी शक्ति पहचान चुकी थी। तभी तो उसकी आँखें डबडबाई न रहतीं, न दिल पर बोझ और किसी सहारे की खोज! जो भी करना है, अपने पैरों करना होगा, अब किसी से कोई आस रखना ही नहीं, वह सक्षम है। धन्यवाद, नीलिमा! वह मन ही मन बार-बार उसकी पीठ थपथपाती। नौकरी ऐसी थी कि आए दिन उत्सव! सदैव नेतृत्व और स्टेज पर प्रदर्शन का अवसर। फोटो, न्यूज और वाहवाही। इधर वाट्सएप समूह में नित नया सम्मान और स्नेह बढ़ता जा रहा था, सो अलग।

मगर भरत की हालत बिना पतबार की नौका सरीखी हो गई थी। यदि पत्नी से ही निबाह हो जाता तो छह साल से अकेला न खटता। न धन की कमी थी, न मान-मकान की। उच्च पद-प्रतिष्ठा, रुतबा सब कुछ था। राजवंशी होने से समाज में बोलवाला भी। मगर यह क्या हुआ कि वह एक साधारण सी औरत जो दो बच्चों की माँ और परित्यक्ता थी, प्राइवेट कंपनी में साधारण सी कार्यक्रम अधिकारी थी, बहुत बड़ी साहित्यकार भी न थी और न खरी गोरी, या बला की खूबसूरत! उसके फोटो जरूर आकर्षक थे, पर प्रत्यक्षतः तो वह भूत सी नजर आती। उसकी मुस्कान भी मोहक न थी, बल्कि कुटिल नजर आती। और उसकी आवाज में कोई रस न था, मधुरता न थी। गाती तो ऐसा लगता कि रेंक रही है...मगर वह उसी के लिए दिन-रात पागल हुआ जा रहा है। हफ्ते भर से उसने कोई संदेश नहीं भेजा और न फोन किया तो हार कर उसी ने मैसेज किया। लेकिन दुष्टा ने कई दिन देखा नहीं। और जब उसने फोन किया तो बोली, थोड़ी देर में बात करती हूँ, लेकिन वह थोड़ी देर दो दिन में भी पूरी नहीं हुई।

उसका दिल हमेशा भरा-भरा-सा रहता और वह जब देखो एक गीत गाया करता, मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था, के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको, हवाओं में लहराता आता था दामन, के दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझको, कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे, के आवाज देकर बुला लेगी मुझको, मगर उसने रोका, न उसने मनाया, न दामन ही पकड़ा, न मुझको बिठाया, न आवाज ही दी, न वापस बुलाया, मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया, यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं!

अकेले में गाता और अक्सर रोने लगता वह।

वाट्सएप पर उसने अपने स्वर में इसी गीत की एक आॅडियो क्लिप भी बनाई जिसमें अंत में वह सारा धैर्य छोड़ कर रो पड़ा था। और यह आॅडियो क्लिप उसने उसकी याद में सारी रात जागने के बाद अंतिम पहर में साढ़े चार-पाँच बजे बनाई होगी। जिसे तत्काल उसे सेंड भी कर दिया। मगर आरती पूरे दिन उसके इनबॉक्स में नहीं गई। दिन भर वह बार-बार वाट्सएप ओपन कर उसके इनबॉक्स में जा-जाकर देखता रहा वह आॅन लाइन तो होती मगर उसका इनबॉक्स खोल कर न देखती। तब उसने रात को एक फोन कॉल कर बेहद दुखी स्वर में कहा, क्या बात है, तुम्हें इतनी फुरसत नहीं मिली कि मेरा आॅडियो क्लिप सुन लेतीं!

अब क्या है, क्या बचा है, जो सुनूँ मैं! आरती ऐसी बेमुरव्वती से बोली कि भरत का रहा सहा दिल भी टूट गया। मगर गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ऐइ- सुन तो लेतीं....

इसी बीच उसने देखा कि आॅडियो क्लिप उसके इनबॉक्स में प्लेड बाई हो रहा है तो वह उस क्लिप की रिकाॅर्डिंग को याद कर धीरे-धीरे रोने लगा। मगर इसी बीच वह ऑफ लाइन हो गई थी। भरत ने हिम्मत जुटा फिर एक फोन कॉल की।

हैलो! वही रूखा स्वर।

सुना तुमने... वह फिर गिड़गिड़ाया।

सुन लिया...

पूरा नहीं सुना!

क्या है पूरे में, हम वो गाना सैकड़ों बार सुन चुके हैं!

उसमें... कहते भरत रो पड़ा, हम रो रहे हैं, और कोई चुप कराने वाला नहीं है!

तो हम क्या करें, ये सब तो आपकी ओर से हुआ है...

हमारी ओर से?

तो क्या, हमारी ओर से! वह चढ़ बैठी।

न...म-मालिक! आपकी ओर से नहीं, घबराहट में वह हकलाने लगा, म-मेरा मतलब परिस्थितियों की ओर से हुआ है...

फिर हम क्या करें, हमारी जगह आप होते तो क्या करते!

आपको छोड़ते नहीं! वह दीन हो आया।

पर हमारी मजबूरी है। कह कर उसने फोन काट दिया।

भरत ने तुरंत कॉल बैक किया तो घंटी गई पर उठा नहीं। और थोड़ी देर में उसने फिर लगाया तो स्विच्ड ऑफ मिला।

ओऽराम! सिर पटक कर रह गया वह।

दो-तीन दिन बहुत मुश्किल से बीते, तब उसने जाकर माँ को बताया।

वे बहुत चलती वाली थीं, आवेग में बोलीं, अइसे कइसे टोर देबे! समाज मँ हमर नाक नई कटा जाही???

भरत को बड़ी आशा बँधी। तीन-चार दिन बाद उसने बहन को भी बुला लिया और दोनों को लेकर बिना बताए एक शाम बलौदा बाजार आ गया! आरती उस समय ड्यूटी पर थी। रेश्मा घर आई हुई थी। घर में हर्ष तो था ही। दोनों बच्चे पापा से हिलमिल कर बातें करने लगे। थोड़ी देर में आरती लौटी तो दरवाजे पर भरत की कार पार्क देख उसका पारा चढ़ गया। रेश्मा ने गेट खोला और उसने स्कूटी जैसे-तैसे अंदर चढ़ाई। अपने ग्लोब्स उतारे और माॅस्क और तममाया चेहरा लिए अंदर आई तो उस रौबीली बुढ़िया पर नजर पड़ते ही ढीली पड़ गई। उसके आगे वह हमेशा भीगी बिल्ली बन जाती। आलम की माँ को तो उसने सास माना ही कब। वह तो ऐसी पगलेट कि अपने बेटे से ही तमाचे खा लेती। पर ये महारानी तो बेटे और दामादों सबके ही कान उमेठ देतीं। भरत का केस खारिज हुआ तो एक खुशी यह भी हुई थी कि- चलो, इन सासजू से पिण्ड कटा।

भीतर ही भीतर काँप गई और सास-ननद दोनों के चरण चुम्बन कर उठी। यह परंपरा भी थी। यकायक कैसे न निभाती! मुसलमानों में तो पाँव छूने-छुवाने का रिवाज नहीं होता। आलम की माँ के पाँव तो कभी नहीं छुए उसने। हाँ, गरज खातिर मामू के पाँव जरूर पड़ी...।

भरत की माँ ने उसके हाथों को पकड़, बारी-बारी दोनों हथेलियों को चूम लिया। बहन ने उसे गले लगा लिया। यह देख भरत को इतनी तसल्ली हुई कि पारावार न रहा। जैसे, साँप को उसकी खोई हुई मणि मिल जाए, या पिंजरे के तोते के प्राण वापस आ जाएँ! उसने आरती से कहा, खाना बुक कराना है, यहाँ कोई आसपास अच्छा होटल है, कांटेक्ट नंबर है उसका?

घर में बन जाएगा, उसने कहा, यहाँ ऐसा कोई होटल नहीं!

नहीं, घर में नहीं, सारा समय उसी में निकल जाएगा! भरत बोला।

बन जाएगा न, उसने चिढ़ कर कहा।

नहीं-नहीं, भरत को बातचीत न हो पाने की चिंता थी, होटल न सही ढाबे तो हैं बाईपास पे!

ले आओ, उसने मन में सोचा। और वह चला गया। अच्छा ही किया, आरती बनाती भी नहीं। उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। थोड़ी देर में बाथरूम में घुस गई वह और घंटे भर बाद निकली। लगभग डेढ़ घंटे में जब वह खाना पैक करा कर लौटा, आरती का मन नहीं हुआ खाने का। पर सर्व किया तो हाथ पकड़ कर बिठा लिया गया। हर्ष और रेश्मा को तो कुछ पता ही नहीं था, वे तो पूर्ववत् चहक रहे थे। मगर आरती इतनी डरी-डरी सी थी कि खाना तो दूर उससे ठीक से बोला भी नहीं जा रहा था। फ्रेश नहीं होना था और न नहाना-धोना! बाथरूम में वह अपना मोबाइल लेकर गई थी। भीतर से गेट लगा वहाँ पटे पर बैठ उसने पहली बार अपने वाट्सएप मित्र शीतल सरोज को काँपती उँगलियों से लिखा कि- मैं एक घोर विपत्ति में फँस गई हूँ! कैसे बताऊँ इतनी जल्दी सब कुछ, समझ में नहीं आ रहा, वे लोग घर में ही बैठे हैं और मैं बाथरूम में...

हड़बड़ी में सेंड-की पर फिंगर पड़ गई और इतना ही मैसेज सेंड हो गया। उस वक्त शीतल उसी का इनबॉक्स खोले आरती इज टाइपिंग पर नजरें गड़ाए था। मैसेज पढ़ते ही उसके तो छक्के छूट गए। उसने समझा घर में नक्सली घुस आए! अब क्या हो? वह घबरा गया। दिल्ली और बलौदा बाजार की दूरी तो बहुत है...। वह कुछ नहीं कर पाएगा! लगा, बेहरम वक्त ने उसे अधबीच ही उससे छीन लिया। उसकी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे अटक कर रह गई। वह कुछ पूछने की स्थिति में न आ पाया। तब तक आरती ने संक्षेप में बहुत कुछ लिख दिया कि, कैसे केस फाइनल होने से पहले सगाई के चक्कर में पड़ गई और केस खारिज हो गया तो जान छुड़ाने के लाले पड़े हैं। घर में तीन-तीन दमदार जन आकर बैठ गए हैं!

शीतल बु़िद्धमान और कार्पोरेट जगत का व्यक्ति था। माजरा वह तुरंत भाँप गया। उसने लिखा, तुम ऐसा करो, रात में उसके साथ अकेली नहीं जाना। बहाना कर देना कि हर माह आने वाले चार-पाँच मुश्किल दिनों में हो! सबके सामने बैठ कर ही बात करना, नहीं तो कोई खतरा हो जाए!

या ज्यादा डर हो तो मैं सम्बंधित थाने को इत्तिला कर दूँ!

तो उसने लिखा, नहीं-नहीं! इतने कमजोर नहीं हैं! ऐसे तो कोई भी उठा ले जाता।

दरअसल, वह बदनामी से बहुत डरती थी। नीलिमा, दुर्रानी और पुष्पा को छोड़ अभी तो किसी को पता ही नहीं कि भरत उसका पति नहीं है! अगर बस्ती और दफ्तर को ये पता लग गया तो जीना दूभर हो जाएगा। इसलिए मामला शांति से ही निबट जाए तो उसकी जान बच जाए!

फिर भी शीतल ने लिखा कि- फिर भी जरा-सी आशंका हो, तुरंत बताना। फोन अपने सीने में रखना। दरअसल, वह आरती से अधिक घबराया हुआ था।

मगर आरती ने फोन स्विच्ड ऑफ कर दराज में डाल दिया ताकि भरत कोई संदेश न देख ले। उसे अगर पता चल गया कि शीतल से सलाह ली जा रही है या निकटता है तो पक्का आदिवासी है, दोनों को तुरंत काट कर फेंक देगा।

खाने के बाद माँ ने भरत से कहा, तेहा अब ओ कोती जा, मोला एखर ले कुछु गोठिया बर हावे!

रिवाज था कि उनकी आज्ञा कोई टालता नहीं। भरत छोटे बच्चे की तरह उठ कर बाहर के रूम में चला गया। तब माँ ने आरती से पूछा, ऐसन का होहीस हावे, के अचानक तो मिजाज हा बदल गे हावे?

अचानक नाहीं, उसने काँपते स्वर में कहा, ये बात तो हम पहले से कह रखा था कि तलाक होने पर ब्याह करबे!

तो वे उसे गुस्साई आँखों से देखने लगीं।

तब उसने मिमियाते हुए कहा, आपको पता नहीं माँ जी, हम लोग मुसलमान नहीं हैं, एक के होते शादी की भी नहीं जा सकती। उन्हें जेल हो जाएगी, हमारी भी नौकरी छूट जाएगी!

मोला सब पता हावे! उन्होंने झड़प दी, ओ भरत के बहु-आ, ए बिहाव के वीरोध मा कचहरी जाही तभे तुमन दुनों झन के सेंकाही, हमन ओला चीर के खा नई जावो!

आप कुछ नहीं कर पाएँगी वह गिड़गिड़ाने लगी, कानून हमें तबाह कर देगा।

आरती की बात अकाट्य थी। कुछ देर को शांति छा गई। तब कुछ देर बाद ननद बोली, हमर मन एक झन के दस दस झन रहिथे, वइसन रहि जाव ना...

आरती कैसे कहे कि यह उसके लिए अपमान-जनक है। वह किसी की रखैल बन कर रहे, इससे अच्छा तो जहर खा ले।

तभी सास ने जोड़ा, ओहर तोला जम्मो चीज तो देवत हावे, घर...रुपइया-पइसा अउ...

कुछ नहीं चाहिए माँ जी! आरती ने आँखों में आँसू भर लिए।

तब ननद ने कहा, अच्छा, जा चाय बनाके लान, अब्बड़ थकासी लागत हावे।

आरती आज्ञा न टाल सकी। किचेन में चली गई। दिन भर फील्ड में रही थी, थकान से ठुनका टूट रहा था, सर अलग फटा जा रहा था। शीशी से बाम निकाल कर उँगलियाँ उसने माथे पर ठोकीं और नौ मन के पाँवों से उठ गई। तब तक माँ-बेटी ने कोई प्लानिंग कर ली। दोनों ही अनुभवी थीं और उम्रदराज भी। रेश्मा और हर्ष सो चुके थे। आरती चाय लेकर लौटी तब रात का एक बज रहा था। दोनों ने उसे सर से पाँव तक घूरते हुए अपने-अपने कप उठा लिए और वह बैठने लगी तो ननद बोली, जा उहू ला दे आ... और वह ठिठक कर रह गई तो सास आँखें निकाल बोली, ऐसन का बैर माढ़े हावे, जा दे आ!

अब तो जाना ही पड़ेगा यह आज्ञा थी। उसने देखा है उनका जलवा! समारोह में रेड कार्पेट बिछाई जाती है। आतंकित थी आरती। चली गई ट्रे लिए बाहर के कमरे में, जिसमें उसका भी कप था।

तभी भौंह का इशारा हुआ और ननद उसके पीछे लग गई। कि वह दरवाजा ठेल ज्योंही भीतर घुसी, उसने हाथ बढ़ा फटाक से किवाड़ लगा डंडाला चढ़ा दिया।

आरती की तो रूह काँप गई। फोन भी पास में नहीं था। चाय छोड़ घबराहट में वह गेट पीटने लगी, खोलो-खोलो! तो ननद ने सख्ती से कहा, ऐसन नखरा झन कर, कहत हवं पहिली घवं मुंदत हावे... गौना में आए रहिस का... तीन बछर ले अपन मरजी ले सुतत हावे!

भरत झपक गया था, इस धमाचैकड़ी से उठ कर बैठ गया। आरती खड़ी थर-थर काँप रही थी। माजरा भाँप उसने कहा, घबराओ नहीं, मुझ पर जरा भी भरोसा है तो बैठ जाओ, बिना मर्जी के कभी नहीं छुआ, तो अब क्यों!

पर आरती बैठी नहीं, खड़ी-खड़ी रोती रही। धोखेबाजी के कारण उसे बहुत जोर का धक्का लगा था। अब तो ये लोग केस री ओपन करा शीर्ष अदालत से भी तलाक ले आएँ तब भी चाहे मर जाए वह इस दुष्ट खानदान में जाने से रही। रो इसलिए रही थी कि उसने क्या जबरदस्त भूल की थी। एक नहीं दो-दो बार। ओह! मम्मी की बात क्यों नहीं मानी, उसे अपनी जाति में ही जाना चाहिए था। वे ढूँढ़़ तो रही थीं, पर उसे सब्र न हुआ, पहले मुसलमानों में फँस गई, फिर आदिवासियों में!

भरत जितना ही चुप कराने की कोशिश करता, उसकी हिलकियाँ उतनी ही अधिक बढ़ती जातीं। जैसे उसकी आबरू को किसी आतताई ने तार-तार कर दिया हो! तब उसने बहन को फोन लगा कर कहा कि- गेट खोल दो, नहीं तो मैं सूसाइड कर लूँगा! और दो मिनट बाद गेट खुला तो वह दनदनाता हुआ निकला और भीतर के कमरे से कार की चाबी उठा, चैनल गेट खोल गली में आ गया। माँ और बहन दौड़ कर आईं कि- क्या हो रहा है...?

भरत गाड़ी स्टार्ट कर चुका था, यह देख उनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। बिना चप्पल-जूतियों के भाग कर के वे जैसे-तैसे कार में घुसीं, और वह हवा हो गई। भरत का यह गुस्सा आरती को अच्छा लगा। दरवाजा बंद कर वह हाँफती-काँपती अपने बच्चों के पास आ गई।

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