JINA YAHAN MARANA YAHAN books and stories free download online pdf in Hindi

जीना यहां मरना यहां....

जीना यहां मरना यहां…..! 

शैलेश अरोराजी की याद आते ही कैफ़े आज़मी का गीत -'तुम इतना जो मुस्करा रहे हो,क्या ग़म है जो छुपा रहे हो' जेहन में गूंजने लगता है l वे अक्सर एक जुमला सुनाया करते थे- शर्त लगी थी खुशी को एक अल्फाज़ में लिखने की, लोग किताबें ढूँढते रह गए और हमने दोस्त लिख दिया…l अस्सी साल के शैलेशजी की जब अर्थी उठ रही थी तो हज़ारों आंखें भीतर से नम मगर चेहरे पर मुस्कान लिए उन्हें अंतिम बिदाई दे रही थींl वे गुनगुनाते थे- 'जीना यहां मरना यहां, इसके सिवाय जाना कहां!' तीस साल पहले एक सड़क दुर्घटना में इकलौते बेटे की मौत के बाद पत्नी इस हादसे को झेल नहीं पाई और दो वर्ष के भीतर ही चल बसी l खुशहाल जीवन नर्क बन गया, हर पल सदी जैसा लगने लगा l काफी दिनों तक निराशा की खाई में गोते लगाते हुए, चार बार जिंदगी को खत्म करने की नाकामयाब कोशिश भी कीl सेवा निवृत्ति के बाद पठन-पाठन का शौक परवान चढ़ने लगा l और कुछ आदर्श लोगों की जीवनी पढ़ी फिर एक दिन 'मैत्रेय' नामक संस्था की स्थापना करते हुए अपने घर को कार्यालय में तब्दील कर दिया l पेंशन आर्थिक श्रोत बन गई तथा तन-मन से वे जरूरतमंदों की सेवा में जुट गए l लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया l साथ आए लोग ही एक दूसरे के मददगार बनते हुए सहारा बनते गए l जिंदगियां पटरी पर आने लगी l मैत्रेय दोस्ती का ज़रिया बनने लगा और एक समय तो ऐसा आया जब उन्हें लगा कि काश ये जिंदगी कुछ और लंबी होतीl वे ना नेता थे, ना अभिनेता और ना ही बाबा या संत l उन्हें कोई पुरस्कार भी नहीं मिला फिर भी अपनी त्रासदी से उभरकर हमेशा मुस्कुराते हुए लोगों के लिए मसीहा बन गए थे l टूटे हुए लोगों को तिनके का सहारा मिलता गया और मैत्रेय एक बृहद परिवार बन गया। शैलेशजी का हसमुख चेहरा, मसखरा स्वभाव, हाजिर जवाबी अदा लोगों को अच्छी लगती जिससे उनके बिना हर महफ़िल अधूरी लगतीl वे कहते थे- ना गिला, ना कोई शिकवा, ए जिंदगी तू जिस रूप में भी आएगी तुझसे रुकसत होना अब मैं सीख गया।

इस तरह के समर्पित व्यक्तित्व जीवन जीने की कला को सिखाते हैं मगर हम अपने अंधरे में इतना डूब जाते हैं कि पास-पड़ोस के उजाले को भी नहीं देख पाते l जीवन का असली सुख धन या बल से नहीं खरीदा जा सकता, उसके लिए खुली आंखों से जिंदगी को देखने का नज़रिया होना चाहिए l येन केन प्रकारेण पैसा कमाना ही कुछ लोगों का मकसद होता है मगर ये धन उन्हें कभी सुख नहीं देता l माना कि जीवन में पैसा बहुत कुछ है पर पैसा सब कुछ नहीं l पैसा बिस्तर दे सकता है मगर नींद नहीं, पैसा किताबें दे सकता है मगर ज्ञान नहीं, पैसा घड़ी दे सकता है मगर समय नहीं, साथी दे सकता है, जीवन साथी नहीं, खाना और दवा दे सकता है मगर दुवा नहीं। ज़िंदगी के खेल में न तो खिलाड़ी बदले जा सकते हैं और न ही यह खेल दुबारा खेला जा सकता है। फिर इस बेशकीमती जीवन को आत्महत्या के नर्क में ढकेलना, कहां की समझदारी है? शैलेशजी नहीं रहें पर 'मैत्रेय' दोस्ती का हाथ बढ़ाए आज भी स्वागत के लिए तत्पर है l 

डॉ. रमेश यादव

मुंबई 

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