Shivaji Maharaj the Greatest - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 9

[ शिवाजी महाराज और चीन की दीवार ]

2200 साल पहले की यह चीन की दीवार संसार के 7 आश्चर्यों में से एक है। यह 6000 किलोमीटर लंबी है। इसका निर्माण कार्य लगातार 1600 वर्ष तक चलता रहा। इस प्रकार के किसी निर्माण पर विश्वास करना मुश्किल है। ईसा पूर्व सन् 230 में इसका निर्माण प्रारंभ हुआ था, जिसे सन् 1640 में रुकवा दिया गया था।
बीजिंग के उत्तर-पूर्व में करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शानहैफा बंदरगाह से शुरू होती यह दीवार सैकड़ों पर्वतीय उतार-चढ़ावों एवं खाइयों से निकलकर पश्चिम में गोबी के रेगिस्तान तक जाती है। इसे दीवार कहने से बेहतर होगा ‘तटबंदी’ कहना। यह दीवार सेना के अधिकार में थी। इसमें सेना की जरूरतों के हिसाब से खाने-पीने की वस्तुएँ, बारूद आदि रखने के लिए छोटे-छोटे किले बनवाए गए, जिनमें सेना के लिए निवास व्यवस्था भी थी। इन किलों की संख्या 25000 के लगभग थी।
ऐसी अप्रतिम दीवार बनाने की कल्पना करने वाला कौन था और उस कल्पना को साकार करने वाला कौन था ? करीब 2250 वर्ष पहले चीन में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। वे आपस में झगड़ते रहते थे, खासकर उत्तर की तरफ के राज्यों के बीच ज्यादा झगड़े होते थे। बीच-बीच में उत्तर दिशा से माँचू व मंगोलियन टोलियाँ हमले किया करतीं। ये टोलियाँ उपजाऊ इलाकों से अनाज लूटने के लिए आया करती थीं। उनके हमलों को रोकने के लिए संगठित होने की कल्पना 'शीन जी बाँगदी' नामक एक छोटे राज्य के प्रमुख ने की। उसने उत्तर के अनेक राज्यों को इकट्ठा करने का प्रयत्न किया। इन राज्यों को उसने यकीन दिलाया कि ऐसी हमलावर टोलियों से उन्हें लगातार खतरा है। जिन्होंने उसकी बात नहीं सुनी, उन पर बाकायदा हमला करके उसने स्वयं के एकाधिकार जैसा एक शासन बनाया। उपरोक्त टोलियों का सामना करने और उनके हमलों को रोकने के लिए एक भव्य दीवार बनाने की जरूरत है, ऐसा ऐलान उसने कर दिया। इस प्रकार उत्तर की ओर के प्रत्येक राज्य में दीवार का निर्माण कार्य शुरू हो गया। आनेवाली प्रत्येक पीढ़ी ने उस निर्माण कार्य को आगे बढ़ाया। संसार के इतिहास में यह अपनी तरह का एकमात्र उदाहरण है।
तब तक सीमेंट की खोज नहीं हुई थी। तो फिर ईंटों और पत्थरों को जोड़ा कैसे गया? इसके लिए पका हुआ चावल, वनस्पति एवं मिट्टी का मिश्रण उपयोग में लाया गया। जनता को बाकायदा गुलाम बनाकर इस निर्माण कार्य में जोता गया। जो भी विरोध करता, उसे वहीं कत्ल करके दीवार में ही चिनवा दिया जाता! फलस्वरूप इस दीवार का नाम ही पड़ गया, ‘सबसे लंबी श्मशान भूमि !’
चीन का इतिहास, यानी सत्ता पर चिंग और मिंग घरानों का बारी-बारी से काबिज होना।
तकरीबन 1100 वर्षों तक यह दीवार चीन की रक्षा करती रही। मंगोलियन टोलियों को इस दीवार से सख्त नफरत थी, क्योंकि वे उसे फलांग नहीं पाती थीं। चंगेज खान ने इस दीवार के रखवाले सैनिकों को इस प्रकार विवश किया कि वे उसका साथ देने के लिए राजी हो गए। चंगेज खान अपनी प्रचंड सेना लेकर दीवार को फाँदने में सफल हो गया। वह चीन में घुस गया। इससे चीन पर मंगोलियन, यानी मिंग की सत्ता स्थापित हो गई।
सन् 1212 में इस मिंग घराने को मन्चूरियन टोलियों से खतरा था, लिहाजा चंगेज खान के शासन काल में भी इस दीवार का निर्माण कार्य जारी रहा। सन् 1640 के आसपास मंचूरियन टोलियाँ फिर से ताकतवर हुईं, जिन्होंने चीन में चिंग घराने की सत्ता स्थापित कर दी। यह सत्ता सन् 1912 तक जारी रही, यानी सम्राट् पूयी के अपने पद से पतन होने तक। सन् 1650 के करीब दीवार के दोनों तरफ मंचूरियन सत्ता का अधिकार था, जिससे आक्रमणों का खतरा नहीं था। दीवार तब तक गोबी के रेगिस्तान तक बन चुकी थी। तब रेगिस्तान से सेना लाकर कोई आक्रमण नहीं कर सकता था।
चीन की यह दीवार अनेक दुःखद घटनाओं की साक्षी है। इसके निर्माण के 1800 वर्षों में लाखों मजदूर भूख, दुर्घटना या रोग से मौत के मुँह में समा गए। यहाँ कातिल ठंड पड़ती है। ठंड के दिनों में जबरदस्त बर्फ गिरती है। बीच-बीच में बारिश भी होती रहती है। गरमियों में बड़ी तेज धूप रहती है। चीन में सभी ऋतुएँ एक साथ जारी महसूस होती हैं।
निर्माण के दौरान यह दीवार मानव बस्तियों से दूर जाने लगी थी। वह जंगलों, पर्वतों और खाइयों से गुजरने लगी थी। इससे निर्माण कार्य के लिए मजदूरों की सख्त कमी हो गई। लोगों को जबरदस्ती मार-मारकर काम पर लगाया जाने लगा। लाखों मजदूरों के लिए मकान का इंतजाम, दाने-पानी का इंतजाम यह सब बहुत दुष्कर हो गया। अनेक मजदूरों को तो मृत्यु के बाद इसी दीवार में विश्रांति मिली।
भले ही यह दीवार 1500 वर्षों तक चीन की रक्षा करती रही, लेकिन कालांतर में चीन के ही लोगों ने इसे तहस-नहस कर दिया।
माओ की सांस्कृतिक क्रांति ने इस दीवार को अपना शिकार बना लिया। हजारों लोगों ने इसकी ईंटों से अपने घर बना लिये!
सांस्कृतिक क्रांति आखिर समाप्त हुई और चीन के रास्ते संसार के लिए खुल गए।

चीन ने जिस शिद्दत से अपने संरक्षण के लिए दीवार का निर्माण किया, उसी शिद्दत से शिवाजी महाराज ने अपने संरक्षण के लिए महाराष्ट्र में अनेकानेक किलों का निर्माण किया ।
हम ‘शिवाजी का बचपन’ प्रकरण में देख चुके हैं कि 15 वर्ष की उम्र में ही शिवाजी ने समझ लिया था कि किलों का महत्त्व क्या है।
शिवाजी पर्वतीय प्रदेशों में ही रहते थे, ऐसा इतिहासकार डगलस कहता है। शिवाजी की ताकत पर्वतीय प्रदेशों के बल पर ही बनी हुई थी। शिवाजी महाराज सच्चे और पक्के दुर्ग स्वामी एवं दुर्ग-संरक्षक थे। उनका जन्म दुर्ग में हुआ। जो भी धन-संपदा और वैभव मिला, सब दुर्गों के कारण। स्वयं दुर्गों को जो मजबूती मिली, दुर्ग-स्वामी शिवाजी के कारण। ये दुर्ग शिवाजी को तो सुरक्षित रखते ही थे, उनके दुश्मनों को डराते भी थे। दुर्ग उनका निवास-स्थान थे। दुर्ग उनके राज्य की संवर्धन- भूमि थे; विजय की नींव थे; आनंद के स्थान थे। इसीलिए शिवाजी ने न केवल अनेक नए दुर्गों का निर्माण किया, बल्कि
पुराने दुर्गों को दुरुस्त कर मजबूत भी बनाया।

श्रीकृष्ण ने द्वारका नगरी का वर्णन करते हुए कहा है—
“स्त्रियोऽ पि यत्र युध्येकन किमु वृष्णिमहारथाः”
अर्थात— दुर्ग के संरक्षण में जब स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, तब हमारे महारथी क्यों नहीं युद्ध कर सकते, इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

दुर्ग के आश्रय के महत्त्व का वर्णन संभाजी राजे ने अपने ग्रंथ 'बुधभूषणम्' में इस प्रकार किया है—
एक शतं योधयति प्रकारस्थो धनुर्धर
शतं दशसहस्त्राणि तस्मादुर्ग समभ्रयेत ( 111— बुधभूषणम् )
अर्थात— तटों से संरक्षित एक योद्धा सौ योद्धाओं से लड़ सकता है। 100 योद्धा दस हजार सैनिकों से लड़ सकते हैं। इसलिए राज्य की रक्षा करने वालों को दुर्ग का आश्रय लेना ही चाहिए। किले का एक- एक धनुर्धर सौ-सौ लोगों को हरा सकता है।

संभाजी राजे ने अपने शासनकाल में ‘100 सैनिक 10,000 सैनिकों को पराजित कर सकते हैं’ यह सिद्ध किया था।
किलों का महत्त्व समझाते हुए महाराज के मंत्रिमंडल के अष्टप्रधान सोनोपंत डबीर ने एक श्लोक रचा था, जो उन्हें दी गई सलाह के रूप में है। श्लोक में दुर्ग के महत्त्व को इस प्रकार उजागर किया गया है—
मैकिर्नृपो मुखंमंत्री धन सैन्ये भुजद्वयज।
राष्ट्रमन्यद्धपुस्सर्व सहदस्यंघयों दृढाः॥ 48 ॥
दुर्गाणि तु दृढान्युच्चैस्तदस्थीनि तदंतरा।
एवं मंगानि राज्य सप्तो त्कानि मनिषिभि॥ 49 ॥
अर्थात— राजा मस्तक है। मंत्री मुख है। सैन्य भुजाएँ हैं। शेष सभी प्रदेश (प्रजा) शरीर हैं। मित्र कंधे हैं एवं दुर्ग अत्यंत दृढ हड्डियाँ हैं। इस प्रकार सयाने लोगों ने राज्य के लक्षण गिनाए हैं।

संपूर्ण राज्य का सुरक्षा सूत्र:
दुर्ग किसी भी राज्य की रीढ़ की हड्डी जैसे होते हैं। दुर्ग ही न हों, तो राज्य खुले प्रदेश जैसा हो जाता है, जहाँ शत्रु कभी भी आ सकते हैं और राज्य को बेसहारा पाकर उसे तबाह कर सकते हैं। फिर तो राज्य की कल्पना ही कौन कर सकेगा? इसीलिए दूरदर्शी राजाओं ने अपने राज्य में दुर्गों का निर्माण इस प्रकार किया कि वे स्थायी बने रहें। इन राजाओं ने दुर्ग का आश्रय लेकर राज्य को शत्रुओं के संकट से बचाया। यह तथ्य कैलाशवासी स्वामीश्री शिवजी ने उद्घाटित किया है। विशिष्ट स्थलों पर दुर्ग बनाकर वहाँ श्मशान बन जाने से रोका जा सकता है।
शिवाजी महाराज ने जलदुर्गों का भी निर्माण किया। अपने जलदुर्गों से ही उन्होंने इस प्रकार सैन्य-संचालन किया कि उनका राज्य सालेरी से कावेरी तट तक फैल गया और निष्कंटक बना रहा। औरंगजेब जैसे महा-शत्रु ने बीजापुर जैसे विशाल राज्य पर आक्रमण किया था। ऐसे महाशत्रु के विरुद्ध शिवाजी तीस-बत्तीस वर्षों तक लड़ते रहे। उनके प्रयत्न सचमुच दुष्कर थे। दुर्ग न होते, तो राज्य की सुरक्षा असंभव हो जाती। यह एक ऐसा सत्य है, जो निर्विवाद है। जिन्हें स्वराज्य संपादित करना है, उनके लिए दुर्ग ही सब कुछ हैं। दुर्ग ही राज्य हैं, राज्य की नींव हैं, राज्य का खजाना हैं। दुर्ग ही सेना का बल हैं, राज्यलक्ष्मी हैं, निवास स्थान हैं। दुर्ग हैं, तो सुख है, निद्रा है। दुर्ग ही प्राणों की रक्षा करते हैं। किसी पर विश्वास न रखकर दुर्गों पर विश्वास रखो। दुर्गों को सुरक्षित रखो, क्योंकि वे सबको सुरक्षित रखते हैं। जब भी नए दुर्ग का निर्माण करो, स्वयं ही करो किसी अन्य पर विश्वास करके मत करो।

दुर्ग की रचना : राज्य संरक्षण का मुख्य आधार दुर्ग ही होते हैं। उनका निर्माण करते समय देश व स्थल का चयन बहुत सोच-समझकर किया जाए। दुर्ग पर्वत पर हो, किंतु उसके निकट कोई दूसरा पर्वत न हो। अगर हो, तो उसे सुरंग लगाकर ध्वस्त कर दिया जाए। सुरंग लगाना संभव न हो, तो ऐसा भूमि संपादन किया जाए, जिससे दुर्ग पर घात लगाने के लिए शत्रु को छिपने की जगह न मिल सके। दुर्ग की रचना में तलहटी, बुर्ज, मीनार, चिखलत, पाहारे और पडकोट आदि मजबूती से बने हों। दुर्ग की संपूर्ण इमारत की मजबूती में किसी प्रकार की कमी कदापि न हो। इसी तरह दरवाजों को भी अत्यंत दृढ होना चाहिए। बुर्ज ऐसे कोण पर बनाए जाएँ कि शत्रु जब नीचे से ऊपर की
तरफ मार करे, तब बुर्ज तक पहुँचते-पहुँचते वह मार कमजोर पड़ जाए। दुर्ग के लिए एक बड़ा दरवाजा जरूरी है। चोर रास्ते बनाए जाएँ, जिनकी जानकारी अत्यंत विश्वास के इक्का-दुक्का व्यक्तियों को ही हो । दरवाजे जितने जरूरी हों, उतने बनाए जाएँ, किंतु सबको खुला न रखा जाए। अत्यंत आवश्यक दरवाजे ही खुले रहें, बाकी बंद कर दिए जाएँ। दुर्ग की पूरी इमारत चौकीदारों द्वारा लगातार निगरानी में रखी जाए। चौकीदार आलसी न हों। वे स्वामिभक्त हों, स्वस्थ व शक्तिशाली हों, अपने कार्य में दक्ष हों।
गिरि-दुर्ग की आवश्यक विशेषताएँ: ऊँचे पर्वतों पर बनाए गए दुर्ग, यानी गिरि-दुर्ग, कुछ खास खूबियों से सुशोभित होने चाहिए, ताकि उनकी रक्षा क्षमता में कोई कमी न आए।
ये खूबियाँ तीन हैं: मेट, माची और बालेकिला।

1. मेट
मेट यानी ऐसे स्थान, जहाँ से दुर्ग में आने-जाने के रास्तों पर निगरानी रखी जाए। मेट के लिए दुर्ग के चढ़ाव पर समतल जगह का चुनाव होता है। मेट कई होते हैं। उनकी संख्या बढ़ाने की भी जरूरत पड़ सकती है। इस कारण मेट के लिए अनेक जगहें सुरक्षित कर दी जाती हैं, भले ही मेट का निर्माण तत्काल न किया जाना हो।
हर मेट का नामकरण किया जाता है। मेट के आस-पास क्या है, इसके आधार पर नामकरण होता है, जैसे कोठी दरवाजा मेट, तोप- चौकी मेट, ढोल मेट इत्यादि।

2. माची
‘राज्य व्यवहार कोश’ में माची को 'उपत्यका' की संज्ञा दी गई है। माची का अर्थ है ऊँचा भाग, ओटा या ओटला । तेरहवीं सदी में म्हाई भट ने 'लीला चरित' ग्रंथ में ‘माचा’ उर्फ ‘माची’ शब्द ऊँचे स्थान के लिए प्रयुक्त किया है। यह शब्द यादव काल से प्रचलित है।
दुर्ग की चढ़ाई पर, बीच में भरपूर लंबाई-चौड़ाईवाला मैदान माची के रूप में पहचाना जाता था। दुर्ग की सुरक्षा की दृष्टि से यह भूमि महत्त्वपूर्ण होने के कारण उसे चारों तरफ दीवार उठाकर सुरक्षित कर लिया जाता था। माची तक जाने का रास्ता कठिन हो, यह जरूरी था। कुछ महत्त्वपूर्ण इमारतें इसी लंबे-चौड़े मैदान में हुआ करती थीं।
राजगढ़, तोरणा, पुरंदर, मलंगगढ़, लोहगढ़ आदि दुर्गों में माची है। राजगढ़ में 'सुवेला', 'संजीवनी' एवं 'पद्मावती' नामों से तीन प्रमुख माचियाँ थीं। शिवाजी महाराज की राजधानी राजगढ़ में थी। उस समय इन तीनों माचियों पर इमारतें बनाई गई थीं। तोरणा के झुंजार एवं बुधला नामक सुप्रसिद्ध दुर्गों की माचियाँ सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थीं। बुधला की माची मुख्य बालेकिले से भी विस्तृत थी। शायद इसीलिए तोरणा को
'प्रचंडगढ़' नाम दिया गया होगा।

3. बालेकिला
(बाला-इ-किल्ला, गड़ाचा बाला, बाला-इ-घाट, घाट-माथा)
'बालेकिला' फारसी शब्द है। इसका अर्थ है, 'मुख्य किले के भीतर की ऊँची जगह, जो तलहटी से जुड़ी हुई हो।' राजा अथवा दुर्ग का मुख्य अधिकारी बालेकिला में रहा करते थे। गिरि-दुर्ग में बालेकिला के लिए सबसे ऊँची जगह चुनी जाती थी। राजगढ़ का बालेकिला वास्तव में देखने लायक है। बालेकिला में जाने के रास्ते कठिन हैं। 'राज-व्यवहार कोश' में बालेकिला को 'अधित्यका' कहा गया है ।
शत्रु अगर माची तक आने की हिम्मत कर चुका हो, तो फिर अगली भिड़ंत बालेकिला पर होती थी। यह लड़ाई अत्यंत सुरक्षा के साथ लड़ी जाती थी। राजगढ़ का बालेकिला बहुत मजबूती से निर्मित हुआ है। उसमें शिवाजी महाराज का सदर निवास-स्थान (दरबार), रानियों एवं राजपुत्रों के महल आदि बनाए गए थे। राजगढ़ जैसे ही बालेकिला कर्नाला, पुरंदर, तोरणा, प्रतापगढ़, हरीशचंद्रगढ़, रसालगढ़, यशवंतगढ़ इत्यादि मशहूर दुर्गों में बनाए गए हैं। मराठों के स्वातंत्र्य युद्ध के काल में जिंजी का बालेकिला राजाराम के आश्रय के लिए उपयुक्त रहा था।
'आलमगीरनामा' ग्रंथ में ईसवी सन् 1664 के 28 मई के दिन दुःखित मन से इस प्रकार लिखा गया है—
“एक भी किला नहीं जीता जा सका। शिवाजी के खिलाफ जो भी काररवाई की गई, उसमें अनेक रुकावटें आईं। पूरी मुहिम जैसे-तैसे चल रही थी।”
शिवाजी महाराज ने मुगल अधिकारियों के नाम जो पत्र लिखे, वे अत्यंत प्रचारित हुए। इन पत्रों से महाराज की शक्ति, दृढ निश्चय एवं उत्साह बड़ी उत्कृष्टता के साथ प्रकट हुए हैं। अपने एक पत्र में महाराज कहते हैं—

“दूरदर्शी लोगों को अच्छी तरह ज्ञात है कि गत 3 वर्षों से बादशाह की ओर से इस प्रदेश में धुरंधर सेनापति और मशहूर अधिकारी आ रहे हैं। बादशाह ने उन्हें मेरे किलों एवं इलाकों को जीतने का हुक्म दे रखा है। ये सेनापति और अधिकारी बादशाह को यही भरोसा दिलाते रहते हैं कि हम जल्द ही शिवाजी के किलों और इलाकों को जीत लेंगे। सच तो यह है कि कल्पना शक्ति का घोड़ा भी मेरे इलाकों में नहीं आ सकता। सच्चे घोड़े की तो बात ही अलग है! मुगल सेनापतियों और अधिकारियों को पता ही नहीं है कि मेरे इलाकों को जीतना कितना कठिन है। वे सेनापति और अधिकारी बादशाह से झूठ बोलते हैं। मेरे इलाकों में कल्याणी और बीदर जैसे स्थान नहीं हैं, जो मैदानी जमीन पर हों। मेरा राज्य तो पर्वतों की शृंखलाओं से भरा है। इस प्रदेश में साठ किले हैं। इनके जैसे कुछ किले समुद्री किनारें पर भी हैं। अफजल खान बहुत बड़ी फौज लेकर आया, लेकिन वह असहाय देखता रह गया और उसका नाश हुआ।”
“अफजल खान की मौत के बाद अमीर-उल-उमरा शाइस्ता खान ऊँचे पर्वतों और गहरी खाइयों में बसे मेरे प्रदेश में दाखिल हुआ। तीन वर्षों तक वह मुझसे जीतने के लिए लड़ता रहा। बादशाह से वह यही झूठ बोलता रहा कि मैं शिवाजी के इलाके जीत लूँगा। झूठ का वही नतीजा हुआ, जो कि होता आया है। उसे यहाँ से निकल जाना पड़ा।”
शिवाजी के लिए अपना एक-एक किला महत्त्वपूर्ण था। कोई यदि कहता कि किलों पर व्यर्थ पैसा खर्च होता है, तो शिवाजी का जवाब होता, "जैसे बाड़ खेती की रक्षा करती है, वैसे किले राज्य की रक्षा करते हैं। जैसे तंबू को खूँटा गाड़कर मजबूत बनाया जाता है, वैसे ही राज्य की मजबूती किलों से है। अभेद्य होने के कारण औरंगजेब जैसों की उमर गुजर जाएगी, मगर हमारे किले उनके हाथ नहीं लगेंगे।”
“किलों के कारण धर्म में स्थिरता आती है और राज्य का संपादन भी उचित होता है। हमारे अभेद्य किलों में शत्रु के प्रवेश का प्रश्न ही नहीं है। दिल्ली का बादशाह खुद आएगा, तो भी यहाँ तीन सौ साठ नए-पुराने किले हैं। एक-एक किला एक- एक साल लड़कर जीतेगा, तो भी तीन सौ साठ साल लगेंगे!”

चीन की दीवार गुलामों ने चिनी थी। उन गुलामों पर जो अत्याचार हुए थे, इसका ब्योरा हम पहले दे चुके हैं। उसके उलट महाराज के किले चिनवाने की क्या नीति थी, यह इस पत्र से स्पष्ट होता है, जो शिवाजी ने 22-9-1677 के दिन चेन्नई के फोर्ट सेंट जॉर्ज के ब्रिटिश गवर्नर सर डब्ल्यू. एम. लैंगहॉर्न के नाम इस प्रकार लिखा था—
“कर्नाटक में आने के बाद हमने अनेक दुर्ग जीते हैं। अनेक दुर्गों में नया निर्माण-कार्य किया जाना है। तोप ले जाने के लिए बड़ी गाड़ियाँ बनाने वाले लोग, सुरंग बनाकर चट्टानें तोड़ने वाले लोग आपके पास अवश्य होंगे, जिनकी हमें जरूरत है। हमारे पास ऐसे लोग हैं तो सही, किंतु हमने उन्हें दूसरे कामों में लगा रखा है। ये लोग गोवा और वेंगुर्ल्या से हैं। उन्हें वापस इस काम के लिए बुलाना मुश्किल है। नए लोग चाहिए। बीस-पच्चीस न मिलें, पाँच-दस भी मिल जाएँ, तो हम उन्हें अच्छे वेतन पर रख लेंगे। जितने भी लोग मिलें, उन्हें हमारे पास भेजें। हम आपके आभारी रहेंगे।”
अंग्रेजों का वकील हेनरी ऑक्सिंडेन शिवाजी के राज्याभिषेक समारंभ के समय रायगढ़ में उपस्थित था। रायगढ़ की अभेद्यता देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ था। अपनी दृष्टि से उसने जिब्राल्टर की उमेद चट्टान के अजेय माने जाते किले की तुलना रायगढ़ के किले से की थी। उसने लिखा है—
“सुबह हम ऊँची टेकरी पर पहुँचे। रास्ते में खुदी हुई सीढ़ियाँ हैं। जहाँ टेकरी कुदरती तौर पर अभेद्य नहीं है, वहाँ 24 फीट ऊँचाई की तलहटी बनाई गई है। 40 फीट के फासले पर एक और ऊँची तलहटी इस प्रकार तैयार की गई है कि यह किला दुर्भेद्य हो गया है। अगर अनाज अत्यधिक मात्रा में भर लिया जाए तो यह किला सारे संसार के विरुद्ध लड़ सकता है। पानी के लिए पत्थरों के तालाब बनाए गए हैं, जहाँ वर्ष भर पानी रहता है।
“बड़ा शहर टेकरी की ऊँचाई पर बसा हुआ है। घर सामान्य रूप से बने हैं। अत्यंत ऊँचाई पर शिवाजी का चौरस बाड़ा है। बीच में बड़ी सी इमारत है, जहाँ बैठकर शिवाजी अपना कार्य देखते हैं।”
शिवाजी ने अपना राज्य दूर दक्षिण की ओर फैलाया था। मार्च 1677 में उन्होंने भागानगरी से कुतुबशाह के साथ सुलह की। 9 मई, 1677 में वे पोड्डापोलम पहुँचे। जिंजी का राज पोड्डापोलम से ही चलता था। 20 मई को उन्होंने जिंजी पर कब्जा कर लिया।
जिंजी का किला उस वक्त अदिलशाही में था और उसका किलेदार था नासिर मुहम्मद। शिवाजी की शक्तिशाली फौज एवं प्रस्तावित धन राशि के कारण नासिर मुहम्मद ने किला बिना लड़े छोड़ दिया।
जिंजी का किला कब्जे में आने के बाद शिवाजी महाराज ने उसकी व्यवस्थाओं को नए सिरे से सँभाला, जिसमें उन्हें आठ दिन लगे। अब उन्होंने रायाजी नलगे नामक मराठा को किला सँभालने की जिम्मेदारी सौंपी। बिना एक बूँद रक्त बहाए शिवाजी ने जिंजी का किला हासिल कर लिया, जो इतना महत्त्वपूर्ण था कि बीजापुर के दक्षिणी प्रदेश पर शिवाजी की जीत की शुरुआत इसी से हो गई।
रायाजी नलगे को किलेदार बनाने के अलावा शिवाजी महाराज ने तिमाजी केशव को सबनीस और रुद्राजी सालवी को कारखानीस के पद सौंपे। महाराज ने जिंजी के किले को महाराष्ट्र के किलों के समान ही व्यवस्थित किया।
तत्कालीन मदुरा के एक कैथोलिक पादरी ने अपने दस्तावेज में लिखा है कि शिवाजी महाराज ने इस किले में नई तटबंदी कर चारों ओर खाई खोदी। किले पर बड़े-बड़े बुर्ज भी बनाए। शत्रु पर निशाना साधने के लिए नई जगहें तैयार करवाईं। ये सारे निर्माण उन्होंने इतने उत्तम तरीके से किए कि यूरोप के कुशलतम कारीगरों ने भी देखकर दाँतों तले उँगलियाँ दबा लीं।
शिवाजी ने इसके आसपास का प्रदेश अपने अधिकार में ले लिया और विट्ठल पिलदेव गोराडकर को वहाँ का सूबेदार बनाया। स्वराज की स्थापना करने के जो तरीके महाराष्ट्र में प्रचलित थे, उन्हें यहाँ भी शुरू करने के आदेश उन्होंने दिए। रूप खान और नासिर खान को अच्छे पदों पर नियुक्ति देकर संतुष्ट किया।

चीन की दीवार शत्रु के अधिकार में होने के बावजूद संपूर्ण दीवार की अभेद्यता को ध्वस्त करता हुआ चंगेज खान चीन में प्रवेश कर गया था। इस मिसाल को शिवाजी ने हमेशा ध्यान में रखा। वे अच्छी तरह जानते थे कि मजबूत से मजबूत जंजीर भी कमजोर है, अगर उसकी सिर्फ एक कड़ी कमजोर हो। इसीलिए उन्होंने अपने हर किले को अधिक-से-अधिक मजबूत बनाया। “शत्रु अगर एक-एक किला एक-एक वर्ष में जीतेगा, तो भी यहाँ 360 किले खड़े हैं। शत्रु को 360 वर्ष लगेंगे मराठा स्वराज्य पर
कब्जा करने के लिए!” ये वचन स्वयं शिवाजी के थे, जिन्हें वे हर पल याद रखते थे।
सार यह कि चीन की दीवार को बनाने में 1600 वर्ष लगे थे, मगर वह भी एक दिन बिखर गई। दूसरी ओर शिवाजी महाराज ने केवल 30 वर्षों में जिन नए किलों का निर्माण एवं पुराने किलों का नवीकरण किया, वे तमाम किले मराठा स्वराज की स्थापना एवं रक्षा के लिए सर्वथा उपयुक्त साबित हुए।


संदर्भ—
1. अथतो दुर्ग जिज्ञासा / प्रा. प्रके. घाणेकर
2. शिवकालीन दुर्ग व दुर्ग-व्यवस्था / महेश तेंडूलकर
3. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधवराव पगड़ी
4. Shivaji, His Life and Times / G.B. Mehendale