Shivaji Maharaj the Greatest - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 21

[ शिवाजी महाराज एवं उनके पिताश्री ]

दो-तीन वर्ष ऐसे रहे, जब शिवाजी ने बीजापुर के प्रदेश में उथल-पुथल मचा दी। इसके समाचार बादशाह मुहम्मद आदिलशाह के दरबार में बराबर पहुँचते रहते थे, लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। कल्याण का सूबेदार जब शिवाजी के हाथों बिल्कुल ही बरबाद हो गया, तब वह रोता हुआ बीजापुर दरबार में गया। बादशाह के सामने उसने शिवाजी की कारगुजारियों को विस्तार से बयान किया।
अब बादशाह को भी लगा कि ‘शिवाजी ने तहलका मचा दिया हैै’, ऐसी बातें जो बार-बार सुनने में आ रही हैं, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। शिवाजी ने सरकारी खजाना लूट लिया, कल्याण पर जीत हासिल की, अनेकानेक किलों पर कब्जा कर लिया, अभी और भी कई किले हैं, जिन्हें हथिया लेने की कोशिश वे कर रहे हैं।
शिवाजी की कारगुजारियाँ कितनी विलक्षण हैं, इसे लेकर अनेक अफवाहें बीजापुर में फैल चुकी थीं। प्रजा के बीच खलबली मच गई थी। बादशाह मुहम्मद आदिलशाह को शक हुआ कि जरूर शहाजी राजे ने ही अपने बेटे को यह सब करने की सलाह दी होगी। इन हालात से निबटने के लिए बादशाह मुहम्मद आदिलशाह ने एक चाल चलने की सोची। उसने शहाजी राजे को एक खत लिखा—
“आप हमारे ईमानदार अमीर हैं। आपने अपने बेटे को पूना प्रांत में रखा है। अब वह बदल गया है और बेईमानी कर रहा है। उसने हमारे कई किलों पर कब्जा जमा लिया है, यहाँ तक कि कल्याण को भी अपने कब्जे में ले लिया है। यह ठीक नहीं है। हमें यकीन है कि बेटे की ये कारगुजारियाँ आपकी जानकारी में हैं। आप उसे रोक नहीं रहे हैं। इसमें आपने कौन सी भलाई देखी? लिहाजा आपको हुक्म दिया जाता है कि अपने बेटे की कारगुजारियों पर रोक लगाएँ। शिवाजी, आपका बेटा हमारे काबू में रहना चाहिए, अगर वह इसके लिए राजी नहीं हुआ, तो हम आप पर नाराज होने का हक रखेंगे। आपकी जागीर छीन ली जाएगी और दंडित किया जाएगा। शिवाजी को भी दंडित किया जाएगा, अगर आपके लिए शिवाजी को रोक पाना मुमकिन न हो, तो उसे लाकर हमारे सामने खड़ा करें।”
बादशाह के इस खत का जवाब शहाजी राजे ने इस प्रकार दिया—
“शिवाजी मेरा बेटा तो है, लेकिन वह बिगड़ गया है। वह जरा भी मेरे कहने में नहीं है। मैं आपका ईमानदार नौकर हूँ। शिवाजी ने जो कुछ किया है, उसमें मेरा हाथ नहीं है, न ही इसमें मेरी कोई गलती है। अगर हुजूर को ऐसा लग रहा है कि मैं कसूरवार हूँ, तो मैं खुद आपके सामने हाजिर होने को तैयार हूँ या अगर आप चाहें, तो शिवाजी पर खुद आक्रमण कर उसे जिंदा पकड़ भी सकते हैं। फिर आपको जैसा वाजिब लगे, वैसा बरताव उसके साथ करिएगा, अगर मैं आपकी काररवाई में जरा भी खलल पहुँचाऊँ, तो मेरे साथ कोई मुरव्वत न की जाए। आप शिवाजी को धमकाकर अपने काबू में ले लें। मेरी ओर से तो यही विनती है। सिवा इसके मुझे और कुछ नहीं सूझ रहा।”
शहाजी राजे का ऐसा खत बादशाह तक पहुँचा, तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। बादशाह का एक सरदार मुस्तफाखान उन दिनों कर्नाटक में था। बादशाह ने उसे अपना एक खुफिया हुक्म भेजा कि तुम कोई भी चाल चलकर शहाजी राजे को हिरासत में ले लो और उसे बीजापुर में हाजिर करो। यह शिवाजी तभी सीधी राह पर आएगा, जब उसे पता चलेगा कि उसका पिता बादशाह के कब्जे में है।”
सरदार मुस्तफाखान ने शहाजी राजे को हिरासत में लेने का जिम्मा बाजी घोरपड़े को सौंपा।
शहाजी राजे को धोखा देकर पकड़ लेने में बाजी घोरपड़े कामयाब हो गया। उन्हें बीजापुर दरबार में पेश किया गया।
बादशाह मुहम्मद आदिलशाह ने शहाजी राजे पर दबाव डाला कि आप अपने बेटे पर दबाव डालें और उसे हमारी खिलाफत करने से रोकें। दरबार में मौजूद सरदारों ने भी यही दबाव डाला।

शहाजी राजे ने सबको एक ही जवाब दिया कि शिवाजी के साथ मेरे तमाम ताल्लुकात खत्म हो चुके हैं। वह सरकार से बगावत कर रहा है। इसी तरह उसने मुझसे भी बगावत कर रखी है।
इस पर बादशाह ने शहाजी राजे को अपने सामने बिठाकर शिवाजी के नाम एक खत लिखवाया कि तुम फौरन बीजापुर आ जाओ। बादशाह के जो भी किले तुमने अपने कब्जे में ले लिये हैं, उन्हें बाइज्जत बादशाह को वापस करो। तुम्हारी वजह से उन तमाम किलों के किलेदार हम पर नाराज हैं और बादशाह भी नाराज हैं।

शहाजी राजे ने यह खत बादशाह को दिखाकर शिवाजी के नाम रवाना कर दिया। उन्होंने फिर एक बार बादशाह से अर्ज किया कि मेरा बेटा मेरे अधिकार में नहीं है। उसे किस प्रकार काबू में लाया जाए, यह आप अपने तरीके से तय करें। दोषी मैं नहीं हूँ। आप व्यर्थ ही मुझ पर नाराज हैं।
जबकि बादशाह को अब भी यकीन नहीं हो रहा था। उसे तो लगातार यही लग रहा था कि शहाजी राजे असत्य बोलकर झाँसा दे रहे हैं। बादशाह ने तय किया कि शहाजी राजे को इस प्रकार दंडित किया जाए कि जिससे शिवाजी के हाथों के तोते उड़ जाएँ और वह हमारी बात मान ले।
बादशाह मुहम्मद आदिलशाह ने एक दीवार गोलाकार में चिनवाई और शहाजी राजे को बीच में बिठाकर कहा, “अगर आपका बेटा तयशुदा वक्त में हमारी खिदमत में पेश नहीं हुआ, तो इस गोल दीवार को चारों तरफ से ऊँचा उठाकर आपको इसी के अंदर चिनवा दिया जाएगा।”
शहाजी राजे दिन-रात उसी गोलाकार दीवार के बीच में बैठे रहते । दिन में सिर्फ दो बार उन्हें बाहर निकलने दिया जाता, ताकि वे थोड़ा टहल सकें। फिर वापस वहीं बिठा दिया जाता।

यह समाचार शिवाजी तक पहुँचा, तो वे अत्यंत शोक में डूब गए। उनके पूज्य पिता पर यह तो ऐसी विपत्ति आ पड़ी थी कि इसमें उनके प्राण भी जा सकते थे। सोचने लगे, क्या करें, क्या न करें। आखिर उन्होंने बादशाह शाहजहाँ को उनके बेटे मुरादबख्श के जरिए एक खत लिखा। मुरादबख्श उन दिनों दक्षिण में सूबेदार था। अपने खत में शिवाजी ने बादशाह शाहजहाँ से अर्ज किया कि हमारे पिताश्री शहाजी राजे पर बीजापुर के बादशाह मुहम्मद आदिलशाह खफा हैं। उन्होंने हमारे पिताश्री को दीवार में चिनवाकर मार डालने का विचार किया है। मेहरबानी करके हमारे पिताश्री के प्राणों की ऐसे संकट से रक्षा करें। अर्ज है कि आप बादशाह आदिलशाह से ऐसा कहें कि हमारे पिताश्री को छोड़ दिया जाए। अर्ज है कि हम आपकी नौकरी करने को तैयार हैं। आपके हर दुश्मन के खिलाफ लड़ाई में हम और हमारे पिताश्री दोनों आपका साथ निभाएँगे। इससे आपको सहूलियत होगी।
शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना के लिए कितने-कैसे दुस्साहस किए थे और किस-किस प्रकार की युक्तियाँ आजमाई थीं, यह खबर शाहजहाँ तक न पहुँची हो, इसका प्रश्न ही नहीं था। निस्संदेह शाहजहाँ ने यही सोचा होगा कि इतना साहसी, शूरवीर, पराक्रमी सेनानी हमारा सहायक बनेगा, जिस तरह निजामशाही को हमने बरखास्त किया, उसी तरह हम कुतुबशाही और आदिलशाही पर मात करेंगे। मुरादबख्श ने अपनी ओर से भी बादशाह शाहजहाँ से कहा कि वह शिवाजी की दरख्वास्त कबूल कर लें। तब शाहजहाँ ने पिछली रंजिश भुलाकर बीजापुर सरकार को खत लिखा कि शहाजी राजे
भोसले को बिना कोई दंड दिए छोड़ दिया जाए। शाहजहाँ के आदेश को ठुकराने का साहस आदिलशाह नहीं कर सकता था। आदिलशाह ने शाहजहाँ के साथ संधि का करार कर रखा था। आदेश को ठुकराने पर उस करार में फर्क आ सकता था। मुगल बादशाह को नाराज करने पर आदिलशाह को बहुत बड़ा नुकसान होने का खतरा था। उसने शहाजी राजे को जमानत पर रिहा कर दिया, लेकिन बीजापुर छोड़कर जाने की मनाही कर दी। शहाजी राजे को बीजापुर में नजरबंद रखा गया। इसके बाद करीब चार वर्ष तक शहाजी राजे बीजापुर में अटके रहे।
शहाजी राजे के मन में बाजी घोरपड़े के लिए अत्यंत घृणा घुट रही थी। नजरबंदी से छूटने पर शहाजी राजे ने शिवाजी को पत्र लिखा कि यदि तुम हमारे सच्चे पुत्र हो, तो बाजी घोरपड़े को शीघ्रातिशीघ्र दंडित करो।
आदिलशाह की माँग के अनुसार शिवाजी महाराज ने कोजणा उर्फ सिंहगढ़ का किला उसके सुपुर्द कर दिया। इस घटना के बाद शिवाजी महाराज एवं सोनोपंत नामक ब्राह्मण मंत्री के बीच जो संवाद हुआ, उससे ज्ञात होता है कि शिवाजी अपने पिता के प्रति कितने कर्तव्यनिष्ठ थे—
समर्थोडप्याहवं कर्तृमदेयमपि सर्वथा ।
शिवः सिहाचलं प्रादात पित्रयार्थ गरियसे ॥ 52 ॥(अध्याय 15)

अथभिमतलाभेन महमदेड तिनिर्वृते ।
स्वयं तु पितरर्थाय वितीर्ण सिंहपर्वते ॥ 1 ॥
आह्य स्वर्णशर्मा मग्रजन्मानमंतिके।
शिवोद्घा मंत्रवित्तमंत्रवेदिनमब्रवीत ॥ 2 ॥

(युद्ध करने का पूर्ण सामर्थ्य होने के बावजूद शिवाजी महाराज ने पिता की रक्षा के लिए सिंहगढ़ का ऐसा किला आदिलशाह के सुपुर्द कर दिया कि जिसे कभी किसी हालत में उनसे कोई ले ही नहीं सकता था।)

आदिलशाह को अत्यंत प्रसन्नता हुई, क्योंकि उसे तो मुँहमाँगा किला मिल गया था। शिवाजी अपने साथियों से सलाह-मशविरा करने से कभी पीछे नहीं हटते थे। उन्होंने जब स्वेच्छा से सिंहगढ़ का किला पिता की प्राणरक्षा के लिए न्योछावर कर दिया, तब उन्होंने सोनोपंत (डबीर) नामक अपने ब्राह्मण मंत्री को पास बुलाया। सोनोपंत गंभीरतम संकट में भी शांत-संयत रहकर तटस्थ सलाह देने के लिए विख्यात मंत्री था। शिवाजी ने उससे कहा—
सोऽज्ञास्यधार्हि मा तार्हिनादास्यत्सिह पर्वतम् ।
कोऽन्यथा तस्सा जेण्यत्रमिम मत्करस्थितम् ॥5॥

(शिवाजी महाराज सोनोपंत से बोले कि यदि शहाजी राजे मुझे पहचानते होते, तो उन्होंने यह किला इस तरह दे देने की अनुमति ही न दी होती। सिंहगढ़ तो ऐसा किला है कि जिसे मुझसे लड़कर तो कोई जीत ही नहीं सकता।)

सोनोपंत ने शिवाजी से उनके पिता के संदर्भ में इस प्रकार कहा—
गिरयों नैव गुरवो गुरुदेव गुरुर्मतः।
भवतात्र प्रभवत दतः सिंहायचल स्ततः ॥42 ॥

(किले का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। आपने अपने पिता की महान्ता का सम्मान किया है। इसीलिए आपने स्वयं पराक्रमी होकर भी सिंहगढ़ दे दिया।)

प्रदत्ते द्विषतेऽमुष्मिन विमुक्त श्रेतस पार्थिवः।
तर्हि दत्तोपि भवता दतः सिहपर्वतः ॥43 ॥
यः सिहपर्वत मेने सम शाह सुमेरूणा।
बिंगरूर च नगर कि कृत तेन वैरिणा ॥44 ॥

(पिताश्री की मुक्ति के लिए यदि हमने सिंहगढ़ अपने शत्रु आदिलशाह को दे दिया है, तो यही समझिए कि हमने देकर भी कुछ नहीं दिया। आदिलशाह ने जब पिताश्री की सुरक्षा के बदले में सिंहगढ़ माँगा, तो इससे पिताश्री का मान-सम्मान मेरु पर्वत जैसा ऊँचा हो गया।)


संदर्भ—
1.छत्रपति शिवाजी महाराज/कृ.अ. केलुसकर
2. शिवकालातील दुर्ग व दुर्ग-व्यवस्था / महेश तेंडुलकर