Pichhe jate samay me bhishm sahni books and stories free download online pdf in Hindi

पीछे जाते समय में भीष्म साहनी

पीछे जाते समय में.... भीष्म साहनी

- हनीफ मदार

एक दिन कटता है तो लगता है एक साल कट गया | भले ही यह एक किम्बदन्ति ही सही लेकिन हमारे वर्तमान में सच साबित हो रही है | लगता है जैसे आधुनिकता के साथ समय जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से आधुनिक वैचारिक रूप में सामाजिक और राजनैतिक बदलाब दृष्टिगोचर नहीं हो रहे बल्कि इसके बरक्श यह कहना कहीं ज्यादा उचित होगा कि वैचारिक दृष्टि से हम अपने समय को कहीं पीछे और बहुत पीछे धकेल रहे हैं | निश्चित ही यह बात एक बड़ा विरोधाभाष पैदा करती है लेकिन वर्तमान के इस सच से आँखें भी नहीं चुराई जा सकतीं | आर्थिक संकटों के अलावा शोषण की पराकाष्ठा के साथ कॉरपोरेट लूट युवाशक्ति की हताशा के रूप में नजर आ रही है | फासीवादी शक्तियों का खेल अब खुले आम होने लगा है फलस्वरूप साम्प्रदायिकता वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित हुई है | इन तमाम सामाज्यवादी कारकों के प्रभाव में भारतीय सांस्कृतिकता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल हासिये पर हैं | ऐसे में हमारी रचनात्मक उदासीनता साम्प्रदायिक शक्तियों को अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक जीवन को और अधिक विखंडित करने का मौक़ा देती है | अतः वर्तमान की इन ज्वलंत समस्याओं से मुक्ति पाने के रचनात्मक रास्ते खोजने की जरूरत है |

इस लेख को लिखे जाने के पीछे समय की साम्प्रदायिक स्थितियों परिस्थितियों की रचनात्मक पड़ताल कर एक सार्थक समझ को आकार देने का आग्रह है | यह इसलिए भी कि आज, जब साम्प्रदायिक शक्तिया नित नए बदले हुए रूपों में मानव जीवन को न केवल तहस नहस कर रहीं हैं अपितु मानवीय जीवन मूल्यों पर सीधे आक्रमण कर, हमारी सांस्कृतिक विरासत को खोखला कर रहीं हैं | अब यदि भारत विभाजन को ही साम्प्रदायिकता के उत्कर्ष के रूप में देखा जाए तो भारतीय आज़ादी और विभाजन की क्रूर मानवीय त्रासदी को लगभग ६८ साल लंबा समय बीत जाने एवं भारतीय लोकतंत्र की कई सरकारों के बदलाब के बाद भी, आज जनसाधारण और खासकर नयी पीढी की मानसिकता में यह साम्प्रदायिक विचार इतनी गहराई तक कैसे पहुँच गया, यह एक ज़िंदा और वाजिब सवाल है | साहित्यकार इन्हीं सवालों और स्थितियों को अपने भीतर महसूसता है उनसे टकराता है | भीष्म साहनी की उसी टकराहट का नतीज़ा है ‘तमस’ |

रचनाकाल के लिहाज़ से लगभग चालीस साल बाद भीष्म साहनी के बहाने “तमस” पर बात करना आम जन मानस के बीच साम्प्रदायिकता के विरुद्ध साहित्य और साहित्यकारों के वैचारिक हस्तक्षेप की याद दिलाना भर ही नहीं है बल्कि सक्रिय शक्तियों के सच से पर्दा हटाने, इनकी विध्वंसात्मक प्रवर्तियों की पहचान कराने के साथ इसके आंतरिक, वैचारिक और राजनैतिक पक्ष को जानने, समझने की दिशा में छोटी किन्तु सार्थक पहल है |

पूंजीवादी साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा रौंदी जाती मानव सभ्यता को शब्द्वद्ध करना साहित्यकार अपना कर्तव्य मानते रहे हैं | देश काल के संक्रमण से प्रभावित साहित्यकारों ने इस समाज को विशिष्ठ साहित्य दिया है | इतिहास गवाह है कि प्रेमचंद, यशपाल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं से न केवल साम्प्रदायिकता के पीछे काम करने वाली शक्तियों को ही बेनकाब किया है बल्कि भारतीय संस्कृति के दोनों समुदायों के बीच अपनी साहित्यिक रचनात्मकता के माध्यम से आपसी सद्भाव कायम करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है |

रावलपिंडी में 8 अगस्त 1915 को जन्में भीष्म साहनी का सम्पूर्ण कथा साहित्य भारतीय इतिहास के मानवीय ध्वंस के दुखद अद्ध्याय का चित्रण भर नहीं है अपितु वे सहज मानवीय अनुभूतियों के साथ तत्कालीन जीवन के अंतर्द्वंद को लेकर सामने आते हैं और उन्हीं विषमताओं को उन्होंने रचना का विषय बनाया। भीष्म साहनी एक ऐसे साहित्यकार हैं जो समस्या को मात्र कह कर नहीं छोड़ देते बल्कि उसकी सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी अपनी जिम्मेदारी समझते हैं । वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता के बन्धनों को तोड़कर संघर्ष से आगे बढ़ने का आह्वाहन करते हैं । पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सामाजिक आर्थिक विषमताओं एवं जन सामान्य के बहुआयामी शोषण को गहराई से समझने और उसके सामाजिक परिणामों के प्रति चिंतित होना वैचारिक रूप से उनके मार्क्सवादी प्रभाव को दर्शाता है | नाटक मुआवजे, बसन्ती, झरोखे, तमस, मय्यादास की माड़ी व कड़ियाँ उपन्यास भीष्म जी की वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रतिबिम्ब के रूप में दिखाई देते हैं|

‘भीष्म साहनी का कथा साहित्य उन चुनिन्दा साहित्यकारों में से है जो हमें हमारे समय का पूर्वाभास करा देने की क्षमता रखता है कि हम अपने समय की धडकनों को सुन समझ और विश्लेष्ण कर वक़्त की नब्ज को थाम सकें | ‘तमस’ वक्ती हालातों का ऐसा साफ़ सुथरा साहित्यिक आइना है जिससे गुजरते हुए न केवल तात्कालिक समय के बल्कि वर्तमान की राजनैतिक, सामाजिक तस्वीर सपष्ट दिखाई देती है | भीष्म साहनी साम्प्रदायिक दंगों का आधार धर्म नहीं बल्कि राजनैतिक और आर्थिक कारणों को मानते हैं (तमस का एक प्रसंग) “बहुत चालाक नहीं बनो रिचर्ड | मैं सब जानती हूँ | देश के नाम पर लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं, और धर्म के नाम पर तुम इन्हें आपस में लड़ाते हो | क्यों ठीक है ना ..?’

‘हम नहीं लड़ाते, लीज़ा, ये लोग खुद लड़ते हैं |’

तुम इन्हें लड़ने से रोक भी तो सकते हो | आखिर हैं तो ये एक ही जाति के लोग |’

रिचर्ड को अपनी पत्नी का भोलापन प्यारा लगा | उसने झुक कर लीजा को चूम लिया | फिर बोला, ‘डार्लिंग, हुकूमत करने वाले यह नहीं देखते कि प्रजा में कौन सी समानता पाई जाती है, उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वे किन किन बातों में एक दूसरे से अलग हैं |” (५२)

‘तमस’ का संकेत कुछ और है। इसमें वर्ग संघर्ष है। आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, चैन की जिंदगी जीना चाहती है। हर हिन्दुस्तानी मुसलमान अपना घर छोड़ते यही सोच रहा था कि वह इसे सदा के लिए थोड़े ही छोड़ रहा है। जाहिर है, आम जनता साम्प्रदायिक नहीं होती शांति चाहती है।

भीष्म साहनी की राजनैतिक सामाजिक मानवीय चिंतन की गहराई और वर्तमान प्रासंगिकता इस उदाहरण से बेहतर समझी जा सकती है कि गांव के सारे लोग चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं । उनको भय है तो सिर्फ बाहरी लोगों से। और सच होता भी यही है-जबतक बाहर से दंगाई नहीं आते हैं हरनाम सिंह मजे में अपनी दुकान चला रहा है। गांववालों को उनसे कोई शिकायत नहीं है बल्कि उनके साथ लोगों की सहानुभूति भी है। गांव की जनता उन्हें बार-बार यही कहती है कि तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे। लगभग चालीस साल पूर्व लिखे गए उपन्यास की इस घटना से गुजरते हुए वर्तमान में आते हैं और ......

‘‘दादरी’ उत्तर प्रदेश के ताज़ा साम्प्रदायिक घटनाक्रम के बाद वहाँ की भोली जनता को अपने हितों के लिए बरगलाने और उसे अलग अलग सियासी रंग देने की तमाम राजनैतिक कोशिशों के बावजूद गावं के लोगों ने मानवीयता का वह सन्देश पेश किया, जब नफरत और द्वेष के लिए चर्चित हुए गावं की दो लड़कियों की शादी को टूटने नहीं दिया और पूरे गावं ने एक परिवार की तरह शामिल रहकर शादियों को संपन्न कराया | जैसे इंसानी घटनाक्रम पर नज़र जाती है तब क्या नहीं लगता कि ‘तमस’ तब और आज लिखा जा रहा है |

जबकि मुजफ्फरनगर, मैनपुरी, कोसी और अन्य देश भर के साम्पदायिक घटनाओं के पीछे के कारण भी तमस की दृष्टि से स्पष्ट होते नज़र आते हैं | यहाँ स्पष्ट होता है कि धर्म के लिए आदमी को कत्ल करना ही नहीं बल्कि उसके घरों, मकानों को भी लूटा जाता है । भीष्म साहनी की यह समझ पक्के तौर पर स्पष्ट है, कि साम्प्रदायिकता धर्म और सम्प्रदाय का नहीं अपितु राजनैतिक और आर्थिक हितों का सवाल है।

मूलतः एक नाटककार के रूप में प्रसिद्धि पाने वाले भीष्म साहनी का सम्पूर्ण लेखन फिर चाहे कहानी, उपन्यास या नाटक न केवल व्यवस्थाओं द्वारा किये जाने वाले साम्प्रदायिक धुर्वीकरण और मानवीय चिंतनधारा के ऐतिहासिक व् जीवंत दस्तावेज़ हैं बल्कि नाटकीयता से भरपूर यथार्थ चित्र हैं | उनके साहित्य में नाटकीयता का मूर्त होना अकारण भी नहीं है क्योंकि खुद साहनी थिएटर की दुनिया से भी नज़दीक से जुड़े रहे और उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन इप्टा में काम करना शुरू किया जहाँ उन्हें बड़े भाई बलराज साहनी की सरपरस्ती मिली. भीष्म साहनी ने मशहूर नाटक भूत गाड़ी का निर्देशन भी किया जिसके मंचन की ज़िम्मेदारी ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ली थी.

आज के पाकिस्तानी शहर रावलपिंडी में रहे भीष्म साहनी ने विभाजन की त्रासदी को अपनी आँखों से देखा और महसूस किया था यही कारण है कि उन दृश्यों ने न केवल साहनी की ज़िंदगी को प्रभावित किया बल्कि उनके साहित्य सृजन पर भी उसका गहरा दिखता है . फिर चाहे उनका नाटक “मुआवज़े” हो “जिस लाहौर नहीं वेख्या” “हानूश” या “कबिरा खडा बाज़ार में” आदि बहुचर्चित नाटकों के अलावा ‘अमृतसर आ गया’ ‘चीफ की दावत’ ‘आवाजें’ जैसी उनकी कई कहानियां भी साम्प्रदायिक परिदृश्य को केंद्र में रख कर नाटकीय दृष्टिकोण से लिखी गईं हैं जिन्हें सहज ही और बड़ी आसानी से मंचित किया जा सकता है |

भीष्म साहनी ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. मार्च 1947 में जब रावलपिंडी में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे तब उन्होंने प्रभावितों की मदद के लिए काम किया | उनका कहना था कि सांप्रदायिक हिंसा का असल शिकार दोनों ही समुदायों के आम लोग होते हैं और उनके इसी कथ्य की तश्दीक करते हैं नाटक ‘मुआवज़े’ ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या’ हालांकि यह दोनों ही नाटक भी परोक्ष रूप से तमस की ही वेदना को उकेरते हुए तमस की ही प्रति छाया की तरह हैं क्योंकि इनमे भी राजनैतिक विकृत इच्छा शक्तियों के तले दबी मानवता की कराहटें शिद्दत से उभरती हैं |

नाटक 'मुआवज़े' वर्तमान भारतीय समाज एवं राजनैतिक व्यवस्थाओं पर करारा व्यंग्य है। नाटक के जरिए स्वतंत्रता के बाद की राजनैतिक एवं शासकीय व्यवस्था का एक लोकतांत्रिक विश्लेष्ण है जहाँ नगर में सांप्रदायिक दंगे भड़कने के डर के बीच हो चुकी कुछ घटनाएं हैं। हालातों में पुलिस-प्रशासन की कार्यशैली और उनके क्रियाकलाप, तो नेताओं और व्यापारी वर्ग की दंगों के समय भी फायदा उठाने की चाह में की जाने वाली सामाजिक धुर्वीकरण की कोशिशें हैं और वहीँ इस सब सामाजिक राजनैतिक उथल पुथल के बीच अपने क्षदम हितों के लिए जूझता आम आदमी है | व्यक्तिवादी सोच और स्वार्थपूर्ण मानवीय फितरतों से उलझते जूझते बितान से गुजरते हुए भीष्म साहनी का यह नाटक भी दशकों पहले लिखा गया प्रतीत नहीं होता बल्कि उसके दृश्य वर्तमान में हमारे सामने, हमारे बीच, हमारे आस-पास जीवंत घटनाक्रम के रूप में उपस्थित हो रहे हैं | भीष्म साहनी की मार्क्सवादी विश्वदृष्टि की प्रासंगिकता का ही नतीज़ा है कि आज भी उनके लिखे नाटक किसी भी प्रगतिशील रंग संगठन या रंगकर्मी की पहली पसंद बने हुए हैं |

भीष्म साहनी का नाटककार अपने लेखकीय दायित्वों को बोझ समझकर अपने वर्तमान से पलायन नहीं करता उनके शब्द, कथ्य वर्तमान के साथ हमेशा खड़े दिखते हैं और अपने समय से टकराते हुए मानवीय विमर्श रचते हैं | राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भीष्म साहनी ने जिस स्वतंत्र भारतीय समाज की कल्पना की | आज़ाद भारत के लगभग सात दशकों के बाद भी पूरी होती नहीं दिखी ऐसे में भीष्म साहनी ने अपने लेखकीय जिम्मेदारियों में उन्हीं सामाजिक चिंताओं और सरोकारों को शामिल किया जो आम जन जीवन से सीधी जुडती हैं |

भीष्म साहनी के इस सरोकारी जीवन दृष्टि से रचे नाटकों ने न केवल रंगकर्मियों का ध्यान अपनी तरफ खींचा बल्कि आम जन मानस में एक नए दर्शक वर्ग की सांस्कृतिकता के प्रति बँधी–बँधायी चेतना में विक्षोभ पैदा किया फलस्वरूप हिंदी क्षेत्र में आम जन के रूप में नया दर्शक खडा हुआ जिससे भारतीय रंग आन्दोलन को नई गति प्राप्त हुई | साहनी के नाटकों से समाज के शोषित तबके के जुड़ाव की ख़ास वज़ह उनके नाटकों में साफ़ और सुलझे हुए दृश्य और आम भारतीय समाज से ली गई सरल और देशज शब्दों से रची अपनी भाषा है | तब भले ही नाटक में कोई नवीन प्रयोग नहीं किया गया हो । उसका कथ्य ही अपने–आप में एक नया प्रयोग बन जाता है ।

नाटक ‘कबिरा खड़ा बजार में’ कबीर की आध्यात्मिक ऊँचाई एवं विराट कवि जीवन को ही नहीं प्रस्तुत करता बल्कि कबीर की संघर्षशील सामाजिक चेतना दृष्टि को भी मानवीय जीवन दर्शन के रूप में शिद्दत से प्रस्तुत करता है | मध्ययुगीन राजसत्ता के प्रभाव में समाज के असहिष्णु स्वरूप के साथ साहनी कबीर के समय की तात्कालिक सामाजिक चेतना को मानवीय संदर्भों के साथ वर्तमान तक लाने में सफल होते हैं | जो वर्तमान की आध्यात्मिक चेतना पर मानव हित में वैज्ञानिक सवाल के रूप में नज़र आता है | जो न केवल वर्तमान समाज व्यवस्था को अपने भीतर झाँकने को विवश करता है अपितु राजसत्ताओं के विचलन का कारण आज भी बनता है | जो इस नाटक के मंचन पर रोक लगाने या मंचन में बाधा उत्पन्न करने की घटनाओं के रूप में परिलक्षित होती रहीं हैं |

साम्प्रदायिक सौहार्द और संघर्षशील मानवीय चेतना की दिशा में थियेटर की महत्वपूर्ण भूमिका को समझते हुए ही वे ‘सफदर हासमी’ समर्पित नाट्य संस्था ‘सहमत’ से जुड़े रहे | बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी ने कई फिल्मों जैसे ‘मोहन जोशी हाजिर हो’, तमस, कस्बा, लिटिल बुद्धा तथा मिस्टर एंड मिसेज अययर’ में बतौर कलाकार अभिनय भी किया । आज पुनः जब हमारे, सामाजिक, राजनैतिक वातावरण, आधुनिकता और विकास की दौड़ के भ्रम में वर्तमान समय को ही दशकों पीछे धकेल दिए जाने के खतरों की, दुश्चिंताएं सामाजिक चेतन पर हावी हैं ऐसे में भीष्म साहनी के पुनर्पाठ और पुनर्चर्चा की निश्चित ही आवश्यकता जान पड़ती | ताकि नई पीढी भीष्म साहनी से बावस्ता हो सके |

हनीफ मदार

मथुरा

(संपादक – हमरंग डॉट कॉम)