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@dineshtripathigstgma
Village-rupoali
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आ जाओ एक बार प्रिए शर्म, लिहाज की स्वर्ण मेखला से आ जाओ इस पार प्रिए, तन मन तुम बिन व्याकुल मेरा, अा जाओ एक बार प्रिए, क्या याद नहीं उस पथ की, जिस निज पथ पर करती थी इंतजार मेरा, तुम कलियों सी खिल उठती थी, और भवरे सा गुंजार मेरा, प्रफुल्लित होते थे परस्पर, जैसे हों एक संसार नया। तुम, याद बहुत आती हो जानू, फिर, आओ एक बार प्रिए शर्म, लिहाज की लक्ष्मण रेखा तुम फिर तोड़ो एक बार प्रिए, शर्तों और वादों की लाइन, फिर बोलो एक बार प्रिए, शर्म की लाली गालों पर, उलझी जुल्फो की सुलझन फिर देखूं एक बार प्रिए। क्या याद नहीं है वो पल, जब तुम कली,और मै भंवरा, याद उसी पल को करके, अा जाओ एक बार प्रिए। शर्म लिहाज की स्वर्ण मेखला, से आ जाओ इस पार प्रिए तन ,मन तुम बिन व्याकुल मेरा, आ जाओ एक बार प्रिए।। कवि - दिनेश त्रिपाठी
मजदूर लक्ष्य हेतु जी तोड़ मेहनत, बह रहा तन से पसीना, कार्यस्थल दिवस में, निशा में था बसेरा । स्वेद लथपत, हांफ भरता, बाजुओं को सख्त करता, सब्बल से कर प्रहार , शिला खंड खंड कर दे, वह संघर्ष रत मजदूर। खाट टूटी, राह रूठी, स्वप्न के संसार रूठे, महंगाई रथ पर सवार, स्वप्न खण्ड खण्ड कर दे, वह संघर्षरत मजदूर। दिवस बीता, रात आई, साथ गहरी ठंढ लाई, हांथ कांपे, पांव कांपे साथ अस्थिपंजर कांपे। टूटी खाट में दुबका कुतरे फटे बिस्तर से आसमान झांके। तिनका तिनका पहर बीते, निद्रा खंड खंड कर दे, वह संघर्षरत मजदूर।। स्वप्न देखे सफलता का, आशाओं के पंख बांधे, निज ह्रदय में जोश भरता, फंस जीविका मकड़ जाल में, जीवन खंड खंड कर दे। लक्ष्य हेतु जी तोड़ मेहनत। वह संघर्षरत मजदूर। कवि -दिनेश त्रिपाठी
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