फिर भी शेष
राज कमल
(1)
हिमानी अंदर से दरवाज़ा बंद करना भूल गई थी। जैसे ही नशा टूटा, सुखदेव को हिमानी की देह की तलब लगी तो जा घुसा उसके कमरे में। भयभीत हिरनी—सी हिमानी फटी—फटी आंखों से अंधेरे में उसे ताक रही थी। जैसे ही समझ पाई कि उसके बिस्तर पर उसे घूरता सुखदेव ही है, हिमानी ने अपने मुंह को हाथों से बंद कर एक खौफनाक चीख को जवान होने से पहले ही मार डाला, क्योंकि पास ही दूसरे बिस्तर पर जवान लड़की सोई हुई थी, खिजाओं से बेखबर, बहारों के सपने देखती, सुखदेव की अपनी बेटी, रितुपर्णा।
‘अगर उसकी आंख खुल जाती तो!' सोचते ही हिमानी का शरीर ठंडा पड़ गया।
‘‘ए! एक बार आ ना! ए... मनी! कितने महीने हो गए तुझे छुए
हुए...'' कहते—कहते सुखदेव की मुद्रा बदल गई। वह दांत पीसते हुए गुर्राया, ‘‘बहुत नखरे करती है साली।''
बिना जवाब दिए हिमानी पीछे हट गई। शराब का भभका उसके आस—पास था।
‘‘मेरी जोरू... ये कि मुझसे ही हरजाईपना...किसके साथ सोना चाहती है...बता छिनाल...बोल!'' सुखदेव ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली और उसे अपने से सटाते हुए उसके मुंह पर मुंह धरना चाहा, लेकिन बिजली की—सी फुर्ती से हिमानी ने उसे दूर झटक दिया और लगभग भागती हुई बाथरूम में घुस गई।
जब वह कमरे में वापस लौटी तो वहां खामोशी थी। उसे नहीं मालूम कि इस दौरान रितुपर्णा की नींद टूटी या नहीं। रात के सन्नाटे में वह अपने दिल की धड़कनें बखूबी सुन रही थी। मन ही मन बुदबुदाई, ‘हे ईश्वर! तूने लाज रख ली। बेटी के सामने बेपर्दा होने से बचा लिया...इसको तो कुछ ‘हया—शरम' है नहीं, जानवर कहीं का।''
बहुत दिनों के बाद सुखदेव ने ऐसी हरकत की। वैसे वह हफ्ता—दस दिन में हिमानी के पास आने की कोशिश करता था। इसी से परेशान होकर वह दूसरे कमरे में सोने लगी थी, जहां रितु सोती थी। सुखदेव अक्सर नशे में धुत आता। रात को जब तक उसका नशा थोड़ा फीका पड़ता, तब तक हिमानी दूसरे कमरे में जा चुकी होती थी। कभी बहाने से रसाईघर या बाथरूम में जाकर अंदर से दरवाजा बंद कर लेती तो सुखदेव कुछ देर बड़बड़ाता, दरवाजा पीटता और फिर थक—हार कर सो जाता।
आज भी सुखदेव अपनी चारपाई पर ढेर हो चुका था। रुक—रुक कर उसका जिस्म हिलता तो वह बड़बड़ाता और फिर शांत हो जाता। हिमानी गुस्से में कुछ देर तक उसे घूरती रही, फिर अपने बिस्तर पर आकर लेट गई और आंखें बंद कर लीं, लेकिन भीतर से जागती हुई, ‘कहीं फिर आकर पकड़ लिया तो?' संशय भीतर फैल रहा था, ‘किसी दिन कुछ सुंघा कर चढ़ बैठा तो? महीने भर बाद उसकी देह अंकुरित होने लगी तो? तो वह क्या करेगी? वह तो कसम खा चुकी है कि इस गलीज इंसान के बीज को अपनी कोख की माटी नहीं बख्शेगी।'
शुरू में ऐसा नहीं था। सुखदेव के लिए इतनी नफ़रत हिमानी की सोच में नहीं थी। सुखदेव को उसने अपना सब कुछ सौंपा था, सब दिया थाहर सांस, हर लम्हा। वह जब ब्याह कर इस घर में आई थी, तब रितुपर्णा सात साल की थी और नरेंद्र पांच का। हिमानी ने खुद ही निर्णय कर लिया था कि चार—पांच वर्ष तक अपने बच्चे के बारे में सोचेगी भी नहीं। उसने वैसा किया भी। अपना सुख—दुःख भूलकर रात—दिन बच्चों की देखभाल में जुटी अपने से लगभग दोगुनी उम्र के सुखदेव के साथ सोती रही। हालांकि शुरुआत में सुखदेव के साथ एक बिस्तर पर सोने में उसे घबराहट महसूस होती थी। शाम होते ही सोने वाला कमरा भयावह लगने लगता, जैसे उसकी दीवारें शीशे की हों, जिनसे छनकर आती रोशनी में उसके बदन के कपड़े पारदर्शी हो जाएंगे। तब वह अपने नंगे शरीर को छुपाने की कोशिश में वहां से भाग जाना चाहती थी, पर सुखदेव की बाहें उसे रोक लेतीं। वह जब भी उसकी बाहों में फंसी उस बिस्तर पर होती तो अचानक नीलू दीदी उसके सामने आ खड़ी होती थीं।
‘बड़ी बहन के सामने जीजा के साथ बेपरदा..., नहींं! नहीं!'ं ऐसा सोचते ही हिमानी सुखदेव के गरम आगोश में तुरंत ठंडी पड़ जाती। सुखदेव गुस्से में झिड़ककर उसे पटक देता, ‘तू नाम से ही बर्फ नहीं, काम से भी ठंडी है...चल हट!' और हिमानी डरी हुई, शर्म से सहमी वहीं पड़ी—पड़ी सो जाती।
ऐसा, कुछ महीनों तक रहा। उसे लगता रहा कि वह नीलू दीदी के साथ फरेब कर रही है। कभी—कभी नींद में बड़बड़ाती हुई उठकर बैठ जाती, जैसे दीदी ने कहा हो, ‘तू यहां अपने सुख के लिए नहीं आई मनी! बच्चों के लिए आई है। जा देख, बच्चे ठीक से सोए हैं या नहीं।' वह यंत्रवत उठकर दूसरे कमरे में बच्चाें को देखने चल पड़ती और फिर वहीं सो जाती। सुखदेव अपने बाल नोंचता उसे गालियां देता सो जाता। लगभग साल भर बाद सहज हो पाई थी वह। जिस दिन सुखदेव शराब पीकर घर लौटता, हिमानी उससे झगड़ा करती और उसे धकियाती हुई रसोई में जाकर दरवाजा बंद कर लेती। सुखदेव देर तक दरवाजे पर रिरियाता रहता, न पीने की कसमें खाता, लेकिन हिमानी पर कोई असर नहीं होता था।
ये बातें दस—बारह बरस पहले की हैं। हिमानी की जिंदगी के ये साल रेत की तरह झर गए, खाली बर्तन, जिसमें पानी की एक भी बूंद पड़े तो बजने लगता है।
पांच साल बाद उसने पहला गर्भ धारण किया था। बड़ी उमंग के साथ उसने सुखदेव को बताया था, किंतु सुखदेव ने उसके उछाह पर पानी डालते हुए कहा था, ‘ऐसी क्या जल्दी थी।'
‘नन्नू और रितु तो अब बड़े हो गए हैं।' हिमानी ने कातर भाव से कहा था।
‘सो तो ठीक है मनी! वैसे आजकल दो बच्चे ही बहुत हैं...ये कि इतनी मंहगाई, हजार झंझट...तू समझ रही है न!'
वह कुछ नहीं समझी, बुझ कर रह गई। फिर भी, उसने अपने मन की बात
धीरे से खोल ही दी थी, ‘मैं चाहती थी...मेरा मतलब...मेरा भी एक बच्चा...।' बात बीच में ही छूट गई। सुखदेव तैश में आकर बोला, ‘तो क्या ये बच्चे पराए हैं, दुश्मन हैं तेरे? अरे, तेरी मां—जाई बहन के बच्चे हैं।'
हिमानी के भीतर एक हूक उठी। कैसे बताए सुखदेव को कि वह लाख माने ‘रितु—नन्नू' अपने ही बच्चे हैं, पर वह भी तो एक औरत है, उसकी भी कोख है, वह सूखी क्यों रहे, क्यों सन्नाटा पसरा रहे वहां? उसमें भी कोई वीणा बजे, गुदगुदाहट हो। वह भी हरी हो, उसमें भी कोई कोंपल थरथराए। रुई के फाहे जैसा उसके अंतस को सहलाये। उसकी छातियों को रेशम—सा सिर हुमककर चुकुर—चुकुर खीचें, ताकि उसकी देह की सारी शिराएं झनझना उठें। उसके वक्ष की उष्मा में वह कुनमुनाकर आंखें खोले और कह उठेमां! मां!
रितुपर्णा और नरेंद्र उसे मां नहीं कहते, मौसी कहकर बुलाते हैं। शुरू में हिमानी को भी मां सुनना नहीं भाता था। बच्चों ने भी अब तक उसे मौसी के रूप में ही जाना था। फिर भी हिमानी की जेठानी कमला और सुखदेव बच्चों को सिखाते रहते कि वे उसे मां या ‘नई मां' कहें, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। बच्चे बड़े़े हो रहे थे और वे मां और मौसी के अंतर को समझ रहे थे। उधर समय बीतने के साथ—साथ हिमानी के भीतर मां शब्द सुनने की इच्छा जलकुंभी की तरह फैल रही थी। कोई चारा न था सिवा इसके कि वह जलकुंभी की जड़ों को उखाड़कर फेंक दे, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी।
दो—चार दिन के बाद सुखदेव ने अपनी नाराजगी वापस ले ली थी। बड़े दुलार से उसने कहा था, ‘अच्छा है, तेरा दिल बहल जाएगा। घर में भी रौनक बढ़ेगी। वैसे भी हर बच्चा अपना नसीब साथ लेकर आता है। ये कि उस दिन तो मेरा सिर फिरा हुआ था। ऐसे ही तुझे डांट दिया।' सुखदेव के ऐसे व्यवहार में संदेह की छाया थी। एकाएक ऐसा क्या हो गया कि वह शहद बन गया, किंतु दूसरा महीना पूरा होते—होते गर्भ गिर गया। वह बहुत दुःखी हुई। इसे एक हादसा मानकर सब्र कर लिया, लेकिन दो वर्ष में तीन बार ऐसा हुआ तो उसका हृदय छलनी हो गया। उसे लगा, जिस्म के कई हिस्से हो गए हैं, जो कतरा—कतरा गिर रहे हैं। विधाता को उसने खूब कोसा—धिक्कारा और उसके प्रतीकों के आगे सिर रगड़—रगड़ कर पहरों—पहर रोई भी।
याद करते—करते न जाने कब उसकी आंखें भर आर्इं और वह बिस्तर में मुंह गड़ाए रोती रही। दुःख पिघल रहा था और रात के तीसरे पहर भी वह जाग रही थी।
वैसे तो आधी—आधी रात तक रोज ही जागती रहती है। घर के काम—काज से निबटकर सिलाई के ऑर्डर पूरे करने में अंधेरा होने तक खटती रहती है। खूब थका डालती है अपने को। देह टूटने लगती है, पोर—पोर दुखता है, पर नींद फिर भी नहीं आती। यादों के पखेरू असीम गगन में ऊंची उड़ान भरते रहते हैं। बिना पेड़—पौधों वाली दूर तक सूनी पगडंडी अंधेरे में कौंधती रहती है, जिस पर न कोई आता है, न ही कोई जाता है। हर दिन स्मृतियों की बारात शून्य से निकल कर फिर शून्य में ही कहीं बिला जाती है।
हिमानी ने करवट बदली। गीली आंखों को आंचल के छोर से रगड़कर सोखा। तभी अचानक ख्याल आया, कल कॉलेज की सहेलियों के साथ रितु का पिक्चर और मौज—मस्ती का प्रोग्राम है। उसने सोचा, ‘कितनी जल्दी बड़े हो गए बच्चे! उनकी बढ़ती उम्र के साथ उसके दायित्व भी बढ़ रहे हैंकॉलेज की पढ़ाई, फिर शादी! कैसे करेगी यह सब, अकेले अपने बूते पर...?' नहीं सोच पाई और दिल—दिमाग़ को सहेजती हुई नींद का कोई सिरा ढूंढ़ने लगी...
***