फिर भी शेष
राज कमल
(2)
हमेशा की तरह उस सुबह भी वही दृश्य था। हिमानी घर के चौक में आई तो जेठानी कमला ने उसे खा—जाने वाली नजरों से घूरा। जिस रात भी हिमानी और सुखदेव में उठा—पटक होती, सुबह उठकर उसे जेठानी और सास के तीर—तानें झेलने पड़ते।
‘ईश्वर बचाए इस घर से... हाय, हाय! रोज ड्रामा..., इतने साल हो गए, फिर भी इतने नखरे। आसमान से उतरी है क्या।' कहकर वह गर्व से सीने पर हाथ रख कर कहती, ‘‘अरे, हमें देखो, पच्चीस साल हो गए इस घर में आए...क्या मजाल कि आवाज कभी देहरी से बाहर निकली हो।' कभी कहती, ‘अजी, दस बरस तक गली में मुंह नहीं देखा किसी ने और बाबूजी ने आखिरी दम तक हमारी ऊंची आवाज नहीं सुनी...और एक ये है नवाबजादी...बेहयाई पर उतारू...'
बूढ़ी सास भी उसी तान में अपना सुर मिलाने बैठ जाती, ‘मैने क्या देखा नहीं
...और इसकी बड़ी बहन शिवानी भी आठ बरस तक सलीके से रही। यही कलमुंही सबकी नींद हराम किए रहती है। मेरे सुखदेव की तो जिंदगी ही रुल गई। बीवी का सुख बेचारे के नसीब में ही नहीं है।' कभी—कभी बड़ा भाई हरदयाल भी गुस्से में उबाल खा जाता ‘ओय, और कुछ हया—शर्म करो... घर शरीफों का है...शरीफों की तरह रहो। नहीं तो उठाओ यहां से डेरा। जो लेना है ले लो एक बार, जान तो छूटे रोज—रोज के रंडीपने से। घर में बच्चे हैं, उनका भी लिहाज नहीं करते, साले कंजर...।'' उस दिन भी यही सब हुआ। चुपचाप सुनती रही हिमानी, जैसे हमेशा सुनती रहती है, जब तक कि कहने वाला खुद ही जलभुन कर कबाब न बन जाए, वह ‘चीं' तक नहीं करती। बस, अपने काम में लगी रहती है। यह गुरुमंत्र सिखाया था उसके ससुर महादेव सिंह ने, जिन्हें परिवार के सभी लोग ‘बाबूजी' कहकर बुलाते थे। परिवार में एक वही ऐसे इंसान थे, जिन्हें हिमानी से लगाव और हमदर्दी थी।
हिमानी को बहुत बाद में मालूम हुआ कि वे कतई नहीं चाहते थे कि सुखदेव का दूसरा विवाह हो, लेकिन बड़े बेटे—बहू और पत्नी सुशीला के आगे उनकी एक न चली। ऐसे मौकों पर वह ज्यादातर चुप ही रहते थे। कभी—कभी हिमानी के पक्ष में इतना ही कह देते, ‘अरे, उस गरीब को इतना मत सताओ...क्यों नहीं सोचते कि उसकी भी कोई मजबूरी हो सकती है...अपना सुखदेव कौन—सा दूध का धुला है। निरा बदजात है...किसी चीज की चिंता है उसे? न काम का, न काज का, दारू पी कर रात को आ जाता है जैसे घर नहीं, धर्मशाला है। बच्चों के लिए वही तो रात—दिन खटती है...''
बड़ी बहू कमला और पत्नी सुशीला मिलकर उन्हें घेरे लेती थीं, ‘‘आप चुप रहो जी! औरत की चाल एक औरत ही समझ सकती है।'' मुहं पर पल्लू डालकर बड़ी बहू कहती, ‘‘काम के बहाने सैर—सपाटे का शौक भी तो पूरा होता है बाबूजी! आप तो कहीं आते—जाते नहीं, बट्टा तो हमारी इज्जत पर लगता है।''
मन मसोसकर रह जाते वे, ‘इन जाहिलों को कौन समझाए...।'
महादेव सिंह यदि किसी को समझा पाये, तो बस वह थी हिमानी। हमेशा उससे कहते, ‘तू इनकी बातों का जवाब कभी मत देना बेटी। जवाब देकर आदमी हल्का हो जाता है, उसकी आत्मिक शक्ति घटती जाती है। सबकी सुनो, चुपचाप! ...देखना, अंदर ही अंदर बल मिलेगा। तुमसे आंख मिलाते हुए लोग भय खाएंगे, जो तुम कहना चाहते हो, उसे समय आने पर करके दिखा दो। मेरी यह बात गांठ बांध ले बहू। मैं जानता हूं कि तेरा पति भी तेरे साथ नहीं है। तुझे दूर तक लड़ाई लड़नी है।' कभी—कभी स्नेह—वश उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दुलार से कहते थे, ‘तू तो कामधेनु है। ये मूरख तुझे जबरन यहां ले आए हैं। खूंटे से बांध दिया है, पर तू अपने पंख फड़फड़ाते रहना, उन्हें अशक्त मत होने देना। उड़ने की ताकत बनाए रखना। एक दिन अपने किए की सजा सुखदेव जरूर भुगतेगा।
दो वर्ष हो गए, महादेव सिंह अब नहीं रहे। इस भंवर में जो एक तिनका था, वह भी छूट गया, किंतु उनका दिया मंत्र आज भी उसके पास है, शायद उसी के सहारे वैतरणी पार लगे। आज भी वह चुप थी। सुखदेव भी, रात वाला सुखदेव नहीं था। जैसे रात को कुछ हुआ ही न हो, लेकिन हुआ तो था। सुखदेव की बायीं आंख के ऊपर नीला निशान की तरह मौजूद था। हाथापाई में गिरकर किसी चीज़ से टकराया होगा। ‘शायद तब, जब उसे धकिया कर वह भागी थी, गिर पड़ा होगा।' सोचकर हिमानी की रुखाई कुछ बूंद पिघल गई, किंतु व्यवहार में तरलता नहीं ला सकी।
सुखदेव चाय पीते हुए उसे ही देख रहा था। हिमानी उसकी अनदेखी करते हुए रसोईघर में घुस गई। वह खाली कप रखने के बहाने रसोईघर में आ गया। कुछ पल यों ही खड़ा रहा, फिर बड़े रेशमी अंदाज़ में कहने लगा, ‘‘फिजूल ही सबकी बातें सुनती है। ये कि कितने प्यार से रात को बुुलाता हूं, पर तू तो मरखनी गाय—सी बिदकती है। ये कि हाथ ही नहीं रखने देती।'' कहते—कहते उसने अपना हाथ हिमानी के कंधे पर रख दिया। थोड़ा साहस बटोर कर आगे कहा, ‘‘अरे! तू नहीं समझती मनी, मैं इसी गम में पी लेता हूं। तू पास आए तो क्यों पिऊंगा भला। यही मेरा दुःख है, कोई नहीं समझता।''
बुत बनी हिमानी सुन रही थी, लेकिन मन शंकित था, कहीं रितु न आ जाए।
सुखदेव कह रहा था, ‘‘ये कि तेरी बहन भी रही इतने बरस इस घर में, मेरे ही साथ, बिल्कुल देवी की तरह, लेकिन...।'' फिर स्वयं को ही कोसता हुआ बोला,
‘‘पता नहीं क्यों मति मारी गई थी मेरी, जो तुझे ब्याह लाया...''
‘‘मेरा ही नसीब खोटा था।'' वह बुदबुदाई।
‘‘नसीब तो बहुत अच्छा है। इतना बड़ा भरा—पूरा घर मिला। ये कि बहन के ही सही, बच्चे भी हैं। अब तेरी अपनी कोख में ठहरता ही नहीं तो...'' वाक्य पूरा नहीं किया सुखदेव ने। हिमानी का चेहरा तमतमा गया। मन किया कि फट पड़े और कहे, ‘मेरी कोख हरी है...मैं बांझ नहीं हूं...हिम्मत है तो अपनी डॉक्टरी कर वाले, तू ही निर्लज्ज है, वहशी।' लेकिन बोली नहीं हिमानी। बस, गुस्से में घूर कर सुखदेव को देखा। वह चुपचाप बाहर निकल गया।
उसके जाने के बाद फिर अपने में खो गई हिमानी। अक्सर वह अपने भीतर के शहर में पहुंच जाती है, जो बहुत छोटा है। भीड़ नहीं है, गलियां—सड़कें सूनीं, सब ओर एकांत—सन्नाटा, जिसमें बुत बने खड़े अमलतास। पहले यहां भी कुछ परछाइयां थीं, मां का आसुंओं से गीला चेहरा, कातर निगाहें। पिताजी की गणित के समीकरण हल करती मुद्रा। आंगन में गुलमोहर के पेड़ के नीचे भाइयों के चेहरे। छत पर काजल की बेबाक हंसी। नदी का पुल, मंदिर वाला किनारा और अमलतास के नीचे खड़ी परछार्इं, पर धीरे—धीरे सब धुंधलाता गया। नदी की सभ्यता इतिहास का विषय बन गई। अब इस शहर में वह अकेली दूर—दूर तक चली जाती है। कभी किसी टीले को कुरेदती है तो कुछ अस्थियां, टूटे शीशे और चूड़ियों के टुकड़े मिलते हैं। वह घबराकर पीछे भागती है। भागते—भागते इस महानगर में आ पहुंचती है और यहां फिर वही जीने—मरने का द्वन्द्व। रात वाली घटना से उसके दिमाग में फिर बवंडर—सा उठा। सोचने लगी, ‘क्यों न छोड़ जाए यह सब...यह नरक का भोगना? अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं, मेरी जरूरत भी क्या है? नन्नू तो दादी, ताऊ और ताई का लाड़ला है, उसकी क्या फिकर, लेकिन रितु! रितु का क्या होगा उसके पीछे? बस, उसी का मुंह देखकर तो टिकी हुई है यहां, वरना कहीं न कहीं चली जाती, ‘‘लेकिन कहां?'' इस कहां का उत्तर नहीं दे पाती हिमानी।
रितु ने उसी क्षण रसोईघर में कदम रखा तो एकदम चिल्ला उठी, ‘‘मौसी, रोटी जल गई।'' फुलका तवे पर था। हिमानी अपने भीतर अतीत और वर्तमान के बीच विभाजक रेखा—सी पड़ी थी, दोनों ही हिस्सों से पूरक होती हुई, न कल उसका था, न आज!
‘‘अफ्फो! न जाने कहां खोई रहती हो तुम भी, क्या हो जाता है तुम्हें?''
‘‘हूं...क्या?'' हड़बड़ाकर हिमानी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कब आई तू?''
‘‘कुछ नहीं! बस, रोटी जल गई...''
हिमानी बुदबुदाई, ‘‘हां, राख का ढेर बचा है, न धुआं, न चिंगारी'' अचकचाकर रितु ने हैरत से घूरा उसे, फिर प्यार भरे लहजे में बोली, ‘‘ये लक्षण अच्छे नहीं हैं मौसी। पता है, डॉक्टर कहते हैं कि यह पागल होने की पहली निशानी है।''
‘‘अच्छा है न, समय के पार निकल जाता है जीव इसी जीवन में...भूत, भविष्य और वर्तमान, कोई काल उसे प्रभावित नहीं कर पाता। वह कालमुक्त हो जाता है।''
हिमानी की इस टिप्पणी पर रितु मुस्कराई, ‘‘वाह! तुम तो एकदम फिलॉस्फर की तरह सोचती हो मौसी! वाह! मजा आ गया। फिर थोड़ा रुक कर बोली, ‘‘मगर हमारे अंग्रेजी के सर कहते हैं ‘टीनएज' में ऐसा होता है। ये प्यार के ‘सिम्टम्स' हैं। जब हम अपने से बाहर के जीवन को प्यार करने लगते हैं, बोलते कम, महसूस ज्यादा करते हैं। अपने चारों ओर सब सुन्दर लगता है, जैसे हम बदल गए हैं। अंदर—बाहर एक महक हमें पागल बनाने के लिए आतुर रहती है, हम प्यार की ओर बढ़ रहे होते हैं...''
‘‘बस—बस, जाने क्या—क्या बके जा रही है,'' हिमानी ने उसे स्नेह से झिड़का और अपने भीतर बोली, ‘‘प्यार और पागलपन, एक ही स्थिति के दो नाम हैं।''
रितु तैयार होकर आई थी। झटपट नाश्ता किया और चलते—चलते नजरें झुकाए, गर्दन खुजाते हुए बोली, ‘‘मौसी कुछ पैसे...?'' हिमानी भीतर—ही—भीतर हंसी, ‘अच्छा तो सारा प्रेमालाप इस क्लाइमेक्स के लिए था।' लेकिन पचास का नोट देखकर एकाएक रितु का स्वर बदल गया, ‘‘इससे क्या होगा...सहेलियां तो... तुम बहुुत कंजूस हो मौसी।''
हिमानी का दिल धक् से रह गया। सोचा, क्या कहती है यह लड़की... कंजूसी और हिमानी? वह अपने आपको दे बैठी है। क्या बचाया है उसने अपने लिए? जीवन का हर पल, हर सांस, रक्त की बूंद—बूंद लिख चुकी है नन्नू और रितु के नाम...
‘‘उफ्फ! तुम फिर खो गर्इं! ठीक है, लो, मैं जाती ही नहीं...तब तो खुश होंगे
सब...'' पैर पटकती रितु जाने को हुई तो हिमानी अपनी काया में लौटी। रितु को रोक कर बोली, ‘‘ऐसा नहीं करते रितु! तू तो जानती ही है घर के हालात...तेरे पापा कुछ करते नहीं। जो हाथ लगता है, उसे भी शराब और लाटरी में बराबर कर देते हैं। तेरा भाई नन्नू भी आवारागर्दी करता फिरता है, न काम, न पढ़ाई ... भाईजी की फैक्टरी में भी कभी जाता है, कभी नहीं। अब मैं घर कैसे चलाती हूं, मैं ही जानती हूं।'' रितु फर्श देखती चुप खड़ी रही। हिमानी ने आगे कहा, ‘‘अपनी दादी से मांग ले कुछ पैसे, जा! नन्नू को तो बड़ा सिर चढ़ाए रहती हैं, तू भी तो उनकी पोती है।''
‘‘मैं तो लड़की हूं न,'' रितु का स्वर गीला हो आया, ‘‘वो कहती हैं अपने लंदन वाले मामा को लिख दे कि पापा को कोई काम शुरू करवा दें और नन्नू के लिए वहीं किसी नौकरी का इंतजाम कर दें।''
‘‘तो तू क्यों परशान होती है, मैं लिख दूंगी भैया को। तू अब जा, सहेलियां इंतजार कर रही होंगी। जा, मन खराब मत कर...''
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