फिर भी शेष
राज कमल
(4)
‘जवान होती परी जैसी लड़की के लिए यहां कुछ नहीं हो पाएगा ...कौन करेगा, शराबी निकम्मा बाप... आवारा भाई... कंजूस दादी! जेठ—जिठानी तो पहले ही सारी जायदाद अकेले हड़पने के लिए प्रपंच रचते रहते हैं। चाहते हैं कि ‘नशा—पानी' के चक्कर में नन्नू और सुखदेव दोनों ही मर—खप जाएं। तभी तो मेरी कोख भी...।'' सोचते हुए हिमानी का चेहरा तमतमा गया। मार्च बीत रहा था। दिन काफी खुल गये थे। पंछियों ने ठिठुरन में जकड़े डैने फैला दिए थे। वे ऊंची परवाज ले रहे थे। बाग—बगीचों में फूलों की फसल तैयार थी। मौसम में नए जीवन की खुशगवारी थी।
‘यह अहसास भी सबके लिए एक जैसे कहां होते हैं? मन के ताप और नमी का बड़ा योग होता है। मनःस्थिति जैसी हो, मौसम वैसा ही हो जाता है। तभी तो इस फसले—बहार में भी हिमानी के लिए कोई फूल नहीं है।' उसे तो लगता है, ‘फसल कट चुकी है, वह कटे खेतों के बीच अकेली बैठी सिला बीन रही है, पर सिला मिल नहीं रहा। फसल काल के क्रूर हाथों ऐसी कटी है कि एक बाली तक शेष नहीं...एक फूल तक नहीं गिरा मिट्टी में। फिर भी, उसे तो सिला ही ढूंढ़ना ही है सारी उम्र।'
चलते—चलते मशीन में धागा उलझ गया। गुच्छा—सा बन गया। वह सिरा ढूंढ़ती है, धागा सुलझाती है। मशीन फिर चलने लगती है।
घर के काम से फारिग होकर हिमानी सिलाई में जुटी है। छुट्टी का दिन था। इसलिए स्कूल नहीं जाना था। एक कतरन से दूसरी, दूसरी से तीसरी कतरनें जुड़ती चली जा रही हैं। एक सुन्दर—सा गाउन बन गया है। हिमानी सोचती है, ‘जिन्दगी में जो उलझता है, टूटता है, वह क्यों नहीं सुलझ पाता, क्यों नहीं जुड़ पाता, उसी क्रम और लय में। जैसे लय का शब्द—शब्द अलग होना, फिर शब्द—शब्द जुड़कर लय हो जाना। क्यों नहीं बन पाता एक सलोना सपना, छोटे—छोटे पलों का, कतरन—सा जुड़कर।'
उसने भी सिला था तब एक सपना। नदी के किनारे पुल के ऊपर, बहते हुए पानी के साथ। रितु जितनी ही उम्र थी उसकी भी। आज सुबह जब रितु को देखा तो बस देखती ही रह गई। कद छोड़कर शेष बिल्कुल शिवानी दीदी पर गई है रितु। धीरे—धीरे, अतीत की गर्द में धुंधलाए तमाम सपने उसकी आंखों में उतरने लगे...
शिवानी दीदी की शादी हुई थी, तब हिमानी स्कूल में थी। शिवानी जैसे—तैसे बी.ए. कर चुकी थी। बहनों के बीच दो भाई थे। रघुनाथ प्रसाद ने अपनी औकात से बढ़कर रिश्ता ढूंढ़ा था। महानगर में दोमंजिली कोठी, अपनी फैक्टरी, दुकानों के किराए की आमदनी अलग, ‘शिवानी बिटिया राज करेगी।' सभी यह सोचकर खुश थे कि शादी दिल्ली में एक खाते—पीते परिवार में हो रही है, पर हिमानी को यह सब उतना अच्छा नहीं लग रहा था। बी.ए. पास लड़की के साथ दसवीं फेल लड़का! नहीं, दसवीं फेल लड़के के साथ बी.ए. पास लड़की। वाह! वह तिलमिलाकर रह गई। मां से कहा तो वह बोली, ‘चुप रह...तू छोटी है।' तब उसने शिवानी से ठिठोली की, ‘वाह! दीदी, तुम तो ससुराल में हेडमास्टरनी बनकर रहोगी...सब पर रोब दिखाओगी। जीजाजी को तुम्हीं थोड़ा पढ़ा देना। अगर न पढ़ें तो कान पकड़कर ‘उठक—बैठक'...।' सुनकर सब लोग खूब हंसे थे।
घर में पहली शादी थी। बावज़ूद मनमुटाव के सभी नाते—रिश्तेदार शामिल हुए थे। दान—दहेज के मामले में अपनी चादर से ज्यादा पैर फैलाए गए। सभी नेग—रस्में पूरी की गयीं। महानगर से छोटे शहर में बारात आना शान की बात थी। बारातियों की ज्यादतियों को नजरअंदाज करते हुए उनका खूब स्वागत—सत्कार किया गया।
‘मम्मी—पापा वैसा ही कर रहे थे जैसा उनसे करवाया जा रहा था। लड़के वालों के माथे पर शिकन न आने पाए, इस बात का बेहद ख्याल रखा था उन्होंने, पर उसे लड़के वालों का तभी अंदाजा लग गया था कि वे कितने पानी में हैं, जब फेरों के समय उसने सहेलियों के साथ जीजाजी के जूते छुपा दिए थे। लाख सिर पटकने पर भी जूते नहीं मिले। वह बहुत खुश थी गर्व भरी मुस्कान लिये, सहेलियों समेत इधर—उधर फुदकती घूम रही थी। उसे यकीन था कि अब जीजाजी और उनके दोस्त जूतों के लिए उसके सामने गिड़गिड़ाएंगे, उसे मनाएंगे और वह अपने नेग की राशि बराबर बढ़ाती चली जाएगी दो सौ एक... तीन सौ इक्यावन...पांच सौ एक...
परन्तु तब जो हुआ, वह अकल्पनीय था। उसका विजयी भाव तुरंत अपमान में तिरोहित हो गया। जीजाजी के दोस्तों ने फौरन नए जूतों का इंतजाम कर लिया। ईश्वर जाने, सब कैसे हुआ। क्या वे एक और जोड़ा साथ में लाये थे? पता नहीं, वह समझ नहीं पायी थी। जीजाजी ने बड़ी अकड़ में मात्र इक्यावन रुपये उसकी ओर बढ़ाए थे और कहा था, ‘‘रख लो, हम दे रहे अपनी खुशी से...'' इसके साथ ही उनके एक दोस्त ने इतना और जोड़ा था, ‘यह मत भूलो कि हम दिल्ली वाले हैं। हमने बाजी हारना नहीं सीखा।' किशोरी हिमानी अपने मान—मर्दन से तिलमिला गयी और उसकी अवश आंखें भर आई थीं। मम्मी ने तब लाड़ से झिड़का था, ‘‘बहुत जिद्दी है...चल ले ल,े बदशगुनी मत कर... यह तो नेग है...सवा रुपया हो या सवा सौ।'' उसने सोचा था, ‘जीजाजी कम से कम उसके साथ तो कंजूसी नहीं करेंगे। एक ही तो साली है, और फिर उसकी भी कौन—सी दो—चार बहनें हैं कि अब नहीं तो फिर ले लेगी'। वह आंखें पोंछती छत के एकांत में खो गई थी। जब सारी सहेलियां भी उसके पीछे—पीछे छूमंतर हो गयीं तो अंततः नेग के पैसे उसकी मां ने सहेज लिये थे।
‘विदाई का समय था। रंग—बिरंगे फूलों से सजी टैक्सी खड़ी थी। शिवानी दीदी बारी—बारी सबसे गले लग कर जोर—जोर से हिचकियां ले रही थीं, तब जीजाजी ने फुसफुसाकर कहा था, ‘‘हम तुम्हारे इकलौते जीजा हैं...ये कि हमसे इतनी बेरुखी अच्छी नहीं साली जी।''
‘‘बस—बस, बनाइए मत। आपको क्या परवाह है हमारी हिमानी की... हमने तो सुना था कि बड़े दिल वाले होते हैं दिल्ली वाले...'' जवाब काजल ने दिया था। हिमानी का मन तो तभी से उखड़ा ही हुआ था। वह खामोश खड़ी रही थी।
‘‘क्यों नहीं, हम तो अपना आधा दिल यहीं छोडे़ जा रहे हैं...ये कि इनकी दीदी तो अब आधे से ही गुजारा करेगी...'' उनके यार दोस्त ‘हो!हो!' करके हंसे थे। कमान काजल के हाथ में ही थी। उसने तपाक से तीर छोड़ा, ‘‘चांदी का एक छल्ला तो दे नहीं सके, चले हैं दिल बाटने, वाह जी वाह।'' दूसरी सहेली ने उसमें जोड़ा, ‘‘हुजूर, उसे संभालकर रखिए...यहां किसी के पांव के नीचे न आ जाए।'' इस बार सभी लड़कियों ने कहकहा लगाया।
जीजाजी फिर हिमानी की ओर झुके और कहा, ‘‘अजी छल्ले की क्या औकात
कि...अभी अंगूठी पहना दें। बोलो, चलोगी हमारे साथ?'' सुनकर लजा गई थी हिमानी।
वह लाज और पुलक वाली बात, कौन जानता था, बाद में वज्र—सी पड़ेगी। कहां सोचा था हिमानी या किसी और ने? कहां जानी थी विधि—नियंता के मन की बात, जो विधान रच कर मुस्करा रहा था कि ए लड़की, तू जिससे एक छल्ला मांगती थी, वही एक दिन इसी द्वार पर फिर आएगा, वह अंगूठी लाएगा, बिछुए और चूड़ियां लाएगा और लाएगा तेरी मांग का सिंदूर... तब तू चुपचाप सिर नवाये उसके पीछे—पीछे चली जाएगी, अपने सपनों को तार—तार करके। शहादत की ओढ़नी ओढ़कर; कर्त्तव्य और दायित्व के अहसास के नशे में मातृत्व का बोझ ढोने।
सिलाई का धागा टूटा और सोच का तार भी। ऊपर से सास के जोर—जोर से बोलने की आवाज आ रही थी। न जाने किस बात पर उखड़ी हुई है। ससुर जीवित थे, तब तक थोड़ा सधी रहती थी। अब तो...किसी भी बात पर आंय—बांय बकने लगती है और हर बात—विषय में हिमानी को जरूर घसीट लेती है और कोस—कोस कर जी हल्का करती है। कहती है, ‘इस कलमुंही ने घर बरबाद कर दिया...मेरे बेटे की जिन्दगी रुल गई, बच्चे रुल गए। यह घुन्नी न जाने किस यार के सिखाने में आकर दीदा तरेरती है।' कभी कहती है, ‘छोटी को अपनी अकल और जोबन का बड़ा घमंड है, पर करमजली नहीं जानती कि जब मरद को ही खुश नहीं कर सकी तो सब व्यर्थ है, मिट्टी का ढेर।'
हिमानी ने झटपट काम समेट दिया। खबर ही ऐसी थी। अभी—अभी पड़ोसी रामानुज सिंह का लड़का दिवाकर उसे बता गया कि नन्नू ने टैक्सी स्टैंड पर एक ड्राइवर से मारपीट की थी, इसलिए थाने में बंद है। वह तय नहीं कर पा रही थी कि पहले क्या करे? सुखदेव को ढूंढ़ने जाए या फिर स्वयं थानेदार के सामने जाकर हाथ जोड़े? पर उसे थाने की कल्पना से ही पसीने छूट गए, मगर वही बात, ‘मरता क्या न करता। यह लड़का जो न करवाए, वही कम है। हर समय जान सांसत में डाले रखता है। न जाने किस जनम की दुश्मनी है...'
‘‘सब दुश्मन हैं उसके, आराम से बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे, क्या परवाह है। मर— खप जाए तो इन्हें बड़ी तसल्ली होगी...अरे, अपने जने होते तो दुःख होता...'' सास बड़बड़बाती हुई सीढ़ियों से नीचे जा रही थी, कुछ पल के लिए उसके दरवाजे पर रुक स्वर ऊंचा किया, फिर बड़बड़ाती हुई उतर गई, ‘‘अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा,
जाती हूं, देखूं, किस हाल में है?''
यही कुबोल, हिमानी के दर्द में इजाफा कर देते हैं।
जानती है हिमानी, कोई कहीं नहीं जाएगा। नीचे जाकर पड़ोस की हमउम्र औरतों में दुःखड़ा रोएगी, उसे कोसेगी। बस, बातों का ही लाड़ है। यही करती आयी है और आगे भी करेगी। वही है कामधेनु! दूसरों की इच्छापूर्ति को ही समर्पित है उसका जीवन। उसने सोचा, आखिर कब तक... मरुस्थल में लगातार दौड़ते रहने का क्या औचित्य? अब जबकि फल के आधार पर कर्म की प्राथमिकताएं तय होने लगी हैं। तब उसे भी तो तय करना चाहिए कि क्या करे और क्या नहीं या फिर निष्काम होकर अपने आपको नियति के हवाले कर दे, अन्यथा ‘न माया—न राम' का दंश उसे चैन नहीं लेने देगा।
‘माया मिली न राम', यही दुःख है हिमानी का। शिवानी दीदी के बच्चे पल गये, किंतु ‘मनी मौसी' से उन्हें सदैव शिकायत ही रही। परिवार के अन्य लोगों ने भी उसे एक
धाय से ज्यादा कुछ नहीं समझा। एक ऐसी बच्चे पालने वाली ‘धाय', जिसके साथ
साधिकार सोया भी जा सके।
उसने कितना तो चाहा कि नरेंद्र और रितुपर्णा खूब पढ़—लिख जाएं तो उसे जीवन से पछतावा न रहे। तभी तो सुबह से शाम तक खटती रही। आंखें बुझ गर्इं सुई में धागा पिरोते—पिरोते। इसलिए कि घर में रहेगी तो बच्चों को समय पर खाना—पीना और दुलार दे सकेगी। छोटी—मोटी नौकरी तो कर ही सकती थी। वैसे भी घर से निकल बाहर लोगों के बीच रहना इतना आसान नहीं है, इसका अनुभव भी उसे हो चुका है। बच्चों की खातिर वह अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर चली आई थी। सोचते हुए रुकती है हिमानी— बच्चों की खतिर या अपनी खातिर ले आया था सुखदेव। एम.ए. का अंतिम वर्ष ही तो शेष रहा था। कहां पूरा हो पाया यहां आकर।
रितु तो जैसे—तैसे पढ़ती रही, पर नन्नू तो मिडिल से आगे बढ़ा ही नहीं, बाप से भी पीछे रह गया। आगे जाता भी कैसे? कितनी बार स्कूल से नाम कटा। हमेशा हेडमास्टर की मिन्नतें कर उसे स्कूल में बनाए रखा, लेकिन नन्नू ने अपना रवैया नहीं बदला तो नहीं बदला। कभी पत्ते खेलते पकड़ा जाता, कभी किताबें बेचकर फिल्म देखते हुए। स्कूल से अक्सर गायब रहता। सारा—दिन अजमल खां रोड बाजार में घूम—फिर कर शाम को बस्ता लिये घर आ जाता।
एक दिन गुस्से में उसने नन्नू को थप्पड़ मार दिया तो सबको लगा, उसके हाथों खून हो गया। रोते—रोते नन्नू दादा—दादी के पास जाकर जोर—जोर से चिल्लाया था, ‘मेरी मां नहीं है न, इसीलिए मारती है मुझे...पापा से कहूंगा, इसे घर से निकाल दें...न जाने कहां से आ गई मौसी—फौसी...' कितना मुंहजोर था नरेंद्र।
उसने डांटकर इतना ही तो पूछा था कि ‘स्कूल क्यों नहीं गया और फीस के पैसों से फिल्म क्यों देखी।' सुनकर कुछ देर उसे घूरता रहा गुस्से में मुंह फुलाए, फिर तमतमा कर बोला था, ‘नही जाऊंगा...नहीं जाऊंगा...क्या कर लेगी तू?'
‘‘मैं तेरी हड्डी—पसली एक कर दूंगी...।''
‘‘तेरे बाप का राज है क्या...तू जा यहां से। यह मेरे पापा का घर है।'' इतना सुनते ही गुस्से में पागल—सी हो गयी थी हिमानी। नहीं रोक पायी अपना हाथ और नन्नू के गाल पर कस कर तमाचा जड़ दिया। उसने पीटने के लिए जब छड़ी उठाई तो वह दौड़ गया दादा—दादी के पास।
‘‘देख रहे हो जी अपनी लाड़ली बहू के हौसले, घर में और भी लोग हैं बच्चों को समझाने—बुझाने के लिए, पर इसके हाथों में बड़ी आग लगी है...करमजली ने मुंह लाल कर दिया मेरे बेटा का।'' सास गोद में लेकर नन्नूू का गाल सहलाते हुए चिल्लाई थी। ससुर महादेव सिंह चुपचाप पत्रिका के पन्ने पलटते रहे थे। सुखदेव के भाई ने मां की ‘हां' में ‘हां' मिलाई और जेठानी ने धीरे से विष बुझा बोल मारा था, ‘‘अपने जने होते तो पीर होती।'' सुखदेव भी दांत पीसकर गुर्राया था, ‘‘मेरे बेटे को अब कभी हाथ लगाया तो, समझ ले...ये कि चोटी पकड़ के चूल्हे में दे दूंगा।''
बहुत रोयी थी हिमानी तब। सारी रात सुबकती रही थी। किसी ने उसके कंधे पर हाथ नहीं रखा। किसी ने नहीं कहा कि तुझे हक है बच्चों को डांटने—डपटने का...भला तू बुरा थोड़े ही सोचेगी इनके लिए...। ससुर ने दूसरे दिन इतना ही कहा था, ‘‘मैं तो कहता हूं, कोई फायदा नहीं है मारपीट का भी, अगर सुधरना होता तो सुखदेव न सुधर गया होता! बहुत मार खाई है छुटपन में, पर रहा वैसे का वैसा ही।''
हिमानी का दर्द किसी ने नहीं समझा। दस साल के बच्चे ने सबके सामने उसे अपमानित किया। वह अकेली पड़ गई, जैसे इस परिवार का हिस्सा ही न हो। रह—रह कर उसे एक सवाल मथता रहा, ‘क्या मिला उसे अपनी जिंदगी तबाह करके?'
उस दिन के बाद से हिमानी ने नन्नू को कभी कुछ नहीं कहा। उसे उसकी मर्जी पर छोड़ दिया। वह स्कूल जाए या न जाए, स्याह करे या सफेद, वह चुप ही रही। तभी से उसका स्कूल छूटा। इधर—उधर आवारागर्दी करता रहा। कभी बाजार में खड़े—खड़े छोटी—मोटी चीजें बेचना जैसे जूड़े के पिन, क्लिप, बिंदी, रूमाल वगैरह, कभी बड़ी—बड़ी दुकानों के लिए एजेंट का काम करना, जिनके शोरूम गलियों में हैं, ग्राहकों को आकर्षित करके वहां तक भेजना। आजकल टैक्सी स्टैंड पर रहता है। गाड़ियों की धुलाई—पुंछाई करने से कुछ पैसे मिल जाते थे। कुछ ड्राइवर और वहां का ठेकेदार सुखदेव के पुराने दोस्त हैं। उन्होंने उसे गाड़ी चलाना सिखा दिया है। पहले चोरी—छिपे गाड़ी चलाई। अठारह का होते ही टैक्सी ड्राइवर बन गया। इसके साथ नशे की लत उसे भी लग गई। सिर्फ शराब ही नहीं, नये—नये किस्म के नशे स्मैक...हैरोइन।
‘इस छोटी—सी उम्र में कैसा बीहड़ जीवन बना लिया है नन्नू ने...' सोचती है हिमानी, ‘ऊपर बैठी दीदी भी यही मानती होंगी कि मनी उसके बच्चों की सही देखभाल नहीं कर सकी। सगी बहन होकर भी उन्हें अपना नहीं समझा। भला नन्नू ऐसा कैसे बन जाता, रितु इतनी उखड़ी—उखड़ी क्यों रहती? बच्चों के पापा को भी मन से कभी नहीं चाह सकी। बस, मशीन बनी समय के साथ निर्वाह करती रही। तो क्या जीवन का अमूल्य काल होम कर देने पर भी दीदी उलाहना देगी, इस खण्डहर में वह क्या स्वेच्छा से चली आयी थी?'
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