फिर भी शेष
राज कमल
(6)
इस वर्ष रितु दो विषयों में ही उत्तीर्ण हो सकी, दो शेष रह गए, जिन्हें अब अंतिम वर्ष के साथ ही पास करना होगा, लेकिन उसे इसकी कतई चिंता नहीं थी। वह नाराज इसलिए थी कि हिमानी ने पढा़ई के प्रति लापरवाही पर उसे खूब लताड़ा था। उसके घूमने—फिरने, पिकनिक—पिक्चर, उसके साज—श्रृंगार और उसकी फैशन—परस्ती की आलोचना करते हुए कहा कि ‘वह लाड़—प्यार का गलत इस्तेमाल कर रही है...जवान तो सभी होते हैं, पर मकसद भूलने से थोड़े ही चलता है...अभी अपने को पढ़ने—लिखने तक सीमित रखो, इस उम्र का यही लक्ष्य है। बाद में जो बेहतर लगे, सो करना।' बहुत क्षुब्ध होकर बोली थी हिमानी, ‘तुम्हारे लिए तो यह और भी जरूरी है। अपने परिवार और उसके सीमित साधनों का तो ध्यान रखो। ऐसा ही रहा तो मैं कब तक करूंगी?'
अपने पक्ष में रितुपर्णा के पास ढेरों तर्क थे कि ‘पढ़ने—लिखने के लिए अलग
कमरा नहीं है। किताबें हैं, पर हेल्पबुक सहेलियों से मांगनी पड़ती है। घर में हमेशा आर्थिक संकट की चर्चा, आपसी कलह... ऐसे में पढ़ाई का ‘एटमासफ़ियर' ही नहीं बनता... कोई पढ़े क्या खाक? कोई कैसे अव्वल दर्जा पाएगा। हम छोटे नहीं हैं, अपने कैरियर की चिंता है हमें। अपना टाइम तो निकल गया और हमारे साथ हजार बन्दिशें : यह करो, यह मत करो। ऐसे चलो, ऐसे मत चलो। यह मत पहनो... माईफुट!'
लेकिन बात तब और ज्यादा बिगड़ गई, जब रितु ने कह दिया, ‘मौसी, तुम छोटे—शहर से आई हो, वैसी ही मानसिकता रखती हो। यह महानगर है, मैं यहां पैदा हुई हूं। यहां का ‘लाइफ—स्टाइल' अलग है। ‘कॉलेज—लाइफ' भी तुम्हारे रुड़की जैसा नहीं है
...इसलिए फॉर गॉड सेक मेरी ड्रेसिज को लेकर इतनी हाय—तौबा करने की जरूरत नहीं है। पढ़ रही हूं तो अपने लिए, नहीं पढूंगी तो अपने लिए...'
पड़ोस से टेप—संगीत गूंज रहा था ‘इट्स माई लाइफ...' हिमानी को लगा, जैसे रितु उसे मुंह चिढ़ा रही है, ‘मैं चाहे यह करूं...मैं चाहे वो करूं...मेरी मरजी...।' रितु पैर पटकती हुई कॉलेज चली गई। गुस्से में पैसे भी नहीं मांगे...कालेज में किसी मेले की बात कर रही थी। हिमानी भीतर से तार—तार हो गई। सच है, छोटे शहर की वह महानगर का कॉलेज कल्चर क्या जाने। मेले, फैशन और हड़ताल वगैरह का मतलब क्या समझे।' वह मां—बाप की चौथी और सबसे छोटी संतान थी। बड़ी बहन के होते हुए और उसकी शादी के बाद भी बाबूजी के साधनों की नदी बेटों की ओर ही बहती रही थी। हां, वे यह जरूर चाहते रहे कि मितव्ययता से ही सही, उनकी लड़कियां ग्रेजुएट अवश्य हो जाएं... एक भाई इंजीनियरिंग करके बेरोज़गार बैठा था, दूसरा एम.कॉम. कर रहा था। हिमानी ने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो कहा गया, ‘आगे की पढ़ाई अपने घर जाकर कर लेना... जितना पढ़ गई, बहुत है।' लेकिन हिमानी की जिद और पढ़ाई में रुचि के आगे उन्हें झुकना पड़ा था।
‘नसीब में तो कुछ और ही बदा था। एम.ए. का अंतिम वर्ष था। उसके बाद सब गड़बड़ा गया। अनायास ऐसी राह पर आ खड़ी हुई, जहां दूर—दूर तक अपना कुछ नहीं था। अपना था, पर सब त्याग दिया। सैलानी सपनों के पर काट दिए, वे बंदी हो गए, अंतस की कैद पा गए।
शिवानी की शादी के आठ वर्ष बाद ही वह हादसा हुआ था। वह कालेज से लौटी थी। घर में कोहराम मचा था। पड़ोसी और परिजनों से घिरी मम्मी जोर—जोर से रो रही थीं। उस पल पत्थर—सी जड़ रह गई हिमानी, जब उसे मालूम हुआ कि शिवानी दीदी का ‘ब्रेन हेमरेज' से इंतकाल हो गया। तार से समाचार आया था।
लगभग एक महीने बाद घर में कुछ सहजता आ सकी थी। मां—पिताजी इस दौरान दिल्ली गए और लौटने पर शिवानी के दोनों बच्चों को साथ ले आए थे। सात और पांच वर्ष के रितु और नन्नू नहीं जानते थे कि उनके जीवन में जो खालीपन पैदा हुआ है, उसे कोई नहीं भर पाएगा, न नाना—नानी का लाड़, न मौसी की पुचकार। उनके मासूम चेहरों को देख कर हिमानी की आंखें भर आती थीं। वह भरसक उन्हेंं खुश रखने का प्रयास करती। रात को अपने साथ सुलाती, उनकी छोटी—छोटी चीजों का ध्यान रखती। उसकी मां को यह सब देखकर बहुत सुख मिलता। नन्नू जब पूछता कि मौसी, मम्मी कहां गई है, कब आएंगी तो उत्तर में रितु बोल उठती, ‘अबे बुद्धू, मम्मी भगवान के पास गई है।'
‘तो आती क्यों नहीं?'
‘पापा लेने जाएंगे...तभी आएगी, है न मौसी!' रितु, हिमानी से विश्वास मांगती—सी लगती, ‘तो पापा ले के क्यों नहीं आते?' नन्नू गुस्सा—सा होकर कहता तो उसने समझाया था, ‘बेटा, पापा के पास बहुत काम हैं न...फुरसत नहीं मिलती न, इसलिए...' इस पर वह बोलता, ‘मौसी आप ले आओ! रितु और हम साथ चलेंगे...ठीक है न...'
रितु ने भी मौसी की ओर किंचित पुलक से देखा, किंतु हिमानी उनकी मासूम चितवन का सामना न कर सकी। उसने भर आई आंखों को दुपट्टे से पोंछा और दोनों को सीने से चिपका लिया था। बच्चे नहीं समझ पाए कि इसमें रोने वाली क्या बात थी!
कुछ महीने बाद ही घर में अजीब—सी सनसनाहट भर गई थी। मम्मी—पापा वही थे, पर कुछ बदले—बदले लगते थे। वे चुप दिखते हुए भी बोलते—से लगते और जब कुछ कहते तो लगता कि वे बोलना नहीं चाह रहे, होंठ अपने आप हरकत में आ गए हैं। उनकी आंखें हिमानी की नजरों से मिल नहीं पाती थीं।
घर में बातें होतीं, पर उसके समाने नहीं, लेकिन लगता यही कि उसको सुनाने की कोशिश की जा रही है। कुछ दीवारें चुगली खाती थीं तो कुछ अड़ोस—पड़ोस की मम्मी की सहेलियां कानाफूसी कर जातीं। बच्चों से कहतीं ‘बेटा, यही है तुम्हारी मम्मी...' कोई कहती, ‘शिवानी तो जन्म की मां थी, ‘जसुदा मैया' तो यही है अपनी हिमानी।'
हिमानी सोचती, वह बच्चों का खासा ख्याल रख रही है, इसीलिए उसकी प्रशंसा में इतना सब कह जाते हैं। लोगों की बातों के पीछे का गणित उसकी समझ से अभी परे था। उसका तो मानना था कि ‘अपनी बहन के बच्चे हैं, मातृहीन हैं...यहां रह रहे हैं तो उसका फर्ज ही नहीं, इंसानियत भी यही है कि हम उन्हें प्यार दें...उन्हें इस सदमे से उबरने में मदद करें, बड़े होंगे तो खुद संभल जांएगे...'
लेकिन धीरे—धीरे उसने भी गंध को महसूस किया। आस—पास उठता धुआं उसकी धमनियों में उतरने लगा। एक अजीब—सी बेचैनी दिन—रात उसे हांकने लगी। हालांकि घर में उसका ज्यादा ख्याल रखा जा रहा था खाने—पीने, हर सुख—सुविधा का। घर में काम करते हुए भी मम्मी उसके आगे आ जातीं, ‘तू आराम कर बेटी...थक गई होगी...यह मैं कर लूगी...।' पहले तो वह भी उछाह में भर कर आंगन में पेड़ के नीचे बच्चों के साथ खेलने लगती या बैठकर कहानी सुनाने लगती, लेकिन अब उदास—सी होकर कमरे में चली जाती या काजल के घर का रुख कर लेती।
इस सबके चलते उसकी पढ़ाई भी बाधित हुई। जैसे—तैसे परीक्षा दी, किंतु परिणाम अच्छा नहीं रहा। अंक बहुत सामान्य रहे। मन बहुत खराब हुआ। हिमानी किसे दोष दे भला। अगले वर्ष अच्छे अंक लाकर भरपाई कर लेगी, उसने मन को समझा लिया।
इस बीच जीजाजी के कई चक्कर लग चुके थे। कभी बच्चों को साथ ले जाते, कुछ समय बाद फिर छोड़ जाते। उनके आने पर घर का माहौल जाने कैसा—कैसा तो हो जाता था। हिमानी उनसे महज औपचारिक बातों से आगे न बढ़ पाती। कोई हुड़दंग नहीं, कोई हंसी—मजाक नहीं... मगर उसके मां—बाबूजी की कोशिश यही रहती कि हिमानी अपने जीजा का ख्याल रखे, हंसे—बोले...कहीं घूमने का भी प्रोग्राम बनाए, लेकिन नहीं! वह चाह कर भी नहीं कर पाती थी। शिवानी जीवित थी तब तो हिमानी का हंसोड़पन देखते ही बनता था। कभी सिनेमा, कभी बाजार...और जब तक शिवानी यहां रहती, नदी किनारे जाकर पानी—पूड़ी खाने का कार्यक्रम तो रोज ही बनता था, लेकिन अब... अब नहीं।
उसे आभास तो पहले ही था। इसलिए काजल की बात सुनकर कोई वज्रपात नहीं हुआ। हां, कोहरा जरूर छंट गया और वस्तुस्थिति से रूबरू होने का भय मन पर छा गया।
काजल के साथ उस दिन वह नदी पर गयी थी। वे शाम को अक्सर नदी के किनारे पुल के पच्छिमी छोर पर बार्इं ओर बने मंदिर तक जाती थीं, दुनिया—जहान की बातें करती हुई। मंदिर जाने के बहाने घूमना हो जाता था। वैसे पुल बहुत पास था, फिर भी कभी—कभी उसका या काजल का भाई अपने किसी दोस्त को साथ लिये चले आते थे। आखिर जवान लड़कियां हैं मां—बाप, भाइयों को ऊंच—नीच का ध्यान तो रखना ही है। यह पहरेदारी केवल लड़कियों पर ही क्यों, लड़कों पर क्यों नहीं...उनके लिए हर नियम—कानून में छूट थी। यह भेदभाव क्यों? उसके सवालों से खीझकर काजल उसे चुप करा देती थी, ‘‘जनम—जनम से ऐसा ही चल रहा है...तू बहुत मगज़मारी मत किया कर।''
गर्मियों में मंदिर, पुल और घाट पर मेले जैसा समां बंध जाता था। लोगों के लिए ‘एक पंथ दो काज' हो जाते थे। भगवान के दर्शन हो जाते और सैर भी। बच्चों के लिए मेला। आइसक्रीम, चने वाला, गोल—गप्पे, जलेबी तलता हलवाई, उनकी मस्ती को चार—चांद लगा देते थे। काजल और हिमानी को भी यहां खूब आनंद आता।
हिमानी को उस दिन पानी का बहाव बहुत तेज लगा था, मानों वह चक्कर खा कर अभी धार के बीचोंबीच गिरकर बह जाएगी। कोई बचा नहीं पाएगा उसे।
काजल ने कहा था ‘‘बात तेरी इच्छा पर निर्भर है...आण्टी हिम्मत नहीं जुटा पा रहीं तुझसे बात करने की, इसीलिए मुझसे कहा है कि तेरी मर्ज़ी मालूम कर लूं...''
‘‘क्या सचमुुच लड़की की इच्छा की चिंता किसी को होती है या पूछ लेना भर काफी है और उसका चुप रह जाना उसकी सहमति का संकेत!''
‘‘नहीं! अपनी राय साफ—साफ शब्दों में कहनी चाहिए...''
‘‘तब एक सुशील और खानदानी लड़की की गढ़ी गई उसकी मूर्ति का क्या होगा? मां के आंसू और पिता की इज्जत का क्या होगा? छोटे भाई—बहनों के भविष्य का क्या
होगा?''
कुछ देर की चुप्पी के बाद काजल ने कहा, ‘‘इसका मतलब तुझे मालूम था कि तेरे रिश्ते की बात चल रही है?''
हिमानी ने ‘हां' में गर्दन हिला दी।
‘‘पर कैसे? और तूने मुझे पहले बताया क्यों नहीं। वैसे तो दोस्ती का बड़ा दम भरती है। अकेली महीनों से कुढ़ती—कलपती रही और मुझे भनक तक नहीं लगने दी...'' काजल का स्वर क्षोभ से आहत था। बोली,‘‘ तुझसे ज्यादा तो आण्टी ने मुझ पर विश्वास किया।''
हिमानी ने एक बार काजल की आंखों में देखा, फिर नजरें झुका लीं और कहा, ‘‘बलि चढ़ने से पहले बकरा भी जान जाता है कि वह— विशेष हो गया है और उसके साथ कुछ विचित्र घटने वाला है और वह कुछ नहीं कर सकता। विरोध करेगा भी तो
कितना...? इतना प्यार—दुलार, मान—सम्मान, सेवा—सत्कार भी तो उसे मिला, वो सब
ऐसे ही तो नहीं था। दाम या फर्ज, चुकाना तो होगा ही।''
एक नदी हिमानी की आंखों में लहरा रही थी।
‘‘तू बकरा नहीं है, गाय भी नहीं, एक लड़की है... तू बोल सकती है,
विरोध कर सकती है।''
‘‘हां! जानती हूं। बकरी हो या लड़की दोनों की मां कब तक खैर मनाएगी और तू ही तो कहती है जनम—जनम से ऐसा ही चल रहा है।'' एक उदास हंसी थी हिमानी की। ‘‘ए कज्जो की बच्ची, कोई और बात कर न...?''
‘‘नही! उधर तेरा जीवन दांव पर लगा है। कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने से खतरा टलेगा नहीं। वक्त की बिल्ली के पंजे तुझे आजीवन नोंचते रहेंगे। वह दर्द, तड़प, छटपटाहट तब सिर्फ तेरी होगी, जिसे कोई बांट नहीं पाएगा।''
काजल गंभीर थी। उसने हिमानी की मां से कह दिया था कि हिमानी को यह रिश्ता कतई पसंद नहीं है, ‘बच्चों की जिंदगी के लिए उसके जीवन से खिलवाड़ उचित नहीं। आंटी, यह अन्याय उसके साथ मत होने दो...तुम तो मां हो, उसके दर्द को समझो।'
हिमानी के मम्मी—पापा की दुविधा भी समझ में आने वाली थी। एक ओर उन्हें हिमानी के राजी न होने से संतोष होता तो दूसरी ओर राजी हो जाने पर सिर से लड़की का बोझ उतर जाने का चैन मिलता। बच्चों के लालन—पालन की ओर से निश्चिंतता हो जाती। लड़कों की पढ़ाई, उनके खर्चे, उन्हें व्यवस्थित कर देने की समस्या भी आसान हो जाती। इसीलिए काजल को हिमानी की मां से अपेक्षित व्यवहार की जगह रुखाई ही मिली। उसने तिड़ककर कहा था, ‘देखो तो जरा—सी लड़की कैसी बड़ी—बड़ी बातें कर रही है, जैसे हम तो दुश्मन हैं अपनी बेटी के! बड़ी आई उसकी सगी बनने वाली।'
कुछ माह बाद ही हिमानी अपने जीजा के साथ विदा हो गई थी। वैसे उसके मां—बाप ने सोचने—विचारने के लिए कुछ और वक्त मांगा था, लेकिन सुखदेव की ओर से दबाव बढ़ता जा रहा था कि जो करना है, जल्दी करें। उन्हें दूसरी जगह से आने वाले रिश्तों की गिनती बताई जाती। बच्चों की पढ़ाई का हर्ज तथा उनकी देखभाल की परेशानी का रोना अलग। अंततः उन्हें हिमानी को विदा करने में ही सब की भलाई नजर आई।
हिमानी अपनी उंगली में पहनी अंगूठी को एकटक देख रही थी, जिस पर उभरे हुए दो अक्षर थे : ‘एस—एच' यानी ‘सुखदेव—हिमानी'।
‘औरत क्यों एक इबारत से ज्यादा कुछ नहीं, जिसे हमेशा कोई और ही लिखता और व्यक्त करता है अपनी भावना के अनुरूप, अपने लाभ—हानि के गणित के मुताबिक। उसका अपना कुछ नहीं।'
ऊपर से कमला और उसके बच्चों की आवाजें आ रही थीं। वह बालकनी में आ गई, जो गली में खुलती थी। यहां भी चहल—पहल थी। आवाजें उसके भीतर भी हैं। जब वे मुखर होती हैं तो बवंडर बन नदी की वेगवती धारा बन जाती हैं, जिसमें उसका अस्तित्व सिर्फ एक तिनके—सा होता है। धारा के विरुद्ध जाने का उसमें साहस कहां? विदा के समय वह काजल के कंधे से लगकर बहुत रोई थी। रुंधे स्वर में काजल ने पूछा था, ‘‘तूने ऐसा क्यों होने दिया, बता?'' हिमानी पहले ही अनेक रातें रो—रोकर आंखें खाली कर चुकी थी। वह अब स्थिर थी, भावशून्य—सी बोली, ‘‘कहने से बात का मान कम हो जाता।''
‘‘यह भ्रम मत पाल पगली, पछताएगी।''
‘‘भ्रम तो जीवन का हिस्सा है...''
‘‘भावुकता का नशा जब टूटेगा, तब बहुत देर हो चुकी होगी।'' कहकर काजल चुप हो गई थी।
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