फिर भी शेष
राज कमल
(7)
नीचे गली में आदित्य वर्मा अपनी मारुति के शीशे साफ कर रहा था। अचानक नजर ऊपर उठी तो मुस्कराकर अभिवादन में उसने सिर हिलाया। जवाब में हिमानी भी मुस्करायी।
आदित्य उनका ही किराएदार है। हिमानी उसे देखती और सोचती, ‘कितना शालीन व्यक्ति है, फालतू बात कभी नहीं करता। बात करते समय सीधे देखता तक नहीं। कभी नजरें मिल जाएं तो फौरन इधर—उधर देखने लगता है। कहते हैं, ऐसे लोगों के मन में चोर होता है। होता है, तो हुआ करे। वैद्य जी, प्रिसिंपल कक्कड़ और पनवाड़ी जैसों की उद्दण्ड निगाहों से तो बेहतर ही है। उन नजरों के आगे तो कपड़े पारदर्शी हो जाते हैं।' आदित्य से अब तो ज्यादा बातचीत नहीं होती। पहले सिलसिला था, किंतु ससुर के मरने के बाद स्थिति बदल गयी है। परिवार के सदस्यों की टेढ़ी होती निगाहों और सुखदेव के सीधे—सीधे दोषारोपण ने उसे बाध्य कर दिया कि वह अपनी सीमा में रहे और किसी हमदर्द की जुस्तजू न करे। कभी—कभी वह सास को किराया देने ऊपर आता है, बस! ऐसे ही आते—जाते दो चार बातें हो जाती हैं। हिमानी को उससे बात करके अच्छा ही लगता रहा है हमेशा, आभास होता है, जैसे उसमें कोई छल—कपट नहीं है, दिखावा नहीं है, सादगी और सरलता है, अपनेपन की गंभीरता है। आदित्य अपने बारे में ज्यादा बात नहीं करता। वह पेशे से वकील है। अनेक ‘एनजीओ' के साथ कानूनी सलाहकार के रूप में काम करता है। पिछले तीन—चार साल से उसका ऑफिस यहां पर है। किरायेदारों में वही है जो हिमानी के सामने आया है, शेष तो बहुत पुराने हैं और उतने ही खूसट। हमेशा दुकान को हथियाने की ताक में रहते हैं। दो के साथ तो मुकदमेबाजी भी हो चुकी है। जिन दिनों वह नौकरियों के अनुभव ले रही थी, तब उससे बातचीत हुई थी, कहा था, ‘‘यूं समझो कि जंगल में पांव रख रही हो। इसका मतलब यह नहीं कि वहां सब शेर या तेंदुए ही हैं। ऐसे ‘हायना' भी होंगे, जो आपसे डरेंगे भी, लेकिन नजर रखे लगातार पीछा भी करेंगे। आप जैसे ही गफलत में हुए, थके या कमजोर पड़े, वे आपको फौरन दबोच लेंगे।''
शीघ्र ही हिमानी का साबका ऐसे जानवरों से पड़ गया था। इसीलिए नौकरी करने का चाव उसमें कम हो गया। हालांकि स्कूल में अब तक नौकरी करती भी रही, पर असुरक्षा का भय लगातार उसे घेरे रहा। बहुतों की तरह वह अपनी खाल मोटी नहीं कर सकी।
आदित्य ने अपने साथ काम करने की सलाह दी थी। नीचे ऑफिस में बैठकर कुछ लेटर, पतों की सूची और डिस्पैच वगैरह के काम कर देने के लिए, किंतु ऐसा नहीं हो सका दो कारणों सेएक तो, हिमानी को यह गवारा नहीं था कि जो लड़का पहले से यह
काम कर रहा है, उसे हटाया जाए और यदि उसके रहते हुए भी करती तो यह आदित्य की अतिरिक्त सहानुभूति होती। दूसरा कारण, परिवार के लोगों की संकीर्ण मनोवृत्ति, जिसके लिए उसे उठते—बैठते उनके तानों से छलनी होना पड़ता।
हिमानी बालकनी में खड़ी सोच रही थी, जबकि नीचे से आदित्य उसे ही
संबोधित करके कुछ कह रहा था। उसके हाथ में कुछ चिठि्ठयां थीं। डाकिए तो जल्दी में रहते ही हैं, उसने आदित्य वर्मा की डाक तो उसे दे ही दी, साथ ही हिमानी को बालकनी में खड़ा देख उसकी डाक भी उसी को पकड़ा गया। हिमानी को जैसे ही बात समझ आई, वह फटाफट सीढ़ियां उतर कर नीचे पहुंची। पत्र लेकर, धन्यवाद कहती हुई वह जैसे ही मुड़ी तो आदित्य ने कहा, ‘‘नरेंद्र घर पर है?'' आदित्य जानता था कि वह घर पर नहीं होगा। बात शुरू करने के लिए उसने पूछा था। हिमानी की ‘ना' में हिलती गर्दन देखकर वह बोला, ‘‘मेरी सलाह मानें तो उसे नशा मुक्ति केंद्र में दाखिल करवा दें।''
‘‘क्यों, क्या हुआ?'' यह जानते हुए भी कि नरेंद्र नशा करता है, हिमानी घबरा गई। दाखिले का मतलब कि उसकी हालत इतनी गंभीर है। ठीक वैसे ही कि मरीज घर पर चाहे जितना बीमार हो, इलाज चलता रहता है मरीज और परिवार वाले हताश नहीं होतें, लेकिन डॉक्टर जैसे ही मरीज को अस्पताल में दाखिल कर देने की सलाह देता है तो निराशा अपने चरम पर पहुंच जाती है, लगता है, मामला अब गंभीर हो गया है। नरेंद्र स्मैक पीता है, चरस भरी सिगरेट और शराब का भी सेवन करता है। अक्सर बीमार पड़ जाता, लेकिन दो—चार दिन में फिर उठ खड़ा होता, पर नौबत यहां तक आ पहुंचेगी, हिमानी ने कल्पना नहीं की थी। ‘कल्पना तो हम बहुत बातों की नहीं करते, पर जीवन—जगत में वे नित्य घटित हो हमें चाैंकाती रहती हैं। जीवन इसी में निस्सार और विस्तार पा जाता है।
यह विस्तार उसकी मुश्किलों और जिम्मेदारियों का है। सोच और घबराहट के चिह्न उसके चेहरे पर साफ़ थे। आदित्य ने लक्ष्य किया, फिर आश्वासन भरे लहजे में बोला, ‘‘हिमानी जी, यह कोई मुश्किल काम नहीं है...केंद्र में मेरे मित्र हैं। दाखिला हो जाएगा...यही कोई छः महीने की तो बात है...सब ठीक हो जाएगा। आप केवल नरेंद्र को जाने के लिए तैयार कर लें।''
नरेंद्र को जाने के लिए मना लेना ही गुरुतर कार्य था। फिर भी उसने सहमति में सिर हिला दिया, फिर संकोची भाव से कहा, ‘‘नन्नू के पापा भी दाखिल हो सकते हैं?''
दबी मुस्कान के साथ आदित्य कुछ पल खामोश रहकर बोला, ‘‘क्यों नहीं...! हो सकता है, लेकिन नन्नू अभी छोटा है, सारा जीवन उसके सामने पड़ा है, सुखदेव जी सयाने हैं। पकी उम्र में यह काम थोड़ा मुश्किल हो जाता है, पर अंसभव नहीं, लेकिन आप उन्हें वहां जाने के लिए तैयार कर पाएंगी, इसमें मुझे संदेह है।''
इस गुफ्तगू के दौरान तीन—चार घरों की खिड़कियों के पल्ले और दरवाजें खुल चुके थे और गृहणियां इधर ही झांक रही थीं, कोई अपने बच्चे के बहाने निकली थी, तो कोई कूड़ा बाहर फेंकने की जुगत में...तो कोई आधा घंटा पहले गुजर गए सब्जी वाले को रोकने की खातिर, परन्तु उनका सामूहिक लक्ष्य एक ही थाआदित्य—हिमानी संवाद। तभी आदित्य का सहायक कुछ फाइलें, ब्रीफकेस गाड़ी में रखकर बोला, ‘‘सर! आज आपको ‘सायास' की मीटिंग में जाना है... और मिसेज दास का भी फोन आया था कि आपको रिमाइन्ड करवा दूं।''
इस बीच हिमानी सीढ़ियों की ओर बढ़ चुुकी थी। वह घूम कर जैसे ही स्येरिंग सीट पर बैठा, तब तक सुखदेव काफी पास आ चुका था, ‘‘लगता है, तुम्हारी वकालत कुछ ठीक चल नहीं रही, क्यों वकील साब?'' यह व्यंग्य बाण था, जिसे आदित्य ने मुस्कराकर निरस्त कर दिया, ‘‘नहीं, सब ठीक—ठाक है सुखदेव भाई! गुजर हो रही है, पर आज आप कैसे जल्दी आ गए मार्किट से...?''
‘‘क्यों, अच्छा नहीं लगा? रंग में भंग कर दिया न! हुं... ये कि जल्दी कैसे... वाह! अपने ही घर लौटने के लिए मुझे सोचना पड़ेगा? उस बदजात की वजह से ही तो...'' वह बड़बड़ाता हुआ सीढ़ियों की ओर बढ़ा, उधर आदित्य की कार स्टार्ट हो चुकी थी।
पिछला महीना बहुत भागदौड़ वाला रहा। घटना—चक्र इस तेजी से घूमा कि कुछ क्रम रहा ही नहीं। जिस दिन आदित्य से बात हुई थी, उसी रात नन्नू को एक लड़का घर छोड़ गया। नरेंद्र बीमार था। इस बीमारी का लाभ उठाकर हिमानी उसे थ्री व्हीलर में डाल कर केंद्र में ले गई। आदित्य वहां पहले ही पहुंच गया था। काम तुरंत हो गया। जब तक नरेंद्र को माजरा पता चलता, तब तक देर हो चुकी थी। वह पहरे में था। वह चीखा—चिल्लाया, बहुत हाथ—पांव मारे, लेकिन सब व्यर्थ! किसी ने ध्यान नहीं दिया। हर मरीज ऐसा ही हड़कम्प मचाता है। पहले फिजीशियन द्वारा उसकी बीमारी का इलाज शुरू हुआ, थोड़ा स्वस्थ होते ही दूसरा कोर्स चालू कर दिया गया। उससे मिलने के लिए मना कर दिया गया था। इसलिए हिमानी निश्चिंत हो गई, वरना रोज की आवा—जाही में तो वैसे ही पैर टूट जाते, काम का नुकसान अलग से होता। आदित्य के द्वारा उसकी रोज— खबर ले लिया करती थी।
उसने घर में सिवा सुखदेव के किसी से बात नहीं की। सुखदेव खूब बिगड़ा
था, जब उसने यह कहा, ‘‘उसे भी ऐसे केंद्र में अपना इलाज करवाना चाहिए। जीवन
सुधर जाए तो क्या बुरा है?' उसे नन्नू के केंद्र में दाखिल होने का इतना गुस्सा नहीं था जितना अपने लिए कहे जाने का। उसका सीधा आरोप हिमानी पर था, ‘‘तू तो चाहती है तेरे आगे की सारी दीवारें हट जाएं...और तू मनमर्जी करे...उस हरामी वकील के...मैं कहीं नहीं जाऊंगा, ये कि यहीं रहूंगा तेरे सामने...देखता हूं कैसे ‘ऐल—फेल' करती है।''
जेठानी कमला की भी सुखदेव जैसी राय थी। हां! सास इस समय कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। वह बीमार थी, और दिन पर दिन उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। कमला ने तो दो दिन बाद ही हाथ खड़े कर दिए थे। सारा जिम्मा हिमानी पर आ पड़ा। उसे पथ्य देना, दवाई खिलाना, गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर, कपड़े बदलना। नित्यकर्म भी बिस्तर पर ही कराने पड़ते। पहले वैद्य जी दवाई देते रहे, कुछ फर्क नहीं पड़ा तो एलोपैथी डॅाक्टर को दिखाया गया था। कैसी निरीह हो गई थी बुढ़िया। तेवरों पर पानी पड़ गया था।
एक महीने के भीतर ही चल बसी। इस मौके पर हिमानी के मैके से कोई नहीं आया तो तमाम नाते—रिश्तेदारों ने ‘थू—थू' की। हिमानी शांत होकर सब सुनती रही। वह उन्हें बुलाना ही नहीं चाहती थी, इसलिए किसी को खबर ही नहीं दी। न कनाडा— वाले भाई को, जिसके पास मां—बाप जा बसे थे और न पटना वाले भाई को। बस, झूठ—मूठ कह दिया कि खबर दे दी है, वे समय पर आ जाएंगे। ऐसे कठोर निर्णय उसे लेने ही पड़े। ऐसा ही दूसरा निर्णय था दादी के अंतिम दर्शन के लिए नरेंद्र को केंद्र से नहीं बुलाने का। उसने आदित्य को संकेत दे दिया था कि किसी और के कहने पर नरेंद्र को केंद्र से न छोड़ा जाए।
जेठानी खुश थी कि हर काम उसके बेटों के द्वारा हो रहा है। घर पर वर्चस्व कायम करने का यह बेहतर मौका था। वह तो मन से यह भी नहीं चाहती थी कि नन्नू केंद्र में जाकर ठीक हो जाए वरना उसके बच्चों की बराबरी करेगा। सास की तीमारदारी के समय भी उसने हाथ तो जरूर खड़े कर दिए थे, लेकिन हर समय वह बुढ़िया और हिमानी के आस—पास ही मंडराया करती। उसके मन में हमेशा यही संदेह बना रहता, कहीं बुढ़िया अपना कुछ ‘माल—मत्ता' मरते समय हिमानी को न दे जाए, जबकि हिमानी को इस बारे में रत्ती भर उम्मीद नहीं थी। वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि उसकी सास का बर्ताव उसके प्रति कभी स्नेहिल भी हो सकता है, पर असंभव भी इसी मायावी जगत में कभी—कभी घटित हो जाते है। अनेक किंवदंतियां हैं कि जब लोग मर कर जी उठे। ऐसी ही अनहोनी हिमानी के साथ हो गई। मृत्यु से दो दिन पहले, दोपहर में जब हिमानी, सास का बदन गीले कपड़े से पोंछने का उपक्रम कर रही थी, तभी कमजोर आवाज में बुढ़िया ने पूछा था, ‘‘बड़ी बहू दिखाई नहीं दी...?'' हिमानी को इससे कोई मतलब नहीं था कि वह जेठानी की दिनचर्या की खोज—खबर रखे। उसने सोचा, ‘सेवा में रात—दिन एक मैं किए दे रही हूं...और बुढ़िया अभी भी अपनी चहेती की माला जप रही है। मुझे क्या मालूम, कहां क्या कर रही होगी रांड! मेरी चले तो निर्लज्ज की कभी सूरत न देखूं, सोचती हुई हिमानी ऊपर से खामोश थी। बुढ़िया ने फिर सवालिया निगाहें उस पर डालीं और बोली, ‘‘कहीं गई है?''
‘‘पता नहीं, कुछ देर से आवाज तो नहीं सुनी।''
आश्वस्त हुई बुढ़िया ने तब कहा, ‘‘अच्छा, इधर आ।'' और अपने गले से धागे में बंधी चाभी निकालकर उसे दी। चाभी लिये वह कुछ पल स्तम्भित—सी खड़ी रही थी। तब सास ने टहोका, ‘‘अरी! जल्दी कर...अलमारी खोलकर मेरी संदूकची तो निकाल...''
बिना सोचे—समझे हिमानी सास का कहा करती गई, मूक—वधिर—सी बनी। इस समय बुढ़िया की स्फूर्ति देखने लायक थी। उसने चटपट कुछ जेवर, कुछ नकदी, कुछ सोने—चांदी के सिक्के एक रूमाल में बांध दिए। संदूकची को बंद करके उसे यथास्थान रखवा दिया। रूमाल वाली पोटली उसने हिमानी के हाथों में पकड़ा दी। असमंजस की स्थिति में हिमानी अकबका—सी गई। वह सोच नहीं पा रही थी कि यह सब वस्तु—जगत में घट रहा है या फिर वह कोई सपना देख रही है, लेकिन यह हकीकत ही थी, क्योंकि सीढ़ियों से किसी के ऊपर आने की पदचाप आ रही थी। आहट सुनते ही बुढ़िया के तेवर बदल गए। झुंझलाई—सी हिमानी से बोली, ‘‘नहीं करनी सेवा तो मत करो...पर यूं कुढ़ाओ तो नहीं...कुलच्छनी से कहा, जरा पीठ पर हाथ फेर दे...तो मारे जोर के हडि्डयां ही हिला दीं...अरे! वैसे ही जहर दे दो, पिंड छूट जाएगा।''
बड़ी बहू शंकाग्रस्त—सी होकर ऊपर आई थी, किंतु कमरे का सीन देख कर आश्वस्त हो गई। मुस्कराकर सास के पास आकर बोली, ‘‘गुस्सा मत करो, आपकी तबियत और बिगड़ जाएगी...यह कांसा—पीतल थोडे़ ही है, जो बदल कर नई ले लोगे आप...समझो, नसीब में ऐसी ही छोटी बहू लिखी थी...लाओ मैं कर दूं...दवाई ले ली?'' ऊपरी तौर पर कमला ने सास को मोह लेने की कोशिश की।
हिमानी अभी भी खड़ी थी। वह रोए या हंसे या जेठानी को ही दो—चार सुना दे। बुढ़िया ने उसकी मंशा ताड़ ली। वह गुस्से में भर कर बोली, ‘‘अब खड़ी—खड़ी क्या मेरे मरने का इंतजार कर रही है? जा यहां से चुपचाप...! खबरदार! मुंह खोला तो।''
दो दिन के बाद ही बुढ़िया की जीवन लीला समाप्त हो गई थी। हिमानी के लिए रिश्ते की यह नई करवट, अबूझ बन गई। जितना वह सोचती, उतना उलझती चली जाती। उसे बरबस काशीबाबा याद आ गए। उन्होंने कहा था,‘प्रभु के घर देर है, अंधेर नहीं...
तेरी नेकी फलेगी एक दिन...दुश्मन भी तेरे धैर्य से परास्त हो जाएंगे...' तो क्या यह धैर्य का पुरस्कार था? ईश्वर ने बुुढ़िया की मति फेर दी थी या अच्छाई का अंकुर था, जो बहुत कोमल होता है और हर आदम—जात में फूटता है, ईश्वर प्रदत्त! क्या यही है सत्य, ईश्वरीय अंश, किंतु खर—पतवार इसे पनपने नहीं देते। सास में अनायास ऐसा परिवर्तन कैसे हो गया? उसके हित की उन्हें चिंता थी या अपनी नई पौध की शुभाकांक्षा का भाव जागा था। ऐसे मातमी अवसर पर भी हिमानी को यह अहसास गुदगुदाता रहा कि जेठानी कैसी खिसियानी बिल्ली की तरह खंबा नोचती रह गर्इं। उसके सारे पत्त्ते उल्टे पड़ गए थे। संदूकची के शेष माल का बांट उन्हें मजबूरन करना पड़ा, किंतु अपनी हेरा—फेरी से बाज नहीं आए। चूंकि शेष रकम हिमानी की देखी हुई थी। इसलिए उसने तुरंत जान लिया कि कुछ माल पहले ही छुपा लिया गया है, लेकिन यह बात वह मुंह खोलकर कह नहीं सकती थी। कहती तो कलई खुल जाती। सवाल होता कि तुम्हें कैसे पता? इसलिए खामोश ही रही। इसके बाद भी हवा में जेठानी की भनभनाहट गूंजती रही, ‘बुढ़िया ने मरते—मरते मुझे चकमा दे दिया। ऊपर कुछ, अंदर कुछ...मैं क्या जानती नहीं! पूरी नौटंकीबाज थी। पता नहीं, कुलटा ने अंत समय में कौन—सी घुट्टी पिला दी, जो शहद से मीठी हो गई।'
‘हमने तो सुना है आखिरी वक्त में ज्ञान का उजास भर जाता है। भले—बुरे की पहचान...और परलोक का रास्ता साफ—साफ दिखाई देने लगता है, जैसे मोह—माया का परदा हट गया हो?' ये शब्द हिमानी की एक शुभेच्छु पड़ोसन के थे, जिसे सुन कर जेठानी के तन में आग लग गई, ‘बाहर वालों ने ही हमारे घर में हमेशा आग लगाई है...अरे! हमारा चैन से रहना उन्हें सुहाता ही नहीं...अपने पे बीतेगी, तब पता चलेगा...।' बात पूरी गली में फैल गई थी। ‘अब जो सुनेगा अपनी राय तो देगा ही। चार तुम्हारे साथ होंगे तो दो दूसरे के पक्ष में भी बोलेंगे।' कमला को यह सहन नहीं हुआ। उधर हिमानी के आनन्दित होने का समय था।
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