Phir bhi Shesh - 8 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 8

फिर भी शेष - 8

फिर भी शेष

राज कमल

(8)

सुख—दुःख के इसी महाचक्र में, आनंद का एक प्रसंग उससे छिटक गया। वह भूल गई कि काजल का पत्र आया था। उस दिन आदित्य ने नीचे बुलाकर उसे दिया था, जिस पर सुखदेव खूब बड़बड़ाया था और ऐलान कर दिया था कि ‘वकील के बच्चे' से ऑफिस खाली करवाकर ही रहेगा।'

वैसे तो काजल ने हिमानी के पत्र का ही जवाब दिया था। शायद अब तक के जीवन में यह काजल के लिए उसका पहला ही पत्र था, जिसका उसने समुचित आदर किया था। जवाब में एक लंबा, प्यारा—सा पत्र लिखा और हिमानी के आमंत्रण को सम्मान देते हुए आश्वासन दिया था कि वह शीघ्र आएगी, शायद दशहरे की छुटि्‌टयों में। ऐसे उमंग भर देने वाले पत्र को और काजल को, हिमानी भूल ही गई। पहले नरेंद्र का इलाज के लिए सेंटर में दाखिला, फिर उसकी सास की बीमारी—तीमारदारी, और अंततः उसका इंतकाल। रस्मो—रिवाज की व्यस्तता में वह जैसे सब कुछ भूल ही गई थी।

आकाश में बादल तो सुबह से ही फौजी टुकड़ियों की तरह पोजीशन ले रहे थे। ऐसे संवेदनशील मौके पर सूर्यदेव कहीं छिप गए थे। हिमानी, सिले हुए कपड़े लेकर निकली तो रास्ते में हल्की बौछार शुरू हो गई। ‘सुपर गारमेंट' के दफ्तर तक पहुंचने में कपड़े सील गए। दफ्तर में मैनेजर बाबू था। पीछे के खण्ड से मशीनों के चलने से झें...झें...

झें...का शोर उठ रहा था। कारीगारों के बतियाने की भिनभिनहाट उसमें मिली हुई थी। कभी—कभी कोई जोर से चिल्ला भी उठता था।

कपड़े गीले हो जाने से असहज होती हिमानी सोच रही थी कि यहां से मुक्त होकर वह तुरंत घर पहुंचे और कपड़े बदले। यदि बौछारें और गिर गर्इं तो कपड़े पारदर्शी हो जाएंगे, पर मैनेजर ने उसे अटका दिया। बोला, ‘‘आप बैठिए, छोटे साब तो हैं नहीं। वैद्य जी को अभी संदेश भेजता हूं।''

‘‘नहीं, उसकी जरूरत नहीं है। आप माल देखकर गिन लें। मुझे कुछ कहना नहीं है।''

‘‘पर शायद! वैद्य जी आपसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने कहा था कि आप जब आएं तो उन्हें खबर कर दूं।'' हिमानी कुछ कह पाती, इसके पहले ही सुनने वाला जा चुका था और फिर दो मिनट बाद लौट भी आया। चूंकि दवाखाना इसी बिल्डिंग के कोने में था, जिसे बाद में विशेष रूप से बनवाया गया था। हिमानी के रास्ते में पहले दवाखाना ही पड़ता था, लेकिन वह नजर बचाकर निकल आई थी। उधर वैद्यजी भी मरीजों में व्यस्त थे।

‘‘आप बैठिए, अभी आते हैं।'' मैनेजर ने आग्रह किया और आवाज देकर एक लड़के को फौरन चार कप ‘गर्मा—गर्म' चाय लाने की हिदायत दी।

अब छुटकारा संभव नहीं है। इसलिए बेवजह तनाव क्यों झेला जाए और जो आगत है, उसका सहज स्वागत क्यों न किया जाए, थोड़ा फ्री होकर, और उसमें रुचि लेकर। हमेशा छुई—मुई रहकर भी क्या बचा लेंगे हम? जीवन के लिए नमी और ताप दोनों जरूरी हैं। बर्फ से भी धुआं उठता है...उठने दो...' सोचते हुए हिमानी कुछ आश्वस्त हुई। थोड़ा मुस्कराई। अपने आस—पास गौर किया और फिर उस पहेली को हल करने की तरह सोचा, ‘मैं और मैनेजर, सिर्फ दो लोग चाय पीने वाले हैं। फिर दो और किसके लिए? वैद्य जी ने अपना ‘चाय न पीने का नियम' केवल हिमानी के घर पर ही तोड़ा है, जो शायद और किसी को मालूम भी नहीं। अब यह विशेषता हिमानी की चाय में है या स्वयं हिमानी में, यह तो दयाराम वैद्य पेशावरी ही बता सकते हैं। पहली बार ऐसी स्थिति आई तो हिमानी अचरज में पड़ गई थी। इसी ऑफिस में ऐसे ही मौके पर उसने वैद्यजी से पूछा था कि चाय क्यों नहीं ले रहे तो लोगों ने विश्वास से बताया था कि वे चायपान नहीं करते, दूसरों को भी सलाह देते हैं कि चाय न पीना ही शरीर के हित में है।

हिमानी कुछ कहना चाहती थी कि वैद्यजी ने ताड़ लिया। लपककर बोले थे, ‘‘पर—वर कुछ नहीं...यह लोग सच कह रहे हैं...समझो कि यह अपने—अपने व्यसन हैं... डॉक्टर—वैद्य कितना भी समझाएं, कोई नहीं सुनता, सब अपने मन की करते हैं।'' कथन के साथ उन्होंने सबकी नजरें बचाकर अपनी एक आंख दबाई और संकेत दिया कि ईश्वर के लिए इस मुद्‌दे को और मत खींचो।

तब से हिमानी उनके इस पाखण्ड का खूब मजा लेती है। हालांकि वैद्य जी ने अपनी ओर से हिमानी को उसी के घर पर अपनी राय को न्याय—संगत बनाने की चेष्टा की थी। उन्होंने कहा था, ‘देखो मनी, अतिथि ईश्वर का रूप होता है तो वैसे ही आतिथ्य करने वाला भी उसका रूप है। समझे कि, तभी तो अन्नपूर्णा की सृष्टि हुई है। अब उसका निरादर तो ठीक नहीं... समझे कि, तुम मुझे चाय बना कर देती हो... लेकिन वह चाय नहीं, ईश्वर का प्रसाद है। यह तो मैं ही जानता हूं कि उस प्याले में कैसा आनंद होता है, अतिथि सत्कार का...' हिमानी ने सिर्फ यही समझा कि यह सब सठियाये आदमी का प्रलाप है।

स्वगत—प्रवचन करते हुए वैद्यजी पधारे। वे बोल तो अपने—आप से रहे थे, पर यकीनन दूसरों को सुनाने के लिए।

‘‘...समझे कि, जवान पीढ़ी तो तबाही और गारत के रास्ते पर चल रही है। ब्रह्मचर्य की गरिमा भूल गए हैं लोग। ब्रह्मचारी को बौड़म समझते है। समझे कि यह सब अंग्रेजीपरस्त डॉक्टरों का उकसावा है और विदेश की आबोहवा का कुप्रभाव... समझे कि बचपन से ही ऐसी—ऐसी बीमारियां? हे ईश्वर! न खुराक है न संयम...लापरवाही की तो हद हो गई। समझे कि नाप तोल के चक्कर में लड़कियां बिना खाए—पीए, खून की कमी का शिकार हो रही हैं। उधर लड़के, पिचके गाल, कोटरों में घंसी आंखें लिये सिगरेट फूंकते रहते हैं, समझे कि जाने कौन परमानंद की लौ में लीन हैं। समझे कि, यह सब हस्तमैथुन कर...ने...''

वैद्यजी एकाएक रुक गए। हिमानी ने अचकचाकर नज़रें काले शीशे के पार सड़क पर घुमा लीं। मैनेजर साथ वाले केबिन में खिसक गया, जहां से टाइपराइटर के खड़खड़ाने और कागज की फड़फड़हट की आवाजें आ रही थीं। हिमानी की पहेली हल हो गई। दो अतिरिक्त प्याले—टाइपिस्ट और एकाउंटेंट के लिए थे, जो दूसरी केबिन में थे।

लज्जाभाव से वैद्य दयाराम ने हिमानी से माफी मांगी। तर्क दिया कि वे मरीजों में इतना ‘इन्वाल्व' हो जाते है कि उनकी जरा—सी भी लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर पाते

...और उन्हें अपनों की तरह डांटने लगते हैं।

‘‘ओह! ऐसी हालत में...पंखे के नीचे? समझे कि ईश्वर न करे, निमोनिया हो गया तो?'' हिमानी के गीले कपड़ों की ओर इशारा था, ‘‘कपड़े बदल लो...ओ! नहीं—नहीं, मैं भी क्या? यहां गाउन—वाउन तो बहुत मिल जाएंगे, पर साड़ी या सूट...! कोई बात

नहीं... लौटते हुए दो पुड़िया दे दूंगा...एक छींक तक नहीं आएगी समझे कि...।''

हिमानी के सामने होते ही वैद्यजी को जाने क्या हो जाता है? वे आपे में नहीं रहते। आंतरिक आह्‌लाद में बहक जाते हैं, अनर्गल बोल जाते हैं। कुछ बोलना चाहते हैं,

कुछ निकल जाता है। कुछ करते हैं, कुछ हो जाता है। पहले हिमानी खीझ जाती

थी, पर अब मन ही मन सत्तर के ऊपर चल रहे इस बूढ़े बालक की हरकतों का मजा लेती है।

हिमानी ने जानना चाहा कि क्या बात है? किसलिए याद कर रहे थे? उत्तर में

पहले उन्होंने महादेव सिंह और उनकी पत्नी का गुणगान किया। फिर उनकी असमय

मृत्यु पर दुःखी हुए। बोले, ‘‘उनके बहाने आना—जाना हो जाता था। समझे कि अब वो

भी जाता रहा। सोचा था कि आर्डर का माल, आते—जाते मैं ही उठा लाया करूंगा...

सबकी कुशल क्षेम भी हो जाया करेगी...पर समझे कि, तुमने वो बहाना भी छीन लिया। खुद ही आ जाती हो...खैर! सो तो ठीक है। दर्शन—मेला यहीं हो जाता है। हां! एक नुकसान हो गया...''

हिमानी ने नजरों से ही प्रश्न किया, ‘क्या?'

वैद्यजी धीरे से फुसफुसाए, ‘‘मां अन्नपूर्णा की एक प्याली चाय।'' कथन के साथ अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर दी। तभी चाय आ गई। तपाक्‌ से हिमानी ने एक प्याला उठा कर वैद्यजी की ओर बढ़ाया, ‘‘लीजिए।'' चूड़ियों से भरी केसर—कलाई से उठाया गया प्याला उन्हें साक्षात मां अन्नपूर्णा का वरदान लग रहा था, पर हाय रे, दुर्भाग्य! वे हाथ बढ़ाकर ले नहीं सकते थे। इस वक्त हिमानी के चेहर पर जो विनोदभाव था, अद्‌भुत था। पहली बार उसने वैद्यजी को ऐसी ‘धार—दार' आंखों से देखा था कि वे अनुमान नहीं लगा पाए कि इसके आगे हरियाला उपवन है या रसातल तक पहुंचा देने वाली खाई?

वैद्य दयाराम ने अपने को संयत किया, ‘‘नहीं—नहीं, यह तुम्हारे लिए है।'' कह कर शेष तीन प्याले साथ वाले केबिन में भिजवा दिए। बातों का क्रम बदल गया। हिमानी ने बताया कि वह शीघ्र ही अपना काम शुरू करने वाली है। वैद्यजी ने सहयोग का पूरा आश्वासन दिया। कुछ थोक खरीददारों से सम्पर्क करा देने की बात कही तो हिमानी ने खुलासा किया कि वह अभी रिटेलिंग का काम शुरू करेगी। धीरे—धीरे काम बढ़ाएगी।

अभी पैसा उतना नहीं है। इस पर वैद्य जी ने जायदाद संबंधी बातें शुरू कीं। यदि बंटवारे या बेचने का इरादा बने तो उन्हें जरूर बताएं। ‘‘क्या वकील से सुखदेव दफ्तर खाली करवा रहा है?''

‘‘ऐसी बात तो नहीं है। सभी किराएदारों से किराया बढ़ाने की बात कर रहे हैं। यदि उन्हें एतराज है तो दुकानें खाली कर दें...''

‘‘लेकिन वकील तो तुम्हारा हितैषी है...और फिर वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा भला! किसी दूसरे वकील से नोटिस भिजवाना... समझीं?''

‘‘वैद्य जी! मसला सिर्फ ‘मालिक—मकान' और ‘किराएदार' का है। जैसे आपके साथ है मालिक और कामगार का। इसमें हितैषी जैसा क्या है...वक्त पर आप भी काम आते हैं...आप भी हितैषी हैं हमारे।''

सुपर गारमेंट से हिमानी जब लौटी तो बरखा ने रास्ते में ही सराबोर कर दिया था। वैद्य जी ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की। कहा कि ‘मौसम खराब है, साफ हो जाए तो चली जाना, घर पहुंच कर क्या करोगी? अब जाकर तो थोड़ा आजाद हुई हो। सास—ससुर नहीं रहे, बच्चे बड़े हो गए, समझे कि, सुखदेव को वैसे भी तुम्हारी चिन्ता नहीं है। तब क्या हरदयाल और कमला से डरती हो? सारी जिंदगी डर—डर कर गुजार दोगी?' फिर कहा, ‘‘हां! कपड़े लत्ते खरीदने हों तो मुझे कहना, सेठ ‘धरमचंद—करमचंद' साड़ी वाले अपने यार हैं। समझे कि, अच्छा कपड़ा...नये डिजाइन के लिए मशूहर हैं। रेट की चिंता मत करना, अगर कहोगी कि वैद्य जी ने भेजा है तो जो दे दोगी, ले लेंगे।'' हिमानी ने फिर मज़ाक किया था, ‘‘तब तो आप बहुत जल्दी उनका दिवाला निकलवा देंगे।''

‘‘बहुत दिल्लगी करती है मनी...मैं क्या हर किसी को वहां भेजता हूं। तुम हमारे परिवार की सदस्य जैसी हो। समझे कि भाई महादेव सिंह और मैंने कभी एक दूसरे को पराया नहीं समझा। समझे कि, यही वजह है कि तुमसे दुःख—सुख की दो बातें कर लेता हूं।''

हरदयाल का छोटा लड़का स्टीरियो पर अंग्रेजी धुन बजा कर धमा—चौकड़ी कर रहा था। हिमानी की जेठानी कमलावती निंदारस की खोज में पड़ोस में गई होगी या सुनार के यहां नए डिजाइन देखने। बाजार गई होगी तो ‘चमन दी कुल्फी' और चाट सेंटर वाले के गोल—गप्पे भी खाकर ही आएगी। रितु अभी लौटी नहीं थी। आजकल अक्सर देर से लौटती है। कुछ कहो तो कह देती है, ‘यहां मशीन की झांय—झांय में पढ़ाई बिल्कुल नहीं हो पाती। इसलिए सहेली के घर पर ही नोट्‌स तैयार कर लेती हूं।'

बाथरूम में कपड़े उतारते समय हिमानी अपने शरीर के ‘उतार—चढ़ाव' में

खो गई। कुछ पल यूं ही निहारती रही एकटक! फिर जैसे कोई पंछी उड़ान भरता है...

नीचे डुबकी मारता है..., फिर ऊपर उठता है, ऐसे ही उसके दोनों हाथ देह के उभारों पर चढ़—उतर रहे थे। ऐसा नहीं कि रोज नहाती नहीं थी या शरीर को कभी देखा नहीं, पर आज एक उमंग—सी उठ रही थी कि ‘वह उन्मुक्त है, आजाद है, कोई अवरोध या बंधन नहीं है, जो उसे खुलकर सांस लेने से रोके। अब वह अपने लिए भी जिएगी... जी सकती है... अभी भी देर नहीं हुई है। अभी तो शिखर ही नहीं देखा, फिर ढलान का त्रास क्यों?'

सोचते हुए हिमानी देर तक सिर पर पानी उडे़लती रही। उसे लगा, पानी की सहस्त्र छोटी—बड़ी धाराएं, घाटियों से चढ़ती—उतरती खाड़ी में समाहित हो रही हैं। अपनी सोच की बदमाशी पर उसे खुद हैरत हुई, पर इससे उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। चपल बालक की तरह उसे नया कौतुक सूझा। इच्छा हुई कि अपनी सम्पूर्ण काया को एक साथ देखे... सिर से पांव तक। स्नानागार में यह संभव नहीं था। वह तौलिया लपेटकर कमरे में आई। ‘ड्रेसिंग टेबिल' के आईने में उसने ‘आदमकद देखा और देखती रही। बाहर बारिश का शोर तेज हो गया था। उसने उरोजों की गोलाई को हथलियों में भरा, सहेजा और कसाव का अंदाज लिया। उनके शिखर अभी अक्षत हैं। फिर उसके हाथ कटि के उत्तर—दक्षिण किनारों से उतरते हुऐ नितम्बों की घाटियों पर पहुंचकर जंघाओं से फिसलते हुए पिंडलियों तक जा पहुंचे। इस क्रिया में वह झुकी और पुनः क्रम से हथेलियां शिखरों पर जा पहुंचीं। इस यात्रा में उसने सुगम—लय और तरलता का अनुभव किया।

लड़कियों के नाप—तोल और डॉयटिंग का संदर्भ उसे याद हो आया, जो वैद्य दयाराम की टिप्पणी में उभरा था। नाप—तोल की दृष्टि से उसने फिर एक बार ऊपर से नीचे तक निहारा। बिना प्रयास के सभी कुछ संतुलित है। इस संतुलन के पीछे शायद एक रिक्तता का सहयोग हो। शायद प्रजनन के बाद ऐसा न रह पाता, किंतु उस खालीपन के बाद ठोस वजूद की अहमियत? उस रिक्तता को भरने का संकल्प, जो वर्ष भर पहले उसने किया था, ज्वार—भाटे—सा उसके सीने में उठा। वह चुनौती, जो अपनों ने ही दी थी, उसका सामना उसे करना ही है, वरना इस देह की उपयोगिता! मात्र कुछ क्षणों लिए नसों का फूलना, खून का उबलना, तूफान—सा...और फिर उसके बाद फेनिल किनारे पर पड़े शिथिल कीचड़—पानी से सना—लिथड़ा, ठंडाता मांसल आकार। उसने सोचा, बस यही नियामत मिली है उसे, किंतु लाभ? किसने किया मूल्यांकन, किसने सराहा? एक विधुर, बुढ़ाते शराबी पति ने? छिः वह नाली में रेंगता कीड़ा! खुजलाया कुत्ता! उसे जितना धकेलो, फटकारो, घुसता ही आता है। घोर वितृष्णा का भाव उसके चेहरे से आकर चला गया! अपने भीतर उसने खुद से कहा, ‘ठीक ही किया हिमानी, जो तूने कुछ साल से उसे छूने नहीं दिया इस देह को। अच्छा ही किया। नरक कुण्ड में जलने से समाधिस्थ हो गल जाना बेहतर है, पर क्यों? यह सवाल बहुत बड़ा होकर उसके सामने खड़ा हो गया।

हवा के तेज थपेड़े से खिड़की का एक पल्ला धड़ाके से खुल गया। मूसलाधार पानी बरस रहा था। पानी और उसके शोर का इतना घना परदा था कि सड़क की ओर कुछ दिख नहीं रहा था। फिर भी हिमानी ने फौरन तौलिया लपेटकर खिड़की बंद कर दी। शोर कुछ कम हुआ, लेकिन पानी की धारें तो उसके अंदर पड़ रही थीं...

बारिश में नहाना उसे हमेशा अच्छा लगा है। स्कूल और कॉलेज की उम्र में वह और काजल बरसात में साथ—साथ भीगती रही हैं। घर आकर फौरन छत पर चली जाती थीं। बूंदों के झिर—झिर संगीत पर दोनों हाथ फैलाए, गोल—गोल घूमकर देर तक नाचती रहती थीं। आंगन में लगा गुलमोहर उन्हें देखकर झूमता—मुस्कराता रहता था। चारों ओर जहां तक नजर जाती, पानी का धारदार परदा नजर आता था। पूरी सृष्टि के अक्श उसमें घुले मिले, जैसे खंड—खंड सत्ता को चुनौती देता समष्टि का राग...पानी ही पानी, गुनगुनाता, झरझराता, टिपटिपाता, हरहराता। चारों ओर जलथल—जलथल, मंदिर, नदी, घाट, पुल पेड़, खेत मकान, सड़कें, वाहन, नभ—थल...सब पानी के संगीत से सराबोर, बेसुध, लेकिन हिमानी के उस आनंद में एक बाधा थी। जैसे ही बादल गरजते और विद्युत—रेखा कड़कती तो वह मारे भय के वहीं बैठ जाती या काजल से चिपक जाती। जब तक वह फिर सहज होती, तब तक काजल का खिलखिलाना बदस्तूर जारी रहता था।

अब हिमानी को लगने लगा कि वह जोर—जोर से सांस ले रही है। अब पानी की बूंदें तन पर ऐसे लग रहीं थीं जैसे गर्म तवे पर कोई छीटें मार रहा हो या जेठ माह में छिड़काव किया जा रहा हो। वह अवश—सी वहीं फर्श पर बैठकर, धीरे—धीरे फैल गई। फर्श ठंडा था। हिमानी उसे जज्ब करती, उससे चिपकती और सटती चली गई। देह को अकड़ाती, ऐंठती रही और फिर धीरे—धीरे शिथिल हो गई।

वह यूंही पड़ी रहती, जब तक उसका जी चाहता। किसी के या रितुपर्णा के आ जाने की भी उसे चिंता नहीं थी। कपड़े उसके पास ही पड़े थे। एक मिनट में गाउन पहनकर दरवाजा खोल सकती थी, लेकिन काजल के ख्याल ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। काजल का पत्र वह कहीं रख कर भूल गयी है। उसने ठीक से उसे पढ़ा भी नहीं था। चूंकि उसी समय पीछे—पीछे सुखदेव आ गया था। उसने सोचा था, बाद में देखेगी। बस, उसके बाद याद ही नहीं रहा। और फिर लाख झमेले हो गए। जब—तब याद आया भी तो पत्र मिला नहीं। कहीं ‘ऊपर—नीचे रखा गया या फिर कहीं सुखदेव ने फाड़ फेंका। आज बाजार जाने से पहले ही उसने ठान लिया था कि वह पत्र खोजकर रहेगी। वर्षा ने बेवजह बहका दिया उसे। तत्परता से उठकर उसने कपड़े पहने और पत्र की खोज में जुट गई।

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