फिर भी शेष
राज कमल
(10)
अपने सभी ठिकानों पर बार—बार ढूंढ़ कर हिमानी थक गई तो उसने खीझकर सामान इधर—उधर बिखरा दिया। कुछ देर यूं ही पस्त रह कर उसने ‘इच्छा—बल' संचित किया और फिर खोज में पूरी लगन से जुट गई। निशाना रितु की किताबों का ‘रैक' और कपड़े की अलमारी थी। उसकी मेहनत बेकार नहीं गई। काजल का पत्र एक रजिस्टर के बीच से खिसककर उसके पैरों में आ गिरा। पत्र यहां पहुंचा कैसे? किसने रखा होगा? इन सवालों को दरकिनार करते हुए उसने फौरन पढ़ लेना चाहा।
पत्र में क्या लिखा था, कैसे लिखा था? वह लगभग भूल चुकी थी। बस, इतना याद था कि काजल ने उसकी मनुहार स्वीकार कर ली है और वह शीघ्र ही उसके घर आएगी, शायद दशहरे के आस—पास... दोबारा पढ़ते हुए भी उसे लगा कि वह बिल्कुल नया पत्र पढ़ रही है। लिखा था :
प्यारी हिमानी,
तू नहीं समझ सकती कि तेरी चिट्ठी पाकर बावली—सी हो गई हूं। खुशी के मारे सूझ नहीं रहा कि तुझे क्या—क्या लिखूं? कहां से लिखूं। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ कि चिट्ठी तेरी ही होगी, क्योंकि लगभग पंद्रह बरस के बाद तुझे अचानक मेरी याद कैसे आ गई? मुझ पर यह उपकार किन मजबूरियों में किया? मैं तो लिखते—लिखते हार गई। सोचा,‘सब किताबी बातें हैंबचपन की दोस्ती जीवन की पूंजी होती है, जो सारी उम्र खर्च नहीं होती, जितना खर्च करो बढ़ती जाती है। अपनी शादी का कार्ड भेजा था। न तुम आर्इं और न ही तुम्हारी बधाई मिली। कोई बात नहीं, मैंने मन को समझा लिया था। फिर पहली गुड़िया के होने पर तुम्हें संदेश भेजा था, तुम निष्ठुर बनी रहीं। जानती हूं, तुम्हारी हिकारत और गुस्सा अपने घरवालों से था। उनसे तुम्हें कोई वास्ता नहीं रखना था, न रखतीं। लेकिन उनमें मुझे भी शामिल कर लिया, आखिर क्यों, किस ‘बिना पर? मैं तो बराबर तेरे साथ रही। तेरे घरवालों, मां—पापा, और रिश्तेदारों की भी बुरी बनी। मैं जानती थी कि तू नरक—कुण्ड की ओर बढ़ रही है। बढ़ नहीं रही थी, बरबस तुझे धकेला जा रहा था। मुझे ऐसे मौकों पर एक सवाल हमेशा मथता रहता है, जिसका उत्तर अभी मुझे नहीं मिला है कि ऐसी स्थितियों में एक औरत दूसरी का दर्द क्यों नहीं समझ पाती? क्यों उसके विरुद्ध खड़ी हो जाती हैपति, बेटा या भाई की तरफ। उसे निरुपाय—असहाय छोड़ देती है उसकी नियति पर...क्यों। ओह! बुुरा मत मानना, मन बहुत भरा हुआ है। तुझसे मिलने, बात करने को...इसीलिए वह सब याद आ गया। ये अध्याय छूटते भी तो नहीं। मैं सोचती हूं, वही तो जीवन है, उसके बाद तो बस उपंसहार है।
मैंने तीनों बच्चों की पैदाइश पर तुम्हें पत्र लिखे। सोचा, मैं तुम्हारा दुःख कम न कर सकी, किंतु उसमें शरीक थी। इसलिए चाहा तुम्हें अपनी खुशी में शामिल करूं। नहीं! मैं ही गलत साबित हुई। तूने इतना भी नहीं सोचा कि तेरे इस व्यवहार से तेरी ‘कजरी' को कितने ताने सुनने पड़े होंगे। सभी ने तो कह दिया गाहे—बगाहे, ‘बहुत मेरी मनी, मेरी मनी करती रहती है। जब देखो, उसी के गुन गाते नहीं थकती। इतनी मनुहार कर ली, पर उधर से इनकी ‘सगी बहन' ने दस पैसे के पोस्ट कार्ड पर दो अक्षर तक नहीं लिखे। बड़े शहर, बड़े घर—बार वाली को कहां फुरसत मिलती होगी भाई। एक यही फालतू है कि जब देखो, उसी का बखान करती रहती है,‘ हिमानी ऐसी थी, हिमानी वैसी थी...।' तुम समझ रही हो न, मुझे यह सब सुनकर कितना बुरा लगा होगा। खैर! फिर धीरे—धीरे मैं भी अपनी घर—गृहस्थी में रमती चली गई। ‘तीन—तीन' बच्चे हो गए। इनका तबादला हो गया। हां! याद आया! तेरा लिखा खत मुझे कैसे मिला, यह भी एक लंबी दास्तान है। इससे एक बात तो साफ़ हो गई कि तुझे मेरे ‘पत्र—कार्ड' मिलते रहे और तू निर्मम होकर उन्हें डकारती रही। चलो जब जागे, तभी सवेरा। तूने जिस पते पर पत्र लिखा, वह शहर हमने छोड़ दिया था। जिस विभाग में ये हैं, तबादला होता रहता है। कहीं टिक कर गृहस्थी बसाने ही नहीं देते। मैंने तो कह दिया है, ‘कोई और नौकरी या काम देख लो, यह भी कोई नौकरी है?' खानाबदोश की तरह फिरना पड़ता है। हां तो, उस मालिक—मकान ने लगभग दो महीने बाद तेरी चिट्ठी को दूसरे लिफाफे में रखकर मेरे मम्मी—पापा के पास भेज दिया। वह पापा का पुराना परिचित था। फिर लगभग दो महीने वह खत घर पर ही पड़ा रहा। राकेश भाई का हमारी तरफ किसी सिलसिले में आना हुआ, तभी चिट्ठी मुझे मिल सकी। इस तरह एक—तिहाई साल गुजर गया।
इतने महीनों तक जवाब न पाकर तुझे खूब कुढ़न हुई होगी। मैंने झेला है उसे... और तेरी कुढ़न की कल्पना करके कुछ राहत महसूस कर रही हूं। ठीक वैसे ही, जब हम स्कूल में थे, तब एक फिल्म आई थी। बड़ा लंबा—सा नाम था, दिलीप और वहीदा की...वह गाना था न! ‘ओ बेवफा तेरा भी टूट जाए दिल, तू भी तड़प के पुकारे कि हाय दिल।'
तुझसे मिलने को अब तो जी उमड़—सा आया है। पंख होते तो सचमुच उड़कर चली आती। तूने जो यह लिख दिया है न कि तुझसे बहुत जरूरी सलाह करनी है, इसे पढ़ कर तो मेरा दिल ही बैठा जा रहा है। न जाने कौन—सा मसला है, जिसके लिए तुझे मेरी सलाह की जरूरत आ पड़ी। उतने अहम मसले पर तो तूने मेरी बात पर कान नहीं धरे थे। मैं ही ठेलती रही कि उठ, हिमानी उठ! तू कोई गाय—बकरी नहीं है। गोट बनने से इन्कार कर ही सकती है। पर नहीं, तूने निश्चय कर लिया था। लगता है कि निश्चय तो अब भी तूने कर ही लिया होगा कि क्या करना है? बस, औपचारिकता के लिए बात करना चाहती है। क्यों! है न यही बात, ताकि ऊपर पहुंचकर बेवफाई के लिए डांट ना पड़े।
जब से तेरा पत्र मिला है। विवेक बहुत छेड़ रहे हैं। कहते हैं, ‘चलो मन्नत पूरी हुई अब जल्दी ही मंदर में परसाद चढ़ा आओ।' कभी कहते हैं, ‘यार हमसे भी जरूर मिलवाना अपनी ‘अंडरवीयर फ्रैड्' को। प्रशंसा कर—कर के तुमने कौतुहल पैदा कर दिया है। उस ‘वीनस' के हम भी दर्शन करना चाहेंगे... वैसे तो उसने मुझे बुलाया नहीं है। फिर भी, तुम कहो तो मैं चल सकता हूं तुम्हारे साथ। बस! एक बार मिलकर, कहीं होटल में ठहर जाऊंगा।'
तू समझती है न! इन मर्दों की चालबाजियां? किसी औरत की खूबसूरती का बखान सुना नहीं कि बौरा जाते हैं, उसकी एक झलक पाने के लिए। उसके लिए उन्हें चाहे जो भी ‘दंद—फंद' करना पड़े। कहते हैं न कि सभी मर्द एक से होते हैं। मुझे भी ऐसा लगता है। हां, मैं एक फर्क करती हूं। प्राकृतिक भूख एक—सी होने के बावजूद खुराक अलग— अलग होती है। भूख की दृष्टि से हम देखें तो सब एक से हैं। खुराक की दृष्टि से भिन्न हैं, पर यह भिन्नता कोई मायने नहीं रखती— इसका शरीर से ताल्लुक है, जबकि भूख का मन—मस्तिष्क से... तेरा क्या ख्याल है?
हां तो! मैं छेड़ने की बात कर रही थी। एक कहावत है न— ‘बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभान अल्ला।' दोनों लड़कियां और तीसरा लड़का भी बाप के साथ मिल गए छेड़ने में। बड़ी वाली बारह साल की है। होशियार है। उससे छोटी नौ की, थोड़ी वाचाल है और छुट्टन पांच साल का है, एकदम भोंदूू! बाप पर गया है। मंझली कहती है, ‘मां! आण्टी इतनी सुन्दर हैं तो फिर हीरोइन बन सकती हैं...सीरियल में काम कर सकती हैं। आप कहो उनको हीरोइन बनने के लिए, हम उन्हें टीवी में देखेंगी...।' छोटा हां में हां मिलाता है, ‘हां हम भी देखेंगे।' तब बड़ी कहती है, ‘सभी सुन्दर लड़कियां हीरोइन थोड़े ही बन जाती हैं। है न मम्मी! और आण्टी, आपकी बहन तो नहीं है ना, फ्रैंड् हैं।'
मैं उन्हें समझाती हूं, सगा और पराया कुछ नहीं होता। रिश्ते तो वही बनेंगे, जैसे हम बनाएंगे। वह मेरी बहन जैसी है, उसे तुम सब मौसी ही कहोगे। पता नहीं उनको यह बात कितनी समझ आई, पर अब वे भी अपनी मौसी से मिलने को उतावले हैं। सच हिमानी! बच्चों के बीच घिरे रह कर अपना आप बहुत भरा—पूरा लगता है। लगता है, ‘हम अपने ही नन्हें प्रतिरूपों में जी उठे हैं फिर से। उनका होना कितना आश्वस्त करता है, बता नहीं सकती। नदी की दो धाराओं के बीच बने ‘डेल्टा' से लगते हैं बच्चे। चारों ओर से सुरक्षित नदी घेरती हुई और वे हरे—भरे पुष्पित—पल्लवित कुंज से।
माफ करना! मैं अपनी ही रौ मैं बह गई, तुम्हें दुःख पहुंचाने का इरादा नहीं था। तूने अपने पत्र में सिर्फ नन्नू और रितु का जिक्र किया है, किसी और बच्चे का नहीं। इसलिए अनुमान लगा बैठी हूं कि तू इस अहसास से अभी कोरी है। विधाता ने क्रूर मजाक किया है तेरे साथ। तेरी अपनी कोख में बिरवा नहीं रोपा उसने। बुरा मत मानना, कहते हैं न कि ‘ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।' तूने तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी, लेकिन कभी—कभी सोचती हूंतूने तो उपकार किया उन मासूम बच्चों पर। एक परिवार को पनपने में मदद की। क्या इस नेकी का बदला दरकार नहीं था? यह न्याय तो नहीं किया उसने। जिसके लिए कहते हैं कि ‘उसके घर देर है, अंधेर नहीं है।' पत्र बहुत लंबा हो गया है। अभी बहुत—कुछ लिखना बाकी है, लेकिन अब बस करती हूं और उम्मीद करती हूं कि दशहरे की छुटि्टयों में तुझसे मिलना हो सकेगा। बाकी तो सब उसके हाथ में है— कहां, कैसे, कब, मिलाएगा, वही जानता है। नन्नू—रितु को मेरा प्यार देना। जीजा जी को मेरी याद कहना और कहना कि... खैर छोड़ो। हां! फैसला लेने में जल्दबाजी मत करना, समझी। ईश्वर करे तू कोई अच्छा ही फैसला करे... न मिलने तक तुझे ही याद करती रहूंगी। इसी याद के साथ।
तुम्हारी
काजल
हिमानी, चार सफे के लंबे खत को देर तक उलटती—पुलटती रही। निगाहें शून्य में थीं और विचार सघन थे। काजल के साथ उसने ज्यादती की है, यह उसे लगा। सचमुच उसने कुछ बुरा नहीं किया। हरदम उसके दुःख—सुख में परछार्इं—सी साथ लगी रही। उसने हर चंद कोशिश की कि हिमानी इस रिश्ते का बहिष्कार करे, लेकिन एक अनब्याही किशोरी की बात की औकात भी क्या थी? जब मैं खुद ही शहादत की चादर लपेटकर निकल पड़ी थी तो किसी का क्या दोष? कम से कम काजल का तो कतई नहीं। फिर भी मैंने उसके खता का जवाब नहीं दिया।
आसमान में बादल अभी भी घिरे हुए थे। रह—रह कर बिजली चमक जाती थी। कभी कम, कभी ज्यादा गति से बारिश अपना संगीत गुंजा रही थी। बीच में कभी संगीत थम भी जाता था। तब कभी रेडियो, कैसेट बजने की सुर—लहरी सुनाई दे जाती थी। वर्षा ऋतु पर कोई गीत बज रहा था। उसके खत्म होते ही उसकी पसंदीदा गजल सुनाई दी, जिसका दूसरा शेर उसने खुद गुनगुनाया : बैठे हैं रास्ते में दिल का खण्डहर सजाकर, शायद इसी तरफ से इकदिन बहार गुजरे।
काजल और वह, मीनाकुमारी की जबरदस्त फैन थीं। जिस साल उसका देहान्त हुआ, वे अल्हड़ किशोरी थीं। तब इस सदमे से दोनों विह्नल हो गई थीं। उनका सपना ही टूट गया था, क्योंकि उन्होंने तय किया था कि बड़ी होकर बम्बई जाएंगी और एक बार जरूर उस महान अभिनेत्री को नजर भरकर देखेंगी, जो अभिनय में ‘ट्ेजिडी—क्वीन' कहलाती है। क्यों सहती है वो इतना दर्द? क्या सुख मिलता है उसे ऐसे चरित्र निभाने में? जिसकी सुन्दरता देखकर कुमार योगी का तप छूट जाता है तो कोई उसके पांव की नजाकत और खूबसूरती का दीवाना हो जाता है।
उन दिनों मीना पर छपी सारी किताबें पढ़ डाली थीं। तभी उसकी शायरी से भी परिचय हुआ था। उसकी तमाम फिल्मों को देख डाला। ‘साहब, बीवी और गुलाम' की छोटी बहू ने तो हिमानी को इतना रुलाया कि आज याद करके हंसी आती है। पति का प्यार पाने की लालसा में कुछ भी कर गुज़रने का छोटी बहू का जुनून उसे पागल कर गया। सहानुभूति का जज्बा इतना बढ़ा कि छोटी बहू पर ही उसे गुस्सा आने लगा था। ‘कोई इतनी मिन्नतें भी करता है भला? नहीं मानता तो जाए भाड़ में...' यही आक्रोश उसे अपनी बहन शिवानी पर भी रहा, जो ब्याही जाने के बाद बिल्कुल छोटी बहू में तब्दील हो गई थी ...और कुछ साल बाद खामोश अस्थियां बनकर नदी में बह गयी।
धूप—छांव के भाव हिमानी के चेहरे पर तैरते रहे। वह सोच रही थी ‘काजल इतनी व्यस्त गृहस्थिन है। उसे नाहक ही परेशान क्यों कर रही है। वह कितनी खुश है। अपनी ज़िम्मेदारियां संभाल रही हैपति—बच्चों के बीच घिरी। उसने लिखा है कि निर्णय तो तूने कर ही लिया होगा फिर औपचारिकता किसलिए?' उसकी बात सही है। निर्णय मैं ले चुकी हूं, पर सलाह चाहती हूं ताकि सनद रहे।'
यही सब सोचते हुए हिमानी बिखरी किताब—कापियों को सहेजकर रखने लगी। रखते हुए फिसल कर पुनः बिखर गर्इं। इनमें कुछ रंगीन पत्रिकाएं भी थीं। जिज्ञासावश उसने उलट—पुलट कर देखा तो यकायक उसकी धड़कन बंद हो गई जैसे समस्त जीव—जगत जड़ हो गए। पल भर के लिए चेतना शून्य हो गई। पत्रिका में निर्वस्त्र स्त्री—पुरुष के विविध कोणों से चित्र छपे हुए थे। देखते—देखते सनसनाहट—सी भरती गई उसके भीतर।
अभी कुछ देर पहले उसके शरीर की अवस्था भी इन चित्रों जैसी ही थीनिर्वस्त्र! विविध कोणों से परिभाषित। प्रश्न उठा, तो क्या ऐसे ही ये लड़कियां पर—पुरुषों के सामने अपनी लज्जा उतार कर खूंटी पर टांग देती हैं या चोरी से कोई किसी के एकांत क्षणों को चुरा लेता है, किंतु चोरी में ऐसी पारदर्शिता नहीं हो सकती। इतनी केंद्रित भी नहीं शायद! यदि कोई उसकी फोटो उतार लेता तो? कोई भी जैसेवैद्य जी, कक्कड़, गोरख और...और शायद आदित्य ही। कल्पनामात्र से वह सिहर उठी। सोच जारी थी ‘इच्छा से फोटो उतरवाने की शायद कीमत भी लेती होंगी, ये लड़कियां। वाह! क्या जिगरा है, जिस्म की नुमाइश का धंधा... पर...पर रितु इन पत्रिकाओं से... इधर ऐसी बेहूदी मैगजीन, उधर पढ़ाई में गोल होती रितु! उफ! क्या करूं इस लड़की का। मुझे तो दोनों बच्चों ने कहीं का नहीं छोड़ा।' सोच में फिर झटका लगा, ‘‘कहीं रितु भी तो...नहीं, नहीं! शायद उम्र का आकर्षण—भर हो।'' खुद को समझाया हिमानी ने।
रितु पर खीज, गुस्सा, सहानुभुति और प्यार—सब गड्डमड्ड हो गया। वह अवश—सी हो गई। अनमने भाव से किताबें यथावत रखने लगीं, तभी सीढ़ियों के दरवाज़े की कुंडी खटकी और इससे पूर्व कि वह द्वार तक पहुंचती, सुखदेव के बड़बड़ाने की आवाज़ सुुनाई दी।
सुखदेव के साथ दो आदमी थे। हष्ट—पुष्ट, बढ़िया जूते—कपड़े पहने हुए। हिमानी को एक ओर धकियाते हुए वह अंदर घुस गया, पीछे वे लोग भी। लगभग बीस मिनट बाद वे नीचे उतर गए। अब उनके साथ हरदयाल भी था। उनकी बातों से हिमानी ने अंदाजा लगाया कि जरूर मकान को बेचने के सिलसिले में ही आवा—जाही है। सबसे पीछे सुखदेव उतरा, जाते जाते रुका। पूछा, ‘‘रितु क्या अभी आई नहीं?''
हिमानी का सिर ‘न' में हिलता देख कहने लगा, ‘‘इतनी छूट मत दे उसे...खींच के रख...शादी लायक हो गई है। जल्दी ही रिश्ते की बात करूंगा कहीं ...और सुन, यह मकान बेचकर सब निपटा दूंगा...रितु की शादी...नन्नू का कारोबार...फिर तू मनमानी करना।''
हिमानी इसी बात पर भावुक होकर घंटों रोती रह सकती थी, पर नहीं, अब नहीं। अंदर कुछ सख्त होता जा रहा है, जैसे ठण्डे पानी का धीरे—धीरे हिमशिला में तब्दील हो जाना। उसने क्रोध में भरकर सुखदेव की पीठ पर दरवाजा धड़ाक से बंद कर दिया और सिर उठाती नई परिस्थिति पर विचारमग्न हो गई।
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