Phir bhi Shesh - 11 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 11

फिर भी शेष - 11

फिर भी शेष

राज कमल

(11)

नशा मुक्ति केन्द्र से नरेंद्र स्वास्थ्य लाभ करके जब से लौटा है, काफी बदला हुआ लगता है। आमतौर पर केंद्र में छह माह के इलाज के बाद मरीज को छुट्टी दे दी जाती है, किंतु वह पूरे एक साल तक रहा या यूं कहें कि उन्हें रखना पड़ा। आदित्य का दबाव न होता तो यह सब सम्भव नहीं था। आदित्य जोखिम नहीं उठाना चाहता था। वह जानता था कि नन्नू का जितना अधिक समय पाबंदी से गुजरेगा, उतना ही उसके लिए बेहतर होगा। इस बीच उसका स्वास्थ्य भी संवर जाएगा। ऐसा हुआ भी।

नरेंद्र जब लौटा तो सब देखकर दंग रह गए। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह वही नन्नू है, जिसे मुर्दे—सा उठाकर गाड़ी में डालकर ले गए थे। घर—परिवार में सभी खुश हुए। हरदयाल, उसकी बीवी और बच्चे भी ऊपर से खुश दिखे, परन्तु अंदर ही अंदर उन्हें लगा कि यह वकील का बच्चा उनके मंसूबे पूरे नहीं होने देगा। बाकी लोगों ने जबकि उसकी भूरि—भूरि प्रशंसा की। यहां तक कि सुखदेव ने भी अकेले में जाकर आदित्य से कहा, ‘मैं आपका यह अहसान कभी नहीं भूलूंगा।'

अब समस्या थी कि उसके काम की, उसे व्यस्त रखने की, क्योंकि यह पक्की बात थी कि अगर वह यूं ही निठल्ला घूमता रहा तो फिर उसर संगत में पीना शुरू कर देगा।

‘‘आप ही कोशिश करिए न,'' हिमानी ने आदित्य से जब कहा तो उसे भी यह बात जंची और उसने शीघ्र ही कुछ करने का आश्वासन दिया।

आदित्य ने अपना वादा निभाया। यह आदित्य का विशेष प्रयत्न था या इस परिवार के लिए खुशियों के दिन थे। जो भी हो। जब नरेंद्र नौकरी पर जाने लगा तो हिमानी को सब व्यवस्थित लगने लगा। वह एहसानों से दबी आदित्य को कुछ कह नहीं पाई, आंखें भर आई थीं। बोली, ‘‘आप न होते तो...आप देवता हैं...''

वह मुस्कराया। हिमानी के जुड़े हुए हाथों को अपने हाथों से छूकर कहा, ‘‘शर्मिंदा मत कीजिए, प्लीज।''

कैपिटल इंडस्टीज के मालिक सेठ रामनारायण का आदित्य के कॉलेज—मित्र के

घर आना—जाना था। मित्र के पिताजी के साथ अच्छा रसूख था। वहीं पर उसका परिचय हुआ। कॉलेज के बाद कुछ समय आदित्य ने उनकी कम्पनी में काम भी किया था।

जिस दिन नरेंद्र, आदित्य का लिखा कागज लेकर सेठ जी से मिला, वे किसी मीटिंग में जाने की तैयारी में थे। आदित्य वर्मा नाम पर वह कुछ देर सोचते रहे। फिर अपने बेटे को बुलाकर वह कागज दिखाते हुए बोले, नाम तो जाना—पहचाना ही है...पर याद नहीं आ रहा। बेटे ने कागज देखते ही कहा, ‘‘वर्मा तो अपने वकील साहब थे...''

‘‘ओह! हां, आदित्य वर्मा! लो कहो, इतने बरस हो गए...दिमाग से उतर गया।''

आदित्य ने कागज में लिख दिया था कि ‘लड़का मिडिल तक ही पढ़ा है। हां, ड्राइवरी अच्छी कर लेता है।' सेठ जल्दी में थे। जाते—जाते अपने बेटे को कह गए कि ‘इस लड़के को कहीं, किसी काम पर लगा दें।'

नरेंद्र को पहले कुछ महीने पैकिंग की निगरानी पर रखा गया। उसके बाद वह गोदाम में रहा। साल भर वह माल बुकिंग के लिए हेल्पर की तरह रेलवे स्टेशन के चक्कर लगाता रहा, लेकिन बात जम नहीं पा रही थी। हर जगह उससे कुछ न कुछ चूक हो जाती थी, क्योंकि काम बिल्कुल अलग तरह का था। तभी बिल्ली के भाग से जैसे छींका टूटा गया। फैक्टरी की वैन के ड्राइवर को अचानक गांव जाना पड़ा। वहां जाकर वह बीमार पड़ गया। मालिक आखिर कब तक इंतजार करते। अंततः वैन नरेंद्र के हवाले कर दी गई। कभी—कभी वह मालिकों की गाड़ी भी चलाने लगा। घर में भी कभी बच्चों या मालकिन को गाड़ी की जरूरत होती तो ड्राइवर नरेंद्र ही होता। धीरे—धीरे सेठ रामनारायण, उनके बेटे और परिवार के अन्य सदस्य उस पर भरोसा करने लगे और एक तरह से उसकी नौकरी जम गई।

तभी तो इस एहसान के बोझ तले दबी हिमानी ने आदित्य के सामने हाथ जोड़ दिए थे, ‘‘तुम देवता हो...'' प्रत्युत्तर में आदित्य के हाथों के स्पर्श से शरीर झनझनाहट से भर गया था। अकल्पनीय था वह स्पर्श! विद्युत तरंग—सा। कैसे हुआ यह...ऐसा क्या था उस स्पर्श में... ‘सुखदेव की तो समूची जकड़ में उसने कभी ऐसा महसूस नहीं किया। क्या यह पर—पुरुष का रोमांच था ...शायद!' तभी सुखदेव आ पहुंचा था एकदम बदले हुए संस्करण—सा। उसने कहा था,‘‘क्षमा करना वकील बाबू...मैं आपको हमेशा बुरा बोलता हूं, पर ये कि आप सचमुच उपकारी हैं। मेरे बेटे का जीवन बचा लिया। वह जब वर्दी पहनकर ड्‌यूटी पर जाता है तो मन गद्‌गद हो उठता है।''

अब सचमुच आदित्य के प्रति सुखदेव का व्यवहार थोड़ा बदल गया था, जिससे हिमानी ने भी राहत की सांस ली। फिर भी घर में नन्नू—अध्याय और आदित्य—पुराण जब तब शुरू हो ही जाते थे और हिमानी की सांस गले में अटक जाती थी। लगातार इतने मोर्चों पर लड़ते—लड़ते वह थक गई थी, किंतु अभी रितु की ओर से उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। जिस दिन उसने रितु की किताब—कापियों में ‘डेवोनियर' पत्रिका देखी थी, उस दिन उसने स्वयं को बहुत जब्त किया था, लेकिन उस रात रितु पार्टी से लौटी थी आबिद के साथ। देर बहुत हो गई थी। वह गली के मोड़ पर खड़ी उसी का इंतजार कर रही थी। घबराकर लिपट गई उससे, यह जानने को उत्सुक कि सब ठीक तो है। रितु ने सपाट झूठ गढ़ दिया कि ‘सहेली की मां सीढ़ियाें से गिर गई थी, उसे हॉस्पीटल ले गए थे। सहेली ने मुझे अपने पास रोक लिया...घर पर फोन होता तो इत्तला दे देती। कितनी बार कहा है, फोन कट गया है तो फिर लगवा लो...ताई के यहां फोन करो तो आफत गले पड़ती है! पर मेरी कोई सुनता ही नहीं।'

‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे', देख हिमानी का माथा भन्ना गया।

‘‘इतनी देर वहां रुकने की जरूरत क्या थी! घर में अपनी मां की चिंता नहीं है और सहेली की मां के लिए रोती रही रात भर...।''

सुखदेव ने भी उसे डांटा, किंतु उससे ज्यादा हिमानी को ही खरी खोटी सुनाई। उसका मानना था कि यदि हिमानी जी—जान से कोशिश करके विदेश में बसे अपने भाई को मना कर रितु की शादी की जिम्मेदारी उन्हीं पर डाल देती तो अब तक बेटी विदेश में ब्याह दी जाती। आज यह दिन न देखना पड़ता। यही बोल पहले सुखदेव की मां बोलती थी, अब सुखदेव बोलता है। हिमानी सिर पीटकर रह गयी, किंतु अकेले में रितु के कान खींचकर समझा दिया कि ‘पढ़ाई के बहाने यह बेहयापन बर्दाश्त नहीं होगा।' उसने ‘डेवोनियर' लाकर उसके सामने पटक दी थी। कुछ क्षण सकपकाने के बाद रितु दिलेरी पर उतर आई। बोली, ‘‘इसमें क्या है? मैगजीन है, हाई सोसायटी की। तुम्हें कुछ पता है, जिन फोटोज पर तुम इतना अपसेट हो रही हो, वह एक आर्ट है...''

‘‘लेकिन तुझे क्या जरूरत पड़ी इस आर्ट की। कपड़े उतारना कला हो गई...वाह!''

‘‘ओह मौसी, इसी पत्रिका में मनोविज्ञान पर एक आर्टिकल था। वही पढ़ने के लिए सहेली से ली थी...।'' जाते जाते वह पलट कर बोली, ‘‘इस घर में अब ‘प्राइवेसी' नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई। उफ्‌! न जाने कब...''

‘‘हां, हां! मैं भी यही चाहती हूं, तेरी शादी करके इस घर से मुक्त कर दूं...।''

‘‘तुम अपना बदला मुझसे क्यों लेना चाहती हो मौसी...? मैं अपनी मर्ज़ी से शादी करूंगी, किसी की खुशी के लिए नहीं...तुम...'' उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

हिमानी के गाल पर तमाचा—सा पड़ा।

तब से हिमानी को लगने लगा कि रितु अब हदें तोड़ने को बेताब है, लेकिन वह क्या करे, किस से कहे? जेठ—जेठानी सिर्फ अपने परिवार में मस्त हैं। सुखदेव का परिवार जिए या मरे, उन्हें कोई मतलब नहीं। हां! आग लगानी हो तो किसी भी बहाने लगा जाते हैं, बुझाने के नाम पर दूर खड़े होते हैं। बड़े बेटे की शादी कर दी है। घर में रार न हो, इसलिए पहले दिन से ही वह अलग रह रहा है। काम का अभी साझा है। कमला ने शुरू में रोना—पीटना किया। बाद में मन समझा लिया। छोटा भी पढ़ाइ्र छोड़कर फैक्टरी में दिलचस्पी लेने लगा है। नन्नू की नौकरी के बाद सुखदेव और भी बेपरवाह हो गया। पीना बदस्तूर जारी है। नन्नू घर में कम से कम रहता है। सुबह चला जाता है, रात को देर से लौटता है। कभी—कभी लौटता भी नहीं। हां, कुछ रुपए कभी—कभी देता है कभी कुछ सुखदेव के हाथ पर भी रख देता है। वैद्य जी जब से बीमार हुए हैं, उनका इधर आना—जाना लगभग खत्म हो गया है। बस, एक हितैषी है आदित्य! अब किस—किस काम के लिए उसके मुंह की ओर देखे। अच्छा भी नहीं लगता। और जबसे आदित्य के हाथों की वह छुअन लगी है, वह अब पूरी देह में उतरती महसूस होती है। अपने आप से डर गई है हिमानी, उसके सामने पड़ने से भी कतराने लगी है, पर दूसरी राह भी तो नहीं दिखती उसे।

रितु का पढ़ाई की ओर से ध्यान लगभग हट गया था। आबिद के साथ उसकी मुलाकातें बढ़ रही थीं। आबिद किसी भी समारोह, सेमिनार, फैशन शो, प्रदर्शनी में जाता तो रितु को साथ ले लेता। यही कहता,‘‘ ऐसी जगहों पर जाना तुम्हारे लिए बेहद जरूरी है। धीरे—धीरे लोगों से तुम्हारी पहचान बनेगी, जो किसी भी वक्त तुम्हारे काम आ सकती है। तुम मिस यूनिवर्सिटी नहीं बन सकीं तो क्या हुआ, पहली पांच में एक तुम हो। तो भला तुम्हें माडलिंग की क्या कमी...देखती जाओ! विज्ञापनों में छा जाओगी।''

दो—तीन महीने से उसका कालेज जाना न के बराबर हो गया है। बस, एक ही रुटीन था। घर से निकलकर आबिद के फ्लेैट पर जाकर कपड़े—मेकअप बदलना, जहां गाड़ी लिये आबिद पहले ही हाजिर होता था। शाम को, कभी—कभी रात को वहीं से ‘चेंज' होकर घर लौट जाती। घर में कह रखा था कि पढ़ाई पिछड़ने के कारण उसने ट्‌युटोरियल्स ज्वाइन कर लिए हैं, इसलिए देर हो जाती है। इस दौरान आबिद ने उसका ‘पोर्टफोलियो' बनाया था, जो कई एजेंसीज और प्रोडक्शन हाउस और कम्पनीज को भेजा था, लेकिन कोई सफलता नहीं मिल रही थी। आबिद के नजरिये से सफलता मिल सकती थी, किंतु रितु उसके लिए तैयार नहीं थी। ‘पोर्टफोलियो—शूूट' करते समय आबिद को बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। वह जितना कपड़ाें को शरीर से दूर हटाता था, रितुपर्णा घबराकर कुछ ज्यादा ही बदन को ढांप लेती थी। आबिद ने गुस्से में कह ही दिया था, ‘‘तुम कुछ नहीं कर सकतीं कपड़े पहने हुए तो हर घर में सुन्दर गृहणी मिल जाती है, लेकिन सेक्सी नहीं! मॅाडल के लिए सेक्स अपील बहुत अहम्‌ चीज है।''

रितु दुखी मन से सुबकती रही थी। आबिद ने शूटिंग दो दिन के लिए टाल दी और कहा, ‘‘तुम्हारे पास अभी सोचने का वक्त है...चाहो तो मॉडल बनने का इरादा छोड़ सकती हो।'' बहुत देर तक मेकअप मैन और ड्रेस—डिजाइनर उसको समझाते रहे थे। अंततः दो दिन बाद उसका ‘पोर्टफोलियो—शूट' हुआ, जिसमें उसने आबिद की और पेशे की जरूरत का थोड़ा ध्यान रखा, किंतु काम अभी भी नहीं मिला था।

उस दिन रेस्तरां में बहुत निराश होकर रितु ने आबिद से कहा था, ‘‘मेरी तकदीर में मॅाडल बनना नहीं है। मैं कहीं की नहीं रही...पढ़ाई भी बीच में छूट गई...मुझे यह सपना नहीं देखना चाहिए था।'

आबिद मुस्कराते हुए कॉफी सिप कर रहा था।

‘‘घरवालों से झूठ बोलते तंग आ गई हूं, अब मुझसे नहीं होगा यह सब...''

आबिद अब भी मुस्कारा रहा था। वह खीझ गई... ‘‘मेरा कैरियर चौपट हो रहा है...तुम हंस रहे हो...''

‘‘यस बेवी, तुम भी हंसोगी! तुम्हारे लिए काम मिल गया है...असाइनमेंट छोटा है, बट! अच्छा है... सेठ अभी दस हजार देगा...प्रॉडक्ट अंडर गारमेंट है...हां, बोलो तो कल से काम शुरू...''

रितु ने सोचने में दो दिन लगाए। चूंकि उसके पास पीछे लौटने का कोई रास्ता

नहीं था इसलिए उसकी छाती और जांघों की सुडौलता कैमरे में खूबसूरती से कैद हुई। फिर कुछ पत्रिकाओं में वह विज्ञापन छप भी गया। उसके बाद कुछ पाउडर—क्रीम, हेयर—रिमूवर के असाइनमेंट मिले। वे भी किए, जो प्रकाशित भी हुए। धीरे—धीरे रितु

की हिम्मत बढ़ रही थी, परन्तु एक मलाल था, विज्ञापन सी—ग्रेड पत्रिका या अखबारों

में छप रहे थे। न कोई बड़ी एजेंसी उसे काम दे रही थी और न कोई बड़ा गु्रप उसे स्पॉन्सर करने को तैयार हुआ था। आबिद उम्मीद बंधाए हुए था। जब मिलता, दो—चार बड़े—बड़े नाम सुना देता...‘फलां एजेंसी के कॉपीराइटर ने भरोसा दिलाया है...फलां कम्पनी

का पब्लिसिटी मैनेजर तो तुम्हारी पोर्टफोलियो देखकर फिदा हो गया, कहता था कि

अगले प्रॉडक्ट्‌स तुम्हीं से कराएगा।' कुछ देर चुप रहकर आगे कहता, ‘‘बस, एक ही मुश्किल है! तुम पै्रक्टिकल नहीं हो। लोगों से खुद मिलती—जुलती नहीं हो।' रितु ने टोक दिया, ‘जहां भी तुम कहते हो, हमेशा तुम्हारे साथ जाती हूं...जाती हूं कि नहीं? फिर ऐसा क्याें बोलते हो?''

‘‘वह बात नहीं है रितु डॉर्लिंग! तुम कभी उनसे अकेले भी मिलने जाया करो।

मेरा, हमेशा तुम्हारे साथ रहना लोगाें को अच्छा नहीं लगता। तुम उन्हें खुद फोन करो, हलो! हाय! करो...डेट तय करो...उनसे मिलो...उन्हें क्या अच्छा लगता है, इसका

ध्यान रखो!''

कभी कहता,‘‘अब जरूरत तुम्हारी है। यह सब तो करना ही होगा। मार्किट में सैकडों मॉडल्स घूमती हैं। उन्हें क्या कमी है, बोलो—बोलो! कोई कमी है क्या?''

इस तरह धीरे—धीरे कदम—दर—कदम रितुपर्णा उस मायावी सरोवर में उतरती चली गई, जहां चकाचौंध भरी रंगीनियां थीं...स्वप्न थे...तृष्णाएं थीं...छलावे थे और कुछ व्यावहारिक सच भी।

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