Phir bhi Shesh - 12 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 12

फिर भी शेष - 12

फिर भी शेष

राज कमल

(12)

शून्य से उठकर जीवन में शेष करने की अभिलाषा रखने वाली हिमानी के लिए वे दिन सबसे महत्त्वपूर्ण और खुशी के दिन थे। इसका अंदाजा वे ही लगा सकते थे, जो किशोर—वय के सखा या सखी से दशकों बाद एक दिन आमने—सामने हो गए हों। यह अहसास गूंगी के लिए गुड़ के समान था। अंतर में आंधी, भावनाओं का बवंडर, पर खामोश!! ऐसी बेचैनी, कुछ ऐसा करने की अकुलाहट भरी विमूढ़ता कि सामने वाला खुद ही समझे उसकी चाहत को।

काजल का आना अचानक तो नहीं था। तय था कि दशहरे की छुट्टियों में आएगी। पत्र में उसने लिख ही दिया था। लेकिन बाद में, घर में एक के बाद एक रंग बदलती परिस्थितियों में वह उलझकर रह गई और इधर छुट्टियां शुरू हो गर्इं। रितु ‘स्पेशल पीरियड्‌स' के बहाने घर से चली जाती थी। नरेंद्र अपनी नौकरी में और भी व्यस्त हो गया था। अब साप्ताहिक अवकाश के दिन ही कुछ घंटों के लिए घर आता था। हिमानी को संतोष था कि वह नौकरी पर है और नशे की लत भी उसे दोबारा नहीं लगी। फिर भी वह चाहती थी कि वह रोज घर आए, घर पर खाना खाये और परिवार के सुख—दुःख पर कभी—कभी बात करे। बहन की शादी के लिए जिम्मेदारी का भाव उसमें दिखे, पर वह दिन पर दिन घर के लिए दूर का मेहमान बनता जा रहा था।

यह बात हिमानी ने अंततः आदित्य से कह ही दी,‘‘आप ही सेठ जी को कहिए कि नन्नू अभी बच्चा है। रात—दिन काम करेगा तो...! आप जानते ही हैं, वह घर रहे तो मुझे भी थोड़ा हाैंसला रहता है। जेठ—जिठानी का हमसे जितना रिश्ता है, सो तो आप जानते ही हैं।''

आदित्य कुछ देर सोचता रहा। फिर उसने हंसकर स्वयं ही सिर हिलाया। हिमानी तनिक झेंप—सी गई, बोली, ‘‘क्या हुआ? मैंने कुछ गलत कहा क्या?''

‘‘नहीं, मैं सोच रहा था कि मनुष्य की एक चाह पूरी हो जाए तो फिर दूसरी उम्मीद बन जाती है। आई मीन पहले तुम इसकी आवारागर्दी और नशे से परेशान थीं। वह ठीक हुआ तो नौकरी होना अनिवार्य लगने लगा और अब वह घर में रहे...जिम्मेदारियों को निभाए, ऐसा चाहती हो।''

‘‘तो इसमें...अजूबा क्या चाहा है आदित्य बाबू!'' वह बुझ—सी गई।

‘‘नहीं! यह स्वाभाविक है...कोई दोष नहीं है। वैसे मैंने स्वयं कम्पनी में बात की थी। नरेंद्र के बारे में पूछा था कि वह कैसा काम कर रहा है? तो बोले बहुत भरोसे का आदमी है। बड़े सेठ ने उसे अपने साथ रख लिया है। उसकी तरक्की और खाने—पीने का खास ख्याल है उन्हें।'' थोड़ा रुक कर आदित्य ने कहा, ‘‘आप उसकी ज्यादा चिंता मत करो। वहां रह कर जीवन में कुछ कर लेगा। चांस लिया है तो लेने दो। रितु अभी पढ़ रही है, उसे पढ़ने दो, वक्त पर शादी भी हो जाएगी। हां! कभी कुछ अपने बारे में भी सोचा करो। इतने समय से मैं देख रहा हूं, आई मीन दूसरों के लिए खटते—खटते यह हाल बना लिया है। कभी मैं सोचता हूं तो परेशान हो जाता हूं कि सुुखदेव जैसे आदमी के लिए आपने कैसे हां कहा होगा!''

आदित्य बोलता जा रहा था। इधर हिमानी की सांस के आरोह—अवरोह की गति तेज़ होती जा रही थी। वह सोच रही थी कि आज आदित्य बाबू को क्या हो गया

है... उन्होंने कभी इतने अधिकार और निकटता से बात नहीं की। हालांकि उसकी बातें सही हैं, फिर भी! न जाने क्यों वह बेपर्दा महसूस कर रही थी।

उधर अदित्य भी कुछ सचेत हुआ तो उसने बात का रुख थोड़ा घुमा दिया, ‘‘आप पढ़ी—लिखी हैं, फिर भी क्या सारी उम्र वैद्य जी की कम्पनी के कपड़े सिलते—सिलते गुजार देंगी। बेहतर होगा कि अपनी वर्कशाप शुरू करें आई मिन जिसकी मुख्तियारी आपकी हो और कुछ जरूरतमंदों को रोजगार भी मिले...'' यह बातचीत चूंकि आदित्य के ऑफिस में हो रही थी, इसलिए हिमानी चौकन्नी थी। द्वार खुला हुआ था और बाहर गली की गतिविधियों पर भी वह बराबर ध्यान दे रही थी। कितना समय यहां हो गया है, यह भी उसे खबर थी। उसने घड़ी की ओर नजर उठाई। यह संकेत था कि अब चलना चाहिए। उसके उठते—उठते आदित्य ने आगे कहा, ‘‘अगर आपको दूसरों की सेवा का इतना चाव है तो एक एनजीओ में नौकरी है। मैं आपके लिए बात कर सकता हूं।''

नौकरी की बात पर हिमानी ने स्थिर होकर आदित्य की ओर देखा। आदित्य की नजरें पहले ही उसकी ओर थीं। नजरें मिलने पर उसने कहा, ‘‘हिमानी जी एक बात पूछूं?''

‘‘क्या?'' सशंकित हो गई हिमानी, हिरनी की तरह!

‘‘बात बुरी लगे तो माफ कर देना, आई मीन मैं आपसे उम्र में कुछ छोटा हूं, चाहें तो डांट भी सकती हैं।'' अब और भी पशोपेश में पड़ गई हिमानी, ‘न जाने क्या पूछने वाला है।' फिर भी, उसने कहा ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप! मैं आपको अपना हितैषी मानती हूं...मैं सोच ही नहीं सकती कि आप ऐसी कोई बात पूछेंगे, जो मुझे बुरी लगे।''

‘‘बात बड़ी—छोटी या अच्छी—बुरी नहीं होती, हां! मनःस्थिति अच्छी—बुरी होती

है, जो बात या घटना के असर को कम—ज्यादा कर देती है। कोई बात नहीं—फिर कभी पूछ लूंगा।''

हिमानी चाहती थी कि वह जो भी पूछना चाहता है, पूछ ले, न जाने क्या बात है। हाथों के स्पर्श वाली घटना के इतने दिन बाद वह चंद मिनट उससे बात कर सकी है। अब पूछने की जिद भी कैसे करे! बचपना लगेगा...और देर भी बहुत हो गई थी।

वह आदित्य के ऑफिस से बाहर निकली। बस, यह वह क्षण था, जब उसकी एक मुराद पूरी हो गई। उसने अपनी सीढ़ियों की ओर मुड़ने से पहले यूं ही मुख्य सड़क की ओर गली के मुहाने को देखा, जहां अभी—अभी एक ॲाटो आकर रुका था। उत्सुकतावश क्षणांश के लिए वह ठिठकी। एक औरत स्कूटर से उतरकर इधर ही आ रही थी। गरिमाययी औरत! एक कंधे पर शाल, दूसरे पर बैग लटकाए, जिसने ‘कंफेक्शनरी कॉर्नर' वाले से रुक कर कुछ पूछा तो कॉर्नर के मालिक ‘बंसल जी' ने ठीक हिमानी की ओर उंगली उठाकर कुछ कहा। अब शंका की कोई गुंजाइश नहीं थी। इधर से हिमानी आतुरता में चार कदम आगे बढ़ी, उधर आगंतुक ने भी तत्परता दिखाई। पहचान का गुमान होते ही बाहें फैलाकर दोनों महिलाएं बीच गली में ऐसे मिलीं कि सब देखते रह गए। दोनों के मुख से एक—दूसरे का नाम बड़े जोर से निकला ‘काजल—हिमानी' और वे लिपट गर्इंं। गली में हल्का—सा शोर हो गया। बच्चे अपना खेल छोड़कर उन्हें देखने लगे...कुछ खिड़कियां खुल गर्इं...कुछ लोग हड़बड़ाकर जानने के लिए दरवाजों पर आ गए। ‘बहुत पहले कभी दो भाइयों का मिलाप हुआ था। जो आज तक, ‘मिलन' का मिथक बना हुआ है, लेकिन कलियुग में इन दो सखियों का मिलाप भी लोग याद रखेंगे।' ॲाफिस के दरवाजे पर खड़ा आदित्य सोच रहा था।

वे रो रही थी। आसुंओं से उनके चेहरे भीग गए थे। हिचकियों से उनके आबद्ध शरीर हिल रहे थे। लोक—लाज से परे यह निःसीम प्रेम था। गली में खड़े तमाशबीन लोगों की राय से बेखबर वे दोनों निर्मल संतोष पा रही थीं। दृश्य कुछ लंबा हो गया तो कुछ महिलाएंरामानुज की बीवी, मिसेज चोपड़ा, मिस्टर त्यागी की मां और विश्नोई की बहन ने उन्हें आकर घेर लिया। दोनों को प्यार भरा हौसला दिया, ‘बस—बस, बेटा! अब घर चलो...हाथ मुंह धोओ...'

‘‘अरे, खुशी में भी कोई इतना रोवे है...मैं तो समझी, कोई गमी हो गई दीखे।''

‘‘मनी की बहन—सी लगती है।'' दूसरी ने कहा।

‘‘क्या अम्मा तुम भी, मनी की तो एक ही बहन थी, बेचारी! नन्नू की मां..''

‘‘मौसी, बुआ, मामी की बहन नहीं होती क्या?''

‘‘हां—हां! चलो! हिमानी घर ले जाओ...सफर से आई है...थकी—हारी होगी।''

‘‘इतने वर्ष बाद कोई आया है हिमानी के मायके से...तभी फूट पड़ी बेचारी नदिया सी।' त्यागी की मां ने हिमानी के दर्द को नई अभिव्यक्ति दी।

हिमानी एकाएक अपने खोल में लौटकर चौकन्नी हो गई। अपने आपको संभाला, आंखें पोंछते हुए सबकी ओर मुस्कराकर देखा मानो धन्यवाद दे रही हो और काजल को सहेजती हुई घर ले गई। पीछे रह गए स्त्रियों—पुरुषों की भाव—भंगिमाएं एकाएक बदल गर्इंर्। उनमें हास और व्यंग्य प्रमुख हो गया।

हिमानी के जीवन के कुछ दिन रंगीन हो गए। उम्र घटकर आधी हो गई। दोनों सहेलियां स्कूल—कालेज की वीथियों में विचरती रहीं। सारा दिन, नहाने—धोने, खाने और शेष बतियाने में बीत गया, लेकिन बातें छोटी—छोटी हल्की—फुल्की ही होती रहीं, क्योंकि शाम तक कोई न कोई घर आता रहा। गली में सभी को, विशेषकर महिलाओं को बड़ी उत्सुकता थी कि वे हिमानी की बहन, सहेली या जो भी रिश्तेदार आई है, उससे मिल आएं। हिमानी की जेठानी भी इस अवसर पर लड़ाई—झगड़ा भुलाकर मिलने चली आई और घंटे—भर तक वही जमीं रही।

काजल ने उसे सादर प्रणाम किया और अपना सूटकेस खोल कर उसमें से एक साड़ी निकालकर उन्हें भेंट कर दी। जेठानी गद्‌गद्‌ भाव से विदा हुई। हिमानी ने आंखें तरेर कर पूछा, ‘‘यह क्या ड्रामा है। जो औरत मेरे मरने की आस में जीती है, जिसने मेरे जीवन को नरक बना डाला, उसे तू भेंट दे रही है, मेरे घर में, मेरे सामने!''

‘‘यार! तूने भी तो बड़े प्यार से मिलवाया यह मेरी जेठानीजी! इस घर की

बड़ी...''

‘‘वह जब स्वयं ही घर में आ गई तो अनादर कैसे करती...''

‘‘यही तो...! फिर मैं भला उनका आदर कैसे न करती? देने वाला हमेशा बड़ा होता है रानी! हमने बड़ों से यही सुना है।''

‘‘पर वह जो मुझे कष्ट के सिवा और कुछ नहीं देती।''

‘‘मैं प्यार और सम्मान की बात कर रही हूं।''

सुखदेव से मुलाकात कुछ खास नहीं रही। पहले तो उसने काजल को पहचाना ही नहीं। जैसे—तैसे कुछ घटनाएं जोड़—तोड़ कर याद दिलाया तो इतना शर्मिंदा हुआ कि उससे बात ही करते नहीं बनी। काजल जानबूझकर उसे ‘जीजाजी—जीजाजी' कहकर छेड़ती रही। वह भीगी बिल्ली बना सब सुनता रहा। सिर्फ ‘हां! हूं!' करता रहा। दरअसल वह अपने को हिमानी की सहेली के आगे बहुत छोटा महसूस कर रहा था। उसका हुलिया, घर—भर का माहौल, कुछ भी तो सम्मानजनक नहीं था, जिस पर वह इतरा सकता कि ‘हम दिल्ली वाले हैं।'

बस, इतना ही कहा, ‘‘आप बरसों बाद अचानक कैसे... और अकेली! बच्चे?''

‘‘आपने कौन—सा बुलाया ही... मुझे जब समय मिला, आ गई। बरसों से सोच रखा था कि एक बार हिमानी से मिलूंगी जरूर...''

‘‘अच्छा किया! मनी, जरा अच्छी खातिर करना भाई! इतने बरस बाद कोई आया है तुम्हारे मायके से।'' उठ कर जाते—जाते उसने पूछ लिया, ‘‘मैं चौक की तरफ जा रहा हूं, बाजार से कुछ लाना हो तो बता दे, ले आऊंगा।''

हिमानी कुछ कहे, इससे पहले ही वह सीढ़ियां उतर गया। हिमानी ने मुंह बिचका दिया था। शाम को रितु से जब परिचय हुआ तो वह बहुत खुश दिखी। बोली, ‘‘अच्छा आप ही हैं काजल आण्टी! मौसी हमेशा आपका नाम जपती रहती है। अच्छा हुआ, आपसे भेंट हो गई।''

सहेलियों ने एक—दूसरे को दुलार से देखा। काजल से एक बढ़िया सूट और नकली हीरों के टाप्स पाकर रितु उलछ पड़ी और आंटी को चूमकर धन्यवाद कहा। हिमानी सौगात के पीछे काजल के प्यार को समझ रही थी, किंतु आहत भी महसूस कर रही थी, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बराबरी कर सके। वह कहां कर पाएगी काजल के बच्चों के लिए यह सब। उसे आदित्य की बात काैंध गई... ‘अपनी वर्कशाप शुरू करो, जिसकी खुदमुख्तारी हो, तुम्हारी अपनी पहचान बने...' उसने प्रत्यक्ष में इतना ही कहा, ‘‘इतना सब करने की क्या जरूरत थी।''

‘‘अच्छा लगता है यार...! देखो, बच्ची का मुंह कैसा खिल उठा। इस खुशी का कोई मोल नहीं है मनी।''

‘‘मौसी तो ऐसे ही रोती रहती है...इन्हें हमारा कुछ भी अच्छा नहीं लगता।'' रितु बोली।

‘‘रितु!'' जोर से चीखी हिमानी, ‘‘बकवास मत कर, जा यहां से।''

‘‘क्या हुआ मनी...? प्लीज! कूल डाउन...।'' काजल ने हिमानी को सहज करना चाहा, वह तुरंत सहज हो भी गई।

‘‘तू ठीक कह रही है, पर क्या बच्चों के लिए बड़ों की खुशी और सम्मान के कोई मायने नहीं?''

उन्हें एकांत रात को ही मिला। तब दोनों ने दिल खोलकर बातें कीं। काजल, हिमानी के दिल्ली प्रवास का एक—एक पल का हिसाब चाहती थी। हिमानी ने तो बुलाया ही था उसको, ताकि अपनी गांठें खोल सके उसके सामने। शुरू से आज तक उसने ब्यौरे—वार काजल को बताया। काजल सुन रही थी और बीच—बीच में जब हिमानी सिसकने लगती तो उसे सांत्वना देते हुए खुद भी अपनी आंखें पोंछने लगती।

‘‘मैं नहीं जानती मेरे हिस्से ही क्यों इतना संताप आया, मैंने तो आज तक किसी का बुरा नहीं किया। अपना सारा जीवन स्वाहा कर देने पर भी मुझे एक ‘बेबी सिटर' से ज्यादा दर्ज़ा इस परिवार में नहीं मिला।''

बातचीत में अंतराल आया। कुछ देर दोनों खामोश रहीं। काजल ने सिलसिला फिर जोड़ा। बोली, ‘‘मैं आज तक नहीं समझ पाई मनी कि तूने शादी के लिए एक बार भी इंकार क्यों नहीं किया। मैंने तेरा पक्ष लिया था। तेरी मां से बुरा—भला भी सुना, लेकिन तूने उफ्‌ तक नहीं की। आखिर क्यों? तू आज तो इस सवाल का जवाब दे सकती है न?''

एक बार काजल की ओर देखकर हिमानी फिर शून्य में देखती हुई कहने लगी, ‘‘मैने भी मना किया था। मां ने मुझे एहसान—फरामोश कहकर धिक्कारा... कहा, ‘जिस जिंदगी पर तू इठला रही है, वह जिंदगी तेरी बहन की दी हुई है ...तुझे क्या याद होगा, तू बहुत छोटी थी। घर पर तुम चारों बहन—भाई थे। मैं और तेरे पापा, तेरी बुआ के गांव गए थे। उनके परिवार में मौत हो गई थी। पीछे तू बीमार पड़ गई। तुझे डायरिया हो गया था। शिवानी तुझे फौरन डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने सिविल अस्पताल ले जाने को कहा तो वहां ले गई। दिन में घर पर भाइयों की देखभाल करती थी और रात को तेरे साथ अस्पताल में जागती थी। दो रातें ऐसे ही गुजरीं, तब जाकर तेरे बचने के आसार बने... आज उसी बहन के बच्चों पर तुझे जरा—सा भी तरस नहीं आ रहा...सिर्फ अपना सोच रही है, स्वार्थी कहीं की। बस! इसी भावुकता में बह गई। मुझे लगा, जब दीदी ने यह जीवन बचाया है तो क्यों न उन्हीं के बच्चों को सौंप दूं...और साैंप दिया। तू बता, और क्या करती मैं? सारा जीवन एक ही कचोट रहती कि मैं स्वार्थी हूं, दीदी का कर्ज न चुका पाई।''

‘‘खूब कर्ज चुकाया! अब तो संतोष है! बच्चे जैसे भी हैं, रहने दे। तूने अपना फर्ज निभा दिया और वे पल भी गए...बड़े हो गए। अब क्या है, जो इतनी जानमारी कर रही है? ...अरे हां! तुने लिखा था कि तू कोई अहम फैसला करने वाली है और तुझे मेरी सलाह की जरूरत है। बोल! अब क्या करना चाहती है?''

एकाएक हिमानी के चेहरे को कठोर छायाओं ने घेर लिया। सख्त चेहरा लिये वह पल भर सोचती रही। फिर एकाएक उठी। बोली, ‘‘ मैं कॉफी बना लाती हूं...फिर छत पर चलते हैं।''

छत पर अक्तूबर की रात खुशगवार थी, कॉफी का मजा दोगुना हो गया। वे आसमान और क्षितिज को निहारती रहीं।

कुछ समय बाद काजल ने अपना प्रश्न दोहराया। हिमानी मूढ़े पर बैठ गई और बोली, ‘‘मैं अपना बच्चा चाहतीं हूं काजल...! मैं इस अहसास से कोरी रह कर मरना नहीं चाहती...''

‘‘अच्छा ख्याल है। अभी ‘इन—टाइम' है, लेकिन इसमें मुश्किल क्या है? हां! तुमने बताया था कि कई बार ‘कंसीव' किया, पर ‘मैच्योर' नहीं हुआ। ऐसा कई बार हुआ तो डॉक्टर से सलाह ले ले।''

‘‘मेडिकली सब ठीक है।''

‘‘तो क्या जीजाजी...?'' काजल ने सशंकित भाव से उसे घूरा।

‘‘वह तो अभी भी किसी दरिंदे से कम नहीं, लेकिन मुझे सुखदेव का बच्चा नहीं चाहिए।''

‘‘क्या?'' आश्चर्य से काजल का मुंह खुला रह गया। फिर संभल कर बोली, ‘‘मनी, क्या कह रही है तू! होश में तो हो!''

‘‘हां! पहले नहीं थी...अब पूरे होशोहवास में हूं...'' पूरी दृढ़ता से कहा हिमानी ने, ‘‘मेरी कोख पर बार—बार लात मारने वाला यही आदमी है, सुखदेव! तेरा जीजा! ...उस हरामजादी जेठानी के साथ मिलकर इसने मेरे मातृत्व की कोंपलें नोंच लीं। एक बार नहीं, कई बार...! एक दिन मैंने दोनों को बातें करते सुन लिया था। सुखदेव कह रहा था, ...बार—बार दवाई से पेट गिराना, क्या ठीक रहेगा भाभी? ...कहीं हिमानी को कुछ हो गया तो? ये कि मेरे बच्चे कौन पालेगा?' इस पर जेठानी ने कहा, ‘तो सरकारी इंतजाम करवा लो। वह तो मानेगी नहीं, तुम्हीं को नसबंदी करवानी पड़ेगी। हमेशा के लिए झंझट ही खत्म...' स्ुाखदेव बोला, ‘क्या कहती हो भाभी! सुना है...उससे कमजोरी हो जाती है?'

‘तुम सारे मर्द एक ही जैसे हो। तुम्हारे भैया भी डर गए थे...तब मुझे ही करवानी पड़ी। ...या फिर ऐसा करो, साथ सोना ही छोड़ दो।' कहकर हंसी थी जेठानी।

तब खीजकर सुखदेव ने कहा, ‘तुम चाहती हो, जोगी हो जाऊं! नहीं! कुछ और सोचो, ये कि जिससे सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे।'

‘तब तो एक ही काम हो सकता है, किसी लेडी डॉक्टर को रुपये खिलाओ..., वह सब ठीक कर देगी। चेकअप के बहाने इसे उसके पास ले जाना, बस! जो करना है, वह कर देगी...फिर बार—बार दिन चढ़ने का झंझट मिट जाएगा। दोनों खूब देर तक हंसते रहे थे। वह दिन और आज का दिन मैं उस जलील इंसान के साथ नहीं सोई। और तभी मैंने यह निश्चय किया कि अब मैं अपना बच्चा ज़रूर पैदा करूंगी। सुखदेव से नहीं, किसी और से...! इसी निर्णय को तुझसे ‘शेयर' करना चाहती थी।''

बोलकर हिमानी ने आंखें बंद कर लीं।

काजल उसके पीछे खड़ी होकर हिमानी के सिर में उंगलियां फिराने लगी। कुछ क्षण बाद हिमानी ने मुंह ऊपर उठा लिया और बोली, ‘‘तुम मेरी मदद करोगी।''

‘‘हां! लेकिन कैसे? तूने बहुत कठिन रास्ता चुना है मनी! बता! मैं क्या करूं? चुनाव तो तुझे करना है।''

‘‘जानती हूं, मैं जिधर भी थोड़ा झुकाव दिखाऊंगी, वह फौरन राजी हो जाएगा। पर ऐसा राह चलता पुरुष मैं नहीं चाहती, जो बाद में मुझे ब्लैकमेल करे या पता चलने पर उसका परिवार टूटे या कोई कानूनी पचड़े खड़े हों।''

‘‘बहुत दूर की सोच रही है...पर इसका हल क्या है?''

‘‘मेरे ‘जीजाजी'।''

‘‘मतलब!!'' काजल की उंगलियां कांप गर्इं।

‘‘मतलब! तेरे पति विवेक...।''

‘‘क्या बक रही है...।'' काजल की उंगलियां काठ हो गर्इं। बदन थर—थराने लगा।

‘‘सच कहती हूं, उसके बाद जीवन भर नहीं मिलूंगी तुम लोगों से।''

इसके बाद सन्नाटा छा गया।

अभी दस बजे थे। इस सन्नाटे को सुखदेव की बड़बड़ाहट ने तोड़ा। दोनों ने सीढ़ियां उतरी, पर अंदर नहीं गर्इंं। सुखदेव पीकर आया था और हिमानी को गालियां दे रहा था। वह भूल चुका था कि घर पर कोई मेहमान भी आया हुआ है।

‘‘साली! हरामजादी! ...कहां मर जाती है...। ये कि मेरी तो उसे परवाह ही नहीं है, जब देखो...वकील के दफ्तर में घुसी रहती...मैं क्या मर गया हूं...दफा कर दूंगा तुझे बिल्कुल दफा...! ये कि जहां जाना चाहती है, मर... पहले रितु की शादी हो जाए

...फिर देखूंगा इसे...।' कुछ देर इसी तरह बड़बड़ाता रहा, फिर सो गया। पता नहीं, खाना खाया भी या नहीं। सीढ़ियों से ही दोनों छत पर वापस आ गर्इं।

हिमानी ने कहा, ‘‘यह तो रोज का किस्सा है, चलो सोएं...।''

रात को छत्तीस के आंकड़े में लेटी दोनों ही अंधेरे को घूर रही थीं। दिमाग में आंधी चल रही थी। हिमानी को सहेली खो देने का डर सता रहा था। वह बार—बार स्वयं को कोस रही थी कि ‘ऐसी बात उसने की ही क्यों? किंतु सवाल उठ खड़ा हुआ...तब ऐसी बात किससे करती? किससे मांगती सुरक्षा—कवच? अगर अपनी नितांत व्यक्तिगत चाह में उसे भागीदार बनाना चाहा तो क्या बुरा किया। अपने मन की परतें एक सहेली के सामने हटा दीं तो क्या हुआ? मैंने मित्रता का मान रखा है...उसे सम्पूर्णता दी है। अपने आपको सौंप दिया है, इससे बड़ा कोई रिश्ता मैंने नहीं माना। यह मेरे अंतर की निर्मलता है, ‘प्लीज'! काजल! कलुष न समझना।'

उधर काजल भी द्वंद से घिरी सोच रही थी, स्वयं को तोल रही थी, ‘मनी की मांग अकल्पनीय, अप्रत्याशित है...तो असंभव भी? शायद नहीं...! शायद हां...! विवेक को शेयर करना! क्या बांट सकती है अपने पति को? यह सब मेरी सोच की स्थिति पर निर्भर करता है। यदि तन, मन से न जुड़े तो शरीर एक वस्तु से अधिक कुछ नहीं है

...पर तन—मन नहीं जुड़ेंगे, इसकी क्या गारंटी है? ...कहीं थोड़ा सुख हिमानी को बांटने की महानता में अपना सारा चैन न गवां बैठूं...। किंतु हिमानी का यह प्रयोग नया तो नहीं है। नियोग—रीति से संतान की प्राप्ति हमारे कथा—पुराणों में वर्णित है। महाभारत की कथा में वंशवृद्धि, ऋषि वेदव्यास द्वारा नियोग से ही संभव हो सकी थी। यह तब अनैतिक नहीं था...पाप नहीं था तो अब कैसे? हिमानी को उसके मानसिक धरातल पर समझने की कोशिश क्यों न करूं।'

फिर एक प्रश्न उसके अंतस से फूटा, ‘पुराणकाल में भिन्न स्थिति थी। सिंहासन के उत्तराधिकारी या वंश को आगे बढ़ाने की विवशता थी। हिमानी के लिए ऐसी कोई विवशता नहीं है। उसका वंश भी पल्लवित है। और यदि अपने ही गर्भ से संतान चाहिए तो, इसके लिए उसका पति भी समर्थ है। तो क्या इसे छल और स्वेच्छाचारिता का मामला नहीं कहेंगे? और स्वेच्छाचारिता में उच्छृंखलता की गंध भी हो सकती है। यह सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा?' अपने ही प्रश्नों से घबराकर काजल उठ बैठी। हालांकि मौसम खुनकी भरा था, फिर भी उसका गला सूख रहा था। साथ ही हिमानी भी उठ गई।

‘क्या हुआ?' भाव से उसने काजल को देखा। काजल ने पानी मांगा। फिर आश्चर्य से बोली,‘‘ तू भी नहीं सोई, अब तक?''

‘‘नहीं तो!'' क्षणांश के बाद कहा,‘‘हम दोनों का द्वंद एक—सा है री! ...मुझे सहेली खोने का डर है तो तुझे पति खोने का...''

काजल चुप थी। पुनः लेटते हुए हिमानी बुदबुदाई, ‘‘वैसे भी मुझे तो जागने

की आदत है।''

काजल के भीतर का कोई कोना भीग गया। उसने हिमानी की ओर करवट बदली और उसके बालों में उंगलियां फिराने लगी। यह स्पर्श हिमानी को विचलित कर गया। काजल से लिपटकर वह देर तक सिसकती रही और काजल अपने आपको उत्तर दे रही थी... ‘मनी की स्वेच्छाचारिता, अपनी विवशता को तोड़ने की धृष्टता है...अपने प्रति न्याय की मांग है... स्त्री के अधिकार को पाने की लालसा है, बिना लोभ, बिना वासना

के ...अपने प्रति हुई ज्यादतियों का बदला लेने का उसे हक मिलना चाहिए। आत्महत्या अपराध होते हुए भी आत्महत्या के लिए विवश करने वाला भी अपराधी ही होता है।

...यदि नियोग के लिए हिमानी अपराधी है तो सुखदेव और उसकी भाभी भी उतने ही अपराधी हैं...हिमानी चाहती तो सुखदेव से तलाक लेकर... तलाक शब्द काजल की सोच में अटक गया, ...हिमानी चाहती तो सुखदेव से तलाक लेकर... हिमानी ने तलाक क्यों नहीं लिया...? बेहतर होता...एक नया जीवन...अपना घर...अपने बच्चे। बच्चों के बालिग होने पर तो कानूनन मां—बाप भी उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते हैं।' इस द्वन्द से मुक्त होकर काजल कब सो गई, उसे पता ही नहीं चला।

***

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