फिर भी शेष
राज कमल
(13)
सुबह छत पर गुनगुनी ‘धूप—छांव' में उन्होंने चाय पी। रितु भी उनके साथ थी, लेकिन पढ़ाई के दो—चार औपचारिक प्रश्नों के उत्तर देकर, ‘सॉरी आण्टी! मुझे जाना है...शाम को मिलती हूं।' कहती हुई जल्दी ही चली गई। सुखदेव तो ऊपर आया ही नहीं। सिर्फ इतना कहा, ‘‘नहीं जी! ये कि दो सहेलियों के बीच में मेरा क्या काम।'' दरअसल वह रात की घटना से शर्मिंदा भी हो रहा था, पर चोर की दाढ़ी में तिनके वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए बोला, ‘‘कल दोस्तों ने खुशी में थोड़ी पिला दी थी जी...वैसे नहीं जी
...ये कि कभी ‘होली—दीवाली' का ही शौक है जी।'' जाते—जाते कमीज की जेब से कुछ नोट निकालकर हिमानी को पकडा़ते हुए बोला, ‘‘इनकी खातिर में कमी न रखना मनी
...! ये कि पहली बार आई हैं, अपनी तो यही सालीजी हैं। तेरे मां—बाप और भाइयों ने तो नाता ही तोड़ लिया।''
द्वार तक जाकर वह फिर पलटकर काजल की ओर उन्मुख हुआ।
‘‘काजलजी! जरा इस ‘मनी' को आप ही कुछ समझाओ जी...ये कि मेरा ध्यान नहीं रखती...। हमेशा मुझसे नाराज रहती है। मैं हूं तो इसका घर वाला ही। इतना बड़ा घर है, बच्चे हैं और क्या चाहिए? किस्मत का ही खोट है जी, इसकी कोख हरी नहीं हुई...ये कि डॉक्टरों के पास जाती नहीं, पूछ लो जी...।''
कसे हुए चेहरे से हिमानी बीच में बोल पड़ी, ‘‘ अब जाओ, जहां जाना है। चौक पर दोस्त लोग इंतजार कर रहे होंगे।''
‘‘देखा जी! फिर गुस्से में बोली...।''
काजल ने मौका हाथ से नहीं जाने दिया। झट से बोली, ‘‘हूं...! देख रहीं हूं जीजाजी...यही गुस्सैल है। आप तो रात को भी कितना प्यार से बुला रहे थे।'' सुनकर झेंप गया सुखदेव।
‘‘आप तो मजाक कर रही हैं।'' कहता हुआ वह फटाफट सीढ़ियां उतर गया।
हिमानी को सहज करने की गरज से काजल ने कहा,‘‘आज तो सुबह—सुबह बहुत नोट दे गऐ जीजा जी!''
हिमानी ने उसी तुनक में जवाब दिया, ‘‘हुं! हजार—पांच—सौ की लॅाटरी लग गई होगी। तेरे सामने अपना पतिपना दिखा गया। बाद में महीनों तक इन्हीं पैसों के लिए मेरी जान खाएगा।''
तभी रसोई से रितु ने आवाज दी थी, ‘‘मौसी, चाय बन गई है। ले जाओ, मैं अभी आती हूं...।'' काजल ने फिर चुहल की थी, ‘‘चलो जी, मनी जी, छत पर चाय पीते हैं जी...।''
हिमानी से भी बिना मुस्कराए रहा नहीं गया।
छत पर पहुंचकर काजल ने पूछा, ‘‘वकील बाबू कौन हैं? रात को जीजाजी भी नाम ले रहे थे?''
‘‘हमारा किराएदार है, वकील है... वो इंसान अगर न होता तो मेरी दुर्दशा का तुम अंदाज़ा नहीं लगा पातीं।''
‘‘तेरा कुछ है क्या, उसके साथ?'' काजल सीधे प्रश्न कर रही थी।
हिमानी भी उतने ही सीधे—सटीक उत्तर देने को तत्पर थी।
‘‘ऐसा कुछ नहीं है। आड़े वक्त में उसने इस परिवार की हमेशा मदद की है। सुखदेव हमेशा उसे गालियां ही देता है...''
‘‘हो सकता है, वह तुझे चाहता हो...तभी गालियां सुन लेता है।''
‘‘पता नहीं, शायद उसकी आदत ही हो।''
‘‘क्या, गालियां सुनना?'' दोनाें खिलखिलाकर हंस पड़ी।
‘‘नहीं यार! ...दूसरों की हेल्प करना।''
‘‘तूने कभी महसूस नहीं किया?''
‘‘उंहूं...! शायद इज्जत करता है।''
‘‘इज्ज़त और प्यार, साथ—साथ नहीं हो सकते?''
‘‘हो सकते हैं या नहीं, मुझे नहीं मालूम, वह मुझसे छोटा भी है।''
‘‘कितना छोटा, शादीशुदा है?''
‘‘ओफ्! छोड़ ना यार! तू तो पीछे ही पड़ गई। मैंने कभी पूछा नहीं। भला मानस है, दो घड़ी हंसकर बात कर लेता है, बस...!''
किंतु काजल अपनी ही रौ में कहने लगी, ‘‘मनी, तूूने तलाक के बारे में क्यों नहीं सोचा। सुखदेव से पीछा छुड़ाकर दूसरी शादी कर सकती है...'
‘‘किससे... और यह इतना आसान है क्या?''
‘‘ऑफ कोर्स किसी आदमी से यार ...वकील बाबू से भी...।''
‘‘नए सिरे से रिश्तों में नहीं बंधना मुझे...सिर्फ अपना बच्चा चाहिए, जिसे यहीं सुखदेव की छाती पर रह कर पालना चाहती हूं।''
‘‘ऐसे माहौल में...! क्या बनाएगी उसे?''
‘‘कोई बनाने से नहीं बनता। नन्नू—रितु को क्या ऐसा ही बनाना चाहती थी मैं?''
हिमानी को अचानक कुछ याद आ गया, बोली।
‘‘अरे हां! कजरी की बच्ची! तूने चिठ्ठी में लिखा था कि मियां और बच्चों के साथ आएगी...वे भी ‘मनी' से मिलना चाहते हैं।''
‘‘कहां यार! सच तो यह है कि ‘टीनेजर' होते ही बच्चों की अपनी अलग दुनिया हो जाती है। और विवेक तो आते—आते सकुचाकर कहने लगा कि मैं कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहता।''
पल भर बाद शरारत से भरकर कहने लगी, ‘‘तेरे इरादे का तो मुझे पता भी नहीं था। अच्छा हुआ बाबा! विवेक साथ नहीं आया, वरना...मुझे तो सोचने का भी मौका नहीं मिलता और मैं हाथ मलती रह जाती।''
हिमानी ने हंसकर काजल की पीठ पर एक धौल जमाई, ‘‘बकवास मत कर, बहुत मारूंगी।''
तुरंत गंभीर हो गई हिमानी, बोली, ‘‘एक बात मन में आई...तुझसे बांट
ली... खूब अच्छी तरह सोच ले ‘विवेक' की भी मर्जी जान ले, क्या पता वह राजी ही न हो। यूं ही किसी के साथ, कोई कैसे तैयार हो जाएगा भला।''
‘‘सो रहने दे...! ज्यादातर मर्दों की एक—सी फितरत होती है। ‘दूसरी औरत' के नाम से ही मुंह में पानी आ जाता है ...और मजे की बात यह कि अपनी इच्छा भी औरत के हलक में डालकर उगलवाते हैं। तुझे बताऊं, कुछ दिन पहले एक ‘वीमेन—मैगजीन' में एक लेख पढ़ा था। स्त्री के पर—पुरुष गमन की इच्छा से संबंधित था। लेखक का कहना था कि ‘यदि स्त्री को गोपनीयता की गारंटी मिले तो वह भी दूसरे पुरुष की इच्छा रखती है। निचोड़ यह कि सामाजिक भय के कारण ही स्त्रियां एक पुरुष से गुजारा करती हैं, जबकि वे भी दूसरे पुरुष की चाह रखती हैं।' देखा! यहां भी अपना उल्लू सीधा करने के लिए ‘इनडायरेक्ट एप्रोच' का सहारा ले लिया। मजेदार बात यह कि उस पत्रिका का सम्पादक एक लड़की को रखैल बनाए हुए है, इसलिए पत्नी ने उसे छोड़ दिया है ...और स्टॅाफ की हर लड़की पर भी लाइन मारता है। लेखक भी इसी रुझान वाला है। ये बातें एक परिचित से मुझे मालूम हुर्इं, जो उस सम्पादक को काफी समय से जानता है।''
‘‘तूने बात को ‘जनरलाइज्ड' कर दिया... चल छोड़, कोई और बात कर। मुझे तो यही अच्छा लगा कि तू मुझसे नाराज नहीं हुई...मेरे लिए यही बहुत है।''
सारा दिन शहर घूम कर जब वे दोनों घर लौटीं तो बेहद थक गई थीं। वैसे घर से निकलते ही काजल ने पूरे दिन के लिए टैक्सी ले ली थी। दशहरे की छुट्टियां थीं, रामलीलाओं का मंचन शुरू हो गया था। छोटे—बड़े, हर बाजार में भीड़ थी। रात को खाने के समय तक अचानक नरेंद्र भी आ गया। उसने परिचय की औपचारिकता निभाई और खाना खाकर बाहर चला गया। काजल का वहां होना उसके लिए खास उत्साह—
वर्धक नहीं था, किंतु हिमानी को संतोष था कि वह सेठ की गाड़ी लेकर आया है और सुबह जाते हुए काजल को बस अड्डा पहुंचा देगा।
‘मृत्यु और दुःख—सुख, दोनों ही जीवन के सत्य हैं। एक अंतिम अवस्था है तो दूसरा जीवन पर्यन्त मनोवेग... मृत्यु की कोई अनुभूति नहीं... पर दुःख—सुख, अंधेरा और प्रकाश की भांति नित्य हैं, साथ—साथ हैं, आस—पास हैं।'
काजल के आगमन से हिमानी के दो दिन, स्वर्णिम आनंद के दिन बन गए थे। उन सुखद क्षणों का उन्माद वह देर तक महसूस करना चाहती थी, किंतु ऐसा हो न
सका। ‘ऐसा होता भी नहीं कि हमारी चाह के मुताबिक जीवन—जगत चले...! यह कैसे संभव है? ...क्योंकि हम सदैव अपने हित में सोचते हैं। जब सभी अपने हित में सोचेंगे तो अच्छा और सुखमय ही सोंचेगें तब अंधेरे का क्या होगा, दुःख किसके हिस्से में आएंगे?'
उधर रितु भी अपना ही पक्ष देख रही थी। ‘उसे अपना भविष्य संवारना है। किसी को उसके रंग—ढंग अच्छे नहीं लगते तो वह क्या करे? आबिद का साथ छोड़ दे! जो उसे, उसके सपनों की दुनिया में पहुंचाने की जी—तोड़ कोशिश कर रहा है। जितनी भी सफलता उसे मिली है, उसमें आबिद की अहम भूमिका है, लेकिन वह अपने घरवालों का क्या करे। उनसे कब तक बचती रहे, कितना झूठ बोले? कभी तो आमने—सामने उसे होना ही होगा।
सामना करने की हिम्मत बटोरनी ही होगी। मौसी, पापा, नरेंद्र, ताया—ताई... सबके हमलों को उसे झेलना ही पड़ेगा।' वह सोचती है।
अब हमेशा यही बेचैनी उसे काम में भी परेशान करती। कैमरे का सामना
करते हुए उसे लगाता है कि सामने फोटोग्राफर नहीं, पापा उसे घूर रहे हैं... ‘बेहया डूब मर...' मेकअपमैन, लाइटमैन वगैरह सभी उसे अपने परिवार के लोगों में तब्दील हुए लगते हैं। आरम्भ में छोटे—छोटे काम बहुत गोपनीय हुए। छोटे स्टूडियों के अंधेरे, छोटी रोशनी के घेरे और दो—चार लोगों के सामने उसने अपने को बेपर्दा किया है, किंतु
अब रोशनी के घेरे बढ़ रहे हैं...लोगों की अपेक्षाएं बढ़ रही हैं...अपेक्षाएं अधिक से
अधिक अनावृत्त होने की हैं। स्वस्थ—प्रचार के नजरिए से पारिवारिक विज्ञापनों की पेशकश उसे नहीं मिली थी।
आज भी सेक्स क्लीनिक की दवाइयों का विज्ञापन करने के लिए अनुबंध हुआ। वह कियोस्क, होर्डिंग और टीवी के लिए माडलिंग करने को राजी नहीं हुई। वह चाहती थी सिर्फ मैगजीन के लिए करे ताकि उसकी पहचान कुछ हद तक छिपी रहे और घरवालों को पता न चले। इस बात पर आबिद नाराज हो गया। उसे प्रोडक्शन मैनेजर से ताने सुनने पड़े थे।
‘‘यार, लड़की तो सुन्दर है, सेक्सी लुक भी है, लेकिन आबू भाई! थोड़ी बोल्डनेस भी चाहिए कि नहीं!''
‘‘जरा सोचो, सुहागरात में चेहरे से घूंघट नहीं हटेगा तो सेक्स ‘सैटिस्फेक्शन' की फीलिंग लोगों को कैसे दिखेगी...हाउ दे कनविंस...आबू भाई!''
यह सब सुनकर उसका माथा भन्ना गया था। सारा गुस्सा रितु पर उतार दिया। रास्ते में उसने कोई बात नहीं की, चुपचाप गाड़ी चलता रहा। रितु कनखियों से उसके गुस्से का अंदाजा लगाती रही, लेकिन उसे छुआ नहीं और न ही कुछ पूछ सकी।
रास्ते में एक और घटना हो गई। रितु के लिए तो दुर्घटना ही थी। सड़क पर साथ चलती कार की ओर उसकी यूं ही नजर उठ गई तो देखा नन्नू ड्राइव कर रहा था। पीछे की सीट पर सूट पहने चश्मा लगाए बैठा व्यक्ति शायद गाड़ी का मालिक था। कुछ देर गाड़ी साथ चलकर आगे हो गई। घबराहट में उसने आंखें मींच लीं, पर यह शुतुरमुर्ग वाली युक्ति भी काम नहीं आर्इं। उसने आंखें खोलीं तो देखा, रेड—लाइट' पर दोनों गाड़ियां आगे—पीछे रुक गई हैं और नन्नू बार—बार कभी आगे, कभी पीछे होकर उसे देखने का प्रयत्न कर रहा है। वह बिना हिले—डुले गर्दन झुकाए बुत बनी बैठी रही, जैसे उसे कुछ खबर ही नहीं है। जब चौराहे से नरेंद्र की गाड़ी दाएं घूम गई, तब कहीं उसने राहत की सांस ली, लेकिन घरवालों का भय बढ़ने लगा था। इस पोशाक में एक लड़के के साथ अकेली, गाड़ी में घूमती रितु...परिवार में विस्फोट के लिए काफी था। उसने फुसफुसाकर आबिद को बताया तो वह और खीझ गया। बोला, ‘‘तो क्या यहीं उतार दूं? अपना भेष नहीं बदलोगी?''
वह सहमकर खामोश हो गई। फ्लैट पर आकर वह आबिद से लिपट गई। आबिद ने धीरे से उसे अपने से अलग किया।
‘‘रहने दो! मैं अपसेट हूं।प्लीज, लीव मी।कपड़े बदलो, तुम्हें छोड़ आता हूं।''
बिस्तर पर गिर कर रितु सुबकने लगी और आबिद सिगरेट सुलगाकर ‘इजीचेयर' पर पसर गया। धुएं के गुब्बारे छत की ओर उड़ने लगे। अचानक आबिद ने बोलना शुरू कर दिया, ‘‘तुम जैसी लड़कियों के साथ यही दिक्कत है।''
रितु ने तुरंत पूछा, ‘‘क्या मतलब! मेरे जैसी लड़की!''
‘‘आई मीन, ‘लोअर मिडिल—क्लास फेमिली' की बात कर रहा हूं...ख्वाव आसमान में उड़ने के...और नजर हमेशा जमीन पर...हमेशा इज्जत—आबरू की
चिंता...वर्जिनिटी' का लॉकअप।''
रितु बिस्तर पर बैठी अपलक उसे देख रही थी।
‘‘हाऊ डेअर यू आर? धीरे—धीरे सब कुछ तो तुमने ले लिया। तुम्हारे लिए कहां और कब ताला लगाया है मैंने?''
‘‘तो क्या! साथ रहेंगे तो यह सब होगा ही। मैं तुम्हारे लिए कुछ कर रहा हूं और तुमने भी मेरे लिए कुछ किया...इट्स ‘डील' यार! लेकिन अपने कैरियर का भी सोचो। मैं सिर्फ चांस दिलवा सकता हूं, लेकिन काम तो तुम्हें ही करना पड़ेगा।''
कहते—कहते आबिद उठकर उसके पास आ गया, ‘‘हर पेशे में ऊंच—नीच होती है रितु! एक बार उतरी हो इस फील्ड में पूरी लगन से सब कुछ भूलकर काम करो।''
‘‘तुम्ही बताओ न! क्या करूं, कैसे करूं?'' कहकर उसने उसे प्यार से छुआ।
अब आबिद भी कुछ सहज लग रहा था। वह बोला, ‘‘यह चतुराई भरा खेल है
बैलेंसिंग का। यहां सब दिखे भी और कुछ छुपे भी। एक बार पूरे कपड़े उतारकर सबके सामने खड़े हो जाओ...और फिर पहन लो गले तक! ...तभी तुम सेक्सी और बोल्ड कहलाओगी और ग्रेसफुल भी...शोहरत और दौलत दोनों मिलेंगे। हां! इसके लिए तुम्हारे कांट्ेक्ट्स और किस्मत दोनों का होना भी जरूरी है। कांटेक्ट्स बनाना तुम्हारे हाथ में है
...और किस्मत लिखना ऊपर वाले के हाथ।''
वह उठा, अलमारी से ग्लास और व्हिस्की की बोतल निकालकर पैग बनाने लगा। रितु चुपचाप बैठी उसे देख रही थी। आबिद ने उसकी ओर देखकर पूछा, ‘‘तुम क्या लोगी, कोल्ड डिं्रक या काफी''?
‘‘नहीं! मेरे लिए भी एक लार्ज विद सोडा।''
‘‘ दैट्स बेटर! लेकिन आज तुम्हें भाई ने मेरे साथ देख लिया है। जल्दी नहीं जाओगी?''
‘‘नहीं आबू...! फैसला लेने का यही वक्त है। यह सफर बीच में नहीं छोडूंगी
...मुझे पार उतरना है...मुझे शोहरत और दौलत दोनों चाहिए।'' थोडी़ चुप्पी के बाद आगे कहा, ‘‘देर से ही घर जाऊंगी...तब तक नशा उतर जाएगा...और मैं फैसला ले चुकी हूं।'' उसने ग्लास हाथ में लेते हुए कहा।
‘‘आज मुझे इसकी जरूरत है।''
‘‘और हमारी नहीं?'' आबिद ने शरारत से कहा।
‘‘ऑफ कोर्स! यू टू!! ...तुम्हें अब छोड़ने वाली नहीं हूं। यू आर माई पार्टनर डार्लिंग।'' और आगे बढ़कर उसने आबिद को चूम लिया। बीच में ही आबिद ने टोका, ‘‘ए! ए! ...जस्ट वेट...! वेट...! रुको! ...और ध्यान से सुनो, मैं तुमसे शादी—वादी नहीं कर सकता। तुम जानती हो...पहले ही बताया था मैंने नो वादा! ओके! ...यह हमारी ‘प्योरली कामर्शियल डील' है ...ऑन बिहॉफ ऑफ गुड फ्रैंड्शिप! इट इज क्लीयर
नाउ...।'' एक लंबा सिप लेकर उसने आगे कहा, ‘‘अब तक आधा दर्जन लड़कियों को प्रमोट कर चुका हूं यार! इसका मतलब सबसे शादी तो नहीं कर सकता न...! वैसे भी इट्स नॉट फेयर।''
उसी अंदाज़ में रितु ने जवाब दिया, ‘‘जानती हूं! जानती हूं! यू आर ए...चीटर! ‘चीटर—मर्चेंट'...।'' कहते हुए उसने आबिद को अपनी बाहों में जकड़ लिया।
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