फिर भी शेष
राज कमल
(14)
हिमानी ने नन्नू की बात को गंभीरता से नहीं लिया। सोचा, ‘दोनों भाई—बहनों में तना—तनी रहती है; शायद इसीलिए उसके खिलाफ भड़का रहा है, लेकिन फिलहाल तो इनमें कोई नोंक—झोंक भी नहीं हुई और नन्नू तो हफ्ताें बाद घर में शक्ल दिखाता है। बिना कारण तो ऐसी बात कहेगा नहीं।
‘‘हो सकता है कि तुझे कोई धोखा हुआ हो।'' उसने नन्नू को ही समझाया।
‘‘मान लिया वही थी हूबहू...! लेकिन कपड़े कैसे बदल सकते हैं। वह तो उन्हीं कपड़ों में लौटी थी।''
‘‘जो भी घुण्डी हो...पर मौसी थी अपनी रितु ही...तू तो हमेशा ही उसकी तरफदारी करती है। कुछ हो गया तो? तू ही भुगतना...मैने तुझे बता दिया, बस!''
‘‘हां! हां! मैं ही हर बात के लिए जिम्मेदार हूं...बाप तो बाप, अब बेटा भी यही कहने लगा। सब खड़े होकर तमाशा देखो और भुगतूं मैं! मुझसे ज्यादा तेरी, और तेरे बाप की जिम्मेदारी है, समझा! अब बिना किसी सबूत के क्या कहूं उसे...?''
‘‘सबूत मिल जाएगा एक दिन...ऐसा ज्यादा दिन नहीं छुपता, दुनिया देखती है।''
फिर भी हिमानी ने शांति से काम लिया। एकाएक भड़कने से कोई फायदा नहीं था। अब वह ज्यादा सतर्क हो गई थी। उधर रितु आश्चर्य में थी कि कोई हंगामा नहीं हुआ। किसी ने कुछ नहीं कहा। इसका मतलब नन्नू उसे पहचान नहीं पाया होगा। ड्रेस भी तो ऐसी थी कि कोई कल्पना ही न कर सके कि यह रितु हो सकती है। लेकिन रितु ने फैसला कर लिया था। उसने स्थिति से निपटने की रणनीति तैयार कर ली थी।
एक दिन हिमानी ने उसे रोज देर से लौटने के बारे में टोका और जानना चाहा तो रितु ने साफ—साफ कह दिया, ‘‘मैने पढ़ाई छोड़ दी है...।''
सुखदेव भी संयोग से घर पर ही था। दोनों बिजली का—सा करंट खाकर अवाक् रह गए।
‘‘पर तू तो रोज कॉलेज के नाम पर जाती है... छुट्टियों में भी कहती थी, ‘ट्यूटोरियल में जाना है।''
‘‘नौकरी ढूंढ़ रही थी, अब मिल गई है। अभी कुछ महीने ट्रेनिंग है...उसके बाद तनख्वाह मिलेगी।''
‘‘कितनी पगार मिलेगी?'' सुखदेव ने चट से पूूछा। उसकी आंखों की चमक बढ़ गई थी।
‘‘तीन हजार।''
‘‘कहां मिली है नौकरी... अभी तो तेरा ग्रेजुएशन भी नहीं हुआ...कौन—सी कम्पनी है... और काम क्या करना होगा।'' हिमानी ने पड़ताल करनी चाही।
‘‘एक ‘ऐड एजेंसी' है, ‘कोऑर्डिनेटर' का काम है, लेकिन टाइम की पाबंदी नहीं है।''
‘‘तूने घर में बात तक नहीं की! ऐसी मनमानी पर उतर आई है। पढ़ाई छोड़ दी, नौकरी कर ली। मौसी तो खैर पराई है, पर अपने बाप को तो बता देती। दिन रात मेरी जान के पीछे पड़ा रहता है कि बेटी की परवाह नहीं है, इसी ने बिगाड़ा है उसे। पढ़ाई पूरी कर लेती तो...''
रितु जैसे हर प्रश्न के लिए तैयार थी, ‘‘पढ़ाई पूरी करके भी तो नौकरी करनी थी। पहले ही मिल गई। जब मैं काम कर सकती हूं तो क्यों न करूं? घर में भी तो हमेशा पैसो का रोना रहता है और मौसी, तुम्हें भी थोड़ा आराम मिलेगा।''
‘‘वाह बेटी! ...देखा! कितनी समझदार हो गई मेरी रितु।'' सुखदेव जाते—जाते बोला।
‘‘देख ले! तेरी भी कितनी फिकर है उसे! ठीक है बेटी। ...तूने जो किया, अच्छा किया। मैं तो बहुत खुश हूं, ये कि मेरे दोनों बच्चे किसी लायक हो गए।''
वह सीढ़ियां उतरने लगा, पर एकाएक कुछ याद आने पर लौट आया। हिमानी से बोला, ‘तेरी सहेली के सामने मैंने बहुत से रुपये दिए थे तुझे, याद है न! कुछ बचे होंगे, दे दे! कई दिनों से नम्बर नहीं लगा।'
गुस्से में झिड़क दिया हिमानी ने, ‘‘खर्च हो गए। बड़े रुपये दिए थे...एक बार
देकर क्या पट्टा लिखवा लिया हमेशा के लिए... अब बेटी से मांगना, नौकरी वाली
हो गई। अब लाटरी खेलो और खूब शराब पिओ...''
‘‘देख ले बेटा रितु! ताने दे रही है मुझे। हां, जलती है साली! ये कि इसकी किस्मत में तो रोना ही लिखा है! मैं तो ऐसे जिऊंगा ठाठ से...''
सिर झटककर वह बड़बड़ाता हुआ बाहर निकल गया।
रितु अपनी रणनीति में कामयाब रही। अब उसे झूठ नहीं बोलना पड़ेगा और काम पर ज्यादा ध्यान दे सकेगी। उधर हिमानी भी कुछ आश्वस्त तो हुई, पर अधिक समय तक नहीं रह सकी। रितु का काम करना उसकी पहचान बन रहा था। फिर भी लाख कोशिशों के बाबजूद उसे, पेंटीज—ब्रा, सेक्सवर्धक गोलियां या कामुक पत्रिकाओं के आवरण जैसे काम ही मिल रहे थे। उसे लेकर उसके परिचित समाज में सनसनी फैल रही थी।
उन दिनों देश में भी एक सनसनी थी। आरक्षण नीति पर मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू कर प्रधानमंत्री ने बर्र के छत्ते को छेड़ दिया था। दरअसल वह ‘एक तीर से दो शिकार' करना चाहते थे। अपनी सरकार, जिस पर वह रक्षा—सौदे में भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा देकर काबिज हुए थे; की नींव पुख्ता करना और दूसरा पिछड़ों का मसीहा बनना। वैसे ‘मंडल—कमिशन' नाम का यह ‘तुरुप का इक्का' वर्षों से सरकार के पास था, किंतु इसका प्रयोग करने की हिम्मत पिछले मुखिया नहीं जुटा पाए थे, लेकिन बहुत से लोग इसे सर्वहारा के हित में एक ऐतिहासिक कदम मान रहे थे तो बहुत से कोरी राजनीति कहकर इसे समाज में बढ़ने वाली नफरत के लिए जिम्मेदार मान रहे थे। दोनों विचारधाराओं के लोग अपनी—अपनी राय को सही साबित करने के लिए सक्रिय हो गए। पहले कमिशन के विरोध में छात्र और गुंडातत्व सड़कों पर उतरे तो धरना—प्रदर्शन, तोड़—फोड़, आगजनी और लूट—पाट शुरू हो गई। उधर समर्थन करने वाला वर्ग भी सड़कों पर उतरा। जब आमने—सामने हुए तो खून—खराबा भी हुआ, पुलिस फायरिंग हुई, कर्फ्यू लगा। देश के कई शहरों में हालात बिगड़ गए। अंततः सरकार पर दबाव पड़ा। प्रधानमंत्री को इस्तीफा देकर संसद भंग करना पड़ी और चुनाव घोषित हो गए।
सेठ रामनारायण को देश में उठा बवंडर बहुत रास आया। बरसों से ख्वाब देखा था कि वे जनता के प्रतिनिधि बनें। जो कानून—तंत्र अभी उनके आचार—विचार और ‘बिजनेस' में बाधा बनता है; उसे अपने मातहत बना लें। इसी आस में वह अपनी पार्टी से बराबर जुड़े रहे। बहुत छोटे स्तर के कार्यकर्ता थे, पर तिजोरी बड़ी थी और पांव छूने का गुण भी था। उसने प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष तक पहुंच बना ली जो अब ‘इलेक्शन कोर कमेटी' के भी सदस्य मनोनीत हो चुके थे। बस! उनके पांव नहीं छोड़े, जब तक सिर पर हाथ नहीं रख दिया। वचन दे दिया, वचन ले लिया। काम हो गया। उम्मीदवारों की पहली ही सूची में आर.एन. सेठ का नाम घोषित हो गया। इस सबसे नरेंद्र की व्यस्तता तो बढ़ी ही; साथ ही रुतबा भी बढ़ गया। वह सेठ का विश्वासपात्र तथा उनकी ऊंच—नीच का राजदार होने के नाते उसे चुनाव में भी अहम भूमिका निभानी थी। सेठ का ड्राइवर जो ठहरा, घरवालों से ज्यादा उसका साथ था। उसका अपना घर पहले से और अधिक दूर और पराया हो चला था। घर में तो हर जंग के मुहाने पर हिमानी को ही लोहा लेना था और वह डटी हुई थी।
लोग आखिर कब तक सब्र करते... धुंआ दिखे और उसे हवा न दें, यह कैसे संभव है। कुछ लोग सचमुच परिवार और रितु के हमदर्द थे। जो बताना चाहते थे, उसकी मां को, बाप को या खुद जानना चाहते थे कि क्या इस सब में उनकी भी रजामंदी है?'
उन्मेष अपरिचित था हिमानी के लिए। जब उसने यह बताया कि रितु उसके साथ पढ़ती है, वह उसका क्लासमेट है; तो हिमानी एकदम चौकन्नी हो गई थी। पहले तो सोचा कि कहीं यह वही लड़का तो नहीं, जिसके साथ कभी—कभी घूमने की चर्चा नन्नू कर रहा था ...हिम्मत तो देखो, घर तक चला आया। अपनी तरफ से उसने पूरी तैयारी कर ली कि आज इसकी तो ऐसी खबर लेगी कि रितु का नाम भी लेना भूल जाएगा, किंतु उन्मेष ने बड़ी सहजता से रितु के बारे में बताया कि वह छः महीने से कॅालेज नहीं जा रही... उसका नाम कट चुका है।
‘‘छः महीने क्यों उसने तो अभी महीने भर पहले ही कालेज छोड़कर नौकरी कर ली है। पढ़ाई के बाद भी नौकरी करती, उसे पहले ही अच्छा चांस मिल गया, कॉलेज तो प्राइवेट भी कर लेगी।'' हिमानी ने रितु का पक्ष बहुत सरल और साफ करके बताया था।
उन्मेष समझ गया था कि रितु ने घर वालों को अंधेरे में रखा है। तब उसने स्पष्ट किया, ‘‘आण्टी जी, उसने आपसे झूठ बोला है...वह पिछले कई महीने से कॉलेज नहीं जा रही और उसने कोई नौकरी नहीं की। वह तो मॉडलिंग कर रही है...यह
देखिए...'' कहते हुए उसने कई कटिंग हिमानी के सामने रख दीं, जिनमें रितु के शरीर के कई अनावृत्त उभार थे। आंखें फाड़—फाड़ कर देखती हुई हिमानी अपने को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही थी कि यह रितु नहीं हो सकती, पर वह अपने को बहला नहीं सकी। उधर उन्मेष कह रहा था, ‘‘कैम्पस—ब्यूटी के लिए हमारे कॉलेज से वह चुनी गई थी। बस, तभी एक फोटोग्राफर से उसकी जान—पहचान हो गई। ‘कैम्पस—ब्यूटी' तो वह बन नहीं सकी, फोटोग्राफर ने उसे मॉडलिंग के लिए राजी कर लिया...हम लोगों ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, पर वह नहीं मानी। कहती थी, ‘मुझे नाम कमाना है, सेलिब्रिटी बनना है। घर में जो ‘मनी' क्राइसिस है उसे दूर करना है...बट आण्टी! यह लाइन अच्छी नहीं है...''
इतने बड़े सदमे को झेलते हुए भी उसने कुछ अलग—सा प्रश्न कर दिया उन्मेष से, ‘‘बेटा, तुमने बड़ा उपकार किया यह सब बताकर, लेकिन देर कर दी... फिर भी, मैं यह जानना चाहती हूं कि तुम उसके लिए इतना चिंतित क्यों हो?''
‘‘मुझे लगा, आपको पता होना चाहिए बस! फर्ज समझा अपना...''
‘‘केवल फर्ज?'' हिमानी ने नजर उसके चेहरे पर गड़ा दी।
‘‘मैं, मतलब नहीं समझा...।''
‘‘क्लास में तमाम लड़के—लड़कियां होंगे, लेकिन तकलीफ तुमने महसूस की और घर तक बताने आ गए। तुम रितु को पसंद करते थे शायद, इसीलिए...?''
कुछ पल सोच कर उन्मेष ने कहा, ‘‘हां, अच्छी लगती थी...और जो आपको
अच्छा लगता है, उसका तो आप भला ही चाहेंगे न! भले ही आप उसे अच्छे न लगते हों...इट्स ऑल ‘वन—वे' आण्टी! नथिंग सीरियस! मेरा मतलब...ऐसा कुछ नहीं है, अगर आपको बुरा लगा हो तो सॉरी।''
उन्मेष चला गया था। हिमानी फिर एक नए मोर्चे पर खड़ी थी। वह युद्ध के बीच घिरी है। जिंदगी उसके साथ गुरिल्ला—युद्ध लड़ रही है घात लगाकर, जहां—तहां, कहीं भी दबोच लेती है। फिर भी बार—बार बच जाती है। न जाने क्या है कि फिर नई शक्ति, नई ऊर्जा, नए उत्साह से नए मोर्चे पर डट जाती है। उसने ठान लिया है...हारेगी नहीं...झुकेगी नहीं, जिजीविषा को मिटने नहीं देगीं। तभी वह शेष रहेगी।
‘इस नई परिस्थिति से कैसे निबटा जाए?' रसोई में काम करते हुए इसी पर विचार कर रही थी कि रामानुज की बीवी आ गई। इधर—उधर की एक—दो बातें करने के बाद असल मुदद्े पर आ गई, ‘‘सुना है भैनजी! रितु नौकरी करने लगी... बधाई हो जी...दोनों बच्चों की नौकरी लग गई। अब तो आप राज करो।''
‘‘जी, कृपा है ईश्वर की...बैठो, चाय बनाती हूं।'' औपचरिकता निभाई हिमानी ने।
‘‘बैठने की कहां फुरसत है...वह तो रघु ने बताया कि रितु दीदी की तस्वीर छपी है। हाय राम! मुझे तो देखते ही लाज आ गई। मालूम नहीं कौन—सी किताब से फाड़ लाया बेशर्म!...कह रहा था रितु दीदी ‘मॉडल' बन गई हैं। मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ भैनजी! सोचा, पूछ ही आऊं यह ‘मॉडल' क्या होता है! आप तो पढ़ी—लिखी हो!''
हिमानी अपने पढ़ी—लिखी होने का प्रमाण नहीं दे सकी। रामानुज की बीवी जाते—जाते बोली, ‘‘बुरा मत मानना भैनजी। रघु के पापा कह रहे थे...कि अच्छे घर की लड़कियाें के लिए यह काम अच्छा नहीं है।''
हिमानी अंदर से सुलगती रही, पर कोई जवाब नहीं दिया। देना ही नहीं चाहती थी। पड़ोसन हमदर्दी दिखाकर चली गई तो हिमानी अपने में लौटी। उसे कुछ नहीं सूझा तो आदित्य से बात करने नीचे उतर गई। आदित्य अपने ॲाफिस में नहीं था। उसका सहायक विनोद फाइलों में उलझा हुआ था। वह लौट आई और विचारों में खोई—खोई काम निबटाती रही। गहन सोच—विचार के बाद उसने एक बात तय की कि वह रितु के साथ कोई हंगामा नहीं करेगी। धीरज से उसकी बात सुनेगी और अपनी कहेगी।
रात को रितु देर से लौटी। फिर भी हिमानी उससे बात करने की कोशिश करती रही। उसके घर में आने से लेकर हाथ—मुंह धोने, कपड़े बदलने तक आस—पास रही और पूछती रही, ‘रितु, तू माडलिंग करने लगी है? तूने तो कहा था...बेटा! झूठ क्यों बोला
तूने? मालूम है, सब तेरी तस्वीरें देखकर न जाने क्या—क्या कह रहे हैं। गली में निकलना हमारे लिए दूभर हो गया है... यह सब क्या किया तूने? क्यों किया?'
रितु कुछ नहीं बोली। कपड़े बदलकर सोने के लिए बिस्तर पर चली गई। हिमानी ने पूछा, ‘‘क्या खाना भी नहीं खाएगी...कुछ तो बोल! क्यों मेरी जान लेने पर तुली है।''
करवट लेकर रितु ने इतना ही कहा, ‘‘खाना खाकर आई हूं मौसी! ...और तुम परेशान मत हो...नींद आ रही है...सुबह बात करूंगी।'' इतना सुनकर ही सहज हो आई हिमानी। कुछ हल्की हो गई।
‘‘ठीक है! सो जा...थक गई होगी।'' कहकर उसने झुककर रितु को चूमा और झटके के साथ बौराई हुई—सी लौट आई। वह शराब की गंध अपने नथुनों में अभी भी महसूस कर रही थी, ‘हे ईश्वर, रक्षा करना, न जाने क्या अनिष्ट होने वाला है।'
दूसरे दिन रितु ने सिर्फ इतनी ही बात कही कि इमरजेंसी में मॉडल नहीं मिलने पर उसने थोड़ा—सा काम कर दिया। जिस माडल से कांट्रेक्ट हुआ था, वह बीमार थी। बस! इतनी—सी बात थी। अगर न करती तो एजेंसी का कई लाख का नुकसान हो जाता।'
‘‘पर बेटी, लोग इस काम को नीची नजर से देखते हैं। हम किस—किसको सफाई देंगे...और रात को तूने शराब पी हुई थी...यह कौन—सा नया चलन...बता...?''
‘‘शराब नहीं मौसी, ‘जिन' थी। मेरा काम अच्छा रहा, इसलिए छोटी पार्टी थी ऑफिस में। वहीं सब लड़कियाें ने ‘जिन' ली तो मुझे भी ‘फार कम्पनी सेक'... नहीं लेती तो उन्हें बुरा लगता ...आखिर मेरी खुशी के लिए ही तो पार्टी थी...'' हिमानी कुछ देर सोचकर फिर बोली।
‘‘रितु, अब जो हो गया...सो, हो गया, लेकिन प्लीज! भगवान के लिए आगे ऐसा मत करना। अभी तो तेरे पापा और नन्नू को खबर नहीं लगी, वरना...! लेकिन कब तक छुपेगी। एक दिन तो जान ही लेंगे, तब क्या होगा...? नन्नू को तो पहले ही शक है। एक लड़के के साथ गाड़ी में तुझे देखा था, बहुत गुस्से में था। मैं ही खामोश रही। सोचा, धीरज से ही काम लूं तो अच्छा है, बेकार में बावेला मचा तो लड़की बदनाम होगी।'' कहकर हिमानी रितु का मुंह देखने लगी। रितु ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मौसी, एक बात मेरी समझ नहीं आती...बदनामी का डर आखिर लड़की के हिस्से में ही क्यों आता है? बोलो तो...लड़के इससे ऊपर हैं क्या? ...अपने नन्नू ने क्या—क्या नहीं किया...बोलो।'
‘‘समाज का कायदा ही ऐसा बना हुआ है...कोई क्या करे?''
‘‘कोई करने की हिम्मत करेगा, तभी तो कुछ होगा। तुम्हीं बताओ, ऐसे में एक मां अपनी बेटी का साथ नहीं देगी तो उस बेटी को तो हार माननी ही पड़ेगी...बोलो, और अगर मां के साथ कुछ अन्याय हुआ था तो वह उसका बदला अपनी बेटी से लेगी क्या?''
‘‘चुप कर! क्या आंय—बांय बोलती है...।'' थोड़ी खामोशी के बाद उसने कहा, ‘‘तू मेरी बेटी नहीं है, इसलिए मेरा जीना—मरना मुश्किल है। सब यही कहेंगें और कहते हैं कि लड़की को बिगाड़ दिया...''
‘‘बिगड़ना—संवरना कुछ नहीं मौसी! मैं अलग हटकर कुछ करना चाहती हूं, शहर की चंद लड़कियों में शुमार होना चाहती हूं...दैट्स इट... सिर्फ यही...यही हजम नहीं हो रहा लोगों से, पर मुझे परवाह नहीं...देखती हूं, कौन रोकेगा मुझे।''
वाक्य खत्म होते ही रितु के गाल पर थप्पड़ पड़ा। इसके बाद कुछ पल सन्नाटा रहा। हिमानी जैसे होश में लौटी हो।
‘‘क्यों गुस्सा दिलाती है? क्या जरूरी है ऐसा करना और बोलना। प्लीज! रितु मेरी खातिर...अपनी मौसी की खातिर ऐसा कोई काम मत कर। मुझे थोड़ा चैन से जी लेने दे मेरी बच्ची! ...क्यों अपनी और मेरी मुश्किलें बढ़ाने पर तुली है।'' उसने रितु को गले लगा लिया और सिसकने लगी।
लेकिन रितु स्थिर थी, शरीर से, दृष्टि से, और सोच से। उसने दृढ़ता से कहा, ‘‘तुम्हारे लिए मैं अपना भविष्य नहीं बिगाड़ सकती। आज इमोशनल होकर, सारी उम्र पछताना नहीं चाहती... मुझे महान नहीं, कामयाब होना है।''
हिमानी के आंसू जहां के तहां रुक गए। हिचकियां थम गर्इं। मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। रितु से विलग होकर निःस्पृह भाव से वह घर के काम में लग गई। उसने सोच लिया, ‘अब रितु का जो भी होगा, सुखदेव के हाथों ही होगा। नन्नू और ताया—ताई ही निपटेंगे इससे। जब वह रत्ती भर मेरी बात मानने को तैयार नहीं और उल्टा—सीधा जो मुंह में आया, बक देती है...यह भी नहीं सोचती कि सामने वाले पर क्या गुजरेगी...वह तेरा कुछ लगता भी है ...तब मैं कहां तक बचाव करूं ऐसी लड़की का...कुएं में गिरती है तो गिरे... कह दूंगी सुखदेव से...मेरे वश में नहीं अब...जो करना है, खुद करे।'
हिमानी को कुछ कहना नहीं पड़ा। उस दिन सुखदेव को सब मालूम हो गया। बहुत बुरा दिन था सुखदेव के लिए। चौक पर यारों ने उसे घेर लिया। पान वाला गोरख, मोटर मैकेनिक करीम, चाय वाला सुमेर सिंह, लॉटरी वाला जुनेजा और राजमिस्त्री राजाराम सब उसे बधाई देने लगे। वह अकबका गया, ‘यह क्या मजाक है।' दिमाग में तभी बल्ब—सा जला ‘लगता है आज कोई नम्बर लगा है। हे ईश्वर! पचास हजार से कम का न हो। ऊपर चाहे जितना मर्जी दे दे।' उसने सीधा जुनेजा की ओर रुख किया, ‘‘क्यों ‘जेजे', किस स्टेट की लगी है— महालक्ष्मी, कुबेर, असम, यू.पी. या सुपर बम्पर... बता न यार! ये कि बस तू ही खेवनहार है अपना तो।''
‘‘कैसा बम्पर लाला! ...सुवेरे—सुवेरे ख्बाव देखा है या लालपरी गटक ली। पचास रुपए का भी नम्बर नहीं लगा।''
सुनकर बौखला गया सुखदेव। ‘‘फिर ये ‘भैनके' क्यों... किस बात की बधाई दे रहे है? ...और तू भी इनके साथ चहक रहा था।''
सब लोग इधर—उधर मुंह फेर कर मुस्कराए। बंसीधर ने भी चाट पर मसाला डालते हुए कहा, ‘‘लाला, चाट बनाऊं क्या?''
‘‘ओ पहले चाय तो पीले... ‘लुगाई का यार'! तेवर तो ऐसे दिखा रहा है जैसे कुछ जानता ही नहीं।'' कहकर सुमेर ने चाय छानते हुए आग में घी डाल दिया।
‘‘तू ज्यादा बंसी मत बजा...नहीं पीनी तेरी चाय। पहले बताओ क्यों सवेरे—सवेरे मेरे मत्थे लग रहे हो सब के सब...।''
‘‘खांमखां पारा मत चढ़ाया कर सुक्खी... हम तेरे दोस्त हैं! हमदर्द हैं! कोई तो बात होगी, तभी मुबारकबाद दे रहे हैं।'' कहते हुए गोरख ने पत्ते पर चूना रगड़ा।
ऐसे में ग्राहक भी तटस्थ बने ‘बतरस' का आनंद लिया, जबकि बात की अगाड़ी—पिछड़ी से उन्हें कोई मतलब नहीं था। पटरी से गुजरने वाले भी कभी—कभी एक दो कदम रुकते और हैरत से देखते गुजर जाते। मान लेते कि हंसी—ठट्ठा चल रहा है।
करीम ने सुखदेव के पास आकर धीरे से पूछा, ‘‘तुझे सचमुच पता नहीं कि तेरी बिटिया हीरोइन बनने वाली है?''
‘‘मियां! तू बकवास मत कर, साफ—साफ बता।'' सुखदेव गुर्राया।
‘‘भाई, हमें तो गोरख ने बताया...छपा हुआ भी दिखाया उसने..तू भी देख ले...
खुदा कसम! मैं क्यों झूठ बोलूंगा।'' सुनकर सुखदेव सीधा गोरख की ओर लपका।
‘‘तो सारी करतूत तेरी है चौबे...'' संयोग से कोई ग्राहक नहीं था और गोरख इस हमले के लिए पहले से तैयार था। उसने झट से सस्ते काग़ज़ पर छपी किसी मैगजीन का पन्ना उसके सामने रख दिया, जिसमें किसी कम्पनी के ‘ब्रा' को प्रदर्शित करते हुए रितु की तस्वीर थी। एक बार, दो बार...लगातार कुछ मिनट देखने पर भी यकीन नहीं कर पा रहा था सुखदेव कि यह उसकी रितु ही है। मन में विश्वास जमा नहीं पाया। सोचने लगा, ‘सूरत तो मिलती है...पर सूरत कई लोगों की मिल जाया करती है। हू—ब—हू लग रही है पर यह रितु नहीं है।' अपने मन के विश्वास को नकारने की कोशिश में वह दोस्तों से ही उलझ गया।
‘‘शर्म नहीं आती मां के जनो! इज्जत उछालते हो! तुम्हारे घर में बेटियां नहीं हैं...ये कि रितु तुम्हारी बेटी जैसी नहीं है? बकवास करते हैं...कमीने...साले!'' उन्हें गरियाते हुए उसने कागज को नफरत और गुस्से में फाड़कर फेंक दिया। इस बीच बंसी, जुनेजा, करीम और सुमेर भी उसके आस—पास आ जुटे थे।
‘‘हम जानते हैं कि वह नौकरी कर रही है, फिर भी मामले की तह तक जाकर पता करो सुक्खी! कल को शादी—ब्याह करना है ...मै तो कहता हूं, भला हो यह किसी और की ही तस्वीर हो, अपनी रितु ऐसी नहीं है।'' सुमेर ने कहा।
‘‘अगर रुपयों की बरसात हो तो काम ऐसा बुरा भी नहीं है। सुक्खी के दिन भी फिर जाएंगे और भौजी को भी वैद्यजी के यहां चक्कर नहीं काटने पडे़ंगे...'' गोरख की इस बात पर सुखदेव ने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा। बेशर्मी से गोरख ने इतना और जोड़ दिया, ‘‘लो तुम्हीं कहो, मैंने क्या झूठ बोला? लाला! गांठ में पैसा हो तो सब ऐब छुप जाते हैं।''
‘‘तू बड़ा मुहंजोर है चौबे! लेकिन मेरे भाई...घर की इज्ज़त—आबरू भी होती है कि नहीं...?'' बंसीधर ने गोरख को समझाने के अंदाज में कहा।
‘‘बिल्कुल ठीक कहा बंसी! इस चौबे का क्या कहना...गांव में बाल—बच्चों को छोड़कर यहां पान के पत्तों पर नोट छाप रहा है...और उधर भौजाई अटारी पर पेटीकोट सुखा रही है।'' सुमेर सिंह की छेड़ पर यारों ने एक जोरदार ठहाका लगाया, इस पर गोरख ने बिफर कर सुमेर पर कत्थे की छींट मारी। सुमेर जोर से चिल्लाया, ‘‘अबे! चौबे! यह क्या किया...देख, सारी बनी—बनाई चाय खराब कर दी। दूध में गिरता तो सारा फट जाता...मुंह से बात कर, हाथ—पांव क्यों चलाता है...अरे! मजाक करते हो तो मजाक सहने का गुर्दा भी रखो...यह क्या बात हुई...''
इस बकझक का यारों ने खूब मजा लिया। एक ने उकसाया, दूसरे ने समझाया और दुनियादारी भी निभ गई। उधर सुखदेव बौखला गया। इतना नाकारा, इतना बेइज्जत होना उसे पहले कभी नहीं खला। यार—दोस्त रोज ही उस पर हंसते थे। वह उनकी हंसी पर खुद हंस देता था। आज उसे कचोट हो रही थी ‘कि वह कितना निराधम है। आदमी का जन्म लेकर भी आदमी नहीं है...कीड़ा है। घर—बाहर सब उस पर थूकते हैं
...भाई—भाभी, बीवी—बच्चे। ऐसा दयनीय जीवन कोई नहीं चाहता, पर ऐसा कैसे हो गया? अब कुछ नहीं हो सकता... इससे तो मुक्ति अच्छी है...भाड़ में जाओ सब...जो जी में आए सो करे, मैं कौन—सा देखूंगा तब...'
सोचते—सोचते इसी झोंक में वह एक आटो रिक्शा से टकरा गया, पर खैर हुई, चोट नहीं लगी। आटो रिक्शा वाला उसे गरियाता हुआ आगे बढ़ गया। दिमाग में बौखलाहट...पैरों में लड़खड़ाहट, गिरते—गिरते किसी ने संभाल लिया। अजनबी को उसने कई बार धन्यवाद दिया। उसके बच्चों को आशीष दी और चल पड़ा।
‘अपनों से तो यह गैर अच्छे हैं...' उसने सोचा।
आज उसका पूरा दिन खराब गुजरा था। सुबह चौक पर जलील हुआ। कोई नम्बर नहीं लगा। राजाराम मिस्त्री किसी ‘पार्टी' के पास लेकर गया, वह मिली नहीं। वहां से लौट रहा था तो अचानक वैद्य दयाराम टकरा गए। बडे़ अपनत्व से एक ओर ले गए। सड़क के किनारे खड़े—खड़े ही उन्होंने बातें की... वही रितु की कहानी... उसे लगा जैसे सारी दुनिया के पास एक ही कहानी है...एक ही बात है...एक ही चिंता है, रितु!
वैद्यजी ने महादेव सिंह को याद किया। फिर सुखदेव की लापरवाही, नाकारेपन को जिम्मेदार ठहराते हुए घर की आबरू पर रोना रोया। गारमेंट हाउस से हिमानी की बढ़ती दूरी और वकील बाबू से बढ़ती निकटता का भी उन्होंने दबी जुबान से जिक्र कर दिया।
‘‘तू घर का मुख्तार है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है...समझे कि थोड़ा सख्ती से काम ले बेटा, सब ओर थू—थू हो रही है। लोग मुझे आकर कहते हैं। महादेव बाबू का ख्याल न होता तो मुझे क्या? तुम्हारे ‘बीवी—बच्चे' समझे कि तुम जानो, तुम्हारा काम...'' सुखदेव ने सिर हिलाया और चलने को हुआ कि वे फिर कहने लगे, ‘‘इस सारी फसाद की जड़ यह शराबखोरी है...पहले तो इसे छोड़...समझे कि नहीं।'' सुखदेव जल्दी से जल्दी पीछा छुड़ाना चाहता था। सिर हिला कर वह आगे बढ़ गया और अपने आपसे बोला, ‘एक दिन साली को इतना पिऊंगा कि तौबा कर लेगी मुझसे कि मिला था कोई पीने वाला...फिर खुद ही छोड़ जाएगी मुझे।'
वह अपनी बिल्डिंग के पास पहुंचा ही था कि लड़के को भेज कर भाई हरदयाल ने उसे बुलवा लिया और ऑफिसनुमा कमरे में ले गया। जाने कहां से भनक लग गई कि तभी उसकी भाभी भी वहां पहुंच गई। सुखदेव को याद नहीं कि उसने कितनी गालियां खार्इं। बड़े भाई ने साफ कह दिया कि ‘इस मकान में अपने हिस्से के जो पैसे लेने
हैं, ले लो और दफा हो जाओ सबके सब। यह रंडीपना हमसे बर्दाश्त नहीं होगा। अभी तक बीवी के लच्छन देखे नहीं जाते थे, अब बेटी उससे भी चार कदम आगे दौड़ रही है। अरे नालायक! कुछ तो शर्म कर। तू मर्द है! यूं ही हाथ पर हाथ धरे बैठा पीता रहेगा या कुछ करेगा?'
जब शाम को घर पहुंचा तो उसका पारा सातवें आसमान पर था। क्रोध और नफरत पागलपन की हद तक पहुंच चुका था। पहला गुबार तो हिमानी पर ही निकला। गालियों और आरोपों का अम्बार लगा दिया। हिमानी ने जब पलटकर जवाब दिया तो उसे मारने को दौड़ा, लेकिन पास आकर हाथ नहीं उठा सका। हिमानी ने जिस तरह आंखें तरेर कर उसकी ओर देखा, वह दांत पीस कर रह गया।
‘‘तुझे देखूंगा, हरामजादी! तेरे नाक—कान काट कर घर से नहीं निकाला तो महादेव सिंह का बेटा नहीं।'' इतना ही कह सका, किंतु जैसे ही रितु घर पहुंची। वह भूखे शेर—सा उस पर टूट पड़ा। ‘ताबड़—तोड'़ दो—तीन थप्पड़ मार कर गरजा, ‘‘हाथ—पांव काट दूंगा अगर घर से बाहर निकली...नहीं करनी नौकरी...हराम की जनी ने नाक कटवा दी पूरे खानदान की।''
रितु को संभलने का मौका ही नहीं मिला था। जब तक स्थिति का भान हुआ, वह पस्त हो चुकी थी। हिमानी को भी ऐसी आशा नहीं थी। सुखदेव फिर गरजा, ‘‘बता, किसने कहा तुझे ऐसी बेहयाई के लिए...किसने उकसाया, बोल! नहीं तो गला घोंट दूंगा।'' कहने के साथ वह फिर लपका, तभी दौड़कर हिमानी बीच में आ गई।
‘‘तुम्हें शरम नहीं आती? इतनी बड़ी लड़की पर हाथ उठा रहे हो। आज तुम्हें घर की इज्जत की बडी़ फिकर हो गई? तुमने इज्जत बढ़ाने वाला ऐसा कौन—सा काम किया है घर के लिए...बोलो?''
‘‘अच्छा! तो मेरा अंदाजा सही था। ये कि तेरी शह पर ही यह इतना आगे बढ़ी है। वैसे तू होती कौन है मुझे रोकने वाली ...मेरी बेटी है। मैं उसे मारूं या प्यार करूं, हैं...तू चल हट।'' वह हिमानी को धकियाने लगा।
उधर से रितु बोल पड़ी, ‘‘मौसी तू हट जा, यह ‘बाप—बेटी' के बीच की बात है मारने दे, देखती हूं कितना मारेंगे... मारो पापा...मारो, खत्म कर दो मुझे और फांसी पर लटक जाओ...मारो मुझे।''
हिमानी तो निष्प्राण—सी एक ओर बैठ गई। मारे क्षोभ के उसका बदन थरथरा रहा था। आंखों में पानी रिस आया, ‘बाप—बेटी' दोनों ने एक बात कही...‘तू बीच में कुछ नहीं...कोई रिश्ता नहीं...कोई वास्ता नहीं। हे ईश्वर! वह फिर भी क्यों जिं़दा है? अभी क्या बचा है देखने—सुनने को उसे और क्या भोगना बाकी है।' उधर झट से जिठानी भी दरवाजे पर आ खड़ी हुर्इं। सुखदेव ने दो चांटे और मारे रितु को। फिर बोला, ‘‘जुबान चलाती है बाप के सामने।''
तभी उसकी भाभी ने आग में घी डाला। बोली, ‘‘अब मार ही डालोगे क्या
बच्ची को? जड़ को काटने की बजाय फूल पर गुस्सा उतार रहे हो। वह तो बच्ची है,
अभी उमर ही क्या है? अच्छे—बुरे की अभी समझ कहां है उसमें। यह तो बड़ो को सोचना चाहिए...जैसी शिक्षा दोगे, वही तो बच्चा बनेगा।'' पलट कर उसने अपने छोटे लड़के को, जो उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था, कहा, ‘चल रे, चल यहां से...यह तो रोज का ड्रामा है। हमारी मुसीबत है, कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे।'' कहने के साथ ही वह ‘क्विक मार्च' करती हुई पलट गई।
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