Phir bhi Shesh - 15 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 15

फिर भी शेष - 15

फिर भी शेष

राज कमल

(15)

उस रात के बाद से रितु को घर से निकलने की मनाही हो गई थी। फिर भी वह इधर—उधर से फोन करके आबिद से सम्पर्क बनाए हुई थी। आबिद को उसने साफ कह दिया था कि यदि अब वह घर से निकली तो वापस नहीं लौटेगी। आबिद ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि वह सब ठीक कर देगा, लेकिन घर में पहले माहौल नार्मल होने दो, फिर मैं प्लान करके बताऊंगा।

महीने भर बाद स्थितियां कुछ सामान्य होने लगीं। इस बीच रितु ने भी अच्छी बच्ची की तरह घर में ही अपने को समेटे रखा। घर के काम में हिमानी का हाथ बंटाती, फिर खाली वक्त में किसी पत्रिका—पुस्तक में सिर डालकर बैठ जाती। सब करते हुए भी हर काम से निर्लिप्त। न खाने—पहनने पर ध्यान, न किसी और बात से कोई मतलब। उदासीन वीतरागी—सा भाव लिये जीवन जीने को कटिबद्‌ध।

हिमानी उसे देख—देख कर अपने अंदर झुंझला उठती थी। ‘क्या करे इस लड़की का! बाप तो मार—पीट कर, घर से बाहर न निकलने का आदेश देकर किनारे हो गया। अब सारा दिन उसका सूखा चेहरा मुझसे देखा नहीं जाता।'

कभी बहुत प्यार से, मनुहार से, खाने के लिए कहती तो कभी अच्छे कपड़े पहनने का आग्रह करती। प्रतिक्रिया में बिफर उठती रितु, ‘‘अब क्यों पीछे पड़ी हो। जैसा सब चाहते थे, वैसे ही तो रह रही हूं। अब भी चैन नहीं है किसी को...''

‘‘लेकिन बेटा ऐसे भी कोई रहता है...अच्छा नहीं लगता...तुम्हें खुश रहना चाहिए।''

‘‘इसमें मेरी क्या खुशी...?' रितु ने चिढ़कर कहा।

‘सब यही चाहते हैं कि तू पढ़े—लिखे, लेकिन ऐसे काम न करे कि घर की आबरू

...और भी तो काम हैं दुनिया में करने के लिए...क्या जरूरी है कि...''

‘‘हां, हैं ना काम...कपड़े सिल—सिल कर...'' ताना सुनकर हिमानी के चेहरे पर मुर्दनी—सी छा गई। कहने को बहुत कुछ था, पर इस पागल लड़की से क्या कहे। सोचकर चुप रह गई।

एक दिन कहा, ‘‘किसी सहेली से ही मिल आया कर या यहां बुला लिया कर

...पत्थर बनी पड़ी रहती है...मेरा भी जी जलता है तुझे देख—देख कर...''

इस तरह रितु का घर से निकलना फिर शुरू हुआ। वह सीधी आबिद से मिली।

‘‘मैं, अब उस घर में नहीं रह सकती।'' आबिद को अपनी बाहों के घेरे में लेते हुए उसने कहा था। आबिद ने भी उसी गर्मजोशी से आलिंगन में बांधा, प्यार किया, सांत्वना दी, ‘‘ठीक है, मत रहो। कौन कहता है वहां रहने को। तुम ‘सेल्फमेड वीमन' बनना चाहती हो, इसमें बुरा क्या है? फ्लैट किराए पर लो और ठाट से रहो...नो टेंशन!''

‘‘इतना आसान नहीं लगता...''

‘‘आबू भाई है ना...''

गुस्से में रितु ने आंखें तरेर कर उसे घूरा।

‘‘खबरदार! भाई—वाई कहा तो...जान से मार दूंगी। बदमाश...''

‘‘ओ.के. जानेमन! डोंट वरी...अच्छा ‘कबर्ड' से बोतल निकालो, पैग तो बनाओ।'' उसने सिगरेट जलाते हुए कहा।

‘‘नहीं नहीं! तुम जल्दी कुछ प्लान करो...मुझे घर वापस भी जाना है। देर हुई तो मौसी बिगड़ जाएगी, दोबारा आने नहीं देगी...।''

‘‘अभी कह रही थी उस घर में नहीं रह सकती...अभी जाने की जल्दी...व्हाट इज दिस रितु?'' आबिद ने उसे प्यार से डपटा।

‘‘लेकिन...एकदम कैसे...घर से अपने कपड़े वगैरह...''

‘‘कपड़ों के अलावा घर में तुम्हारा है ही क्या...बोलो? पुराने कपड़े कब तक पहनोगी? नए तो लेने ही पड़ेगें... नई जगह, नया फ्लैट, नये कपड़े, और नई मिस रितुपर्णा सिंह...नया चांस, नई ऊंचाइयां...नहीं, नहीं...नाम कुछ जंचा नहींमिस रितुपर्णा सिंह! नाम भी नया होना चाहिए...खैर! बाद में सोचेंगे।''

अपनी रौ में बोलते हुए आबिद को रितु ने अचरज और अविश्वास के स्वर में टोका, ‘‘यह क्या नया—नया का गीत गा रहे हो...मैं...''

बीच में ही बोल पड़ा आबिद, ‘‘सब समझता हूं। इत्तिफाक है कि तुम खुद चली आर्इं...मैं कितना बेकरार था तुम्हें कांटेक्ट करने के लिए, तुम नहीं जानतीं... खुदा की रहमत है रितू! अब समझो तुम स्टार बन गर्इं...।'' तब उसने तफसील से बताया कि हम कल ही मनाली जा रहे हैं। कुछ दिन रहेंगे। वहीं सिगमा कास्मेटिक्स के डॉयरेक्टर के साथ तुम्हारा अपाइंटमेंट फिक्स हो गया है। वे दो दिन के लिए कांफ्रेंस में हिस्सा लेने आ रहे हैं। तुम्हारा पोर्टफोलियो वे पसंद कर चुके हैं। बस, एक बार मिलना चाहते हैं। उनकी कम्पनी का करोड़ों का बजट है। बड़ी—बड़ी एजेंसी उसे हासिल करना चाहेंगी। मैंने ऐसा जुगाड़ किया है कि कम्पनी अपनी शर्त के साथ ही अपना कम्पेनिंग देगी कि उसकी माडलिंग मिस रितु करेगी। ‘बस! हो गया काम...लेट्‌स चीयर—अप!'

रितु सपनों की दुनिया में खो चुकी थी। देर रात तक वे दोनों खुशियां मनाते रहे थे, उन्मुक्तता के सागर में डूबते—उतराते हुए। दूसरे दिन रितु आबिद के आग्रह पर भी बाहर नहीं निकली। उसे भय था कि घर में कोहराम मचा होगा और यदि पुलिस में रिपोर्ट कर दी गई तो समस्या गंभीर हो सकती है।

शॉपिंग का कार्यक्रम मनाली पहुंचने तक मुल्तबी कर दिया गया। रितु ने पहने हुए कपड़ों को धोया—सुखाया, प्रेस किया। तब तक उसने आबिद की लुंगी और कमीज पहनकर गुजारा किया। शहर के पॉश इलाके में बनी आलीशान कोठी की बरसाती में कोई दिक्कत पेश नहीं आई। टैरेस के चारों तरफ ऊंची मुंडेर थी। आबिद लगभग दो साल से यहां रह रहा था। इसलिए केअर टेकर तथा दरबान से उसकी पटरी बैठ गई थी।

आबिद के साथ टैरेस में चाय पीते हुए रितु ने सामने सड़क पर नीचे उतरते और चढ़ते लोगों को देखा, जिनमें स्कूल जाते बच्चों की संख्या अधिक थी। दूर पर्वत शृंखलाओं के हिम शिखर धूप में नहाए खड़े थे मानों हरीतिमा और कुहासे की चादर वक्ष से फिसल कर उनके पैरों में जा पड़ी हो।

‘‘दुनिया इतनी खूबसूरत है, मैं कभी सोच भी नहीं पाती, रियली वंडरफुल साइट

...और मैं यहां हूं। जस्ट, बिकाज ऑफ यू।'' उसने आगे कहा, ‘‘सच आबिद, मैं ऐसी ही लाइफ चाहती थी...घूमना—फिरना, मौजमस्ती...खाओ—पिओ नो टेंशन...' वह तनिक रुकी। फिर प्रश्नात्मक स्वर में पूछा, ‘‘क्या कुछ ज्यादा चाहती हूं मैं ...हां, और तुम्हारा साथ...वाह!''

सांस खींचकर उसने अपने दोनों हाथ परों की मानिंद फैला दिये और सांस को मुंह से उच्छवास के रूप में निकाल दिया, जैसे पूरे मौसम को आत्मसात कर लिया हो, लेकिन आबिद की ओर से कोई प्रत्युत्तर न पाकर उसने पलट कर उसे देखा, ‘‘क्या हुआ...तुम खामोश क्यों हो, मैंने कुछ गलत कहा?''

आबिद मुस्करा रहा था। बोला, ‘‘नो!...यू आर हंडरेड परसेंट करेक्ट...तुमने घर छोड़ कर दूसरा इम्तहान भी पास कर लिया... अब देखना एक सितारा आकाश की बुलंदी पर चमकेगा ‘रितु' द गे्रट मॉडल।'' आबिद और न जाने आगे क्या बोलता गया, किंतु रितु का नशा एकदम से टूटा। खूबसूरत वादियों में उड़ते—उड़ते धम से जमीन पर आ गिरी। जिस बात को वह भूल गई थी या भुला देना चाहती थी, आबिद ने अनचाहे याद दिला दिया।

वह हमेशा के लिए अपना घर छोड़ आई है या उस घर से भाग आई है आबिद के साथ वापस न जाने के लिए। अपनी स्वतंत्र जिंदगी जीने के लिए घर छोड़ा, जहां बंधन ही बंधन थे, अभाव ही अभाव ...संत्रास ही संत्रास। अंधेरी गुहा में रोशनी के लिए जूझते कुछ परिजन, एक दूसरे के प्रति शंकालु। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए दूसरे के लिए खतरनाक होने की हद तक कुटिल। ताऊ—ताई, पापा, भाई, संबंधों के नाम पर सरकारी दस्तावेज की तरह। एक मौसी थीत्रासद फिल्म की नायिका की तरह। अपनी कुंठाओं में डूबी, अपने दुःख में आत्मरत, सहानुभूति की पात्र। अन्याय के बोझ को उठाए दबी, सिमटी। कोई भी तो ऐसा नहीं था, जो उसके सपनों को समझ सकता।

अब वे मनाली में थे और वादियों में रमते हुए सुबह की चाय का लुत्फ ले रहे थे। एकाएक उन्हें लगा, हवा में कुछ खलबली—सी है, बेचैन कर देने वाली सरगोशियां जैसे। स्कूल जाते बच्चे वापस घरों को लौटने लगे।, हा...हा...ही...ही करते, छुट्टी का आनंद लेते। उनकी उत्सुकता का निदान होटल के वेटर ने किया, जो कप—प्लेट उठाने आया था। बोला, ‘‘साब, बम फटा है गांधी जी मर गया...''

आबिद ने कुछ विस्तृत जानना चाहा, किंतु हर प्रश्न का उसके पास एक ही उत्तर था, ‘‘बम फटा...गांधी जी मर गया...'' फिर स्वयं ही बोला, शाब! टीवी पर ‘नूज' देख लो...नीचे हॉल में...''

खबर दिल दहला देने वाली थी। मानव बम बनी महिला ने चुनावी आम सभा में पूर्व प्रधानमंत्री को झुक कर अभिवादन करते हुए विस्फोट कर दिया था। पूरे देश को झकझोर कर रख देने वाली इस दुर्घटना ने उन दोनों को भी परेशान कर दिया। रितु को अपने लिए कपड़े खरीदने की चिंता हुई। इस लिहाज से वे बाजार जाने के लिए नीचे उतरे। दुकानें बंद थीं। दो—दो, चार—चार की टुकड़ियों में बंटे लोग बतिया रहे थे। खबरों का बाजार गर्म था। लोग अखबारों में लिपटे थे। टीवी, रेडियो के आगे लोगों का हुजूम था। पान के ठीए तथा पत्र—पत्रिकाएं बेचने वाली दुकानों पर लोग अपनी राय देने और दूसरों की टिप्पणी सुनने को बेताब थे।

दो दिन तक सन्नाटे में डूबा रहा शहर। बाज़ार बंद रहा। सैलानियाें का मूड उखड़ा रहा। पर्यटन के धंधे से जुड़े लोग, ‘टूर—टै्रवल' एजेंसी, गाइड, टैक्सी वाले सभी परेशान दिखे। वे दोनों बाज़ार से नीचे उतरकर माल रोड पर आ गए। सामने टूरिस्ट बसों का रिजर्वेशन काउंटर था। वहां उदास मन से खड़े लागों की भीड़ थी, पता नहीं काउंटर खुला था या बंद। वे माल पर बाएं घूमे, थोड़ा आगे जाकर दाएं घूम कर व्यास नदी के पुल तक पहुंच गए। पानी बहुत कम था। छोटे—बड़े पत्थरों से टेढ़ी—मेढ़ी आकृति से गुजरती नदी उल्लसित नहीं, उदास लगी।

उदासी रितु पर भी छाई हुई थी। घर छोड़ने के दुस्साहस को वह नजरअंदाज तो कर रही थी, परंतु भविष्य के लिए तैयार किए गए समीकरण उसे आतंकित भी कर रहे थे। आबिद ने कहा था, ‘‘तुम्हें कम्पनी के ‘डायरेक्टर' विरमानी को खुश करना होगा।''

‘‘क्या मतलब खुश करने से?''

‘‘खुश...यानी खुश! तुमसे मिलकर उन्हें अच्छा लगे। फेमिलियर अटमासफियर बने और क्या...प्यार का जवाब प्यार से देना...बस।''

कुछ देर चुप रही रितु। अनेक तरह के भाव उसके चेहरे पर आए और गए। फिर बहुत ही संयत स्वर में उसने कहा, ‘‘तुम्हारी बात और है आबिद! मेरे जीवन में आने वाले तुम पहले पुरुष हो। मैंने तुम्हें प्यार दिया, बिकाज आई लव यू...''

‘‘रुको...रुको...लेट मी से...'' आबिद रुक कर उसके सामने खड़ा हो गया। रितु की आंखों में आंखें डालकर कहने लगा, ‘‘नम्बर वन...प्रोफेशन में यह लव—एंकर मत डालो बेबी, वरना ‘शिप' सारी उम्र यार्ड में खड़ा रहेगा... हकीकत यह है कि लाइफ में कुछ कर सकने की उम्मीद से तुमने मुझे चुना ताकि तुम उस माहौल से निकलकर अच्छा कैरियर चुन सको...अपनी इच्छा का खा सको, अपनी इच्छा का पहन सको, अपने स्टाइल में अपनी लाइफ जी सको। घर छोड़ने का मतलब! तुम एक मुकाम हासिल करना चाहती होमुझे सीढ़ी बनाकर ऊपर जाने के लिए...आई नो!' मुझे सीढ़ी बनने में कोई एतराज नहीं, मेरा तो पेशा ही है, नए टेलेंट को प्रोमोट करना, लेकिन तुम बीच में इमोशन ला रही हो... मैं पहले ही तुम्हें स्पष्ट कर चुका हूं कि मैं शादी नहीं करूंगा...दैट्‌स क्लीयर! इस लाइन में इतना कंजरवेटिव होने से काम नहीं चलता बेबी। विरमानी दो दिन साथ रह कर चला जाएगा...उसके बाद कैम्पेन, पैसा, चारों ओर तुम्हारे नाम की धूम होगी। किसको पता कि मनाली में क्या हुआ...फिर चाहे किसी से प्यार करो, किसी से शादी करो, इट्‌स योर पर्सनल लाइफ...नो बॉडी बोदर...''

आबिद बोले चला जा रहा था और रितु गर्दन झुकाए ब्यास के बहते पानी को देख रही थी। वह कुछ नहीं बोली। दोनों के बीच एक लंबी खामोशी छा गई।

होटल लौटकर भी उनमें ज्यादा बातचीत नहीं हुई। शाम की चाय के वक्त आबिद के लिए फोन आया। रूम ब्वाय आकर बता गया। एसटीडी कॉल थी। आबिद फोन सुनकर लौटा तो खुश था, ‘‘शुक्र है, विरमानी का प्रोग्राम अभी तक ‘कन्फर्म' है। वह परसों आ जाएगा। अब सिर्फ तुम्हें अपने को तैयार करना है।'' रितु ने बात का सीधा उत्तर न देकर सिर्फ इतना कहा, ‘‘प्लीज, मेरे लिए कपड़ों का कोई इंतजाम करो ना।'' आबिद को लगा, ‘बात बनती नजर आ रही है...' वह तुरंत बाजार की ओर उतर गया। लौटा तो कुछ थैले उसके हाथ में थे। शाम के वक्त कुछ दुकानें खुल गई थीं। वह अनुमान से कुछ टी—शर्ट, जींस, दो शॉल और दो गाउन ले आया था।

आबिद के उत्साह पर फिर पानी पड़ गया, जब बहुत ही सर्द लहजे में रितु ने पूछा, ‘‘तुम मुझसे शादी करोगे?'' आबिद खीज गया।

बोला, ‘‘बिल्कुल नहीं।'' कुछ देर सन्नाटा रहा, आबिद ही बोला, ‘‘अब तुम क्या करोगी...दिल्ली लौट जाओगी...अपने घर?''

‘‘नहीं, तुम चिंता मत करो...ऊपर जाकर किसी खाई में कूद जाऊंगी...किसी को पता भी नहीं चलेगा।''

दोनों देर तक खामोश जागते रहे। कुछ देर बाद आबिद उठा और ड्रिंक्स बनाकर टैरेस के अंधेरे में बैठ गया। रितु देर रात तक ऊहापोह में फंसी रही। अब तक के जीवन की सारी घटनाएं एक—एक कर उसके सामने नाचती रहीं। बचपन, मौसी, सुखदेव, नन्नू...

घर का दमघोटू माहौल, एक—एक पैसे की किल्लत...रोज नित नयी इच्छाओं को दबाकर जीने का कौशल। हिमानी मौसी का प्यार, उनकी फटकार, उनका अपना सारी उम्र का संत्रास... बाप का बेहयाई की हदें पार करता शराबीपन... ताऊ—ताई और उनके बच्चों की छींटाकशी, रिश्तों का अजनबीपन। कहां से उठकर कहां आ गई तू रितु। मरघट से उठकर नए जन्म की ओर। पतझड़...वीरानगी से धवल उजास और हरियाली की ओर...देह और मौसम में बसंत ही बसंत। सब कुछ नया—नया। बस, एक पग और...स्वर्णिम आभाओं के शिखर पर सुशोभित होने में अब देर ही कितनी है।

लेकिन तभी उसे लगा कि शिखर कहां? वह तो स्याह अंधेरी खाई में गिरती जा रही है, कंटीले झांड़—झंखाड़, टेढ़े—मेढे़ नुकीली शिलाओं से टकराकर क्षत—विक्षत होती हुई। तभी विरमानी का अक्श उभरा उसके हाथ उसके क्षत—विक्षत शरीर को सहेज लेते हैं। लेश मात्र को कहीं कोई खराेंच तक नहीं। वे हाथ उसे संवारते, दुलारते मखमली गद्‌दों पर रख देते हैं। फिर चारों ओर विविध आकारों वाली छायाएं उसके आस—पास सामूहिक नृत्य—सा करने लगती हैं। इन सबसे दूर एक छाया होठों से प्याला लगाए कभी—कभी पीना छोड़कर अट्टाहास करने लगती है।

यह दुःस्वप्न था या सोच का प्रतिरूप, रितु को मालूम नहीं।

वह सुबह सोकर उठी तो दिन काफी चढ़ आया था। वह अकेली थी। आबिद वहां नहीं था। दस मिनट गुजरते ही वह शंकालु—सी उठी और आबिद का सामान देखा। बैग वहीं पड़ा था। कैमरा किट नहीं थी। उसने आश्वस्त होकर स्वयं को नित्यकर्म से फारिग किया और चाय का ऑर्डर करके बालकनी में बैठ गई। सामने वही सड़क थी, बाएं से दाएं माल की ओर उतरती हुई। सड़क के उस पार हरियाली, कुछ हट्‌स, स्कूल की इमारतें, उसके बाद पहाड़ी नाला, जो नीचे उतर कर ब्यास में समाहित होता था। नाला यहां से दिखता नहीं था, लेकिन उसका झिरझिर कर बहने का अनवरत राग वादी में गुंजायमान था। उसके पार क्लब की इमारत थी और उसके बार्इं ओर मनाली गांव। उसके पीछे वही नील—हरित कुहासे की चादर से अनावृत्त उत्तुंग घवल शिखर और फिर असीम आकाश। आबिद लगभग दो घंटे बाद लौटा। आते ही व्यस्तभाव से कहा, ‘‘ चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ।''

‘‘क्या बाजार खुल गया?'' रितु ने सामान्य भाव से पूछा।

‘‘हां! दुनिया कब किसके लिए रुकती है... लेकिन हम मंदिर जा रहे हैं।''

‘‘क्यों?''

‘‘शादी करनी है।''

‘‘क्या?'' रितु ने आंखें फाड़कर उसे अचरज से देखा, फिर बोली, ‘‘आर यू क्रेजी आबिद...कोई खेल है शादी।''

‘‘हां, अभी इसी वक्त...! तुम यही तो चाहती हो...मैं नहीं चाहता कि शादी न होने के कारण तुम्हारा कैरियर बरबाद हो जाए।'' अंतिम वाक्य तक उसका स्वर धीमा हो गया था।

‘‘क्या!'' वह फिर बौखलाई, ‘‘उसके बाद भी तुम मुझे उस विरमानी के पास भेजोगे? अपनी पत्नी को...यू रास्कल...।''

वह सिगरेट सुलगाकर चिंतन की मुद्रा में धुएं के छुल्ले छोड़ते हुए बोला, ‘‘काया तो मिट्‌टी का घरौंदा है बेबी!...आत्मा, परमात्मा का रूप है, जो इसमें रहती है, तुम्हारी आत्मा मुझे स्वीकार रही है। मैं उसी का मान रखकर शादी कर रहा हूं। अब रही काया की बात...इस घरौंदे में कोई दो दिन रुक कर चला जाए...‘डजंट मैटर'। तन मरता है, तन मैला होता है। आत्मा अजर—अमर है, वह मैली नहीं होती...मैं तुम्हारी आत्मा से प्यार करता हूं। किरमानी तुम्हारा तन छूएगा, आत्मा नहीं।''

‘‘उफ्‌! ये आबिद भी...क्या अफलातून है।'' वह सिर पकड़कर सोच में डूब गई। कहता है शरीर मिट्टी है, काया घरौंदा है, कोई मुसाफिर ठहर जाए चंद रातें? मन से मन

...और ऊंचाइयां ही ऊंचाइयां... यदि मैंने उसकी बात नहीं मानी और वह मुझे छोड़कर चला गया तो ...कहां जाऊंगी...क्या करूंगी? खाई से कूदना ही विकल्प बचता है...तब इस काया को चील—कौवे ही खाएंगे...इसका मतलब...??' अपने से ही पूछा उसने। दो धाराओं के बीच घिरी थी वह...नहीं, बहुत बड़ी भंवर थी शायद। एक तिनका था तो सिर्फ आबिद और उसका प्रस्ताव।

***

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