Phir bhi Shesh - 16 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 16

फिर भी शेष - 16

फिर भी शेष

राज कमल

(16)

हिमानी से मिलकर लौटी काजल बहुत दिन तक मानसिक उथल—पुथल से उद्विग्न रही। द्वंद ऐसा था, जिसका समाधान नहीं सूझता था। विषय ऐसा विस्फोटक था कि दूर—दूर तक विध्वंस कर सकता था। बात ऐसी गोपनीय कि उस पर विमर्श करना तो दूर, सोचते ही मस्तिष्क कुंद हो जाए और अचकचाकर अपनी ही जुबान दातों से काट ले। पति से सलाह लेना तो बिल्कुल पेट्रोल को माचिस की तीली दिखाने जैसा होगा। ऐसी खूबसूरत संभावना से भला कौन निःसंग हो सकता है। ऐसे कमनीय आमंत्रण पर तपस्वियों के जीवन भर के तप मलिन हो गए हैं। बेचारे एक आम पति की क्या बिसात? कभी अवसर पाकर, बहाने से उर्वराती मिट्‌टी को सींच ही आए...और पंक में आकंठ डूब कर फिर उसकी देह से आ लिपटे, यह उससे सहन नहीं होगा। काजल सोचती है, ‘संभवतः कोई भी स्त्री ऐसा नहीं चाहेगी।'

इसीलिए उसने विवेक से इस संदर्भ में कोई बात नहीं की। यद्यपि विवेक ने अनेक बार तरह—तरह से जानना चाहा कि आखिर ऐसी कौन—सी बात या समस्या है, जिसके लिए उसकी सहेली ने इतना आग्रह किया, किंतु काजल ने बातों को घुमा दिया, ‘कुछ खास नहीं विकी...घरवाला कुछ ज्यादा ही शराबखोर हो गया है। बच्चों की फ्यूचर प्लानिंग पर डिस्कस करना चाहती थी...वह भावुक कुछ ज्यादा ही है। सोचती बहुत है। चीजों को अपने ऊपर हावी होने देती है। इसीलिए परेशान हो जाती है। किसी से खुलकर बात भी नहीं कर पाती...मां—बाप और भाई भी विदेश जा बसे...एक भाई पटना में है, पर उससे भी रिश्ता जैसा रिश्ता नहीं है। बेचारी अकेली पड़ गई।'

तब विवेक ने सहज रूप से इतना कह दिया कि तुम तो हो...तुम्हें इतना मानती है...कुछ दिन के लिए यहां बुला लो। उसकी एकरसता टूट जाएगी।

बरबस चीख—सी पड़ी थी काजल, ‘नहीं...नहीं! यहां क्यों? ...ठीक है वह...ऐसा भी कुछ नहीं... उसे फुरसत ही कहां है, कहीं निकलने की।' कहते—कहते अपनी असहजता पर वह खुद ही शर्मसार हो गई।

विवेक तो समझ ही नहीं पाया कि उसे एकाएक क्या हो गया? इसी उलझाव और द्वंद में समय बीतता गया। कोई भी निर्णय लेकर वह निश्चिंत नहीं हो पा रही थी। हां में दुष्चिंता थी तो ‘ना' में भी घोर अवसादसखी का दुःख था। उसकी सच्चाई का तिरस्कार था। हिमानी ने तो अपने अंतरमन की सच्चाई को उसके सामने रखा था, सखी के अधिकार—भाव से, बिना किसी फरेब के...बिना संकोच ...कितनी निर्मलता थी उसकी चाह में... यदि वह चाहती तो छल से उसके घर आकर इच्छापूर्ति की चेष्टा कर सकती थी, पर नहीं किया उसने ऐसा। हिमानी ने काजल से मांगा...उससे निवेदन किया। सखीपन का मान रखा। उसे दाता बनाया। देने या न देने का अधिकार उसे देकर काजल के स्वाभिमान की रक्षा की। इसीलिए काजल आहत होती है कि वह हिमानी की स्पष्टवादिता और ॉदय की निर्मलता का सम्मान नहीं कर पाई। उसके अनुरोध पर निर्णय लेने में इतना अधिक समय लगा दिया। उसके आग्रह का उत्तर तक नहीं दे पा रही। ‘ना' लिखना है तो ‘ना' लिखे, लेकिन लिखो तो सही। उसकी चुप्पी का अर्थ हिमानी कभी ‘हां' में नहीं लेगी। हो सकता है, उसके द्वंद को समझकर दोबारा पूछे ही नहीं...

पति और बच्चे काजल की मानसिक पीड़ा का अनुमान भला कैसे लगा पाते, उन्हें कुछ पता ही नहीं था। इसलिए भी वे यदाकदा हिमानी की चर्चा कर लिया करते थे। उधर अनजाने ही मां और पत्नी बनी काजल की बेचैनी उभर आती थी। उलझन और भटकन की व्याकुलता ने उसे कई रातें सोने नहीं दिया। ऊहापोह के इन्हीं क्षणों में उसने निर्णय लिया और पत्र लिखकर हिमानी को भेज दिया।

उसने लिखाप्यारी सखी! पत्र लिखने में सचमुच बहुत देर हो गई। निर्णय लेने में बहुत देर लगी। सचमुच यह इतना आसान नहीं था। बिल्कुल दाग के एक शेर की तरह कि ‘जान प्यारी भी नहीं, जान से जाते भी नहीं', मरने और जीने के बीच झूलती रही हूं, फैसला लेने के क्षणों में। जिस आसानी से तुमने कह दिया। मेरे लिए उत्तर देना उतना ही मुश्किल बना दिया। यह भी जानती और महसूसती हूं कि कह पाने की उस सहज स्थिति तक पहुंचने के लिए तुमने स्वयं को कितना तपाया होगा...कितना गलाया होगा, कितना कोंचा होगा, कितना रौंदा होगा अपने स्वाभिमान को। हिमानी, मैं उस सहज स्वीकार की स्थिति तक नहीं पहुंच पा रही...मैं उतनी महान नहीं हो पा रही। चूंकि तुम्हें पाना है और मुझे बांटना है, शायद इसीलिए।

कभी भी स्त्री अपने पति को दूसरी स्त्री के साथ बांटना पसंद नहीं करती, ऐसी स्पष्ट धारणा है। इसके विपरीत उदाहरण बहुत हैं मेरी प्यारी! क्योंकि उन स्त्रियों ने कभी अपने अंतर्मन नहीं खोले। अपनी असहमति को दुःख में लपेटकर कुएं में डाल दिया। गर्त कर दिया। बेबसी में एक औरत कर भी क्या सकती है?

मैं मानती हूं, मैं बेबस नहीं। मुझ पर कोई दबाव नहीं। फिर भी देख तो मैं मन बना नहीं पा रही हूं। जानती हूं, यह बहुत बड़े सदमे—सा गुजरेगा मुझ पर। तेरे बिस्तर से उठकर आए उस पुरुष में मेरा विवेक होगा भी या नहीं; नहीं जानती। हो भी तो शायद पूरा तो नहीं ही होगा। अपने बिस्तर पर उसके साथ क्या ढूंढ़ पाऊंगी उसकी पूर्णता? मेरा होकर भी मेरा नहीं रहेगा वह। क्या वह मेरी निसंगता को महसूस कर पाएगा कभी? उसके स्पर्श से मेरे मन की अंधेरी गुहा में फिर कभी कोई किरण पैदा हो सकेगी? जब हम दोनों साथ होंगे, तुम बरबस हमारे बीच रहोगी। युग्म—क्रीड़ा में तीसरे की उपस्थिति? ना बाबा, ना! और उसके बाद हम दोनों के बीच असंतुष्टि से उपजेगी खीज...पैदा होगा तनाव...शुरू होगा आरोप—प्रत्यारोप का सिलसिला। इस टूटने को सभी तो सहेंगे— बच्चे, परिवार, समाज।

उफ्‌! मैं क्या—क्या लिख गई ...नहीं मनी! इस सबका कोई मतलब नहीं है। यह सब मेरे दिमाग की उपज है...फितूर है। शायद ऐसा कुछ भी न हो। दरअसल जब मैं दिल से सोचती हूं यानी भावुक होती हूं तो ‘हां' करती हूं और जब दिमाग से विचारती हूं तो ‘ना' हो जाता है। ठीक तो है भावुकता में ही मनुष्य त्याग करता है, महान बनता है। आत्महत्या भी करता है शायद। तुमने भी तो मनी, भावुक होकर ही इतना बड़ा फैसला किया था। बहन के बच्चों के लिए अपनी पसंद, अपने सपने, अपनी इच्छाएं, अपने सुख अपना पति, अपने बच्चे...सभी कुछ तो नकार दिया था। अपना कहने को आज तुम्हारा क्या है? वही अपना तो मांग रही हो तुम।

बहुत बक—बक कर चुकी। मुख्तसर—सी बात यह है कि मैं पूरे होशो—हवास में ‘दो टूक' ‘हां' कह रही हूं। कब, कहां, कैसे, सब प्लान करके शीघ्र ही लिखूंगी। अभी विकी को नहीं बता रही, वरना इसी क्षण से खो बैठूंगी। तेरे यज्ञ में आहुति डाल रही हूं, जानती हूं हाथ, जलेंगे ही। पर मनी! कहते हैं न कि यज्ञ अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए।

तुम्हारे सुख की कामना करती...

तुम्हारी अभिन्न—काजल।

काजल का यह पत्र हिमानी को उस समय मिला, जब उसके घर—परिवार में हड़कम्प मचा हुआ था। वैसे भी अब तक बीते बीस वर्षों में उसके जीवन—जगत में स्थिरता या सुख—शांति जैसी स्थितियां कभी नहीं रहीं। उथल—पुथल होता ही रहा है। अनेक आपद स्थितियों ने उसे जड़ बना दिया है। फिर भी रितु का किसी के साथ घर से भाग जाना उसे बेहद आहत कर गया। उसने बार—बार इन बच्चों पर भरोसा किया, लेकिन हमेशा उसके साथ छल किया। रात भर लड़की घर नहीं आई तो परिवार के लिए विकट संकट आ गया। हिमानी ने उसकी दो—चार सहेलियां को फोन करना चाहा तो जेठानी ने उसे झिड़क दिया।

‘‘बात को फैलाओ मत छोटी...' पहले देख कहीं कोई चिठ्‌ठी—कागज तो लिख कर नहीं गई...जवान लड़की है बिरादरी में थू—थू हो जाएगी। घर में बच्चों की शादी—ब्याह भी होने हैं। यह बदनामी का दाग कैसे छुपाएंगे...।''

‘बिल्कुल ठीक बात है।' हिमानी को भी अब यही लगा।

घबराहट में उसके हाथ—पांव फूल गए थे। बहुत ही आसानी से उसके ड्राअर में चिठ्‌ठी मिल गई, जिसमें रितु ने संक्षेप में, लेकिन स्पष्ट रूप से लिख दिया था।

‘प्यारी मौसी! तुम सचमुच प्यारी हो और दयालु भी, किंतु मैं तुम्हारी दया के लायक नहीं। या यों समझो कि मुझे तुम्हारे प्यार की, शराबी बाप की गालियों और आवारा भाई की जरूरत नहीं है। मुझे अपना रास्ता स्वयं तय करना है, अपनी मंजिल खुद तलाशनी है। मुझे अपने तरीके से अपने लिए जीना है। इसलिए मैं यह घर छोड़ रही हूं। अपनी मर्जी से अपने दोस्त के साथ जा रही हूं। मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना, मैं लौटूंगी नहीं। वैसे भी मैं बालिग हूं। कानूनी रूप से भी आप लोग मुझे रोक नहीं सकते। फिर भी मौसी, मुझे क्षमा कर देना। मैंने तुम्हारा दिल बहुत दुखाया है। बस, यह अखिरी बार! तुम्हारी—बेटी।'

पत्र मिल जाने के बाद तो किसी के लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया। उसके दोस्तों की किसी को जानकारी थी नहीं। नरेंद्र अभी भी सेठ के चुनाव क्षेत्र में व्यस्त था। उससे तो संपर्क कर पाना भी कठिन काम था। पैसा खर्च करने और अपनी फजीहत करवाने के अलावा अब कुछ हासिल होने वाला नहीं था। हरदयाल और कमला ने इस मामले में न पड़ने में ही अपनी भलाई समझी। सलाह यह दी कि इस बात को उछाला न जाए और पास—पड़ोस में यह प्रचारित किया जाए कि रितु रिश्तेदारी में गई है। बाद में कुछ और बहाना बना देंगे।

संयोग की बात है कि महादेव सिंह के परिवार पर आई यह त्रासदी, बड़ी सहजता से आम दिनों की तरह गुजर गई। उस दिन उससे भी बड़ी—बड़ी घटनाएं भी बिना शोर— शराबे के होकर गुजर गई, क्योंकि देश में सबसे बड़ी दुर्घटना उस रोज घट गई थी, जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री को मानव—बम से उड़ा दिया गया था। कई दिनों तक इस घटना की बदहवासी में पूरा सूचना—तंत्र व्यस्त रहा। ऐसे में रितु का घर से भाग जाने का गुमान तक लोगों को नहीं हुआ। लोग कुछ दिनों में सहज हुए, तब उन्होंने पास—पड़ोस का जायजा लिया। तब हिमानी ने सहज भाव से प्रचारित कर दिया कि रितु अपनी मौसी काजल के पास गई है। नरेंद्र को मात्र इतना संदेश किसी तरह भेज दिया गया कि फुरसत मिलते ही घर लौटे, कुछ जरूरी काम है।

सुखदेव पहले से ज्यादा पीने लगा था। अब उसके मित्रों की टोली उसे ज्यादा ही छेड़ने लगी थी, क्योंकि शराब की गिरफ्त में बहकते हुए उसने स्वयं रितु के घर से भाग जाने की बात खोल दी थी। पहले तो मित्रों ने बड़ी सांत्वना दी। मायूस शक्ल बनाकर अफसोस जताते रहे। कुछ ने पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह भी दी, किंतु ‘गवाह चुस्त, मुद्‌दई सुस्त' वाली कहावत के साथ—साथ जवान बेटी की रुसवाई का भय था। कुछ दिन बाद सब सामान्य हो गया और यारों को छेड़छाड़ का नया सिला मिल गया।

एक कहता, ‘‘अच्छा ही हुआ सुक्खी भाई...तुम्हारे पास भी कहां नोटों के बैग भरे रखे थे, जो उसकी शादी में लगाते...बला टली...अब चैन से पियो और जियो...क्यों भई बंसी।'' सुमेर चाय वाले ने छानी हुई चाय की पत्ती को कूड़ेदान में उलटकर बात में पलीता लगाया, ‘‘एकदम सोलह आना...इससे आगे फ्यूचर भी चकाचौंध है...मैं तो बोलता हूं, वह बम्बई ही गई है, हीरोइन बनने...सुक्खी लाला के घर नोटों की बरसात

होने वाली है...फिर जलवे देखना मेरे यार के।'' तभी करीम स्कूटर का कारबोरेटर पोंछते—पोंछते कह उठता, ‘‘सेठ सुखदेव सिंह जी आप हमें भूल तो नहीं जाओगे न?''

कभी—कभी तो सुखदेव को कुछ क्षण के लिए भ्रम—सा होता कि वह झकाझक सफेद कुर्ता—पायजामा पर कलफ लगी तुर्रेदार पगड़ी पहने वहां से गुजर रहा है...‘नहीं...नहीं पैदल क्यों गुजरेगा। वह स्वयं अपनी भूल सुधार कर लंबी एअरकंडीशंड गाड़ी की कल्पना करता। सारे मित्र झुक—झुक कर उसका अभिवादन कर रहे होते। घर एशोआराम की चीजों से भरा हुआटीवी, फ्रिज, अवन, सोफा, स्टीरिओ, फोन...वाल टू वाल कारपेट, एसी कमरे में विदेशी स्कॉच व्हिस्की से वह अपना दिन गर्म कर रहा होता, लेकिन हिमानी में कुछ नहीं बदला। वही वीतरागी भाव लिये आवहीन वस्त्रों में टहल करती हुई...मशीन के साथ खटती हुई...छूने भर से सींग मारने पर उतारू मरखनी गाय—सी। अफसोस में वह बड़बड़ाता, ‘इस साली मनी का कुछ नहीं हो सकता। खसम के होते हुए हरामजादी विधवा दिखना चाहती है, पर मैं इसकी यह ख्वाहिश पूरी होने नहीं दूंगा। ...चाहे मुझे यमराज से लड़कर वापस क्यों न आना पड़े, मित्रों ने टोक दिया, ‘‘दिन में सपने देखने लगे लाला सुखदेव! अभी माल तो आने दो...''

‘‘अरे...यार! शेखचिल्ली के क्या सिर पर सींग होते हैं...'' गोरख ने पान पर चूना रगड़ते हुआ कहा। समर्थन में सुमेर सिंह ने चाय में थोड़ा नमक डालते हुए जोड़ दिया, ‘‘क्यों न देखे सपने...बेटी की कमाई खाना क्या हर किसी के वश की बात है।''

सुखदेव दांत पीसकर गुर्राया, ‘‘मेरा एक दिन ज़रूर आएगा सालो! तुम सबको देख लूंगा...मजाक बनाते हो मेरा...''

पलभर में उसका मायावी संसार धराशायी हो गया। फिर इतना शर्मसार हुआ कि फूट—फूट कर रोने लगा। इस अड्‌डे पर बरसों से इन लोगों के बीच तमाशे होते रहे हैं, इसलिए आस—पास के लोग बेपरवाह अपने धंधे में लगे रहते हैं। नये लोगों के लिए जरूर मनोरंजन का सबब बन जाता है। राज मिस्त्री राजाराम ने उसके कंधे पर हाथ रखा, ‘‘जाने दे यार...यह सब मां के दीने तेरी मस्ती से जलते है...मैं कहता हूंजिगर चाहिए तेरी तरह जीने के लिए। ये सबके सब अपनी बीवी के आगे दुम हिलाते फिरते हैं। एक तू है, जो खम ठोक कर भाभी का मुकाबला करता है। वह एक मारती है तो तू दो मारता है...'' बाकी के लोग मुंह दबाकर हंसने लगे तो सुखदेव को कुछ खटका और राजाराम को आंखें तरेर कर देखा। पलक झपकते मिस्त्री ने बात का रुख बदल दिया, ‘‘देख! डरती है न तेरे से...यही तो! और ये तो मूरख हैं आज के जमाने में बेटी और बेटा में फर्क देखते हैं। तू बता, क्या सरकार फरक करती है? लोगों को समझाने में कितना रुपया खर्च करती है कि भाई बेटा और बेटी को एक नजर से देखो...बेटी को भी पढ़ाओ—लिखाओ, उसे कामयाब बनाओ। अब तू ही बता कामयाब बेटी पैसे भी तो कमाएगी और अगर वही पैसा अपने मां—बाप पर खर्च करे तो क्या अनर्थ होगा? बता?''

‘‘अबे राजाराम...आज तो बड़ा ज्ञान बघार रहा है भाई...तुझे क्या सुक्खी से रकम उधार लेनी है।'' गोरख ने फिर चूने पर कत्था रगड़कर सुपारी रखते हुए कहा।

मिस्त्री ने गुस्से में भरकर गोरख को देखा और दांत भींचकर बोला, ‘‘चौबे!

कभी तो ‘बखत' की नजाकत समझा कर...जब देखो, एक ही पटरी पर दौड़ता है...बेटा रुख पलटते देर नहीं लगती...रंक से राजा और राजा से रंक! हां...''

उसने फिर सुखदेव को टहोकते हुए कहा, ‘‘चलो लाला! इन मसखरों के मुंह लगने से क्या फायदा।'' सुनकर सुखदेव साथ हो लिया।

राजाराम बाकी यारों से अलग है। मजाक भी करता है, लेकिन मुश्किल में गंभीरता से सुखदेव का साथ निभाने की कोशिश करता है। कई वर्षों तक मकानों की चिनाई करते—करते अब छोटे—छोटे ठेके भी लेने लगा है। पुताई और रंग—रोगन का काम भी नहीं छोड़ता। हाथ लगते ही चौक से दिहाड़ी के मजदूर लगाकर काम करा देता है। मजदूर उसे ठेकेदार कहने लगे हैं। वह खुश है, पर अब उसकी नजर जमीन—जायदाद के सौदों में कमिशन कमाने पर है। अपने रसूख से उसे प्लाट या मकान बेचने वालों का पता लगता है तो वह प्रापर्टी डीलरों से मिलवा देता। सौदा तय हो जाता है तो उसे भी उसका हिस्सा मिल जाता है। दरअसल बहुत समय से उसकी नजर सुखदेव की कोठी पर है। वह जानता है कि आज नहीं तो कल, मकान तो बिकेगा ही। तो क्यों न सौदा उसकी मार्फत हो। इसीलिए सुखदेव को अपनी बगल में दबाये घूमता है। जब सुखदेव बिल्कुल कड़क होता है तो उसे दारू भी अपनी जेब से पिलाता है।

इन दिनों उसने अपनी कोशिश तेज कर दी है। वह जानता है कि सुखदेव की लड़की के घर से भाग जाने के कारण घर—भर में बवेला मचेगा। भाइयों में कहा—सुनी, लड़ाई—झगड़ा होगा ही। बस, ऐसे मौके पर कोठी बिकने की उम्मीद बढ़ जाएगी। सुखदेव के पास उसके चंद दोस्त है—हंसने को और झिंकाने को भी। उसका समय कट जाता है। समय के साथ बेटी के घर से चले जाने की घटना भी धुंधला रही है। कभी कोई इश्तिहार छप जाता है तो घाव ताज़ा हो जाता है। लोग भी इशारों से जता देते हैं। अड़ोस—पड़ोस में भी बात खुल चुकी है। अभी कुछ रोज पहले उड़ती—सी खबर फैली कि अब तो ‘रितु' टीवी के विज्ञापन में भी देखी गई, सेनटरी नैपकिन के लिए माडलिंग करते हुए।

हिमानी किसी से बात नहीं कर सकती। क्या करे? इस दुःख को, किसके साथ शेयर करे? उसका कोई दोस्त नहीं, सहेली नहीं। नरेंद्र अपने सेठ के चुनाव में व्यस्त है। खबर देने के बावजूद उसने पलटकर नहीं देखा। जेठ—जिठानी ने अब जैसे बिल्कुल ही नाता तोड़ लिया है। भाइयों से पहले ही संबंध टूट चुका है। उनकी कोई सूचना नहीं आती। हो सकता है उसके मां—बाप अब तक परलोक सिधार चुके हाें, क्या पता? दूसरे शहर में बसी काजल को भी क्या बताए। उसका खत पढ़कर हिमानी पहले ही अपराध बोध से ग्रस्त है। क्यों कही उससे ऐसी बात? क्यों डाला उसे धर्म—संकट में? फिर भी उसने सकारात्मक उत्तर लिखा था, किंतु हिमानी को पत्र में काजल की आत्मा रोती हुई जान पड़ी। जैसे कोई अपने प्रिय को आंखों में आंसू भर कर मुस्कराते हुए बलि के लिए विदा करे। ऐसा ही चित्र उभरा था काजल का उसके जेहन में। अपने सुख के लिए उसका समस्त जीवन क्यों दांव पर लगवाए। इसीलिए उसके बाद उसने काजल को पत्र नहीं लिखा और न फोन पर ही बात की। रितु के मसले पर गंभीरता से बात केवल आदित्य से हो सकती थी। शुरुआत में रितु के चोरी—छिपे मॉडलिंग करने के वक्त ही हिमानी ने आदित्य से बात करनी चाही थी। दो—एक बार उसे उसके आफिस में स्वयं जाकर देखा भी, किंतु उससे मुलाकात नहीं हो सकी थी। विनोद से मालूम हुआ था कि वह बहुत व्यस्त है। कुछ दिन के लिए, किसी डेलीगेशन के साथ उसे विदेश दौरा करना था। जब आदित्य की व्यस्तता कुछ कम हुई तो फौरन हिमानी से मिला। हिमानी ने रितु के बारे में सब बताया। बताते हुए उसकी आंखें पनिया गर्इं। सब सुनने के बाद वह बोला, ‘‘ मुझे पहले से मालूम है।'' और मुस्कराकर हिमानी को एकटक देखने लगा। यह बड़ा विचित्र व्यवहार था। हिमानी ने कल्पना नहीं की थी कि आदित्य उसकी समस्या को ऐसे हंसी में उड़ा देगा। अब तक उसके सहारे बड़ी—बड़ी समस्याओं से वह लड़ती चली आई थी। आज क्या हो गया है उसे। अचानक ऐसा क्यों? अधिक देर तक वह आदित्य की मुस्कराहट को झेल नहीं पाई।

‘‘मैं इतनी दुःखी हूं...और आप! ...मुझ पर हंस रहे हैं...माफ करना। सॉरी!

...मैं आपको कष्ट नहीं दूंगी...।'' कहते—कहते वह उठने लगी।

आदित्य ने आग्रह करके उसे बिठाया, ‘‘आप गलत समझीं...मैं...मेरा मत—

लब...।'' वह एकाएक गंभीर हो उठा, ‘‘मैं यह सोचकर मुस्कराया था कि आप हमेशा दूसरों के बारे में सोचती हैं, उनके लिए परेशान रहती हैं...अपने लिए कभी नहीं ...कभी नन्नू के लिए, कभी सुखदेव जी के लिए तो कभी रितु के लिए...आपको नहीं लगता कि आप भी इसी दुनिया में हैं और आपकी अपनी भी जरूरतें हैं, ‘आई मीन' कुछ तो...''

अब हिमानी के हंसने की बारी थी। उसे इस बात की भी चिंता नहीं हुई कि बाहर गली में कोई उसकी हंसी सुनेगा तो क्या सोचेगा। वह हंसती रही, हंसते हुए ही कहा,

‘‘ये सब मेरे अपने ही तो हैं। इनकी मुश्किलें क्या मेरी नहीं होनी चाहिए? ठीक है, वे लोग मेरी परवाह नहीं करते तो क्या मैं भी उनकी ही तरह...''

‘‘नहीं, मैं यह कतई नहीं कहूंगा। आप परोपकार करें...परिवार का ख्याल रखें

...पर...दूसरों की सेवा के लिए अपना स्वस्थ होना भी उतना ही ज़रूरी है।''

‘‘तो क्या मैं आपको बीमार लगती हूं?'' थोड़ा उखड़कर बोली हिमानी। आदित्य ने अपने सिर को ‘हां' में हिलाकर उत्तर दिया और मुस्कराने लगा। हिमानी विस्फारित आंखों से उसे घूर रही थी। इससे पहले कि हिमानी कुछ प्रतिवाद करे, आदित्य ने आगे कहा, ‘‘सॉरी! इसीलिए कि आज मैं आपसे...‘आई मीन' थोड़ा खुलकर

बात कर रहा हूं...वैसे जो मैंने कहा है, वैसा आपने भी कभी अपने आपसे कहा होगा, सोचा होगा, पर आपकी विवशता है। मजूबरी की रस्सी तुड़ा पाना... सब ऐसा नहीं कर सकते।''

अपने अंदर हैरत में डूब रही थी हिमानी। कैसे आदित्य ने उसके मन के चोर को पकड़ लिया। एक बार नहीं, अनेक बार उसने सोचा है। बच्चे बड़े हो गए हैं। अब वह सिर्फ अपने लिए जीएगी...लेकिन वह अभी भी उन्हीं के तंतुओं में बंधी छटपटा रही है। रितु ने कैसे झट से लिख दिया ‘‘मुझे शराबी बाप और आवारा भाई की जरूरत नहीं है...अपना रास्ता स्वयं तय करना है, अपनी मंजिल खुद तलाशनी है...मुझे अपने तरीके से अपने लिए जीना है...इसीलिए घर छोड़ रही हूं... क्या वह कह पाई अपने मां—बाप से कुछ? जबकि वह रितु से अधिक पढ़ी—लिखी है। यही तस्वीर है शायद अगली पीढ़ी की। वह पुरानी सोच की औरत है...चहारदीवारी में घुट—घुटकर भी मुस्कराने वाली...अन्नपूर्णा...देवी...कल्याणी।

फिर भी उसने प्रत्यक्ष में आदित्य से इतना ही कहा, ‘‘मेरी अल्पबुद्धि में तो इतना ही आता है कि भावना पहले है और भावना मन का ओज है। तन तो केवल वहन करता है।''

‘‘आप धन्य हैं!'' आदित्य ने हाथ जोड़कर अभिनय—सा किया और कहा, ‘‘आप रितु की फिक्र न करें...ऐसा करने का कोई लाभ भी नहीं है...वह बालिग है...कानूनन अपनी मर्जी की मालिक ...हो सकता है, उन्होंने शादी भी कर ली हो। इसीलिए कहता हूं...आई मीन उसे अपनी जिंदगी जीने दो...।'' हिमानी अवश—सी हो गई और उसकी आंखें भरने लगीं। आदित्य उसी भाव से सामने बैठा बोल रहा था, ‘‘यह तेज़ी से बदलाव का समय है। आई टी युग आ गया हैकम्प्यूटर घर—घर में होगा, दुनिया छोटी हो जाएगी। इस सब में औरतों का प्रोफाइल जबरदस्त बढे़गा।''

आदित्य से बात करके हिमानी कुछ हल्की हो गई।

‘‘लड़की की मर्जी के आगे कोई करेगा भी क्या...होने दो, जो हो रहा है...।'' सोचकर उसने संतोष पाने की कोशिश की। लेकिन इसके साथ दूसरी बात और थी, जो उसे असहज बनाए दे रही थी। वह ये कि इससे पहले आदित्य ने इतना खुलकर कभी बात नहीं की थी। हां, एक बार उसका हाथ छूकर कहा था, ‘एक बात पूछूं?' तब हिमानी पूरे शरीर में झनझनाहट लेकर, रुखाई से तुरंत चली आई थी। कई दिन तक उसके भीतर सवाल उगते रहे थे; आखिर क्या पूछना चाहता था आदित्य।' आज की बातचीत पर गौर किया जाए तो यह उसी सवाल का खुलासा था। शायद एक कदम और आगे, परंतु इस बार हिमानी वैसी रुखाई नहीं दिखा सकी। भीतर कहीं अच्छा—सा लगा। ठंडी तरलता से पूरा तन—मन आलोड़ित हो गया हो जैसे। मौसम खुशगवार लगने लगा एकाएक। बाहर—भीतर की भांय—भांय क्यों शांत हो गई...क्याें संगीत सुनने को मन करने लगा। किसी रूमानी गीत के बोल बरबस होठों पर चले आए हैं। अब दिन में कई—कई बार आईने के सामने आत्ममुग्धा—सी देर तक खड़ी रहती है। क्यों कपड़ों के रंगों का चुनाव उसे भाने लगा है। इतनी उथल—पुथल के बाद भी अब क्यों जीवन में समसरता अनुभव हो रही है। क्या यही है अपने बारे में सोचना, अपनी चिंता करना, सिर्फ अपने लिए जीने का विचार करना, ‘क्या ऐसा ही महसूस करने को कहा था आदित्य ने?'

उसे याद है, वैद्य जी तो हमेशा यही कहते रहते थे ‘क्यों वीतरागी बनी रहती हो...अभी उम्र ही क्या है...अपने लिए भी कुछ सोचा करो वगैरह वगैरह...।' और वह मन ही मन उन्हें गालियां देती थी। किराने वाला लाला और स्वीट कन्फेक्शनरी वाले बंसल ने भी घुमा—फिराकर एक दो बार यही कहा था। सुखदेव तो कहता ही है कि मुझे चिढ़ाने के लिए ऐसी मनहूस बनी घूमती है। उसे कभी अच्छा नहीं लगा। जवाब में उसने लोगों को चिढ़ाया ही है! मैं तो ऐसे ही रहूंगी।' किंतु आदित्य के कहने से ऐसा क्या हो गया? उसने अपने आपसे पूछा।

हिमानी को काजल की उस दिन की छेड़ याद आ गई। ‘तेरा कुछ है क्या उसके साथ!' हिमानी ने कहा था, ‘‘ऐसा कुछ नहीं, आड़े वक्त में मदद कर देता है...छोटा है मुझसे...इज्जत करता है शायद!'' तब काजल ने कहा था, ‘इज्जत और प्यार एक साथ नहीं हो सकते क्या?' और हिमानी ने बातचीत का विषय बदल दिया था। अब ऐसा क्यों लगा रहा है उसे कि काजल के प्रश्नों का वह फिर से उत्तर दे। थोड़ा ठहर कर, सोच कर उनका जवाब ढूंढ़े... क्या पता, जवाब मिले ही नहीं, वह केवल मुस्कराकर नजरें झुका ले और बातचीत का विषय न बदले... यही चाहे कि काजल उसके बारे में पूछती ही रहे, पूछती रहे। वह चुपचाप बैठी सुनती रहे।

हिमानी में हुए इस परिवर्तन ने सबका ध्यान खींचा। अड़ोस—पड़ोस में लोगों ने आंखों से हैरत जताई। उसकी पीठ पीछे अपनी कड़वाहट भी व्यक्त की।

‘भई बिल्ली के भाग से झींका टूट गया।'

‘ठीक कहती हो, बच्चों के रहते ‘बनना—संवरना' नहीं हो पा रहा था बेचारी का।'

‘चलो, अब तो बिना खूंटे की गाय—सी घूमेगी!

‘नहीं जी! साढ़े पांच फुट का खूंटा—सुखदेव तो अभी जिंदा है।'

‘‘मजाक कर रही हो बहन, भला उसकी भी कोई गिनती है? उसके वश में क्या है...न तीन में न तेरह में...।''

‘सही कहा जी! अब सौ परसेंट घर—मुख्तारी हिमानी की है...देखो, किसके दिन फिरते हैं...कहां लड़ती हैं आंखें...?'

‘‘अजी और कहां...दूर क्यों जाओं...वकील बाबू तो पुराने सलाहकार हैं...अब कुछ ज्यादा ही बातचीत होती है।''

‘‘हे भगवान...यह दिन भी दिखाना था।''

उधर सुखदेव ने भी गालियां देकर अपना गुस्सा उतारा। एक रात शराब पीकर देर तक बड़बड़ाता रहा, ‘‘मेरे दोनों बच्चों को बरबाद कर दिया...घर को मरघट बनाकर अब चुडै़ल सिंगार किए घूमती है। मैं जानता हूं...हरामी का जना, वह वकील होगा...मदद करने के बहाने घर में घुसने की कोशिश कर रहा है। मुझे तो पहले से ही शक था। उसका जल्दी ही पत्ता काटूंगा...मकान ‘सेल' पर लगा दिया है...हरदयाल भी मान गया है...सौदा होते ही छुट्‌टी...''

हिमानी ने लोगों की फुसफुसाहट भी महसूस की। सुखदेव की गालियां भी सुनीं, जेठ हरदयाल और उसके परिवार ने उनसे जैसे नाता ही तोड़ लिया था। सचमुच उनकी कोशिश थी कि परिवारों के बीच साझेपन के गवाह इस मकान को बेचकर अपने—अपने रास्ते हो जाएं। इस सबके बावजूद अब हिमानी में कोई ‘ऊहापोह' नहीं था। किसी के प्रति कोई गुस्सा, कोई शिकायत उसे नहीं थी। कोई दुःख नहीं था, किसी लज्जा या ग्लानि का भाव नहीं था। जो हुआ, उसमें उसका कोई दोष नहीं था। जो हो रहा था, उससे किसी का नुकसान नहीं था। वह तो खुशबू का एक झोंका था जिसे आत्मसात करते ही उसका चलन बदल गया। अपने लिए जीना कोई अपराध नहीं है। तमाम उम्रदराज से चंद लम्हे उसके लिए भी होने चाहिए। ऐसा सोच—सोचकर वह निर्विकार और अडिग थी।

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