Phir bhi Shesh - 17 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 17

फिर भी शेष - 17

फिर भी शेष

राज कमल

(17)

परिवार की किसी भी चिंता से बेखबर नरेंद्र एक नई दुनिया में धीरे—धीरे अपनी पैठ बना रहा था। क्या करे, क्या न करे। लाचारी और काहिली के दलदल से निकलकर अब वह एक प्रवाह पा गया था। मालिक का विश्वासपात्र तो शुरू में बन गया था। इसके साथ चुनावों का होना और आर.एन. सेठ का चुनाव लड़ना, उसके लिए और नये रास्ते खोल गया। उसने सोचा, समझा, महसूस किया कि राजनीति की दुनिया एक ऐसा तिलिस्म है, जहां आनन—फानन में ऐश्वर्य के अनेक दरवाज़े खुलने लगते हैं। हाथ लगते ही पत्थर पारस हो जाता है तो गलत वक्त और गलत जगह छूने भर से कोयला हो जाता है। यहां वफादारी की बड़ी कीमत है। ठीक वैसे ही जैसे अपराध की दुनिया में भरोसे और ईमानदारी की। यदि ऐसी वफादारी किसी नेता के साथ निभाई जाए तो आपके वारे—न्यारे हो जाते है। कोई कायदा—कानून आपके आड़े नहीं आता। धीरे—धीरे आप संभ्रांत और सम्मानित हो जाते हैं।

हालांकि नरेंद्र जिस नेता के साथ था, वह कोई बहुत लोकप्रिय नहीं था।

आर.एन. सेठ के पास बिजनेस से कमाया पैसा बहुत था। उसी के बल पर पार्टी में उसने पहचान बना ली थी। सेठ का यह पहला चुनाव था। चुनाव क्षेत्र के लिए वह नया व्यक्ति था, लेकिन बाहरी आदमी नहीं। बरसों पहले उनके पुरखे इस गृहनगर को छोड़कर महानगर में व्यवसाय के लिए जा बसे थे। खूब तरक्की की, पैसा कमाया और अपने जनपद से जैसे नाता ही टूट गया। पीढ़ियां बदल गर्इं। अब तो बुजुर्गों की स्मृति में भी उनके खानदान की तस्वीर धुंधला गई थी। स्थानीय नेताओं ने सेठ की उम्मीदवारी को पार्टी आलाकमान का हिटलरी फरमान तो समझा, लेकिन खुलकर—विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। हां, कार्यकर्ता हतोत्साहित जरूर हो गये! पार्टी में गुटबाजी उभर आई।

कुछ लोग वक्त की नजाकत समझकर सेठ के साथ हो गए, शेष भितरघात की तदवीरों में जुट गए।

उसने दूसरे उम्मीदवारों को जिताने के लिए अब तक बहुत पैसा खर्च किया था। अब सवाल अपनी इज्जत और भविष्य का था। इसलिए रुपया पानी की तरह बहाया। इलाके की मंडल इकाई के प्रमुख से लेकर आम मतदाता को ‘साम, दाम, दण्ड, भेद' से काबू किया अर्थात ‘जैसा देव वैसी पूजा' को चरितार्थ किया। सेठ ने अपने कुछ विश्वसनीय गठीले, हठीले—नौजवानों के चार दल बनाए उनके ऊपर एक विशेष प्रचार नियंत्रक दल का गठन किया। प्रचार में रात—दिन एक कर दिया। पोस्टरों, चुनाव चिह्नों और झण्डों से पूरे क्षेत्र को पाट दिया गया। इससे इतर सेठ ने जनता की भावनात्मक नब्ज को टटोलते हुए अपने पुरखों की जन्मभूमि का पासा फेंका। चुनावी भाषण में उसने अपने उद्योग की इकाइयां जनपद में लगाने की योजनाएं विस्तार से बतार्इं। स्थानीय युवकों के लिए रोजगार की बात करके भविष्य में खुशहाली के सपने दिखाए... जनता के सपनों का तो पता नहीं; आर. एन. सेठ के सपने जरूर साकार हो गए। बहुत कम वोटों से ही सही; उन्होंने चुनाव जीत लिया। बाद में उन पर धन के दुरुपयोग और कुछ मतदान केंद्रों पर जोर—जबर के आरोप भी लगे। कोर्ट में कुछ याचिकाएं भी दायर की गर्इं।

इस महासमर में नरेंद्र ड्राइवरी के साथ—साथ चुनाव प्रचार में सहभागी रहा। चाहे सेठ के कार्यक्रम तय करने हों, पिछले कामों की समीक्षा करनी हो या आगे की योजना बनानी हो, सब में बराबर रुचि लेता था। कई बार ऐसे मौके आए, जब प्रतिपक्षियों से आमना—सामना हुआ। मारपीट की नौबत आ गई। नरेंद्र ने वहां भी अपनी दिलेरी दिखाई। कहीं पिट गए तो कहीं पीट दिया। ऐसे मौकों पर बार—बार पुलिस—थाना होता रहा, लेकिन थाने में किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि उनके साथ मार—पीट तो क्या, किसी तरह की कोई बदतमीजी भी कर जाए। अब तो दोस्ताना संबंध बन गए थे। पुलिस का भय जो बचपन से उसके भीतर जमा बैठा था, एकदम निकल गया था।

ऐसे मायालोक में जाकर परिजनों की याद न आना अस्वाभाविक नहीं था। वैसे परिवार में उसके लिए ऐसा आकर्षण था भी क्या, जिसके लिए वह उतावला रहता। इसीलिए मौसी के बुलावे पर भी वह निश्चेष्ट रहा। सोचा, ‘क्या करेगा वहां जाकर?' बाप गालियां देगा, मौसी अपना रोना रोएगी और रितु उसके अनपढ़ होने का अहसास कराएगी। इसलिए उसने जीत की खुशी के जश्न और विजय यात्राओं के आयोजनों में अपने को व्यस्त रखा। सेठ के दरबार में उसकी अहमियत थी। सेठ ने चालक की वैकल्पिक व्यवस्था करके नरेंद्र को प्रबंधन में लगा दिया था और लगभग तय कर दिया था कि उसके ‘निजी सचिव' का काम वही देखेगा। उसे इस बात की खुशी थी, किंतु साथ ही संकोच भी। यह उसके अनपढ़ होने से उभर रहा था। उसने एक दिन एकांत पाकर अपने मन की शंका से सेठ जी को अवगत कराया, ‘‘साब, मैं तो पढ़ा—लिखा नहीं हूं। यह जिम्मेदारी कैसे निभाऊंगा?'' आर.एन. ने हंसकर कहा, ‘‘अरे यार! सेक्रेटरी या पी.ए. कह देने से तेरा काम थोड़े ही बदल जाएगा। जो अब तक मेरे लिए करता आया है, वही करना है। इसके लिए पढ़ाई की नहीं, तिकड़म की जरूरत होती है, जो तुझे आती है...हं हंह ं!'' उन्होंने बात हंसकर उड़ा दी।

इसके आगे क्या कहता नरेंद्र। सिर झुकाकर मान गया। अब तक सेठ के दिन—रात में काले—सफेद कर्मों का वह गवाह रहा है आगे भी रहेगा। शराब की जरूरत होगी तो लाएगा, औरत की जरूरत होगी तो व्यवस्था करेगा...किसी से नगद लेना—देना होगा तो वह भी करेगा...करता रहा है, आगे भी करेगा। क्यों न करे उसकी भी सब जरूरतें

पूरी होती हैं। आज उसके पास चार पैसे भी हैं और रुतबा भी। अब दरोगा भी पहले उसे सलाम करता है, तब सेठ से मिलता है। सब सेठ का दिया है। जिसमें सेठ खुश, उसी में वह भी खुश।

चुनाव के कई महीने बाद एक दिन अचानक वह घर पहुंचा। भांय—भांय करते घर में वह दिप—दिप कर रहा था। गली में जिस समय उसकी ‘डुग—डुग' करती हुई ‘बुलेट' मोटर साइकिल रुकी तो लोग देखते रह गए। लंबा तो वह था, अब जिस्म भी भर गया था। बढ़िया जींस पर खुशरंग ‘टी—शर्ट' उस पर खूब फब रही थी। पैरों में ‘नाइक' के जूते थे। आंखों पर कीमती ‘गॉगल' जंच रहे थे। आनन—फानन में गली में खबर फैल गई, ‘नन्नू आ गया...नन्नू आ गया...।' लोग कानाफूसी में लग गए।

‘‘अरे वाह! क्या ठाठ हैं यार के।''

‘‘चलो, अच्छा है...अब सुखदेव की ‘जून' सुधर जाएगी।''

‘‘हां! पर बहन जो कालिख पोत गई, उसका क्या?''

‘‘अजी ऐसे पैसे को क्या चाटना है...जब घर की इज्जत ही नीलाम हो जाए...'' लोगों के अपने उद्‌गार थे कहीं किंचित खुशी ...कहीं ईर्ष्या भी तो कहीं लानत—मलानत का भाव। उसकी उम्र के लड़के आकर उसके आस—पास मंडराने लगे। उसने हंसकर, हाथ मिलाकर तो किसी को दूर से ही हाथ हिलाकर मिलने की औपचारिकता पूरी की।

वह सबसे पहले आदित्य के ऑफिस में गया। उसने सोचा था, वह उस व्यक्ति से अवश्य मिलेगा, जिसने उसे नया जन्म दिया, लेकिन वह ऑफिस में नहीं था। विनोद ने खुश होकर कहा, ‘‘मैं उन्हें बता दूंगा, पर अभी तुम कुछ दिन तो रहोगे?'' सिर हिलाकर वह ऊपर अपने घर के लिए सीढ़ियां चढ़ गया।

हिमानी तो उसे देखते ही रो पड़ी। उसे बाहों में भरकर प्यार किया, ‘‘इतने दिन हो गए...न खबर ली, न अपनी खबर दी। ऐसी भी क्या नौकरी है... यहां क्या कुछ हो गया...मैंने फोन पर मैसेज दिया था कि नन्नू को भेज दो जरूरी काम है...'' बात करते हुए उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। नरेंद्र, शालीन बच्चे—सा चुपचाप सुन रहा था। आश्चर्य होता है इस नरेंद्र से तीन—चार साल पहले के नन्नू की तुलना करने पर। न अब चेहरे पर खीज़, न गुस्सा, न मौसी से कुबोल। हिमानी ने धीरे—धीरे रितु के विषय में सब बता दिया। यह भी कि किसी लड़के के साथ रह रही है मुंबई में।

‘‘मौसी, ऐसी जिम्मदारियां हैं मुझ पर कि अब घर आकर रह नहीं सकता...हां, कभी—कभी मिल जाया करूंगा।'' फिर वह सेठ के काम तथा चुनाव की व्यस्तता और एमपी बन जाने के बाद की नई जिम्मेदारियों के बारे में बताता रहा।

‘‘मेरे बिना सेठ का दो दिन भी काम नहीं चलता। हर वक्त उनके साथ—साथ दौड़ना पड़ता है...रोज शाम घर लौटना आसान नहीं होगा। मेरे रहने का इंतजाम तो एमपी फ्लैट में ही हो जाएगा...''

हिमानी मन ही मन सोच रही थी, ‘कितना निर्मोही हो गया है। किसी से कोई लगाव नहीं... यहां घर में उसका कुछ भी नहीं है जैसे। ज्यादा समय कहां गुजरा, कल ही की बात लगती है, जब ऑटो रिक्शा में डालकर नशा मुक्ति केंद में दाखिल किया था। ठीक होने की उम्मीद कम ही लगती थी।' उसने गौर किया चेहरे पर हल्की मूंछ—दाड़ी उग रही है। ‘कितना सजीला निकला है दीदी का बेटा।'

‘‘क्या सोचने लगी मौसी?'' उसने टोका।

‘‘कुछ नहीं! बार—बार रितु याद आ जाती है...उसका क्या होगा? फिर सकुचाते हुए कहा, ‘‘तू नहीं चाहता कि वह घर लौट आए।''

वह चुप रहा। कुछ पल ठहर कर बोला, ‘‘पता तो चल सकता है कि कैसी है, किस हाल में... पर जो खुद गया हो, उसके लौटने की कैसी उम्मीद मौसी। अगर आ भी गई तो कौन—सी इज्जत बढ़ जाएगी हमारी... सब अपने—अपने नसीब का जीवन जीते हैं मौसी। उसे रहने दो, जहां भी है वह...'' हिमानी अवाक्‌ सी उसका मुंह ताक रही थी। वह क्षण भर को रुका, विषय बदल कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारा और आदित्य अंकल का कर्जदार हूं मौसी...तुम दोनों ने मुझे बचा लिया, वरना आज भी मैं यहीं किसी गली में फुटपाट पर फटेहाल घूम रहा होता।''

आनंदातिरेक से गदगद हिमानी का कंठ अवरुद्ध हो गया। आंखों में आंसू आ गए।

सुखदेव जहां भी था, उसे नरेंद्र के आने की खबर मिल गई थी। साथ ही उसके रुतबे का बखान भी बताने वाले ने कर ही दिया था। वह लाटरी वाले जुनेजा के साथ झिक—झिक कर रहा था : ‘‘सबके इनाम गिनाता रहता हैफलां का निकला, फलां का निकला... क्या मेरा ही नम्बर उन्हें नजर नहीं आता? मुझे लगता है, तू मेरी टिकट आगे भेजता ही नहीं।''

‘‘क्या बात कह दी! ऐसा भला मैं क्यों करूंगा? तुझे इनाम मिलेगा तो मेरा भला भी होगा न। मुझे भी कमीशन मिलेगा और तू मेरा उधार भी चुका देगा।'' तभी गली का गोविंद अग्रवाल, जो कागज का धंधा करता था, कहता हुआ गुजर गया, ‘‘लाला छोड़ो लाटरी के टिकट, घर जाओ, देखो कैसी लाटरी निकली है। नन्नू आया है। वाह! क्या ठाठ हैं। भई! लौंडा अब सही राह पर आया है।''

सुनकर यकीन नहीं हुआ सुखदेव को। अविश्वास से भरकर गोरख को घूरा। फिर दुविधा की स्थिति में अचकचाकर जुनेजा को देखा। जुनेजा ने अपनी समझदारी दिखाई, बोला ‘‘अरे तो घर जाकर देख ले...सच ही बोलता होगा, पर मेरी एक बात ध्यान से सुन ले सुखदेव! ‘लाटरी' का भरोसा छोड़ दे। आजकल बहुत खबरें आ रही हैं...अखबार में, सरकार कभी भी किसी भी दिन लाटरी का धंधा बंद कर सकती है। इसलिए लाला! जाकर देख, बेटा कुछ कमा कर लाया है तो मेरा उधार पहले चुका देना। मैं भी अब दूसरे धंधे की तलाश में हूं।''

घर आकर जब नरेंद्र को देखा तो भौंचक रह गया। कुछ देर देखता ही रहा। फिर एकाएक न जाने क्या हुआ कि उससे लिपट कर रोने लगा।

‘‘अरे तू कहां चला गया था...देख! अपना घर—श्मशान हो गया।''

‘‘इसने...इसने किया,'' उसने हिमानी की ओर इशारा कर, अपना प्रलाप जारी रखा, ‘‘इसी ने भगा दिया मेरी बेटी को...तुझे नौकरी पर भेज दिया ताकि यह आजाद रह सके, चाहे जिसके साथ गुलछर्रे उड़ा सके। ये कि मेरी किस्मत फूटी थी, जो इसे घर ले आया।'' हिमानी तो काठ हुई धम्म से जहां खड़ी थी, वहीं बैठ गई। नरेंद्र ने बड़ी मुश्किल से बाप की गिरफ्त से स्वयं को छुड़ाया। पलभर बाद ही सुखदेव का लहजा बदल गया। कहने लगा, ‘‘बड़ा हीरो बन गया हैबढ़िया कपड़े, जूते, घड़ी और चश्मा, वाह! कमा के सब यूं ही उड़ा रहा है कि चार पैसे जेब में भी हैं। ...ये कि इस बूढ़े बाप की कुछ फिकर है, देख! देख किस हालत में हूं।''

नरेंद्र ने निरपेक्ष भाव से कहा, ‘‘तेरा कुछ नहीं हो सकता...तू हमेशा ऐसे ही रहेगा।''

‘‘नालायक! पाल—पोस कर इस लायक बना दिया, ये कि अब तू कौन और मैं कौन! बाप को सताता है, शरम नहीं आती...तो क्या कमा कर इस हरामजादी को देगा

जो तेरी अपनी सगी भी नहीं है।'' उसका इशारा फिर हिमानी की ओर था।

‘‘तो ठीक है! तू यहां बैठकर अपना माथा फोड़...मैं जाता हूं और फिर कभी नहीं आऊंगा।'' उसने उठने का उपक्रम किया। हालांकि हिमानी को पता था कि वह दो—तीन दिन रुकेगा। फिर भी, आशंकित हो वह हड़बड़ाकर बोली, ‘‘नहीं रे! इनकी तो आदत है। कहने दे, जो कहते हैं...तू जा, जरा बाहर धूम आ दोस्तों में...अपने ताऊ—ताई से भी मिल आना...''

सुखदेव को भी जाने क्या हुआ कि एकदम से सिटपिटाकर बोला, ‘‘मैं तो यह कह रहा था...कि...तेरी नौकरी...हुई...तरक्की हुई...तो...तो मेरे यार लोग भी तो पार्टी मांगेगे न...ये कि इस खुशी में थोड़ा पीना—पिलाना तो बनता है न...!'' नरेंद्र ने उसकी बात पर कोई तव्वजों नहीं दी और उठकर बाहर चला गया। सुखदेव बड़ी देर तक फिर हिमानी को गरियाता रहा।

हिमानी को अब गालियों से फर्क नहीं पड़ता, जैसा पहले होता था। वह कई—कई दिन रो—रोकर गुजार देती थी। उसके अंदर का भय, क्लेश धीरे—धीरे मर रहा था। उसके व्यक्तित्व का ढीलापन खत्म हो रहा था, उसमें मजबूती आ रही थी। उसके फैसलों में अब दृढ़ता थी। उसे अकेले करना है, क्या करना है, यह स्पष्टता उसमें उभर रही थी। भावुक क्षणों की कमजोरी पर काबू पाने लगी थी।

दो दिन रह कर तीसरे दिन जब नरेंद्र विदा हुआ तो वह रोई नहीं, गिड़गिड़ाई नहीं। सहज रूप से उसे विदा किया। एक क्षण के लिए उसकी आंखें भर आई थीं, जब नरेंद्र ने कुछ रुपए उसकी हथेली पर रखे थे। उसने माथे से लगाकर रुपये रख लिये थे। जाते वक्त नरेंद्र की आदित्य से मुलाकात हो गई थी। आदित्य ने उसे सीने से लगाकर अशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘नन्नू, अगर तुम थोड़ा पढ़ लेते तो तुम्हारे कैरियर में चार—चांद लग जाते...''

नरेंद्र की मोटरसाइकिल धुआं उड़ाती हुई गली से बाहर निकल गई। हिमानी के लिए बेहद सुखद क्षण थे ये। वे दोनों नरेंद्र को लेकर कुछ देर तक बातें करते रहे थे। हिमानी को ऐसा क्यों लग रहा था कि वह देर तक ऐसे ही आदित्य से बातें करती रहे। उसे

इस बात की भी परवाह नहीं थी कि सुखदेव देख लेगा तो क्या होगा या गली के अड़ोसी—पड़ोसी कैसी अटकलें लगाएंगे। आदित्य ने भी उसे सचेत करना चाहा, कहा,

‘‘आपके साहब आते ही होंगे, बेकार ही ड्रामा हो जाएगा।''

‘‘होने दो! जीवन भर ड्रामा ही हुआ है मेरे साथ।''

‘‘अच्छा! यह बात है?''

‘‘हूं।'' उसने बच्चे की तरह गर्दन उठाकर हुंकार भरी और आगे कहा, ‘‘मैं खुदमुख्तार होकर कुछ करना चाहती हूं...।''

‘‘यही तो! आपको अपने ‘सेटिस्फेक्शन' के लिए कुछ करना चाहिए। वैद्य जी की कंपनी के लिए कपड़े सिलना...! आई मीन यह मजदूरी कब तक करेंगी आप! दो—चार बच्चों को ट्‌यूशन पढ़ाकर भी क्या होगा। कुछ ऐसा ठोस करना चाहिए, जिससे आप भी आत्मनिर्भर बनें और दूसरों को रोजगार मिल सके...''

हिमानी ने बुटीक के बारे में अपनी योजना आदित्य को बताई। फिर कुछ देर चुप रह कर अचानक उसने बातों का रुख बदल लिया। बोली, ‘‘आदित्य बाबू, आप मेरे परिवार के बारे में सब जानते हैं...हर समस्या, आपसे शेयर करती हूं...पर...आपने...मेरा मतलब, अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताया।''

‘‘आपने कभी पूछा ही नहीं! आप अपने आपमें इतनी परेशान और खोई रहती हैं कि दूसरों के दुःख और खुशी को आप छू भी नहीं पातीं।''

क्या कहती हिमानी, लाजवाब हो गई। कुछ पल खामोश रहकर बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं ...लेकिन...मैं...अब इस सब से उबरना चाहती हूं।'' फिर शरारती अंदाज में कटाक्ष किया, ‘‘लेकिन उस दिन आप कह रहे थे कि मैं सिर्फ दूसरों के बारे में चितिंत रहती हूं, अपने लिए कभी नहीं सोचती।'' पहली बार हिमानी, आदित्य की आंखों में देखकर मुस्कराई। आदित्य भी मुस्काराया। कहा, ‘‘एकांत में बैठकर दोनों बातों में अंतर खोजिएगा। मिल जाएगा, बहुत बारीक—सा भेद है।''

उस दिन आदित्य अपने बारे में कुछ नहीं बता सका। समय बहुत हो गया था, विनोद को भी साथ निकलना था। वह प्रतीक्षा में बैठा था। आदित्य ने वादा किया कि वह अपने बारे में जरूर बताएगा। उस दिन से हिमानी खुद को बहुत हल्का—हल्का महसूस कर रही है। कभी—कभी लगता है कि अभी उड़ने लगेगी। उड़ते—उड़ते आकाश में छा जाएगी, बादलों—सी। रोम—रोम रिसेगाबूंद—बूंद, और बारिश में घुल जाएगी वह।

उसका यंत्रवत चल रहा जीवन क्रम एकाएक बदल गया। उसकी एकरसता टूट गई। वैद्य जी, कपड़े, मशीन, रितु—नन्नू, सुखदेव, जेठ—जिठानी, अड़ोसी—पड़ोसी, सबसे निःसंग—सी हो गई हिमानी। वह यह भी भूल गई कि वैद्य दयाराम की बीमारी की खबर, उन्हीं की कंपनी का आदमी आकर दे गया है। उसको खबर देने का मलतब तो यही था कि वैद्य जी ने उसे याद किया होगा और वह भूल गई। कई महीने हो गए। कपड़े सिलना बंद हुए तो आना—जाना भी नहीं रहा। रितु के घर से निकल जाने की खबर तो वैद्य जी तक पहुंची ही होगी। आश्चर्य की बात है कि वे नहीं आए। अवश्य ही वे लाचार रहे होंगे, वरना ऐसा हो नहीं सकता था। बहाने से ही सही, वे ऐसे वक्त में हिमानी के

कंधे पर अपना हाथ रखने जरूर आते। सोच—सोच कर हिमानी कई दिन परेशान रही। फोन करने की भी हिम्मत नहीं हुई। एक दिन दिल कड़ा करके कंपनी जा पहुंची। दवाखाना वाला हिस्सा बंद था। अंदर गई तो मैनेजर ने बताया कि उनका इंतकाल हुए चार महीने हो गए। मैनेजर बताता रहा। ‘आपको बहुत याद कर रहे थे। रितु के बारे में सुना तो बहुत बेचैन हुए थे। बीमारी के कारण आ नहीं सके। इसीलिए खबर भिजवाई थी। अब ऐसे समय में आप भी परेशान थीं। जान को सौ झंझटें होंगी शायद इसीलिए नहीं आ सकीं। क्या बोलती हिमानी। चुपचाप सुनकर लौट आई। सारे रास्ते उनके साथ बीते पल रह—रह कर याद आते रहे। वैद्य जी से तमाम असहमति के बाद भी उसे महसूस हुआ कि उसका एक सरपरस्त अब नहीं रहा।

यह बात जब उसने सुखदेव को बताई तो उसने सहज रूप से कहा, ‘‘हां! मुझे मालूम है, मैं गया था, उनकी मैयत में और चौथे पर भी गया था, क्यों?''

‘‘और तुमने मुझे बताया तक नहीं।'' गुस्से में भड़ककर हिमानी ने प्रतिवाद किया। उधर सुखदेव तुरंत अपने रंग में आ गया, ‘‘तुझे क्या चूड़ियां फोड़नी थी उसके सिरहाने, ये कि बड़ी आई पूछने वाली। तुझे तो उस वकील के बच्चे के साथ जुगलबंदी से फुरसत कहां, ये कि दीन दुनिया की खबर कैसे होगी!'' हिमानी तड़प कर रह गई। इस बेहया मरद का क्या करे। उसका मन तो बहुत करता है कि ऐसे मौकों पर सुखदेव का सिर फोड़ दे, लेकिन सोच कर रह जाती है कि क्या फायदा इससे भी, मरहम—पट्‌टी तो मुझे ही करनी पड़ेगी और अगर कहीं मर—मरा गया तो सिर पर पाप चढ़ेगा।' वैसे सुखदेव तो हमेशा ही, आदित्य को लेकर हिमानी से रार करता रहा है। उन दोनों के बीच क्या खिचड़ी पक रही है, वह खूब जानता है। यह जताने के लिए कि वह पीता है तो क्या, होश तो नहीं गंवाता...सब तरफ पैनी नजर रखता है! पहले यह सब सुन—सुन कर हिमानी को बहुत गुस्सा आता था। उसके चरित्र हनन के लिए ऐसा सफेद झूठअपने पति के मुंह से सुनकर तड़प जाती थी, रोती थी, कलपती थी। उसकी जेठानी भी कटाक्ष करती थी। वैद्य दयाराम भी हंसकर आदित्य को लेकर टीका—टिप्पाणी कर ही देते थे। वह भगवान से विनती करती कि उसके हिस्से में कुछ तो संतोष बख्श दो।

अब ऐसा नहीं है। अब यह सब सुनकर उसे क्रोध नहीं आता, बल्कि एक ढीठ बच्चे की तरह मन पुख्ता करती जाती थी कि अच्छा, तुम सब जल रहे हो तो जलो! मैं ऐसा ही करूंगी...जिसको जो करना है, कर लो। यह सिर्फ जिद थी और कुछ नहीं। तभी तो उसने काजल के बार—बार घुमाकर पूछने पर भी निरपेक्ष भाव से यही कहा था कि ऐसा कुछ भी नहीं है।

बाद में काजल के उसी प्रश्न की टिकिया उसके पेट में घुलती गई...रासायनिक क्रियाएं जैसा कुछ होता रहा। धीरे—धीरे भाव—जगत बदलता गया। दरअसल तभी से ऐसा हुआ है कि वकील बाबू की उपस्थिति या आमना—सामना होने पर मन में तरलता का अहसास होने लगता है, बर्फ पिघलने—सी लगी है।

अवांतर में इतना झांकने, समझने—बूझने या सही मायने में मनोभावों की सूक्ष्म पड़ताल कर सकने की योग्यता सुखदेव में तो नहीं थी। वह तो मोटे तौर पर हिमानी को दबाए रखने के लिए आरोपों को औजार की तरह इस्तेमाल करता था, बस, वह ठहरा कूढ़—मगज, औसत से भी निचले दर्जे का आदमी। दुनियादारी और रिश्तों की पहचान उसके लिए महज शराब की बोतल और दो वक्त की रोटी है, चंद दोस्तों के साथ हंसी ठठ्‌ठा और फिकरेबाजी। दस— बीस दिनों में अगर औरत के जिस्म की हरारत उसे छू जाए तो यह उसकी शहंशाही है, किंतु उसका यह अरमान बरसों से अधूरा है। हिमानी उसे सिर्फ खाना खिला देती है...स्वयं को उसके सामने परोसना वर्षों पहले छोड़ चुकी है। यह चोट सुखदेव के लिए बहुत घातक है। घोर पीड़ा से वह छटपटाता है, तड़पता है, किंतु चिल्ला नहीं सकता। इस दर्द की दवा वह किससे ले? किसे सुनाए हाले—दिन। उसकी भाभी अपनी योजना में कामयाब हो चुकी है कि हिमानी बांझ ही रहे। इसलिए अब सुखदेव से हंसकर बात करना भी उसे नहीं सुहाता। वह इस बात से मन ही मन खुश थी कि रितु भाग गई और नरेंद्र भी घर से दूर होता जा रहा है। किसी नाजुक वक्त में प्रॉपर्टी पर अपना अधिकार बढ़ाया जा सकता है। शुरू में कुछ वर्ष सुखदेव ने इस उम्मीद में गुजार दिए कि शायद हिमानी मान ही जाए। आखिर वह भी हाड़—मांस की है। उसे भी तो कभी भूख—प्यास लगेगी ही। ऐसा हुआ नही। अब कुछ समय से वह इधर—उधर भटकने लगा है। शहर के रेडलाइट एरिया में जाने से उसकी हवा निकलती है। उसने सुना है कि वहां बहुत हरामी और जालिम औरतें होती हैं। कभी—कभी तो फिजूल में कपड़े खराब करवा के रुपये झाड़ लेती हैं। दूसरा यह कि क्या पता, कब किससे कोई जानलेवा बीमारी लग जाए। इन सब बातों से ऊपर सब से बड़ा खतरा पुलिस का है। रुपया न खिलाओ तो हाथ—पांव तोड़ती है और फिर दुनिया भर में बदनाम करने के लिए कोर्ट में पेश कर देती है। इसलिए उस दिशा की ओर वह देखता भी नहीं।

कुछ समय से उसकी नजर एक भिखारिन पर है। गुरुद्वारा रोड वाले बस स्टैंड पर उसका ठिकाना है बड़े डाकखाने के सामने। सड़क जब से ‘वन—वे' हुई है, एक ओर से बसों का जाना बंद हो गया है। ऐसे में खाली पड़े ‘स्टेंड्‌स' पर लोगों ने कब्जा कर लिया है। कब्जा पहले भी था किंतु अब एक—क्षत्र राज है। किसी में मुरमुरे—चने और मूंगफली का छाबा लगा है तो कहीं मोची का ठीया है। कहीं भीख मांगने वाले परिवाराें ने स्थायी टप्पर बना लिया है। उसका नाम सुनहरी है। उसके तीन बच्चे हैं। लड़की पांच साल की, बड़ा लड़का सात साल का और सबसे छोटा दो साल का है, जो बहुत ही कमजोर मरियल—सा गोद में चिपका रहता है। उसका आदमी शायद बीमार रहता है। हर समय कम्बल ओढ़ कर लेटा या बैठा खांसता रहता है। पुराने चिथड़ों के दो गट्ठर हैं, एक पीपा, कुछ एलमुनियम के बर्तन। दोनों बच्चे सुबह से शाम तक बाजार में दुकानदारों से, ग्राहकों से भीख मांगते फिरते हैं। बीच में बच्चे ठिकाने पर आकर सिक्के मां को दे जाते हैं। सुनहरी भी छोटे बच्चे को गोद में लेकर बड़ी कारों में चढ़ते—उतरते परिवारों से रिरियाकर भीख मांगती है। दिन में एक बार फ्रूट वालों के पास चक्कर लगाती है, जहां ‘गले—सड़े' फल जरूर मिल जाते है। उसका आदमी सिर्फ खाने के लिए उठता या फिर शौच आादि अति आवश्यक कामों के लिए अपनी जगह छोड़ता है।

सुनहरी जवान थी। सुखदेव को वह सुन्दर भी लगती थी। चौड़ा माथा, रंग गेहुंआ, आंखें भूरी, पर बड़ी—बड़ी। गठीला, नाटा बदन था। फटे चिथड़ों में, मैल—मिट्‌टी से अंटी हुई, वह सुखेदव को हमेशा कीचड़ में कमल—सी दिखती थी। वह जब भी, जहां भी दिखती, सुखदेव हसरतभरी निगाहों से उसे देखता था। बहाना खोजता रहता था कि कैसे उससे नजदीकी बनाई जाए।

उस दिन उसकी किस्मत सचमुच अच्छी थी। लाटरी का इनाम भी निकला था, पांच सौ रुपए का। मौसम भी अच्छा था। अचानक काले बादल उठे और बरसने लगे। वह मसालेदार चने और मूंगफली के नमकीन दाने लेकर राजाराम मिस्त्री को देखने नाईवालन चौक की ओर निकला ही था कि बारिश आ गई। स्टैंड के नीचे उसने पनाह ली। वहां पहले ही तमाम लोग जमा थे। भीड़ बढ़ रही थी। स्टैंड के एक किनारे पर, कोयले की आंच पर भुठ्‌टे भूनकर बेचने वाला भी बैठा था। अचानक बच्चा रोया। सुखदेव ने गौर किया कि सुनहरी बच्चे को गोद में लिये उसके साथ सट कर खड़ी है। वह पानी से बचने के लिए अंदर सिमटती जा रही थी। कुछ लोग तो उसके गंदेपन और भिखारिन होने से खीझकर दूर हट गए थे। शायद बच्चा धुएं के कारण रोया था। वह रोये जा रहा था और वह बेपरवाह खड़ी थी। सुखेदव जाने क्यों असहज हो रहा था। एकाएक उसे युक्ति सूझी। उसने पेंट की जेब से कुछ रुपए निकाले और दूसरे हाथ में पकड़े मूंगफली के लिफाफे में बड़ी सफाई से रख दिए। तब ममता भरे लहजे में, बच्चे की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘‘रोता क्यों है! भूख लगी है...ले, ये खा ले...'' जैसे ही लिफाफा उसने बच्चे की ओर बढ़ाया, सुनहरी ने बीच में ही लपक लिया। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था, लेकिन जैसे ही उसने लिफाफा खोलकर देखा कि क्या चीज है, उसने एक बार भरपूर नजर से सुखदेव को देखा। सुखदेव ने गर्दन हिलाकर समर्थन किया। जैसे कह रहा होपैसे हैं, रख ले। लिफाफा मुठ्‌ठी में भींचकर सुनहरी बारिश की परवाह किए बिना एक ओर तेजी से चली गई।

अब सुखदेव अक्सर उसके बच्चे को पट्‌टी, मुरमुरे या लाई के लड्‌डू का लिफाफा पकड़ा देता था, जिसमें दस—बीस रुपए भी होते थे। सुनहरी प्रतिवाद नहीं करती थी। बस, एक नजर उसे देखती और चली जाती थी। सुखदेव के दिमाग में हमेशा जमा, गुणा, घटा चलता रहता था। ‘कितने पैसे खर्च कर चुका है उस पर...अभी बात की जाए या नहीं

...हां, करेगी या ना ...उसके मन का पता कैसे लगे। बातचीत भी नहीं बढ़ रही थी। वह तो पैसे लेती और आगे बढ़ जाती। जैसे उसके बाप का कर्ज़ चुका रहा हूं।' सोचकर वह बड़बड़ाता। एक दिन उसने थोड़ा साहस दिखाया।

शाम थी। वह आग जलाकर पतीली में दाल—चावल उबाल रही थी। बीड़ी सुलगाने के बहाने सुखदेव उसके पास बैठ गया। उसका आदमी मुंह लपेटे धुत पड़ा था। दोनों बड़े बच्चे थोड़ी दूर पर ‘खेल—कूद' रहे थे। छोटा बच्चा पास बैठा चिंचिया रहा था। सुनहरी, एक बार तो उसकी दबंगई से चौंकी, किंतु तुरंत ही नजरअंदाज करके अपने काम में व्यस्त हो गई। बीड़ी सुलगाकर लकड़ी वापस चूल्हे में रखते हुए सुखदेव बोला, ‘‘ए! तू कभी शीशा देखती है?'' सुनहरी ने जवाब न देकर अपनी नजरें ही सवाल की तरह उठार्इं।

‘‘ऐसे क्या देखती है, तू सुंदर है...इसलिए कहा। ये कि...थोड़ा साफ रहा कर

...फिर देख...'' वह बीच में बोली, ‘‘अरे सेठ, मेरो धंधो चौपट हो जावेगा...''

‘‘मैं दूंगा पैसे!'' सुखदेव ने फिर हिम्मत दिखाई। कहा, ‘‘बोल, कितना...ये कि एक दफा के लिए!''

वह कुछ देर सुखदेव को जैसे आंखों में तोलती रही, फिर अपने आदमी की ओर इशारा करके बोली, ‘‘पहले ये कसाईगीरी करे था...अब काम नहीं है...इसके हाथों में बहुत खुजली होती है...बोल, उठा दूं क्या?'' वाक्य के अंत तक उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। इधर सुखदेव के माथे पर एकाएक पसीना छलछला आया। कान गर्म हो गए। दूर से कुछ लोग इस खुसर—फुसर को कनखियों से देख रहे थे। सुखदेव को किसी की परवाह नहीं थी। उसे यही फिकर थी, कहीं उसका घरवाला न जाग जाए। सुनहरी हंसी, ‘‘नहीं उठाऊंगी। कितना है, ला दे।''

‘‘पहले क्यों? ये कि पैसा तो बाद में दूंगा न।''

‘‘तो, पहले उसे जगा दूं!'' सुखदेव फिर सकपका गया। बोला, ‘‘मजाक क्यों करती है।'' ये कि ले, पहले ले ले।'' कहकर उसने फौरन पचास का नोट उसे थमा दिया।

लोग उनका लेन—देन देख रहे थे। सुखदेव को इसकी परवाह नहीं थी। वह सालों से प्यासा रेगिस्तान में दौड़ता थक गया था। आज उसके सामने समंदर लहरा रहा था। हरियाली उसे बुला रही थी। पैसे देते समय उसकी धड़कन बढ़ गई थी। रोम—रोम में खिंचाव भर गया था। सुनहरी ने नोट लेकर झट से चोली में खोंस लिया। ललचाकर सुखदेव ने उन गोलाइयों को देखा, जिसमें उसका दिया नोट फंस गया था।

‘‘ठीक है! मैं बोलूंगी दिन और टैम...'' सुनते ही सुखदेव जल—भुन गया। करता भी क्या? उसका कसाई मरद थोड़ी—सी चीख—चिल्लाहट से उठ सकता था। दांत भींचकर गुस्सा अंदर पी गया। बड़बड़ाता हुआ, उठकर चल पड़ा।

‘किस्मत ही खोटी है...साली, भिखारिन ने भी मेरी औकात बता दी...बहुत होशियार बन रहा था, ये कि घुस गई चतुराई...अब तक एक सौ अस्सी खर्च कर दिया, हरामज़ादी पर ये कि मिला क्या? ऊपर से डराती है रंडी! ये कि मुहूरत देखकर दिन और टैम बताएगी...बहुत बिजी है ...जैसे रोज होटलों में जाती हो साली!'

उधर सुनहरी के चेहरे की मुस्कराहट, आग की लपट से निखर कर और भी सुनहरी दिख रही थी।

उस दिन घर लौटकर सुखदेव ने हिमानी से खूब झगड़ा किया। उसका मानना था कि उसकी इस हालत के लिए हिमानी ही जिम्मेदार है। आज जो हुआ, इसकी वजह से ही हुआ। भला जिसके घर अपनी पक्की बावड़ी हो, वह घूंट—घूंट पानी के लिए चहबच्चों में क्यों मुंह मारता फिरे? आज रितु की मां होती तो यह दिन देखना न पड़ता। इसे न जाने किस गवर्नर की दरकार है, जो अपने मरद को हाथ नहीं रखने देती।

पर अब इन बातों से होता क्या है? वह भी समझ गया है। मार—पीट करने की हिम्मत वह अब नहीं दिखा पाता। हिमानी रौद्र रूप में उसके सामने डट जाती है। प्यास तो बाहर से ही बुझानी पड़ेगी। वैसे सुनहरी की तरफ से वह अभी निराश नहीं हुआ है। वह दिन और टैम बताएगी। उसने मना तो किया नहीं, थोड़ा भाव दिखा रही है। जो पैसा खर्च किया हैवसूल तो करना पड़ेगा, लेकिन इधर कई दिन से उसे बाजार में घूमते नहीं देखा। उसके बच्चे भी नहीं दिख रहे। किसी दिन उसके ठिकाने पर जाकर ही देखेगा। उसने सोचा। ऐसा पहली तारीख के बाद ही संभव है, जब किराए की रकम मिलेगी।

कुछ पैसे हाथ में होंगे।' किंतु उसे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। उन्हीं दिनों नरेंद्र

आया था। सुखदेव के मांगने पर तो नहीं, हां! सुबह पांच सौ रुपये उसे दिए थे। बार—बार आशीष देता हुआ सुखदेव फटाफट तैयार होकर यह खुशखबरी दोस्तों में बांटने के लिए चला गया था।

दोस्तों को पहले ही खबर लग चुकी थी। वे अपने—अपने तीर—कमान लिये लाला को घेरने के लिए तैयार बैठे थे। सुखदेव ने जाते ही सुमेर सिंह को दो ‘फेन' के साथ दूध वाली चाय का ऑर्डर दिया और बेंच पर जम गया। फिर मुस्कराकर गोरख पान वाले से कहा, ‘‘बनारसी! यार यह तो बता, तू सबको चूना लगाता रहता है...कभी तुझे भी किसी ने चूना लगाया है!'' राजाराम ठेकेदार अभी इधर पहुंचा नहीं था। बाकी सभी बंसीधर, करीम, सुमेर और गोरख ने हैरत से उसे देखा। ‘‘क्या बात है लाला! सुबह—सुबह बड़े मूड में हो आज कसम से।'' सुमेर सिंह ने ग्राहक से पैसे लेकर गल्ले में डालते हुए कहा। उधर गोरख ने जवाब में कहा, ‘‘इतनी हिम्मत तो हमारी जोरू की ही है, जो हमें चूना लगा सके, पर लाला अपनी कहो ...बेटा लीडर हो रहा है...माल—मत्ता दे गया होगा और तुम खाली हाथ झुलाते आ रहे हो!''

‘‘हां, हां! सुक्खी यार! अपना नन्नू एमपी का खास आदमी हो गया...लड्‌डू तो लेकर आता कम से कम...'' उधर से करीम ने किक मारी। तभी करीम का एक शागिर्द काम छोड़ कर करीम के पास आया!

‘‘उस्ताद जी! उस्ताद जी!'' फिर उसने फुसफसाकर करीम के कान में कुछ कहा। जिसे सुनकर करीम की आंखें फैल गर्इं, ‘‘अच्छा!'' करीम ने लपककर बंसीधर, गोरख और सुमेर के कानों में फूंक दिया। फिर क्या था...सुखदेव की फजीहत हो गई। वह बार—बार सफाई दे रहा था, ‘‘कौन कहता है...सरासर झूठ...बेपर की उड़ाते हो, ये कि

तुम जैसे दोस्तों से दुश्मन अच्छे...'' वह भुनभुनाया।

सुमेर ने उसे फिर लपेटने की कोशिश की, ‘‘यार सुक्खी! अब तो पार्टी हो जाए...बहुत दिनों से साथ नहीं बैठे। तू हमेशा उस ठेकेदार की बगल में चिपका रहता है।''

‘‘कैसी पार्टी! हमें नहीं चाहिए... हम तो भावज को बता देंगे साफ—साफ कि हमारा भाई रस्सा तुड़ाने की फिराक में है...तनिक संभाल के रखो इसे।'' गोरख ने पान का बीड़ा बांधते हुए कहा।

उसने चुप लगाना ही बेहतर समझा। जितना उलझेगा, सब उतना ही शोर मचाएंगे। वह चुपचाप चाय के गिलास में फेन डुबोकर खाने लगा। तभी राजाराम आ पहुंचा। उसने भी चाय का आर्डर किया और बंसीधर को कम मसाले का एक पत्ता चाट का बनाने के लिए कहा। फिर इत्मीनान से सुखदेव के पास बैठते हुए बोला, ‘‘अबे, कोई और नहीं मिली तुझे...नाक कटवा दी यार! मुझे तो मेरे एक बेलदार ने बताया कि तुम्हारा यार, उस कंजरी के पीछे पड़ा है।''

मौका पाते ही बाकी सारे एक साथ बोले, ‘‘हमें तो यह पट्‌ठा हाथ ही नहीं रखने दे रहा, कहता है, सब झूठ है। भला तुम ही कहो ठेकेदार बिना आग के धुआं निकलता है कहीं।''

करीम ने आगे कहा, ‘‘इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते लाला।''

चाट वाले बंसीधर ने अब सबूत के साथ बात का खुलासा किया। कहा, ‘‘मेरे चचेरे भाई का ठीया है उस स्टैंड के पास। उसने मुझे बताया है। कंजरी का नाम सुनहरी है और उसका खसम एक नंबर का स्मैकिया...बेचता भी है।'' बंसीधर ने गर्व से सबकी ओर ऐसे देखा, मानो दाद चाहता हो। उधर राजाराम ने भी चाय पकड़ी और सिप करके चीनी की मिठास का आनंद लिया। फिर सुखदेव से कहा, ‘‘भाभी के होते हुए! एक मांगने वाली से! छिः क्या सोचेगी, अगर उसे पता चल गया तो...इतनी बड़ी कोठी का मालिक है, कुछ तो रुतबा होना चाहिए...यह कोई मेल है भला!''

‘‘अपना यार, मर्द है! एक से नहीं चलता उसका...।'' यह सुमेर था।

‘‘तो हमें कहता...इंतजाम करवा देते...।'' राजाराम ने चाय सुड़ककर गिलास खाली कर दिया।

‘‘क्या नाम बताया? सुनहरी! कुछ तो बात है उसमें, तभी तो अपने यार का दिल आया है उस पर।'' गोरख ने कहकर जोरदार ठहाका लगाया। बाकी लोग भी खिल— खिलाकर हंस पड़े।

इस सबके बावजूद रात को गोरख के खोखे में सब ने मसालेदार चबेने के साथ लाल परी का सेवन किया और सुखदेव की दिलेरी के लिए जाम टकराए। सुखदेव को अब कोई मलाल नहीं था, न लज्जा, न भय। नशे की हालत में घर जाकर खुद हिमानी के सामने डींगे हांकने लगा अपनी मर्दानगी की।

‘‘कौन रोकेगा मुझे...मैं...मैं मर्द हूं...। जाऊंगा सुनहरी के पास...क्यों नहीं जाऊंगा...ये कि कोई मज़ाक है...मेरी भूख—प्यास की किसी को परवाह...नहीं है...मालिक हूं...मैं! ये कि...जो चाहूंगा, करूंगा...सुनहरी...वो ...वो मेरी

है...'' इसी तरह बड़बड़ा कर बिना खाना खाये सो गया। उसकी बातों का कोई सिरा हिमानी के हाथ नहीं लगा।

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