Phir bhi Shesh - 18 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 18

फिर भी शेष - 18

फिर भी शेष

राज कमल

(18)

तमाम ऊबड़—खाबड़ रास्तों से गुजर कर अब रितुपर्णा की गाड़ी पटरी पर आ गई थी। देश के सबसे उन्नत औद्योगिक मेट्रो शहर के हाइवे पर वह रफ्तार ले रही थी। मुंबई आने का रास्ता उसी दिन साफ़ हो गया था, जिस दिन उसने मनाली में मि. किरमानी के साथ फाइव स्टार होटल में दो रातें गुजारीं।

उहापोह से भरी वे ड्रीम रातें थी। ऐसे ऐश्वर्य का अनुभव अभी तक उसकी कल्पना में नहीं जुड़ा था। वह कोई दूसरा लोक था, जिसमें आबिद ने उसे धीरे से, प्यार से फुसलाते हुए धकेल दिया था।

वह आज भी सोचती है, आबिद पर आरोप लगाना उचित नहीं होगा। चाहती तो वह स्वयं थी। उसने मात्र रास्ता दिखाया। आबिद ने तो हमेशा साफ—साफ़ कहा और जो कहा, वही किया भी। उसका मन शांत करने के लिए ही उसने शादी के लिए भी हां कर दी थी। बेशक रितु को वह नाटक लग रहा था और शायद था भी। तभी तो आबिद ‘हिडिंबा टेंपल' लेकर गया था।

ऊंचे—घने देवदारों की छाया में बना एक बहुत पुराना मंदिर था। उसका आधार लकड़ी का बड़ा—सा चबूतरा था। पर्वतीय अन्य मंदिरों की भांति जिसका गुंबद भी तीन खंडों में ऊपर की ओर नुकीला होता गया था। सामने के भाग पर लकड़ी की नक्काशी थी, जिसमें हाथी, फूल तथा मानव आकृतियां खूबसूरती से उकेरी गई थीं। कुछ जंगली जानवरों के सींग भी बाहर दीवार पर टंगे हुए थे। मंदिर में अंदर बहुत अंधेरा था। एक ही बड़ी कोठरी थी, उसमें हिडिंबा की मूर्ति और कुछ सामान था। सब कुछ बड़ी बेतरतीबी से रखा था। जैसे सचमुच ही वहां अब भी किसी राक्षसी का वास हो।

रितु ने टोका था।

‘‘तुम यहीं क्यों लेकर आए...यहां क्या शादी होगी...पुजारी भी देखो...कैसा ‘अग्ली—सा' जैसे कोई...''

आबिद ने उसे बताया था कि यह हिडिंबा की याद में बना लगभग पांच सौ साल पुराना मंदिर है...‘हिस्टोरिक' है। अचानक उसने हैरत से पूछा, ‘‘तुम हिडिंबा के बारे में नहीं जानतीं?''

‘‘नहीं!'' उसका सपाट उतर था।

उसके बाद आबिद ने भीम और हिडिंबा का प्रसंग संक्षेप में बताया और कहा, ‘‘उसी हिडिंबा का मंदिर है, जो भीम की पत्नी और उसके पुत्र घटोत्कच की मां थी! यूं समझ लो कि उसी को साक्षी मानकर हम गंधर्व विवाह कर रहे हैं।''

पुजारी के आग्रह पर वे मंदिर के अंदर गए। रितु वहां की अजीब गंध और

अंधेरे वातावरण से घबरा रही थी। आबिद के संकेत पर पुजारी ने दोनों को टीका लगाया। छोटे—छोटे फूलों की पतली—सी माला पहनाकर आशीर्वचन कहा। आबिद ने मुट्‌ठी में सहेजे रुपये पुजारी को थमा दिए थे। रितु ने इस नाटक को होने दिया था। आगे बढ़ने का फैसला तो उसने ले ही लिया था।

दरअसल वह जबरदस्त आईटी क्रांति का दौर था, खासतौर पर प्रगतिशील देशों के लिए। एक विकास धीरे—धीरे होता है...जैसे योजनाओं के अंतर्गत, पर यह समय तेज बदलाव का था। ‘आईटी' के बेशुमार विस्तार से सभी देश और उनकी तकनालाजी और आर्थिक नीतियां साझा हो गर्इं। यह तब हुआ, जब सोवियत संघ का समाजवाद खंड—खंड हो चुका था। अमेरिका के पूंजीवाद का बोलबाला था। उसका वर्चस्व बढ़ रहा था। राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में कम्प्यूटर क्रांति की नींव रख दी थी, जिसके साथ आर्थिक उदारीकरण की पैरवी का बीड़ा भी उठा लिया था, जिसे बाद में नरसिंह राव ने रेकॉर्ड घोटालों से जूझते हुए पल्लवित किया। मल्टीनेशनल कंपनीज के लिए रेड कारपेट बिछा दिए गए। वे आर्इं और महानगर, नगर, उपनगरों तक अपने डेरे जमा लिये। कल का मजदूर आज ‘एग्जिक्यूटिव' बन गया, कंपनी प्रशासन का अंग। अब एकता प्रशासन की थी, मजदूर की नहीं। सोवियत संघ के विखंडन के बाद से ही वामपंथी सकते में थे। मजदूरों के टूटते संघों ने उनकी नींद उड़ा दी थी, वे समर्थन करें या विरोध? बड़ी दुविधा थी। इस सब से रितु उतना वाकिफ नहीं थी। देश—दुनिया या राजनीति में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसके लिए तो क्रांति उस दिन हुई, जब सुष्मिता सेन ने ‘मिस वर्ल्ड' का ताज पहना था। ऐसा नहीं कि भारतीय महिलाएं एकाएक इतनी सुंदर हो गर्इं। नहीं, इससे पहले भी उन्होंने प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। उन्हें नोटिस भी किया गया, किंतु सर्वश्रेष्ठ होकर ताज पहनना अलग महत्त्व रखता है। इस महत्त्व को देशवासियों ने रेखांकित किया। महिलाओं ने तो इसे अपना आदर्श मान लिया। इसकी पराकाष्ठा तो अभी—अभी हुई, जब दो वर्ष के अंतराल में ही ‘मिस यूनिवर्स' का खिताब ऐश्वर्य राय ने जीतकर साैंदर्य जगत में तहलका मचा दिया। सचमुच यह सौंदर्य—क्रांति का समय था। घर—घर जवान होती लड़कियां रैम्प पर कैटवाक करने और ‘मिस वर्ल्ड का ताज' पहनने का सपना देखने लगी थीं। सौंदर्यबोध के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा था। जो पहले समाज के दबाव से भय खाते थे, उनका हौंसला बढ़ गया। गली—मोहल्लों तक में सौंदर्य प्रतियोगिताएं होने लगीं, जिसे टीवी पर बढ़ते चैनल्स की बाढ़ ने खासा लोकप्रिय और दूर—दराज तक पहुंचा दिया। ग्लैमर की इस चकाचौंध से सौंदर्य—प्रसाधन बनाने वाली कंपनियां मालामाल होने लगीं। फिटनेस के नाम पर ‘हेल्थ सेंटर', ‘जिम प्वाइंट' और ‘ब्यूटी पॉर्लर' कुकुरमुत्तों की तरह उग आए।

रितु को लगता है, काश! यह सब थोड़ा पहले होता तो शायद उसकी राह थोड़ी आसान होती, लेकिन फिर भी वह खुश है। उस फील्ड के लिए तो उसकी यह ‘गोल्डन एज' है। जिस काम को कुछ समय पहले शर्मनाक समझा जाता था, अब वही आदर्श बन गया है। ऐसा पहले भी हुआ है। नयी लंबी रेखा खींचकर, पहली को छोटा साबित किया है। फिल्मों में महिलाओं के काम करने की शुरुआत हिकारत से शुरू हुई। पहले पुरुष ही भेष बदलकर महिला का ‘रोल' करते थे। उसके बाद नाचने—गाने वाली पेशेवर महिलाओं ने इसमें पदार्पण किया। फिर ‘एलीट क्लास' की आधुनिकाओं ने पहल की। अब तो

इस क्षेत्र की चकाचौंध, प्रतिष्ठा और प्रोफेश्नलिज्म की तूती घर—घर बोल रही है, लेकिन कभी—कभी डर भी लगता है रितु को। काम के अवसर बढ़ने के साथ—साथ काम करने वालों की संख्या भी बढ़ रही है, जिससे कंपटीशन बढ़ गया है...इस बढ़ते कंपटीशन का भय उस पर भी है। वह जान गई है कि इस फील्ड में कैरियर परमानेंट या लांग टाइम नहीं होता। इसलिए वह काम में बहुत व्यस्त हो गई थी।

मनाली में आबिद ने कहा था, ‘‘विरमानी की कंपनी का कॉन्ट्रेक्ट पक्का समझो

...अब यहीं कुछ दिन रुक कर मनाली की वादियों का मज़ा लेते हैं...भई, शादी की है तो थोड़ा हनीमून भी हो जाए...फिर शायद तुम्हें वक्त ही न मिले।'' ‘हनीमून' शब्द से रितुपर्णा थोड़ा अपसेट हो गई थी। आबिद को अहसास हुआ तो उसने तुरंत माफी मांगी और वादा किया कि इसकी याद वह कभी नहीं दिलाएगा।

ये लोग जहां ठहरे थे, यह लॉग हट एरिया कहलाता था। होटलों की कतार में यह आखिरी होटल था। उससे आगे केवल हट्‌स थे, देवदार की गोद में छिपे दूर—दूर तक। होटल की तीनों दिशाओं में पर्वतशृंखलाएं थीं, बर्फ से ढकी हुई। एक दिन आबिद ने इन प्राकृतिक दृश्यों से भाव—विभोर होकर कहा था

‘‘मुझे मनाली का कुदरती नजारा ठीक शिवलिंग के नीचे बनी स्त्री योनि की आकृति जैसा लगता है। जिस तरह पिंडी पर चढ़ाया गया पानी या दूध एक दिशा से नीचे बह जाता है, वैसे ही यहां तीन ओर की पर्वत चोटियों से झर कर आता पानी व्यास के रूप में कुल्लू की ओर ढरक जाता है।''

ऐसे मौकों पर रितु आबिद को चुपचाप सुनती। फिर बाद में मशविरा देती कि वह फोटोग्राफी छोड़कर पोयट्री लिखना शुरू कर दे।

एक दिन वे व्यास नदी पार कर वशिष्ठ मंदिर देखने गए। सुना था कि वहां गंधक के गर्म पानी के स्नानागार भी हैं। मंदिर में घुसते ही पत्थरों से बना चौक था। उसके ठीक सामने बरामदा था, जिसमें अनेक साधु धूनी रमाए बैठे थे। कुछ चिलम से कश खींच रहे थे, कुछ रंग—बिरंगे धागों से शिल्पकारी करते हुए। आबिद ने एक साधु से जाने क्या कहा कि साधु ने चिलम उसे पकड़ा दी। आबिद ने झट से सुट्‌टा मारा और वापस रितु के पास आ गया। साधु हंस रहे थे। दायीं ओर मुख्य मंदिर था, जिसका द्वार बंद था। बाहर चबूतरे पर खम्बे का सहारा लिये एक गुलाब—सी लड़की कोई किताब पढ़ रही थी। आबिद ने फौरन कैमरा उठाया और उसकी तस्वीर ले ली।

स्नानागार में भीड़ थी। वहां स्त्री—पुरुष के ये अलग—अलग स्नानागार तो थे, एक साथ नहाने का भी प्रावधान था। वहीं ज्यादा घमासान था। सैलानियों में ज्यादा संख्या हनीमून जोड़ों की थी। सभी जोड़े नहाने के लिए बेताब थे। उनकी आंखों में अजीब नशा था। वे एक—दूसरे के हाथों को कसते हुए कनखियों से देखकर मुस्करा रहे थे। यह सब देख, रितु—आबिद ने भी एक—दूसरे को देखा, मुस्कराए भी, पर वह बात नहीं थी। रितु तो वैसे भी जहां भी ऐसे जोड़ों को देखती, कुछ उदास हो जाती। भीतर का खालीपन जैसे बजने लगता था। वह सहज नहीं हो पाती। उसे लगता, जिंदगी का कोई अहम हिस्सा उससे छूट गया है। जिस तरह उस हिस्से को जिया जाता है, वह नहीं जी सकी। जो खुमार, जो नशा और जो आवेग इन जोड़ों में है, उनमें नहीं है। वे प्यार में पगे, डूबे, और हम व्यापार में, सौदे में।

आबिद उसकी मनःस्थिति समझ रहा था, किंतु वह क्या कर सकता था। वह जानता है, हर हासिल की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। रितु अभी नासमझ है, धीरे—धीरे समझेगी। इसीलिए उसने वहां घूमने के प्रोग्राम को छोटा कर दिया। यही दोनों के लिए बेहतर था। वह जानता था कि रितु जितना काम में डूबेगी, उतनी जल्दी इस हादसे को भूलेगी। तभी उसने रितु को सुझाया कि अब उन्हें बंबई जाकर सेटल होना पड़ेगा। साथ ही एक सुझाव भी दिया कि वहां जाकर तुम रितुपर्णा सिंह नहीं रहोगी। रितु ने चाैंक कर पूछा था, ‘‘ऐसा क्यों?''

‘‘नया काम—नया नाम! तुम्हें इसका फायदा ही होगा। किसी ज्योतिषाचार्य से पूछकर रख लेंगे। थोड़ा लकी—थोड़ा स्टाइलिश...क्यों?''

रितु ने गहरी नजर से आबिद को देखा, किंतु चुप रही। वह सोच रही थीयह उसका नया काम ही नहीं, नया जनम भी है। नए जनम में नया नाम तो रखना ही पड़ेगा।

...आबिद कितना परफेक्ट है...वह सब कुछ सोच लेता है...सब कुछ जानता है जैसे। वह यह भी जानती है कि अभी जो भी करना था, आबिद को ही करना था। रितु उसके पीछे—पीछे थी, पर इतना तो वह समझती थी कि दिल्ली में परिजनों से टकरा जाने की संभावना बनी रहने वाली थी। दूसरे बंबई में स्कोप अधिक था ऐड एजेंसी से वॉलीबुड तक। फिर भी, जिस रात उनकी ट्रेन दिल्ली शहर छोड़ती हुई आगे निकल रही थी, उस वक्त रितु का कलेजा अंदर ही अंदर दरका जा रहा था। वह चाह रही थी कि एक बार अपने शहर को जी भरकर देख ले, किंतु वह खिड़की से बार—बार हट जाती थी। उसे लग रहा था कि जैसे हर सड़क पर, प्लेटफार्म पर, उसकी मौसी की बेचैन आंखें उसे ही खोज रही हैं। धीरे—धीरे शहर पीछे छूट गया। उसके साथ और भी बहुत कुछ...

नये शहर ने उसे हाथों हाथ लिया। यहां अब उसका नाम ‘सुगंधा' था, लेकिन पुराने संदर्भों में वह रितुपर्णा ही बनी रहेगी। नया शहर, नया नाम! वालीवुड और विज्ञापन की दुनिया में वह सुगंधा बनकर छा गई। ऐसा अकसर होता नहीं है। वह शायद खुशनसीब थी या आबिद की दूरदर्शिता काम कर रही थी। सब कुछ मिलाकर उसके लिए लाभप्रद रहा। विरमानी के साथ दो साल का कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ, जिसमें एक उदारता थी। कंपनी इलेक्ट्रिकल होमएप्लाइन्स प्रॉडक्ट्‌स बनाती थी, इसलिए ऐसे ही प्रॉडक्ट्‌स बनाने वाली किसी दूसरी कंपनी के लिए रितु मॉडलिंग नहीं करेगी। यह उतना मुश्किल भी नहीं था, पर इस काम से उसे कुछ खास शोहरत नहीं मिल पाई। हां! एक तरोताजा खूबसूरत चेहरे को लोगों ने नोटिस जरूर किया। एक दिन आबिद का ‘जिंगल राइटर' दोस्त किसी शूट पर जब सुगंधा से मिला तो उसने फौरन उसकी तारीफ में एक जिंगल गढ़ दिया :

‘आह! परी हो, मरमरी हो!

हॉट एण्ड स्पाइसी, चिकन करी हो।

सिप हो या हिप हो, करामती टिप हो

थमेगी नहीं हवा सरसरी हो।

हरी हो, खरी हो, परी मरमरी हो।'

शूट के बीच ब्रेक का वक्त था। थोड़ी फुरसत थी। आस—पास खड़े टीम के लोग हंस—हंस कर लोट—पोट हो गए। अलंकार की एक विशेषता है कि वह हंसमुख है। किसी से भी जल्दी खुल जाता है ईमानदारी से। साथ ही अलग—अलग भाषाओं के जुमले उछालना उसका शगल है, जिससे बातचीत में और मजा आ जाता है। पहली मुलाकात में इस तरह की ठिठोली पर सुगंधा ने भी बुरा नहीं माना। बड़े अदब से उसने थैंक्यू कहा। बोली, ‘‘इस हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया!'' और आगे बढ़कर उसने अलंकर के गाल को अपने गाल से छुआ। ‘‘ओह! इट्‌स माई प्लैजर, गौरजियस लेडी।'' उसने सुगंधा के गाल थपथपाए और आबिद से कहा, ‘‘बहुत ऊंचा जाएगी बाप!...वाह! हवा सरसरी हो...हा...हा...हा!''

हंसते—हंसते वह रुका और आबिद को गंभीर होकर बताया कि ‘टेक टू प्रॉडक्शन' वाले ‘मरक्यूरी लिमिटेड' के लिए कैम्पेन कर रहे हैं। नये साबुन की लॉचिंग है...उन्हें एकदम फ्रेश, न्यूलुक फेस चाहिए...आई थिंक शी बिल बी राइट च्वाइस फॉर देम। थोड़ा एक्सपोजर होगा...सोप है न...मे बी बाथटब सीन...क्वाइट पॉसिबल...क्यों मैडम, चलेगा न!'' बीच में ही उसने सुगंधा की ओर देख कर पूछ लिया। सुगंधा ने बड़े मोहक अंदाज में अपने दोनों कंधे उचकाकर कह दिया, ‘आई डोंट माइंड!'

‘‘दैट्‌स लाइक बेबे!'' उसने चीयर करके आबिद सेे कहा।

‘‘एक बार मिलवा दे, सब सेट हो जाएगा।'' उसने सुगंधा से छिपाते हुए आबिद को आंख दबाते हुए कहा, ‘‘डॉयरेक्टर अपना यार है, तू भी जानता है उसे...शोभित मुखर्जी! चौपाटी पर उसके साथ बहुत चना मसाला खाया है।''

आबिद भी याद करके उछल पड़ा, बोला, ‘‘वाह! तब तो काम बन गया समझो।''

सचमुच मुखर्जी दादा से मिलकर काम आसान क्या, एकदम बन गया। सुगंधा ने भी दरियादिली दिखाते हुए बिकनी पहनकर झरने के नीचे नहाने से गुरेज नहीं किया। एड ‘क्लिक' हुआ, उसके बाद तो कई कंपनीज और ‘प्रॉडक्शन हाउसेज' के उसी तरह के ऑफर आए। ‘बॉडी—केयर लोशन', क्रीम, हेयर रिमूवर आदि के लिए, रितु ने बाथटब सीन किए। एक अंडर गार्मेंट ब्रांड के लिए उसने पुरुष मॉडल्स के साथ बिकनी पहनकर समुद्र की लहरों के साथ अठखेलियां भी कीं।

उसकी बाजारू कीमत बढ़ रही थी। उधर आबिद भी निश्चिंत हो रहा था कि अब सुगंधा अपने पैरों पर बखूबी खड़ी हो गई है। शुरू में बंबई पहुंचकर कुछ दिन वे लोग एक सस्ते लॉज में रहे थे। विरमानी कंपनी के पैसे मिलते ही उन्होंने...एक नए एरिया में फ्लैट किराए पर ले लिया। दो बरस पूरे होते न होते अपना फ्लैट भी खरीद लिया।

इधर आबिद का उसके पास रहना धीरे—धीरे कम होता जा रहा था। कुछ न कुछ व्यस्तताएं बताकर वह चला जाता था, उधर सुगंधा के दोस्त बढ़ रहे थे, जिनमें डायरेक्टर मुखर्जी, कापी राइटर भुवनेश, डिजानयर शैलजा, जिंगल राइटर अलंकार, कोरिओग्राफर बावला, कुछ मॉडल लड़कियां, जिनसे उसकी मुलाकात लॉन्चिंग और प्रोमो—पार्टियों में होती रहती थीटीना मिस्त्री, शेफाली, बिन्नी, पर्ल वाडिया आदि। जब इतने लोग पार्टी के लिए घर में एक साथ हों तो बहुत भीड़—भाड़ हो जाती थी। पार्टी न दें, यह हो ही नहीं सकता था। चलन तो निभाना ही पड़ता है। इसलिए सोसाइटी में बड़ा फ्लैट लेना जरूरी हो गया। आबिद कहता है कि इससे सोशल—कम—प्रोफेशनल सर्कल बनता और बढ़ता है। आपको बार—बार सबकी नजरों में दिखते रहना है।''

बड़ा फ्लैट लेने के पीछे एक और भी कारण था। पहले वाली कॉलोनी में अधिकतर सरकारी नौकरी पेशा लोग थे, जिनको पड़ोस में ऐसे बिंदास लोगों का देर रात तक ‘बीयर्स— चीयर्स' का हो—हल्ला रास नहीं आता था। जवान होते लड़के—लड़कियों के लिए जहां यह शान और मौके की बात थी वहीं उनके अभिभावकों के ऊपर उनके बच्चों के बिगड़ जाने का तनाव था। सुगंधा को भी अब इन लोगों के बीच रहना अच्छा नहीं लग रहा था। आते—जाते उसे इन लोगों की छींटाकशी से दो—चार होना पड़ता था।

नए और बड़े फ्लैट की खुशी में सुगंधा ने शानदार पार्टी का आयोजन किया था। नये पुराने सभी लोग आए। उसने सबका आगे बढ़—बढ़कर बाहों में लेकर स्वागत किया। आबिद भी आया था। उसका स्वागत करते समय वह थोड़ा भावुक हो गई थी। एक ओर ले जाकर उसने उलाहना भरे लहजे में कहा, ‘‘तुम भी अब दूसरों की तरह सिर्फ पार्टियों में मिलते हो। फ्लैट खरीदने के टाइम भी ‘टीना मिस्त्री' और अलंकार ने ही डील फाइनल करवाया। तुम्हारा तो कुछ पता ही नहीं था...इतने बड़े शहर में मुझे यूं अकेले छोड़ दिया।'' वह सुबकने को हुई तो आबिद ने कहा, ‘‘नाउ यू आर इंडिपेंडेंट वुमेन! सब कुछ है तुम्हारे पास।'' वह थोड़ा रुक कर बोला, ‘‘अब मैं हमेशा तो तुम्हारे साथ...मुझे भी अपना काम

...कॉन्ट्रैक्ट्‌स देखने हैं कि नहीं...'' फिर मनुहार करते हुए बोला, ‘‘ए सिली गर्ल! शिकवा—गिला छोड़ो, तुम होस्ट हो...कम ऑन! पार्टी आन पीक...कम!'' शराब और संगीत का मेल था। पार्टी पूरे शवाब पर थी। लोग अलग—अलग गोल बनाकर कहकहे लगा रहे थे। सुगंधा बारी—बारी सबसे जुड़ रही थी।

अलंकार एक जिंगल सुना रहा था। सभी ठहाका लगाकर हंसे। वह पास आ गई तो मुखर्जी ने कहा, ‘‘ए सुगंधा, सुनो! तुमको बोलता है। इसका जिंगल सुनो न!''

‘‘एक बार सामने बोलो तो अलंकार भाई!'' बावला ने निवेदन किया।

बस्ती—बस्ती बात चली, चड्‌डी पहन के कली खिली।

भंवरों में हड़कंप मचा, बन ठन के टोली निकली।

मेरीमेरी शोर हुआ, हर जानिब तकरार चली।

‘बस्ती—बस्ती बात चली, चड्‌डी पहन के कली खिली।' जिंगल सुनकर फिर सब ने ठहाका लगाया। सुगंधा और आबिद ने भी साथ दिया। मुखर्जी ने बात को आगे बढ़ाया।

‘‘सुनो...सुनो! ऐ सुगु, तुमको मालूम है...इस दुष्ट ने जिंगल कौन—सा एड के लिए बनाया?'' सुगंधा ने कंधे उचकाकर कहा, ‘‘नहीं!''

‘‘अरे बाबा तुम्हारा ‘वाटर फॉल—बाथ' वाला ऐड के लिए...मैं तो पसंद किया,

पर कंपनी वाला बोला इसमें साबुन किधर है...।'' सब एक बार फिर हो—हो करके हंसे।

सुगंधा ने अलंकार को मारने का अभिनय किया। आबिद ने थोड़ा गंभीर मुद्रा बनाते

हुए अलंकार से कहा, ‘‘बहुत खूबसूरत! क्या सिंबोलिक आइडेंटिटी दी है सुगु को, ‘चड्‌डी पहन कर कली खिली!' वाह!''

‘‘यू! रास्कल!'' कहकर सुगंधा उसकी ओर लपकी। उसने कई मुक्के छाती पर जड़ दिए। आबिद ने विरोध नहीं किया।

उस रात आबिद रितु के आग्रह पर वहीं रुक भी गया था। जाते—जाते बावला ने मज़ाक किया था, ‘‘क्या आबिद भाई! सुबह जलंधर, शाम को दिल्ली। एक साथ दो बोट में पांव रखने का, क्या?''

मुखर्जी ने बीच में जोड़ दिया, ‘‘जिंगल का ओसली भ्रमर यही है...क्यों अलंकार दादा!'' अलंकार ने जानबूझकर सुगंधा को सुनाते हुए कहा, ‘‘ऊ तो ठीक है दादा! पर बेचारी फिरंगन का बनी अब...''

‘‘तुम उधर जाकर उसको जिंगल सुनाओ...और क्या?''

सभी नशे में थे! जो लड़कियां साथ जाने के लिए रुकी थीं, वे सभी चुप थीं। घर पहुंचने की बेताबी उनके चेहरे पर झलक रही थी। इतनी आधुनिकता के बावजूद वे कहीं न कहीं बंधी थीं! यह बंधन ही हर रात उन्हें खींचकर उनके ठिकाने तक पहुंचने में मदद करता था। कभी—कभी यह देखकर रितु राहत की सांस लेती थी। सोचती थी, ‘सही मायने में वही स्वतंत्र है, आजाद है, आत्मनिर्भर है, अपने मन की मालिक! जब जो चाहती ह,ै कर सकती है...आज की नारी।' उस रात ऐसा वह सोच नहीं पाई थी। उस समय तो उसे लगा, जैसे वे सभी बहुत कीमती हैं, सभी की किसी न किसी को फिक्र है। जरूरत है...वे यूं फालतू की चीज नहीं हैं...उसने सोचा, फिंरगन के बारे में...आबिद के बारे में! जिसे वह जबरन रोक रही है...यह उसका ठिकाना नहीं है। शायद किसी का ठिकाना नहीं है। उसका अपना है, पर वह किसी का इंतजार नहीं करती, कोई उसका इंतजार नहीं करता।' इसी बीच आबिद ने सभी को घुड़कते हुए कहा।

‘‘इट्‌स इनफ! नाउ...यू गेट लोस्ट! गो! गुड नाइट! बाय—बाय!''

रितु ने आबिद की छाती पर अपना सिर रख दिया। अब सिर्फ वह पहले वाली रितु थी, आबिद की रितु। उसी अधिकारभाव से सिर रखकर उसने फिंरगन के बारे में जानना चाहा।

‘‘कौन है, कई दिनों से उड़ती—उड़ती खबर सुन रही हूं! शायद इसीलिए मेरे लिए समय नहीं निकलता...कम से कम पार्टी में ले आते...मैं भी मिल लेती उससे...दूसरों से तो न सुनना पड़ता...''

आबिद खामोश रहा, सोचता रहा।

‘‘कुछ तो बोलो।'' रितु ने उसे फिर कुरेदा।

‘‘एज यूजुअल यार! मेरी नई खोज है कैरन! और देखो रितु! तुम्हारी ओर मेरा काम लगभग खत्म हो चुका है...नाउ यू आर इन पॉजीशन...मैं दो साल तक अपनी मॉडल के साथ काम करता हूं। उससे कमिशन लेता हूं, तुम भी जानती हो...उसके बाद फ्री! जबकि तुम्हारे साथ तो मैं तीन साल तक अटैच रहा।''

व्यंग्य से हंसी थी रितु।

‘‘मुझ पर इतनी दरियादिली क्यों?''

‘‘तुममें कुछ बात है...''

‘‘तो फिर रहो न मेरे साथ...'' रितु ने लाड़ में भरकर कहा।

‘‘अभी तो हूं न तुम्हारे साथ... इस पल को जिओ रितुरानी...कल की बातें छोड़ो...

आगे भी जाने न तू...पीछे भी जाने न तू...जो भी है, बस यही एक पल है...।'' उसने गीत की पंक्तियां गुनगुनाते हुए उसे बाहों में भर लिया था।

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