Phir bhi Shesh - 19 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 19

फिर भी शेष - 19

फिर भी शेष

राज कमल

(19)

अकेलेपन की उदासी रितु को हमेशा नहीं घेरती। प्रसिद्धि और पैसे का नशा उस पर हावी रहने लगा है। जब कभी उसकी खुमारी टूटती है, तब जीवन बियाबान लगने लगता है। ‘बॉडीवाश' और ‘क्रीम' और ‘टीन—सोप' की विज्ञापन फिल्मों के बाद उसे वीडियो एलबम का ऑफर मिला। ‘एक्सपोजर' की भारी डिमांड पर यह कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ था। कोरियोग्राफी स्वयं बावला की थी। शोभित और अलंकार ने भी रितु को खूब ‘पुश एंड पंप' किया। रितु ने भी इसे चुनौती की तरह लिया, ‘करो या मरो'। ‘कांटा लगा' मार्का गाने पर विविध कोणों से संपूर्ण देह—दर्शन से एलबम रातों—रात हिट हो गया। रितु ‘हॉट—केक' बन गई। उसके बाद तो अनेक नए—पुराने गीतों के ‘रिमिक्स एलबम' के निर्माताओं के लिए वह पहली पसंद बन गई। वैसे तो पूरी यूनिट का ग्राफ बढ़ा, पर रितु का सितारा जबरदस्त चमका। जब कोई सितारा बालीवुड में चमकता है तो उसकी चमक पूरे देश और विदेश तक पहुंचती है। तो फिर रितु का अपना शहर इस चमक से अछूता कैसे रहता।

चंद वर्षों में जिसे बुरा—भला कहकर भुला दिया था, जिसकी बात और शक्ल से घरवाले तक बेजार, बेपरवाह हो गए थे, अब वही शक्ल—सूरत नए अवतार में हलचल मचा रही थी। चैनल पर रात—दिन उसके वीडियो एलबम बजते और दिखते थे। उसके क्रेज के कारण अब उसकी दूसरी विज्ञापन फिल्में भी बार—बार दोहराई जाती थीं। टीन— एज की बड़ी फौज उसकी दीवानी थी। एकाएक वह गली महत्त्वपूर्ण हो गई, जहां से एक दिन वह चुपचाप भाग गई थी, पीछे छोड़ गई थी परिजनों के लिए रुसवाई और अपने लिए गुमनामी। आज उन्हीं परिजनों को लोग राह में गौर से देखते। आपस में इशारों से कहते, ‘‘अरे...इसी पियक्कड़ की बेटी है वह...''

‘‘वाह! क्या नसीब पाया है...पर यह तो अभी भी फक्कड़ ही है...''

कोई कहता, ‘‘क्या पता, रिश्ता ही तोड़ लिया हो।''

‘‘हां लाला, पैसा ही सब कुछ नहीं होता। घर की मान—मर्यादा भी कोई चीज है!''

‘‘सच कहा! बेहयाई की हदें पार कर लीं लौडिया ने...बाप—भाई के लिए डूब मरने

वाली बात है!''

‘‘जमाना बदल गया है यार! पैसा है तो सब जायज है...''

शुरुआत में नाम के कारण लोगों में जो संदेह उत्पन्न हुआ था कि सुगंधा नाम की यह लड़की रितु जैसी हूंबहूं दिखती है, किन्तु सयाने लोगों की राय थी कि नाम बदलना तो वहां आम—चलन है। यह रितुपर्णा ही है। घरवालों को तो पहले ही शक नहीं था। इसलिए वे चुप्पी साधे रहे। गली में यही चर्चा...सुक्खी के दोस्तों में यही विमर्श। एक बात साफ थी। दूसरों का पता नहीं, हां! परिचितों के जुमलों में तानाकशी कम हो गई थी। मन ही मन सोचते— काश! यह मुकाम हमारे बेटे या बेटी को मिल पाता। गली में से पड़ोसी चोपड़ा, रामानुज, विश्नोई, त्यागी की मां वगैरह हिमानी और सुक्खी को बधाई भी दे आए। जिनके जवान बच्चे थे, उन्होंने कुछ ज्यादा ही मिठास घोलकर रितु की प्रशंसा की। यह भी कहा कि मेरी बेटी तो उसकी फैन है...कह रही थी, दीदी यहां आएगी तो ज़रूर मिलूंगी। कोई अपने निखटटू लड़के के लिए उसकी मार्फत जुगाड़ बैठाने की सोच रहा था।

हद तो तब हो गई, जब लोकल चैनल की कैमरा टीम सुखदेव के घर आ धमकी। सुखदेव को तो जैसे—तैसे ढूंढ़ा, पर वह इस हालत में नहीं था कि उनसे बात कर पाता। दो—चार गालियां देकर उसने उन्हें वहां से चले जाने की नसीहत दी। हिमानी के लिए यह अजीबोगरीब स्थिति थी। वह हंसे या रोए, खुशी मनाए रितु की प्रसिद्धि पर या शोक मनाए उसकी निर्लज्जता पर। उसने भी देखी थी उसकी एलबम, जिसमें रितु के हाव—भाव किसी रति—क्रिया में रत नायिका जैसे थे। प्रशंसक उसे ‘कला' कह रहे थे। रितु कलाकार थी। आज की स्त्री का नया कलेवर, ऊंचाइयों का मानदंड, किंतु हिमानी को लगता है कि यह वेश्यावृत्ति का ‘एलीट—वर्जन' ही तो है। कम से कम वस्त्रों में सबके सामने स्वयं को परोसना...भाव—संकेतों से उन्हें आमंत्रित करना...‘सेक्स वर्क' ही तो है। फिर इतना सम्मान किसलिए?''

बड़ी शाइस्तगी से उसने स्वयं को कैमरे और लाइट से दूर कर लिया। ‘ऑफ द रेकार्ड' उसने इतना ही कहा, ‘हां, वह यहीं पली—बढ़ी, यह घर उसका है। इससे वह इंकार नहीं करती...' रिपोर्टर ने धैर्य नहीं खोया। उसने छोटी—छोटी बातें पूछीं कि वह कहां सोती थी, कहां बैठकर पढ़ती थी, उसका स्कूल कौन—सा था, किस कॉलेज में वह पढ़ी! वगैरह—वगैरह!

एक दिन उस चैनल ने सुगंधा की स्टोरी को फ्लैश किया। विशेषकर इस बात पर जोर दिया कि वह बिन मां की बच्ची कैसे दमघोंटू वातावरण में भी सपने बुनती रही। वह नन्ही परी यहां सोती थी। इस खिड़की से खुला आसमान देखती थी, आकाश में उड़ने की चाहत लिए...वगैरह—वगैरह। और एक दिन मौसी की नसीहतों और पिता की गालियों से तंग आकर आपके दिलों की धड़कन बनने के लिए यह घर छोड़ दिया...वह रितुपर्णा से सुगंधा बन गई।

हिमानी जलभुन गई। उसने अपने मन का दुःख आदित्य के सामने खोला तो उसने समझाया, ‘‘रोज नए चैनल लांच हो रहे हैं...गला—काट कंपटीशन है...अब रस्सी का सांप दिखाकर ही टीआरपी बढ़ाएंगे न... और दूसरी बात यह कि रितु के कैरियर और काम को इतना डिग्रेड करने की जरूरत नहीं है। इससे पहले भी यह काम लड़कियां कर चुकी हैं, आगे भी करेंगी...''

‘‘पर कोई लिमिट...'' बीच में टोका था हिमानी ने।

‘‘लिमिट जैसी कोई चीज नहीं है। जहां हम, देखते—सुनते, कहते—करते, धीरे—धीरे अभ्यस्त हो जाते हैं। उसके बाद सीमा रेखा खींच लेते हैं...कुछ समय बाद एक और रेखा उसके पीछे।आई मीन यही क्रम चलता रहता है... अच्छा एक उदाहरण देता हूं जैसेएक समय स्त्री का सिर न ढंकना शालीनता का उल्लंघन था। उसके बाद बालों का काटना, फिर खुले बाल रखना...हम अभ्यस्त होते गए...हमने सीमा रेखाएं और पीछे खींच लीं। अब किसी लड़की के लहराते बालों को देखकर कोई उसे बेहया नहीं कहता। लड़कियां अब कॉल सेंटर में लड़कों के साथ रात की पाली में काम करती हैं, यह अब सीमा का उल्लंघन नहीं है, पहले था, लेकिन एक बात है, शुरुआत हमेशा समाज की अगड़ी, सुविधासंपन्न जमात ही करती है। धीरे—धीरे निचला वर्ग उसे आत्मसात करता जाता है, जिसकी संख्या बहुत ज्यादा है। आई मीन समाज में रेखांकन उसी से होता है।'

हिमानी अपना क्लेश जैसे भूल गई थी और आत्ममुग्धा—सी आदित्य को देख रही थी। वह विचारों के बहाव में गतिमान थी, ‘फिर भी! सीमाओं का यह अतिक्रमण कहीं तो जाकर रुकेगा या नहीं।'' उसने पूछा था।

मुस्कराया था आदित्य। कुछ पल सोचा, फिर कहा, ‘‘शायद नहीं! प्रकृतिवादी निर्वस्त्र रहना चाह रहे हैं...पुरुष, पुरुष के साथ जोड़ा बना रहे हैं और औरत, औरत के साथ रहने को बुरा नहीं मान रही। इस तरह हम स्टोन—एज की ओर लौट कर एक वृत्त पूरा करेंगे...।''

‘‘जैसे कि पशु जंगल में रहते हैं?''

‘‘ऑफ कोर्स!'' आदित्य ने समर्थन किया।

हिमानी का मन एकाएक चंचल हो आया। आदित्य के सान्निध्य में ऐसा अब होने लगा है। उम्र कम—सी हो जाती है, कानों में सनसनाहट बजने लगती है...दिल में हुमहुमाहट बढ़ जाती है। बातें लंबी होती जाती हैं...हर चीज़ में आकर्षण बढ़ जाता है। ऐसी ही भावावस्था में उसने सोचा, ‘और आने वाले समय में रति—क्रीड़ाएं बेपर्दा, सरे राह भी होने लगेंगी...शायद उसके बाद रेखा खींचने को कुछ शेष न रहे।' सोचकर उसके शरीर में सरसराहट—सी दौड़ गई।

आदित्य ने उसकी मनोदशा को भांपने का प्रयास किया, पर सफल नहीं हुआ। मन के अनंत सागर में असंख्य तरंगित भाव उठते हैं, गिरते हैं। कौन जान पाया है, किसने विश्लेषित किया है, अधिकतर अनुमानित आधार हैं... कभी—कभी बायोलॉजिकल फैक्टर भी भ्रम पैदा कर देते हैं। तो भला वह कैसे अनुमान लगा पाता, लेकिन उसने अपने मन में उग रहे ख्याल को हिमानी के सामने रख दिया। माथे पर किंचित सोच की रेखाएं बनाते हुए उसने कहा, ‘‘सोचता हूं, अब यह ऑफिस छोड़ ही देना चाहिए, क्योंकि पिछले दिनों सुखदेव सिंह ने जोर देकर यह ऑफिस खाली करने के लिए कहा है। दो—तीन दिन बाद हरदयाल सिंह ने भी बुलाकर कहा कि हमने मकान बेचने का मन बना लिया है। चाहते हैं कि किरायेदारों से कब्ज़ा लेने पर ही डील फाइनल करें और...'' वह चुप हो गया तो क्षणभर रुक कर हिमानी ने पूछा, ‘‘और...क्या?''

‘‘जाने दीजिए...! आप पहले ही इतना परेशान हैं, उसमें और इजाफा...नहीं! कब्ज़ा तो छोड़ना ही है आज नहीं तो कल...''

‘‘मेरी बहुत फिक्र है आपको?'' सीधे आंखों में देखा उसने।

‘‘हां! है... आप समझ सकती हैं...''

मन में सोचा हिमानी ने, ‘हां! समझ तो रही हूं...अभी तो समझ आना शुरू हुआ था...इतने वर्षों में...कुछ खुलने लगा था भीतर। अपने को चाहने लगी थी धीरे—धीरे

...तुमने ही तो हौसला दिया था। मेरी हर मुश्किल को आसान किया था कि हिमानी अपने लिए भी सोचो, कहा था न...मैं ही जानती हूं, कैसे परत—दर—परत संकोच को झुठलाने में दिन—रात लगी हूं।'

‘‘क्या सोचने लगीं।'' आदित्य ने टोका।

व्यंग्यात्मक स्मित के साथ उसने कहा, ‘‘मेरी चिंता में इतने ही दुबले हो रहे हो तो असहाय छोड़कर क्यों जा रहे हो? आप भी जानते हैं कि मैं आपके सहयोग के बिना ऐसी मुश्किल सच्चाइयों का सामना नहीं कर सकती थी। हर समस्या का समाधान आपसे पूछा... जब भी कमजोर पड़ी, आपको याद किया। जबकि हमारा कोई रिश्ता नहीं है और आपकी जिम्मेदारी भी नहीं... फिर भी, हमदर्दी के नाते ही सही...अब क्या मुसीबतें खत्म हो गर्इं या हमदर्दी नहीं रही...बोलिए! पहले क्या नार्मल बोल पाती थी आपसे...? अकेले इतनी देर बातें कर पाती थी?'' बोलते हुए उसका स्वर थोड़ा ऊंचा हो गया था। शायद इसीलिए बाहर वाली टेबल पर काम करता विनोद उठकर आया, झांककर पूछा, ‘‘आपने कुछ कहा सर?''

आदित्य मुस्कराया, कहा, ‘‘नहीं, हां! दो गिलास पानी दे दो।''

हिमानी ने सिटपिटाकर कहा, ‘‘सॉरी, वेरी सॉरी! कैसी हिमाकत कर दी मैंने, उफ!''

‘‘कोई बात नहीं...रिलैक्स!'' आदित्य ने उसे पहले सहज किया, तब आगे कहा, ‘‘आपकी यही हिमाकत उन्हें पसंद नहीं है। आई मीन हरदयाल सिंह ने यही कहा, ‘आप पढ़े—लिखे हैं, समझदार हैं...ज्यादा क्या कहें...घर—परिवार में इज्जत बड़ी चीज होती है...बहुत बातें हो रही हैं...आपको इशारा कर दिया है...बाद में हमें न कहना...''

हिमानी की आवाज़ में तुर्शी आ गई, ‘‘मुझे किसी की परवाह नहीं...क्या किसी ने मेरी परवाह की है कभी...''

‘‘सबका नसीब एक जैसा नहीं होता हिमानी जी! कुछ लोगों के हिस्से में सिर्फ देना आता है।''

‘‘जानती हूं! पर अब नसीब से थोड़ा लड़ने का इरादा कर लिया है मैंने।'' कहकर वह एकदम उठ आई थी।

आदित्य उसके इस रूप से हतप्रभ रह गया।

सुखेदव अधिक सोच—विचार करके दिमाग पर बोझ नहीं डालना चाहता। बहुत बड़ी—बड़ी बातें क्या होती हैं, वह नहीं जानता और न उसके दिमाग में बड़ी बातें घुसती हैं। उसकी क्रिया—प्रतिक्रिया क्षणिक होती है। उसका कारण यह भी है कि वह ज्यादातर अपने होशोहवास में नहीं होता। जिस दिन पी लेता है तो शहंशाह होता है, नहीं पीता तो पीने की जुगाड़ में ही दिन काट लेता है। महीने के पहले बीस दिन शहंशाही में गुज़रते हैं, शेष दीन—हीन बनकर दोस्तों की खुशामद करने में।

रितु वाले प्रकरण में वह तटस्थ—सा हो गया है। उसे समझ नहीं आता कि वह लोगों को क्या जवाब दे। हां! इतना उसे पता है कि अब उसकी बेटी के पास धन—दौलत की कमी नहीं है...ऊंचे लोगों में उसका शुमार है, पर इसके लिए उसने जो किया, वह कल भी गलत था, आज भी गलत है। वह उसे कभी माफ नहीं करेगा। वह क्या कर रही है, वह देखना नहीं चाहता। उसके घर पहुंचने पर कभी हिमानी टीवी देख भी रही होती है तो बंद कर देता है। पहले कभी—कभी वह समाचार देख लेता था, अब नहीं देखता। न जाने कब उसका विज्ञापन किस वेशभूषा में आ जाए।

कभी—कभी कमजोर भी पड़ जाता है वह। सोचता, ‘‘कैसे बच्चे हैं उसके...कोई रिश्ता नहीं, मोह नहीं...जैसे उसके बच्चे ही न हों... रितु को अब शर्म आएगी यहां आकर उसे बाप कहने में...लेकिन रहूंगा तो बाप ही...उस दिन आए थे चैनल वाले

...कैसी मिन्नतें कर रहे थे कि दो—चार बातें रितु सिंह के बारे में बताइए न...क्या आपको पता था कि आपकी बेटी एक दिन स्टार बनेगी...सबके दिलों पर राज करेगी...' और उसने कैसे रौब से उन्हें गरिया दिया था। तुम कौन होते हो पूछने वाले कि हमने कैसे पाला उसे? कब प्यार किया उसे और कब फटकारा...खामखां... कभी लगता है, वह अपने बच्चों पर गुमान करे, लोगों को बताए कि देखो, कितने लायक हैं...मुझे इतना दुर—दुर मत करो...मेरी भी कुछ हैसियत है, पर ऐसा कुछ नहीं किया उसने। वैसे अब उसके पास करने को कुछ रह भी नहीं गया है। दिन काटने का एक ही जरिया था उसके पास। लाटरी के टिकटों में उसका रुपया और समय, दोनों खर्च होते थे। जब से सरकार ने लाटरी पर प्रतिबंध लगाया है, उसका यह शगल भी जाता रहा। एक तो यही चोट थी उसके दिल पर, दूसरी चोट उस दिन सुनहरी के कारण पड़ी थी। दोस्तों में बात खुलने के कारण वह बहुत दिनों से उधर गया ही नहीं था, पर कब तक न जाता। उसने रुपए खर्च किए थे... और भी खर्च कर सकता था, पर हरामजादी हाथ तो धरने देती।'

यही सोच कर गया था उस दिन। उसके ठिकाने की ओर बस—स्टैंड पर। पर यह क्या? वहां तो उसका टीन—टप्पर तक नहीं था। न बच्चे दिखे और न वह कंबल में लिपटा मुर्दे—सा उसका कसाई पति। बड़ी देर तक, इधर से उधर, उधर से इधर, घूम—घूम कर वह इंतजार में रहा। आखिर थक—हार कर उसने रेहड़ी पर केले बेचने वाले से पूछा कि यहां जो भिखारिन बच्चों के साथ पड़ी रहती थी, कहां गई?''

फल वाले ने पहले तो उसे गौर से देखा, मुस्कराहट में उसके होठ थोड़े फैल गए। फिर अपने ग्राहक को निबटाकर उसकी ओर देख धीरे से पूछा, ‘‘कोनो लेन—देन रहा काह!'' सुखदेव ने पहले झोंक में ‘हां' कह दिया। फिर जल्दी से कहा, ‘‘नहीं, नहीं...! ऐसे ही पूछा यार... बहुत दिनों से यहां डेरा जमाया हुआ था न। हुं! ऐसे लोगों

का क्या अब कहीं और टप्पर डाल लिया होगा...'' उसे लगा, बेमतलब वह कुछ ज्यादा बोल गया।

फल वाले ने इत्मीनान वाले लहजे में कहा, ‘‘नहीं, भाईजी टप्पर नहीं। सरकारी मकान मिला रहा इस बार...'' कहकर वह मुस्कराया।

सुखदेव ने लपककर पूछा, ‘‘क्या मतलब... सरकारी मकान...?''

‘‘लो, मतलब नहीं समझे तो सुनो!'' फुसफुसाकर उसने सारी बात खोलकर बताई। जिसका लब्बोलुआब यह था कि दोनों मर्द—औरत नशा बेचते थे...हेरोइन, स्मैक, गांजा। पुलिस को शक हुआ तो एक रोज उठा ले गई। भाई जी! उस दिन तो जो भी आस—पास था, सबको घेर लिया। काह कि ससुरे! ऐसे लोगन का पड़ोस भी बुरा...अरे हमको भी दो—चार डंडा पड़ा पिछाड़ी में और पूरा दिन थाने मा हाजरी बजाया था। हां!''

सुनकर चिहुंक गया था सुखदेव, जैसे डंडे उसकी पिछाड़ी पर पड़े हों। मौत जैसे छूकर निकल गई हो। एकदम ठंडा पड़ गया था। फिर भी जाते—जाते उसने इतना और पूछ लिया, ‘‘क्या जेल हो गई दोनों को?''

‘‘मरद तो गया जेल। सुनहरी का दू रोज थाने मा छठ—पूजन किया, फिर छोड़ दिया

...छोटे—छोटे बालक...तरस खा लिया सरकार ने...'' अचरज से भरकर आगे कहा उसने, ‘‘लगता है आप बहुत रोज बाद इधर आए हैं, पहले जल्दी—जल्दी आते थे, हम पहचानते हैं आपको! अरे साब, मत पूछिए, कई रोज डरामा हुआ यहां पर। दनदनाता पुलिस आता था...सब भिखारी—उखारी को पकड़ के ले गया...कौन...कौन गिरोह में है...यही पूछता था, पर लाला जी आप तो इसी इलाके में रहते है। गुरुद्वारे के सामने

...और उस चौक पर तो हमारा भाई...''

‘‘ओ तेरे की!'' फिर चाैंका सुखदेव। उसे क्या दुनिया जानती है...वह हैरान था। कैसे जानते हैं...रितु का बाप होने की वजह से या नन्नू के कारण? नहीं, नहीं! मैं पियक्कड़ हूं...फटेहाल रहता हूं पर इतनी बड़ी कोठी का मालिक हूं। हां, पूरा नहीं आधा तो

हूं...नहीं! शायद हिमानी..., सब पहचान लेते हैं। यही है बेगैरत, जिसकी औरत दूसरों के साथ खुश रहती है। बस, इसको पास नहीं फटकने देती...हरामजादी! वह गुस्से से भर उठा था।

‘‘अच्छा! ठीक है, ठीक है।'' कहकर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

चौक पर जाते ही यारों ने उसे आड़े हाथों लिया। वहां सिर्फ बंसीधर और गोरख ही थे। सुमेर सिंह गांव गया था। उसकी लड़की की शादी थी। करीम ने आज ईद के कारण ठीया बंद रखा था। जुनेजा लाटरी बंद होने के बाद से अब मेन बाजार अजमल खां रोड पर जुराब और बनियान बेचने लगा था। राजाराम ठेकेदार को कोई ठेका मिल गया था, जहां वह मकान की नींव डलवा रहा था।

‘‘सुनहरी याद कर रही थी लाला। थाने बुलाया है।'' गोरख ने उसे आते ही छेड़ा।

सुखदेव ने होठों में ही गोरख को जोरदार गाली दी।

‘‘बच गया लाला! तेरी उस पर...इतने बेंत पड़ते कि सीधा सोना भूल जाता। नजराना देना पड़ता अलग से...''

‘‘अरे, नसीब खोटा है गरीब का।'' गोरख ने कहकहा लगाया, ‘‘घर में साक्षात्‌ माधुरी दीक्षित—सी भौजाई है...पर हाथ नहीं धरने देती... यार मेरे! कोई खोट तो नहीं है तुझमें...कोई कमजोरी।'' कहकर उसने फिर पान के पत्ते पर चूना रगड़ा।

‘‘भइया इसका इलाज तो नजदीक ही है। थाने से आगे चर्च के सामने फुटपाथ पर तंबू वाला हकीम है... खोई हुई ताकत फिर पाएं, शर्तिया इलाज।'' फिर आगे इतना और जोड़ दिया, ‘‘अगर ज्यादा ही टेढ़ा मसला है तो भी चिंता कैसी सबलोक फार्मेसी और वो बड़ी—बड़ी मूछों वाले हकीम हरिकिशन लाल हैं ना!'' कहकर बंसीधर ने जोरदार ठहाका लगाया। इस ठहाके में कुछ ग्राहक भी शामिल हो गए।

सुखदेव भन्ना गया। वह र्इंट का जवाब पत्थर से देना चाहता था, ऐसा कि पनवाड़ी की सात पुश्तें याद रखतीं कि हां, किसी से पाला पड़ा था, पर गम खा गया। दरअसल उसे तलब लगी थी। सुबह से मनूहस खबरें सुन—सुन कर दिमाग सटक गया था। ऊपर से दुश्मनों जैसे दोस्त... इन सालों का क्या करें, जब देखो हिजड़ों की तरह तालियां पीटते रहते हैं, लेकिन एक बात वह स्वयं को समझा नहीं पाता कि यहां आता क्यों है, मंदिर में सुबह—शाम मत्था टेकने के बाद फिर यहां क्यों रुकता है? क्यों सुनता है उनका बेपर्दा मजाक? वह खुद नहीं जान पाता कि यहां आने की उसकी क्या मजबूरी है। राजाराम से मिलने शायद! वही एक ठीक—ठाक आदमी है। वह भी अब कम दिखता है क्योंकि उसे प्रापर्टी डीलर बनना है। जब भी टाइम मिलता है तो पार्टी ढूंढ़ता फिरता है। कहता थायहां क्या मिलेगा बैठकर इधर—उधर की हांकने से...। तभी गोरख ने भुस को तीली दिखाई थी, ‘‘हां भई, लगता है, बड़ा आदमी बनने का गुर सीख लिया है सुखदेव से।''

राजाराम है नहीं, तो क्या करे सुखदेव? किसके साथ मन हल्का करे। जुनेजा का साथ भी छूट गया। अकेले तो गले से नहीं उतरती। उसने सोचा, ‘चलो, आज पुराने याराें के पास, टैक्सी अड्‌डे पर चला जाए...मिक्का और घुन्नी तो देर तक रंग जमाते हैं। ठेकेदार जगतारे खा—पीकर सो चुका होगा।' उसने रास्ते से बोतल और चखना खरीदा और लहकता हुआ टैक्सी स्टैंड पहुंच गया। जगतारे अभी सोया नहीं था। सभी जन तंबू के नीचे एक तख्त और एक चारपाई पर अपने गिलास लिये तली मछली के टुकड़ों को हरी चटनी के साथ चख रहे थे। एक ड्राइवर सवारी छोड़कर शायद अभी लौटा था। वह एक ओर लकड़ी के फट्‌टे पर उकडूं होकर जल्दी—जल्दी नहा रहा था ताकि उनमें शामिल हो सके। उसे छोड़कर बाकी सबने सुखदेव का स्वागत किया। जगतारे बहुत चहका, ‘‘ओय, आजा—आजा! मेरा शेर...बड़ा चिर लाया ऐस बारी...'' उधर बल्ली और मिक्का मन ही मन कुढ़ गए थे, ‘‘लो! आ गया ‘मुफ्तखोर', किंतु जब सुखदेव ने कमीज के नीचे से बोतल और जेब से नमकीन का लिफाफा स्टूल पर रखा तो उनका गिला जाता रहा।

‘‘भई, बल्ले—बल्ले हो गई अज ते। अपना सुक्खी दलेर है...अज तर्इं जो कित्ता...जम के कित्ता...।'' ठेकेदार जगतार कह रहा था।

‘‘अपणां पुराना यार है। ये दे पापाई मैनुं बड़ा मन दे सी। मैं नवा—नवा दिल्ली शहर आया था। इक कम्पनी दी गड्‌डी चलाता था...ये दे पापाजी— महादेव सिंह जी, रब उन्नां दी आत्मा नूं शांती बख्शे... उनसे मेरी मुलाकात हो गई कम्पनी ऑफिस में... लो जी, फिर पहचान बढ़ती गई। एक दिन उन्होंने कहा, ‘जगतार बेटा, अपनी गड्‌डी खरीद ले, कुछ पैसे जोड़ कुछ मैं लोणं करवा दूंगा...। लो जी, मैं गड्‌डी वाला हो गया, रब दी महर कम चलदा गया।'' नया ड्राइवर भी नहाने के बाद लुंगी लपेटकर उनमें जम गया। गिलास भर रहे थे, खाली हो रहे थे। ठेकेदार फिर अपने टै्रक पर लौटते हुए बोला, ‘‘बड़ा नसीब वाला है सुक्खी, सब कुछ ‘ए वन' मिला यार को। मां, पिओ, घर और जनानी मक्खन दी डली बरगी...मैं दस्सा त्वानूं। ओय, ऐ मेरे हान दा है... इसकी बरात में गया था मैं

...पूछ लो...क्यों भई सुखदेव! याद है उत्थे जाके की रौनका लाई सी। ओई जूते छुपाने वाली रसम...'' सुखदेव सिर झुकाए चुपचाप सुन रहा था, शायद यादों में खो गया था

...टुकड़ा—टुकड़ा बीतता वक्त कितना खूबसूरत था, जो उसे मोह रहा था।

बल्ली ने बीच में बात काट कर कहा, ‘‘जानते हैं पापा जी, उसके बाद दूसरी मक्खन दी डली भी उसी घर से मिल गई, आपणे कई बार बताया है न!''

‘‘हुणं भी यार दी चढ्‌दी कलां है...कुड़ी ने...अपनी रितु ने क्या नाम कमाया है हिरोइन हो गई है...लाखों की कमाई, गाड़ी—बंगला सब कुछ होगा उसके पास...।''

मिक्का धीरे से बुदबुदाया, ‘‘ओय, सब वकील बाबू और अपणीं भरजाई दी मेहनत दा परताप है...सुखदेव अपणां भोला—भंडारी! सिर्फ नाम का धणीं।'' धुन्नी ने उसमें अपनी राय जोड़ दी, पर जगतार ने उन्हें अनसुना करते हुए कहा था, ‘‘अपनां नन्नू भी क्या खूब...जुगाड़ भिड़ाया...पहलां ड्राइवर, सुनिया...हुण एम.पी. का पी.ए. हो गया है...।'' बात बीच में छोड़कर जगतार ने पूछा, ‘‘यार! तेरा मुंडा और कुड़ी कुछ रुपया—पैसा भी घर भेजते हैं कि नहीं, तेरे वास्ते?''

‘‘छोड़ो उस्ताद जी, कोई और बात करो...।'' सुखदेव ने सोचते हुए धीरे से कहा।

‘‘पुछणं दी की लोड़ है पापा जी! तब यार मेरा विलायती ले के न आता...

खेत किसी दा, ते हल चलाए कोई होर...बड़ा दुःख लगता साब जी।'' नाटकीय ढंग से आह भर कर बलबीर ने कनखियों से सुखदेव को देखा। उसका चेहरा तमतमा गया था।

‘‘क्या...क्या खेत? कौन करे...? समझाओ इसको भाई जी! ये कि बहुत मसखरी सूझती है। तू अपने गांव जाकर देख, तेरी फसल में कौन मुंह मार रहा है।''

‘‘छोड़ न यार! उसे तो चढ़ गई है। गिलास सूंघते ही बहक जाता है बल्ली...चल तू अपनी वाली खोल न...आहा! देसी दारू दा जवाब नहीं...और इसको नहीं देना बिलकुल...चल खोल।'' मिक्का ने अपनी तरह से उसे शांत किया।

‘‘चोप्प!'' जगतारे ने बल्ली, मिक्का और घुन्नी की ओर आंखें तरेरकर हड़काया। ‘‘ओ! मेरा बीर है, भ्रा मेरा! किसी ने अलफ भी जुबान तो कडया...ते छड्‌डागां नई!

...ये दे पापाई मैनूं, बड़ा मन दे सी... चल ओय बल्ली! ओस पंजाबी होटल वाले नूं फोणं लगा...एक चिकन मसाला होर बोल दे...मेरे भ्रा वास्ते...प्याज, मूली थोड़ी ज्यादा लियाबे, नाल चटनी भी...''

सुखदेव जब वहां से पी—खाकर लौटा तो उदास नहीं था। फिर भी, रह—रहकर उसे हिमानी और आदित्य पर गुस्सा आ रहा था। यह बात जैसे पूरे शहर में उड़ रही थी। वह जहां जाता, बात वहां पहले पहुंच जाती है और लोग उसे शर्मसार कर डालते। उसने पक्का अहद किया कि अब भाई से मिलकर वह जैसे भी राजी हो, इस मकान को बेच देगा और उससे पहले ही वकील को निकालकर सड़क पर खड़ा करेगा।

***

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