फिर भी शेष
राज कमल
(21)
नरेंद्र ने तो मोबाइल नंबर देने के लिए ही हिमानी को फोन किया था। यही सोच कर कि कभी इमरजेंसी में मौसी कहां—कहां लैंडलाइन पर फोन पर फोन करके उसे खोजेगी, वह एक जगह तो बैठता नहीं, सौ जगहें, और सौ काम हैं उसके पास।
यह ठीक है कि घर जाने को उसका मन नहीं होता, बचपन से ही घर में कोई आकर्षण नहीं रहा। मां नहीं थी, मौसी थी, मां जैसी ही। बाप की जगह एक शराबी, अड्डेबाज आदमी था, जो सुबह—शाम दिखता था, हमेशा तंगी से जूझता, लड़ने को आमादा। ताऊ—ताई शुरू से अजनबी थे। उनके लड़के कभी भाई जैसे नहीं लगे। वैसे यह सब न भी होता, तो भी आमतौर पर ‘टीन एजर' लड़के घर के कम बाहर के ज्यादा होकर रहते हैं।
हिमानी ने नंबर लिख कर बातों का सिलसिला जोड़ लिया। यही कि तेरे ताऊजी ने छोटे बेटे का भी रिश्ता तय कर दिया है। कहते हैं सोचा तो यही था कि यहां से कहीं दूर जाकर शादी करें, किंतु क्या करें मकान बिका ही नहीं तो... अब कहते हैं, हम लोगों को शादी में बुलाएंगे नहीं, बदनामी होगी...। बात करते—करते हिमानी भावुक हो गई। कहने लगी, ‘‘एक ही जिम्मेदारी रह गई...रितु यहां होती तो उसकी डोली कब की उठ गई होती, एक—दो बच्चे गोद में खेल रहे होते...। अब तू भी पच्चीस—छब्बीस का हो गया है, तू भी मेरी बात नहीं सुनता। अपने बाप को तो तू जानता ही है, उसे किसी की फिकर नहीं। मैं ही कोशिश कर रही हूं, हां! अपनी गली के आखिर में जो चौहान जी हैं, उनकी पहचान वालों की लड़की है। मिसेज चौहान दो बार पूछ चुकी हैं, क्या कहूं? तू बता, अगर तेरी अपनी कोई पसंद है तो बता दे...कुछ बोल न...मैं कब से बकर—बकर कर रही हूं...बिलकुल गूंगा हो गया है...हलो! नन्नू!'
नरेंद्र ने मुख्तसर—सा जवाब दिया, ‘‘मौसी! उस बेशर्म रितु की बात मुझसे आगे कभी मत करना। दूसरी बात यह कि मेरी शादी की चिंता छोड़ दो, सोचो भी मत, मुझे शादी—वादी के झंझट में नहीं पड़ना। हां, ध्यान रखना, मकान की डील जब भी फाइनल हो, मुझे जरूर खबर करना।''
यही सच भी था। नरेंद्र को घर से ताल्लुक सिर्फ अपने दादा महादेव सिंह की
प्रापर्टी ‘महादेव भवन' में से अपना हिस्सा लेना था। इसके लिए वह पूरी तरह सचेत था। नंबर भी इसीलिए दिया था कि भावकुता की मारी मौसी उससे संपर्क करती रहेगी। वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा था। देखते—देखते आर एन सेठ ने राजनीति के पांच वर्ष पूरे कर लिए। अब वह उसके अनुभवी खिलाड़ी बन गए थे। नये जनादेश के लिए कभी भी घोषणा हो सकती थी। चूंकि इस सरकार के कार्यकाल में बड़े—बड़े घोटाले हुए, स्वयं प्रधानमंत्री पर कई आरोप थे, इसलिए पार्टी की हालत नाजुक लग रही थी। स्वयं आर एन सेठ भी बातचीत में ऐसी संभावना जता चुके थे। परदे के पीछे यह तय भी था कि हालत देखकर वे अपने समर्थकों के साथ विपक्षी पार्टी का दामन थाम लेंगे। तब उनके मंत्री बनने का सपना जल्दी पूरा हो जाएगा। जब आर एन सेठ को कद बढ़ेगा तो उनके करीबी लोगों का भी फायदा होगा। सचमुच किसी मंत्री जी का खास होना किस्मत की बात है। नरेंद्र अभी से ख्वाब बुनने लगा।
सफेद सफारी में तो वह अब भी जमता था, किंतु नेताओं वाला अंदर का रुआब, जिससे चेहरा दिप—दिप करता है और पुलिस के बड़े—बड़े अधिकारी सलाम ठोककर आगे—पीछे घिघियाते फिरते हैं‘उस रुतबे की बात ही और है।'
सेठ के फ्लैट में एक कमरा उसके पास था, सभी सुविधाओं से परिपूर्ण। जिस समय
एम.पी. साहब आराम फरमा रहे होते थे, वही समय उसकी फुरसत का होता था। पूरी तरह वह भी नहीं, क्योंकि फोन की घंटी हर समय घनघनाती रहती थी। उसके जूनियर फोन उठाकर उससे जवाब पूछते थे। खास लोगों को वह स्वयं जवाब देता था। उनसे खास लोगों की कॉल उसके मोबाइल पर आती थी।
उस दिन वह निश्चिंत, अपने कमरे में व्हिस्की के साथ बैठा था। सेठ विदेश दौरे पर थे। ऐसे वक्त उनके साथ उनका दूसरा पी.ए. राघवन ही साथ जाता था। वह निश्चिंत, अवकाश की मनःस्थिति में, बोतल खोलकर अपने कमरे में बैठा था। तीन लोग और थे, दो उसके जूनियर और एक सेठ के क्षेत्र से उनका परिचित युवक राकेश, जिसे यहां रहकर भविष्य की संभावनाएं तलाशनी थीं। उसके साथ कुछ ही दिनों में नरेंद्र का दोस्ताना हो गया था।
एकांत था, उम्र का उठान था और शराब का साथ। माहौल में सुरूर घुल रहा था। राकेश ने उठकर टीवी चालू कर दिया। यह मात्र संयोग था कि चैनल पर जो गाना बज रहा था, वह रितु के एलबम का था। अपने समय का ‘लोकप्रिय' भड़काऊ गाना।
नरेंद्र पेग सिप करते हुए भविष्य के सपनों में सफेद पोशाक में सजा—संवरा अपने को सफेद अम्बेसडर में देख रहा था, जिसके आगे—पीछे हॉर्न बजाती अन्य अम्बेसडर चल रही थीं। उसे लगा जैसे गाड़ी को इमरजेंसी ब्रेक लग गए हों। आगे रेड लाइट है या एक्सीडेंट हुआ है या कि गाड़ी ही खराब हो गई है। टीवी स्क्रीन पर उसकी बहन, रितु कम से कम कपड़ों में दर्शकों को उत्तेजना का आमंत्रण देती हुई तेज़ ‘बीट' पर थिरक रही थी। उसने आंखें बंद कर लीं। यही है शायद, जिससे उसकी गाड़ी को ब्रेक लग सकते हैं। आदमी जब मशहूर होता है, उसका परिवार भी मशहूर होता है। आजकल चैनल वाले तो पुरखों का बायोडाटा तक निकाल लाते हैं। यह तो मेरी बहन है, जीती—जागती। ‘अपोजीशन' वाले खूब नमक—मिर्च लगाएंगे, संस्कृति की दुहाई देंगे। हो सकता उसके पोस्टर तक छपवाकर दीवारों पर चिपकवा दें। लोगों के जुनून का कुछ पता नहीं, पासा पलट गया तो?
उसने टीवी देखना ही छोड़ रखा था, इसलिए कि उसकी सूरत दिखेगी तो मन खराब होगा, गुस्सा आएगा। वह सिर्फ न्यूज चैनल देखने लगा, पर वहां भी ब्रेक में विज्ञापनों के दरमियान उसके दिख जाने का अंदेशा बना रहता था। एक बार तो उसने अपने कमरे से टीवी हटवाकर रिसेप्शन में रखवा दिया था। सेठ साहब को पता चला तो उन्होंने वजह पूछी तो यही कह सका कि देखने लायक कुछ होता नहीं है। उसमें सब ऊलजलूल दिखाते हैं।
‘‘न्यूज देखो, सिर्फ न्यूज! समझे, अपडेट रहना जरूरी है। न्यूज देखो, हमें भी बताओ, कहां क्या हुआ? किसने क्या कहा और क्या किया? हमारा तो सारा कैरियर न्यूज पर ही टिका है ...ऊलजलूल! ...अरे तू कब से साधु—संन्यासी हो गया। हमारे छोड़े हुए ‘लेग—पीस' चांपता है कि नहीं, बोल!'' अंतिम वाक्य उन्होंने खास अंदाज में आंख दबाकर कहा था, जिसका मतलब नरेंद्र जानता था, इसलिए वह मुस्कराया भी था। ऐसी अंतरंग बातें सेठ खाना खाते समय करते थे। इस तरह टीवी फिर उसके कमरे में आ गया था।
वह सोच से उबरा तो देखा अभी भी रितु कमर लचकाते हुए सीने को खास अंदाज में हिला रही थी। अन्य तीनों लोग सुरूर में गाने के साथ झूमते हुए सिसकारियां ले रहे थे। वह गुस्से से भन्ना गया। उसने जोर से गिलास को टेबल पर ठोक कर रखा, गिलास छन्न से टूटकर बिखर गया। छन्नाहट के साथ—साथ उसकी आवाज गूंजी, ‘‘बंद करो, यह सब...!'' बाकी लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? या कि उन्होंने क्या गलत किया। उन्होंने अपने—अपने गिलास तुरंत खाली किए और बेआवाज वहां से खिसक गए। नरेंद्र अभी भी बुदबुदा रहा था, ‘‘जाओ!...सब जाओ!...मुझे अकेला छोड़ दो...''
आदित्य ने लगभग सात वर्ष ‘महादेव भवन' के ऑफिस में गुजारने के बाद आखिरकार कब्जा छोड़ दिया। उसने कोई मांग नहीं रखी थी। यदि रखता भी तो गरज़ के हिसाब से पूरी हो सकती थी, लेकिन नहीं, उसका मानना था कि किसी के मकान को हथिया लेना या उसके एवज़ में रुपया मांगना सरासर गलत है।' इसीलिए वह स्वयं किरायेदार होते हुए भी ‘किराया—कानून' के शोर—शराबे के बीच मालिक—मकानों का समर्थन कर रहा था।
उस दिन सुखदेव जितना खुश था, उतना ही हिमानी दुःखी थी। अजीब बेचैनी से भरी थी वह, जैसे कुछ छूटा जा रहा है उससे। लेकिन क्या? कुछ अबूझ है, जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। दिल में हौल—सा पड़ रहा है। खाली—खाली—सा सब निरर्थक। अब क्या होगा, यहां से आगे अब किधर जाएगा जीवन, किसके सहारे जाएगा। आज भी वह क्यों खाली हाथ खड़ी है, इतने बरस बाद भी।
सोच—सोच कर जिया फटने को हो रहा था। कब तक, कितने दिन, कितनी रातें, कितना जीवन, कैसे कटेगा, निपट अकेले, सन्नाटे में। अब क्या शेष है, बच्चों का बहाना भी नहीं, तब?
‘तब क्या?' उसके अंदर ही जैसे कोई बोलता है ‘तो क्या उठ! अपने मन की
सुन, अपने लिए जी, नई राह बना, जो साथ हो लें, उनके लिए जी। जीवन को बड़ा और बड़ा बना...'
जिस दिन उसका सामान ‘पैक' हुआ, आदित्य पहले ही कुछ दिन से गायब था। विनोद ने दोनों टेबल, अलमारी कुछ फाइलों के बण्डल छोटे ट्रक में रखवाए और चाबी हिमानी को दे आया था। हिमानी ने पूछा था, ‘‘कहां हैं वकील बाबू, कुछ दिनों से दिखे नहीं।''
‘‘हां! वे बिजी हैं, शहर से बाहर गए हैं।''
‘‘नया दफ्तर कहां खोला है, मतलब कहां शिफ्ट किया है?''
‘‘साब जिस एनजीओ के लिए काम करते हैं, उसका बड़ा दफ्तर है, उसी कैम्पस में मिल गया है, सभी सुविधाएं हैं वहां!''
हिमानी को अपने हर प्रश्न के बाद सोचना पड़ रहा था कि अब क्या पूछे। लगा, प्रश्न खत्म हो गए हैं या जो प्रश्न पूछना है, वह जुबान पर नहीं आ रहा। हलक तक आकर फिर नीचे लौट जाता है।
‘‘बैठो भैया! चाय पिओगे।'' यूं ही पूछा उसने और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना रसोई की ओर जाने को मुड़ी। विनोद ने विनम्रता से अनुरोध ठुकराया, बोला ‘‘नहीं मैडम! चाय रहने दीजिए, थोड़ा पानी पिऊंगा, ट्रकवाला इंतजार कर रहा है।''
विनोद पानी पी रहा था, तब हिमानी ने पूछा, ‘‘वकील बाबू अकेले रहते हैं?''
‘‘जी!'' विनोद के मुंह से निकला, जैसे कह रहा हो कि यह क्या प्रश्न है? उधर हिमानी का दिल जोर—जोर से धड़क रहा था।
‘‘मेरा मतलब कौन—कौन है घर में...ऐसे ही ख्याल आया, कभी जिक्र नहीं
किया न बच्चों का...'' हिमानी ने बात को इधर—उधर घुमाकर स्वयं को सहज बनाने की कोशिश की।
विनोद ने पानी पीकर गिलास पकड़ाते हुए बताया कि वह कभी उनके घर नहीं गया और साब कभी घर की बात नहीं करते। हारकर हिमानी ने उनके नये ऑफिस का नंबर नोट कर लिया था।
कई दिन से वह आदित्य को फोन पर संपर्क करना चाह रही थी, किंतु आदित्य फोन पर उपलब्ध नहीं हो रहा था। विनोद हर बार उसकी व्यस्तता की बात कहता था, ‘उनकी कुछ पर्सनल प्रॉबलम्स है, बताते नहीं हैं मैडम...मैं उन्हें कहूंगा आपका फोन था। ...मैंने आपका मैसेज दे दिया था... जैसे ही थोड़ा फ्री होंगे, बात करेंगे... जी मैं याद दिला दूंगा। ओ.के. मैडम!'
लगभग दो महीने बाद अचानक आदित्य का फोन आया और उसने देर से फोन करने के लिए खेद प्रगट किया। उसने यह भी कहा कि वह बेहद निजी समस्या से जूझ रहा था। वह मसला हल हो गया है, वह अब फ्री है।
जिस दिन से विनोद ने कहा था कि साहब कभी घर की बात नहीं करते, हिमानी को वह आदमी अचानक रहस्यमय लगने लगा था, जो वर्षों से उसके पड़ोस में ऑफिस चलाता रहा। उसे याद आया, आदित्य ने एक बार वादा किया था, एक दिन अपने बारे में बताएगा। एकाएक यही सूत्र हिमानी को बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगा या कहें कि फेसीनेट करने लगा। अब जबकि आदित्य ने स्वयं अपनी निजी समस्या का हल्का—सा ज़िक्र किया था तो हिमानी ने उस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और बच्चे की भांति आग्रह किया, ‘‘मुझे आपसे मिलना है। अभी के अभी!''
‘‘अभी कैसे...?''
‘‘जैसे भी हो, मुझे नहीं मालूम, इट्स अरजेंट!''
‘‘क्या हुआ, सब कुशल तो है, नन्नू, सुखदेव सिंह या रितु की कोई खबर है।'' चिंतित होकर पूछा उसने।
हिमानी कुछ क्षण के लिए खामोश हो गई।
‘‘हलो! क्या हुआ...कुछ बोलिए तो।''
‘‘क्या बोलूं, उन तीनों के अलावा किसी और की चिंता नहीं है आपको।''
कुछ पल रुका आदित्य, फिर संजीदा स्वर में कहा, ‘‘सच तो यह है कि उस एक ही की चिंता अधिक है। उसकी खुशी के लिए उसके अपनों की चिंता करनी पड़ती है।''
‘‘खुशनसीबी है उसकी, वकील बाबू।''
‘‘पर मेरी नहीं।''
‘‘क्यों भला।'' आश्चर्य व्यक्त किया हिमानी ने।
‘‘इसलिए कि आप मुझे हमेशा वकील बाबू बुलाती हैं और आप—आप कहकर बात करती हैं...आप मुझे नाम से बुला सकती हैं, छोटा हूं आपसे।''
छोटा होने की बात पर हिमानी पल भर के लिए बुझ गई। ‘यह क्या नया बैरियर है हमारे बीच।' सोचा उसने, पर तुरंत संभल कर कहा, ‘‘मैं तो आपका आदर करती हूं...''
‘‘यदि आदर के साथ प्यार भी है, तब मुझे कोई एतराज नहीं। केवल सम्मान का सूखापन...नो वे।'' आदित्य के यह शब्द सुनकर हिमानी लरज गई। उसके कपोल रक्ताभ से खिल उठे थे। कानों के पास चींटियां—सी रेंगने लगी थीं। एक मीठी लहर उसके भीतर उतर गई। संभवत उसके कान ऐसा ही कुछ सुनने को तरस रहे थे।
हिमानी की चुप्पी आदित्य को अखरी तो उसने अपराधी भाव ओढ़ते हुए कहा, ‘‘हलो! हलो! हिमानी जी, मैं कुछ ज्यादा बोल गया शायद! आपको बुरा लगा
तो...माफ कर दीजिए...''
हंस पड़ी हिमानी, ‘‘नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं, पर मैं हैरान हूं कि आज अचानक... ऐसी बातें...आप...आपकी तबीयत तो ठीक है न!'' उसने चुहल करते हुए पूछा।
‘‘तबियत ठीक वैसी ही है, जैसी आपकी।''
हिमानी उसकी हाजिर जवाबी पर मोहित हुई, किंतु तुरंत ही नहले पर दहला मारते हुए कहा, ‘‘मगर आप तो मुझसे छोटे हैं न।'' इस वाक्य में जो गुदगुदाहट थी, उसे महसूस कर दोनों देर तक हंसते रहे।
उस फोन के बाद दोनों के संबंध सहज और प्रगाढ़ होते गए। इस दूरी से उनके बीच के संकोच, अपराधभाव या पहल करने की झिझक; सब मिट गए। बीच का पारदर्शी
अवरोध जैसे हट गया था। इसके बाद वे कई बार एक—दूसरे से मिले भी। आदित्य के दफ्तर में, सीपी के युनाइटेड कॉफी हाउस में, पंडारा रोड के रेस्तरां में। खुली जगहों पर मिलना दोनों को ही नापसंद था। शायद नापसंद वाली बात उतनी सही नहीं थी, हां! एक हिचक ज़रूर थी कि इस उम्र में, टीन एजर्स की भांति पेड़ों के पीछे चिपककर बैठना, गोद में सिर रखकर लेटना, हाथों में हाथ लेकर टहलना शोभा नहीं देता। प्यार किसी उम्र में हो, हर उम्र की अपनी गरिमा होनी चाहिए, ऐसा उनका मत था। वे बैठकर बातें करते हों या रेस्तरां में खाना खा रहे हों, हमेशा आमने—सामने बैठते थे। हर मुलाकात के बाद ज्यादा नज़दीक महसूस करते थे। एक—दूसरे को अधिक से अधिक समझ लेने की आतुरता थी। दोनों को एक—सा आश्चर्य था, क्या यह बहुत पहले से हमारे भीतर था या अचानक अब ऐसा क्या हुआ कि सारी सीमाओं को नजरअंदाज कर वे इतना पास आ गए? उत्तर भी उनके ही भीतर था।
आदित्य ने बताया था कि वह हिमानी को ऐसी बदहाली और वीतरागी छवि में भी पसंद करता था। उसमें एक चार्म है। वह उसे बहुत पहले से अच्छी लगती थीं। उसका ओवर—आल लुक, बात करने का सलीका और सबसे बड़ी बातजिंदगी से जूझने की हिम्मत...मरते हुए भी शेष रहने का जज्बा मुझे फेसीनेट करता था। इसलिए आपसे बात करना चाहता था। वह मौका आपके परिवार की मुश्किलें मुहैया करा देती थीं। इस बात पर हिमानी ने चुटकी ली थी, ‘अच्छा!' ओह ओ! कितनी भोली थी मैं, यह भी नहीं जान पार्इं कि कोई मदद के बहाने मेरी कलाई पकड़ना चाह रहा है।'' दोनों खूब हंसे थे। आदित्य ने कहा था, ‘यह सच है कि आपकी मुश्किलें हल होने पर मुझे राहत मिलती थी। हां! एक और बातकभी—कभी आप मुझे परीकथाओं वाली राजकुमारी लगती थीं, जिसे सुखदेव—रूपी राक्षस ने अपने महादेव भवन में कैद कर रखा है। मैं उस राजकुमारी को राक्षस के चंगुल से मुक्त देखना चाहता था। यह मात्र मनोभाव थे। प्यार के बारे में तो सोचा ही नहीं जाता था।'
‘‘आप मुझसे छोटे थे, शायद इसीलिए।'' हिमानी को मजाक सूझा और उसने फिर वही जुमला जड़ दिया।
दोनों देर तक हंसे थे। आदित्य ने उत्तर में इतना ही कहा था, ‘‘मैं इस रूढ़ि का पक्षधर तो नहीं हूं, पर अंतर बहुत अधिक नहीं होना चाहिए, पर मेरा यकीन मानिए, तब मैं वैसा सोचता ही नहीं था।''
‘‘और अब सोचते हो?'' चट से पूछ लिया हिमानी ने।
वह गंभीर हो गया था, ‘‘इस पर हम दोनों को सीरियसली विचार करना चाहिए। जहां तक मेरा सवाल है, मेरे लिए अब कोई अड़चन नहीं है। अकेला हूं...मेरा फैसला, मां की खुशी होगी। पर आपके लिए बहुत मुश्किलें हैं। आपका परिवार, सुखदेव सिंह, नाते—रिश्तेदार सबसे कैसे छूटेंगी आप?''
‘‘जुड़ने जैसा वहां कुछ है कहां! दोनों बच्चों के जाने के बाद तो बिलकुल नहीं। मैं नहीं चाहती कि अब शेष जिंदगी उस शराबी के साथ लड़ते—झगड़ते पूरी करूं। इससे पहले कि मैं अकेली बंद कमरों में पागल हो जाऊं वहां से भाग जाना चाहती हूं। दूर, बहुत—दूर।''
‘‘और अगर रितु लौट आई किसी दिन...नन्नू जवान हो गया है, उसकी शादी, उसके बच्चे! क्या नहीं देखना चाहोगी।''
कातर निगाहों से कुछ पल वह आदित्य को देखती रही, सोचती रही। फिर बोली, ‘शायद यह उत्तरदायित्व भी मुझे निभाना है ...पर क्यों? हरदम फर्ज की सलीब पर मैं ही क्यों? मेरे लिए किसी का दायित्व नहीं... अब मैं अपने लिए कुछ चाह रही हूं तो इसलिए उसे गवां दूं कि रितु के आने का इंतजार करूं, नरेंद्र की गृहस्थी बनाऊं। फिर उसके बच्चे पालूं...सुखदेव जैसे नाकारा की सुहागिन बनी अंतिम सांसें गिनूं? ...नहीं! अब और नहीं!'
प्रत्यक्ष में उसने आदित्य से कहा था, ‘‘यह सब क्या अब भी जरूरी है?''
यह सब बातें बाद की हैं। पहली मुलाकात में तो हिमानी ने वही पूछा था, जो वह अरसे से जानने को व्याकुल थी, जिसके लिए आदित्य ने वादा किया था कि समय आने पर अपने बारे में सब बताएगा।
‘‘क्या अभी भी समय नहीं आया है, जब आप मुझे अपने बारे में बता सकें।'' हिमानी ने पूछा था।
‘‘बिलकुल आ गया है, तभी आपसे बात करने की हिम्मत कर सका। आज मैं खुश हूं और स्वतंत्र भी।'' बात को आगे बढ़ाते हुए आदित्य ने अपनी कथा को कुछ इस तरह बयान किया था, ‘‘आदित्य अपने माता—पिता की दूसरी संतान था, छोटा बेटा। बड़े बेटे सोमेंद्र ने एम.सी.ए. के बाद एम.बी.ए. करके एक आईटी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। चूंकि पिता सूचना—प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी थे, उन्हें भविष्य में आईटी क्रांति का पूरा अंदाजा था। सोमेंद्र ने उनकी बात मानी और उसी लाइन पर बढ़ गया, परंतु आदित्य कुछ अपने मन की करना चाहता था। विरोध के बावजूद उसने सोशलवर्क से ग्रेजुएशन किया, उसके बाद उसने एल—एल.बी. कर ली। इससे पिता खुश नहीं हुए, किंतु थोड़ा संतोष हुआ कि आज के जमाने में वकालत थोड़ी भी चल गई तो अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। मां हाउस—वाइफ थी और वह बच्चों के कैरियर को लेकर इतनी चिंतित नहीं थी। उनका मानना था कि बच्चे अपनी खुशी से जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे। इज्जत से जीवनयापन हो जाए, बाकी क्या धरा है मारामारी में।' आदित्य ने एन.जी.ओ. के लिए काम करना शुरू कर दिया। आदित्य मां की सोच के ज्यादा करीब था। उसने तो वकालत भी यह सोचकर की थी कि वह असहाय लोगों के लिए कानून का पैरोकार बनेगा। उन दिनों उसे जनहित याचिकाएं भी बहुत प्रभावित करती थीं और सोशल कॉज के लिए काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े वकील उसके प्रेरक थे।
इस दौरान बड़े भाई सोमेंद्र की शादी हो गई और जल्दी ही वह बंगलौर शिफ्ट कर गया। कंपनी ने उसे बंगला, गाड़ी और मोटी तनख्वाह ऑफर की थी। पिता उसकी तरक्की से जितना खुश थे, उतना ही आदित्य की ओर से दुःखी। सिर्फ दुःखी नहीं, उसमें उनकी नाराज़गी और क्रोध भी झलकता था। वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहना चाहते थे। उनकी पत्नी, उन्हें टोक देती थीं, ‘पहले इसकी भी शादी कर दें और फारिग होकर जहां दिल चाहे, वहां रहें। अभी आपके रिटायरमेंट में भी दो—तीन वर्ष हैं। पद पर रहते ही यह काम भी निबट जाए तो अच्छा है। ‘आदि' भी पच्चीस—छब्बीस का हो गया है, अब देर करना उचित नहीं।'
पिता ने भी आदित्य से यथाशीघ्र मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर समझा।
कई रिश्ते आए। आदित्य की मां कहती थी, ‘तय तो वहीं होगा, जहां ऊपर वाले ने लिखा होगा। जहां रिश्ता तय हुआ, वह रिश्ता दूर के संबंधी के अपने परिचित की लड़की का था। पिता कारोबारी था, लड़की के दो बड़े भाई थे और दोनों शादीशुदा थे। लड़की पढ़ी—लिखी थी, पर नौकरी करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी गोया पढ़ाई टाइम—पास के लिए ही की गई थी।
बिजनेसमैन पिता ने कारोबारियों का लड़का ही क्यों नहीं देखा? यह सवाल
स्वाभाविक था। जिसका उत्तर आदित्य को कई वर्ष बाद मिला। लड़की सुंदर थी, कॉलेज के समय ही किसी लड़के से आंखें चार कर बैठी थी। जब घर वालों को मालूम हुआ तो पांव तले जमीन खिसक गई। जितने भी दबाव हो सकते थे, सब लड़की पर डाले गए। ऊंच—नीच भी समझाया गया। लड़की उतनी बागी नहीं हुई थी और वह शादी करने को राजी हो गई, इसलिए बिना किसी हंगामे के शादी हो गई थी। एक और कारण था, एक कारोबारी द्वारा आदित्य को पसंद कर लेने का, वह यह कि उन दिनों एक जनहित याचिका में आदित्य का नाम अखबार की सुर्खियों में उछला था। कोर्ट का फैसला याचिका के पक्ष में आया था। धन—कुबेरों में प्रसिद्धि का आकर्षण बेहद होता है, लोकप्रियता का दर्जा उन्हें धन से ऊपर लगता है। पहले सेठ—साहूकार परोपकार के कार्य करके नाम कमाने का प्रयास करते थे। कुएं—बावड़ी, धर्मशालाएं, अस्पताल और मंदिर आदि इसी भावना के तहत बनवाए जाते थे, जिनमें बनवाने वाले दो—तीन पीढ़ियों के नाम के पत्थर स्थापित कर दिए जाते थे ताकि सनद रहे। अब तो उनका नजरिया भी बदल गया है। वे सोचते हैंजिस तरह धन से प्रसिद्धि हासिल की जा सकती उसी तरह प्रसिद्धि को भुनाकर धन भी कमाया जा सकता है।
आदित्य के विवाह की खुशियां चंद महीनों में ही चुक गर्इं। पत्नी बेहद खर्चीली
थी, घूमना—फिरना, शॉपिंग करना, डिस्कोथिक जाना, डिनर होटल में करना, उसके खास शगल थे। शुरुआत में कुछ समय तक तो चला। फिर कलह होनी शुरू हो गई। आदित्य के पिता रिटायर होने वाले थे। उन्हें अपने भविष्य के लिए पैसा सुरक्षित रखना था, करते भी तो कितना? खर्च की कोई सीमा भी तो हो। उधर आदित्य की आय सीमित थी। कुछ समय लड़की के मां—बाप ने स्थिति को संभाला। लड़की के पास अपनी गाड़ी नहीं थी, उन्होंने बड़ी गाड़ी दे दी, महंगा मोबाइल दे दिया, कैश भी हर महीने भिजवा देते थे, पर कब तक? अंततः दबाव आदित्य पर बढ़ रहा था कि वह अपनी आमदनी बढ़ाए। यह कि गरीब—गुरबा लोगों और अनाथ बच्चों की पैरवी छोड़कर कायदे से वकालत करे, धोखाधड़ी, मारकाट, लूटपाट, जालसाजी के हजारों मुकदमें रोज आते हैं, क्यों नहीं लड़ता ऐसे मुकदमे। बड़ी— बड़ी कंपनियों में अपने ‘लीगल—सेल' होते हैं, क्यों नहीं ज्वाइन करता। बड़े—नामी वकीलों से जुड़कर काम क्यों नहीं करता...वगैरह—वगैरह!
किंतु आदित्य ऐसा नहीं कर सकता था। वह जानता था कि ईमानदारी से यदि उन केसों को लड़ेगा तो भी उसकी स्थिति में विशेष सुधार नहीं होने वाला, तो क्या अपने मन के संतोष को भी नष्ट करे। उसकी पत्नी ने घर छोड़ दिया, यह कहकर कि ऐसे ‘होपलेस' आदमी के साथ वह नहीं रह सकती। उसके मां—बाप ने थोड़ी कोशिश की, उसे वापस भेजा,
किंतु कुछ महीने बाद वह फिर चली गई। आदित्य के लिए संतोष की बात यह रही कि इस दौरान पत्नी ने ‘कंसीव' नहीं किया था, वरना बच्चे की जिंदगी तो तबाह होती ही उसके अधिकार को लेकर भी महाभारत होना था।
रिटायर होने के बाद आदित्य के माता—पिता उसके बड़े भाई सोमेंद्र के पास चले गए, वह रह गया और उसका काम। तलाक को लेकर आदित्य ने अपनी ओर से कोई पहल नहीं की। काफी समय गुजर गया। जब उधर से तलाक का केस फाइल किया गया तो उसमें स्त्रीधन को वापस करने की मांग से कई पेचीदगियां आ गर्इं। फिर गुजारा भत्ते का मसला उसमें जुड़ गया, केस लटकता चला गया, कभी तारीख, कभी जज महोदय का ट्रांसफर, कभी उनका रिटायरमेंट, इन सबके चलते कानूनी तौर पर संबंध—विच्छेद होने में छह वर्ष लग गए।
अपने दुःख से उबरी हिमानी आदित्य के दुःख में डूब गई। उसे लगा, वह अकेली नहीं है। दुनिया में उससे भी ज्यादा दुःखी इंसान हैं। आदित्य ने इतने पास रहकर भी अपने गम की भनक नहीं लगने दी और चुपचाप अपना काम करता रहा, जो वह करना चाहता था। एक वह है, जो जार—जार रोती है, मर जाना चाहती है, सभी संबंधों से कट गई
है। विद्वेष से भरी, किसी को माफ करना नहीं चाहती और जो करना चाहती थी, कर भी न सकी, सिवाय बच्चों को पालने के... पर वह भी सकून कहां मिल सका...सब
आधा—अधूरा ही तो रहा। ‘‘सचमुच! यू आर ग्रेट! आदित्य बाबू!'' उसने कहा था। ‘मेरी मुश्किलें आसान बनार्इं, किंतु अपना दुःख कभी शेयर नहीं किया, ऐसा क्यों? ...वो कहते हैं न कि दुःख बांटने से कम होता है।
‘‘मैं ऐसा नहीं सोचता, कुछ दुःख बांटने से बढ़ भी जाते हैं, खासकर ऐसे
संबंधों के दुःख दूर तक फैल जाते हैं। उनको फैलाने में लोगों को मज़ा आता है। उदाहरण के तौर पर आपने कभी नहीं बताया कि सुखदेव आपका जीजा था, दोनों बच्चे आपकी बहन के थे, लेकिन मुझे शुरू में ही इधर—उधर से यह जानकारी मिल गई थी। और भी न जाने कितने लोगों को मालूम होगा। वे सभी आपको हमेशा सहानुभूति की नजर से या खोट—परखने वाले शीशे से ही देखेंगे ताकि आप अपने को तुच्छ—निरीह समझती रहें। ऐसे दुःखों को जितना कम लोग जानें, उतना अच्छा है। पर क्या करें, अड़ोस—पड़ोस और संबंधियों की हिस्सेदारी, अपने आप हो जाती है।'
आदित्य के बारे में सब जान लेना, हिमानी के लिए अंततः सुखद रहा। यह विचित्र बात है कि एक दुःख, कैसे दूसरे को सुकून दे सकता है! पर कहते हैं न कि दिल को दिल से राहत होती है। या दो अंधे मिलकर ज्यादा हौसले के साथ सड़क पार करते हैं। दरअसल हिमानी आत्मग्लानि से भी मुक्त हो रही थी। आदित्य को चाह लेने में अब उसे किसी अपराध—बोध का अहसास नहीं हो रहा था। यदि आदित्य सुखी गृहस्थ होता तो उसके सूखे रूख पर, जो नन्हीं कोमल कोपलें फूटी थीं, कुम्हला जातीं। सपनों के ताने—बाने टूट जाते। परिजनों और समाज से आंखें मिलाकर अपने लिए जीने की जो चाहत पैदा की थी, वह मर जाती। ‘थैंक गॉड! ऐसा नहीं हुआ, सब बच गया। उसकी चाह बरकरार है, अब नई ऊर्जा के साथ। और जहां चाह होती है, राह निकल ही आती है।'
यही उसने आदित्य से कहा था, जब उसने पूछा था कि ‘अब आप क्या करेंगी? आपकी राह अभी मुश्किल है। तलाक लेना भी किसी यातना शिविर से गुजरने जैसा होता है।' हिमानी ने बात के वजन को एकदम हल्का कर दिया था, यह कहकर, ‘मैं जो करूंगी, बाद में सोचूंगी। पहले आप मुझे ‘आप—आप' कहना बंद करिए...।'
आदित्य ने भी मुस्कराकर कहा, ‘‘अब आप भी मुझे आप नहीं कहेंगी...पहले वादा कीजिए।''
‘‘फिर आप!'' हिमानी ने फिर टोका और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े थे।
‘‘संबंधों से टूटकर, अकेले जीना कैसा लगता है।'' हिमानी तुरंत संजीदा हो गई थी।
‘‘संबंध, अहसास भर होता है, आदमी जीता तो अकेले ही है।''
‘‘मुझे भयावह लगता है, अकेले जीना। फिर भी मन के बोझ, तन के कष्ट नितांत निजी अनुभव होकर भी तसल्ली दिया करते हैं, सिक्योर करते हैं।''
‘‘शायद तुम ठीक हो, पर कभी—कभी भयानक दंश देते हैं।'' कहने के साथ आदित्य के चेहरे पर दर्द था, जिसे देखकर हिमानी के अपने दर्द हरे हो गए। फिर भी उसने पूछा, ‘‘क्या परिवार के लोग अब मिलते नहीं।''
आदित्य ने गहरी सांस ली, ‘‘जब दिल करता है, मां आ जाती है।''
कुछ देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही। आदित्य, दीवार पर लगी एक पेंटिंग देख रहा था और हिमानी, नजरें नीची किए टेबल के ‘सनमाइका' डिजाइन के फेड—आउट हो गए डिजाइन को उंगली से बना रही थी। थोड़ा और रुक कर वे उठे, तब हिमानी ने पूछ लिया, ‘‘मुझे मां से मिलाओगे?''
कुछ क्षणों के लिए हिमानी को देखता रह गया था आदित्य, फिर कहा था, ‘‘आखिर तुम्हारा इरादा क्या है?''
‘‘वही, जो तुम्हारा नहीं है शायद!''
फिर दोनों हंसे थे, हंसते—हंसते ही रेस्तरां से बाहर आ गए थे, जहां कुछ भीख मांगने वाले बच्चों और औरतों ने उन्हें घेर लिया था।
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