Phir bhi Shesh - 22 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 22

फिर भी शेष - 22

फिर भी शेष

राज कमल

(22)

सुखदेव का बड़ा भाई हरदयाल सिंह अपनी योजना के मुताबिक ‘नाप—जोख' कर ‘आगा—पीछा' सोच—समझ कर काम कर रहा था। बरसों पहले उसने विकसित होती नई कॉलोनी में हज़ार वर्ग गज का ‘प्लाट' बहुत सस्ते दाम में खरीद लिया था।

आधा हिस्सा फैक्टरी के लिए छोड़कर शेष हिस्से में दो मंजिला शानदार मकान बनवा लिया था। बड़ा बेटा शादी के बाद वहीं शिफ्ट कर गया था। बाद में फैक्टरी वाला हिस्सा भी खड़ा कर लिया और अब वहां मशीनें शिफ्ट करवा दी थीं। छोटे बेटे की शादी नये मकान से ही करेंगे। इसलिए रितु के घर से चले जाने के साल भर के अंदर ही पुराने मकान को खाली कर दिया था। आदित्य के ऑफिस खाली करने के बाद कन्फेक्शनरी वाला बंसल और टेलर मास्टर ही रह गए थे, उनकी कुछ डिमांड थी। उन्होंने साफ कह दिया कि बिना पैसा लिए दुकानें खाली नहीं करेंगे, कोर्ट—कचहरी करना है तो बेशक कर लो।

मामला लंबा लटक सकता था। ऐसे में फैसला तो हरदयाल सिंह को ही करना था। सुखदेव सिंह के पास न तो दम था और न दाम। हरदयाल ने काग़ज़ पर लिखवाकर सुखदेव से दस्तखत करवा लिये कि ‘कब्जा खर्च' का आधा हिस्सा वह मकान बिकने पर अदा कर देगा। अब सुखदेव के कब्जे वाले हिस्से को छोड़कर शेष ‘महादेव भवन' खाली हो गया था। सुखदेव ने सोच लिया था कि पार्टी से ‘बयाना' मिलते ही वह अपना कब्जा भी छोड़ देगा। पूरी पेमेंट मिलने पर ही अपना मकान खरीदेगा। तब तक किराए पर रह लेगा। यह फैसला उसका अपना था। नरेंद्र यहां था नहीं और हिमानी की मर्जी से वह चलने वाला नहीं था। उधर हरदयाल सिंह और उसकी बीवी कमला ने सुखदेव को अच्छी तरह समझा दिया था कि औरत की मानता रहेगा तो बाकी जिंदगी भी ऐसे ही रो—रो कर बीतेगी। पैसा अपनी गांठ में होगा तो सब पूछेंगे। वैसे भी आजकल उसके ‘रंग—ढंग' अच्छे नहीं दिख रहे। भाग जाएगी किसी के साथ...हम तो कहते हैं तेरे लिए अच्छा ही होगा, जान छूटेगी उससे। नन्नू की शादी हो जाए, तू अपना बिजनेस कर ले। बैठे—बैठे तो खजाने खाली हो जाते हैं। भाई काम तो तुझको करना पड़ेगा, अभी क्या पता, कितनी जिंदगानी है।'

सुखदेव ने महसूस किया कि इस समय ‘भाई—भावज' से बढ़कर उसका कोई दूसरा हितैषी नहीं है। हिमानी, खामोश बनी सब देख—सुन रही थी। न उसे कुछ बताया गया न उससे कुछ पूछा गया था। खरीदारों का आना—जाना लगा हुआ था। लोगों की राय थी कि इस समय प्रॉपर्टी में बड़ा उछाल है। मल्टीनेशनल कंपनीज अपने कार्यालयों के लिए प्राइम लोकेशन पर महंगे दामों पर प्रॉपर्टी खरीद रही हैं। वहीं दूसरी ओर बिल्डर्स ऐसी जगहों को पहले ही हथिया कर ‘व्यावसायिक' और आवासीय इमारतें बना रहे हैं। ‘महादेव भवन' की डील भी करोड़ों में होगी।

अभी दिन की शुरुआत थी। सुखेदव चाय पी चुका था। वह तैयार हो रहा था। आजकल वह जरा ठीक—ठाक बन—संवर कर रहने लगा है। अपने कपडे़ लांड्री में

धुलवाने लगा है। कलफ लगी सफेद पोशाक पहनकर, बाल संवार कर जब हिमानी वाला ‘डियो' दोनों बाजुओं के नीचे स्प्रे करता है तो हिमानी मुस्कराए बिना नहीं रह पाती। जब कभी उसे हंसते हुए देख लेता है तो कह उठता है, ‘‘हंसती क्या है...तू सोचती है, मैं कुछ नहीं जानता, ये कि! ...अच्छी तरह बन—ठन नहीं सकता...। अरे! एक टाइम पर ये कि देव आनंद कुछ नहीं था मेरे सामने...बस तूने बर्बाद कर दिया मुझे...और आज हंसती है मुझ पर...लेकिन अब मेरा सितारा फिर बुलंद होगा ये कि तू दर—दर की ठोकरें खाएगी।''

हिमानी ने समझ लिया था कि बड़े भाई ने ही सुखेदव को सिखाया होगा कि इज्जतदार लोगों में उठने—बैठने लायक बनकर रह, अभी पैसे की फिकर मत कर, मुझसे ले ले, बाद में हिसाब कर लेंगे, पार्टी के सामने भिखारी बनकर नहीं बैठना, बस!

इसीलिए रोज लॉड्री के कपड़े और इत्र—फुलेल लगा कर फैक्टरी के ऑफिस में जा बैठता है सुखदेव सिंह। उधर से रोज हरदयाल सिंह आ जाता है। साथ में एक—दो यार दोस्त, कुछ प्रॉपर्टी डीलर खूब जमावड़ा रहता है।

सुखदेव सिंह जाने को ही था कि फोन की घंटी घनघना उठी। हिमानी ने त्वरित गति से फोन उठाया। फोन की दूसरी ओर आदित्य था, बता रहा था कि मां आई है। इधर हिमानी का स्वर अटक गया। ‘‘अच्छा! ठीक है...'' कहकर उसने सुखदेव की ओर देखा। वह जाते—जाते अटक गया था। उसकी नजरें पूछ रही थीं कि किसका फोन है? उधर से असंमजस में आदित्य ने कहा, ‘‘ठीक है, क्या मतलब...कब मिल रही हो?''

‘‘हां...हां! नहीं, अभी नहीं...।'' उसके बाद उसने हलो! हलो! हां...ओफ्फ, आवाज नहीं आ रही। कहकर फोन रख दिया। सुखदेव ने अब बोलकर सवाल किए, ‘‘क्या नन्नू का फोन था...क्या कह रहा था...मुझसे भी बात करवा देती...ये कि बाप हूं उसका, दुश्मन तो नहीं...।''

‘‘नहीं बाबा! मेरी सहेली का फोन था।''

‘‘ऐसी कौन—सी सहेली थी भाई कि चेहरे का रंग ही बदल गया। ये कि काजल थी क्या?''

‘‘काजल को कहां फुरसत कि मुझे फोन करे...स्कूल में पढ़ाती थी तब थी एक शोभना...!'' सहज भाव से हिमानी ने उत्तर दे दिया, पर सुखदेव था कि बात को छोड़ना ही नहीं चाहता था। बोला, ‘‘देख रहा हूं कि फोन लगने के बाद कुछ ज्यादा ही सहेलियां बन गई हैं। सच क्यों नहीं कहती कि वो वकील का बच्चा अब फोन पर...''

इतना सुनकर भी भड़की नहीं हिमानी। उसी भाव से कहा, ‘‘अब जाओ अपना काम देखो, बेचो इस जायदाद को, उड़ाओ फिर गुलछर्रे, क्यों मेरा भी दिन खराब कर रहे हो।''

सीढ़ियां उतरते हुए सुखदेव बुदबुदाया, ‘‘इतना ही याराना है तो जाती क्यों नहीं उस हरामी के पास! आड़े वक्त में जरा मदद कर दी, तो क्या ऐसे भरपाई करेगा! कोठी बिकने दे, ये कि तुझे सड़क पे खड़ा न किया तो, सुखदेव नाम नहीं।''

‘‘यहां रहना कौन चाहता है, मैं खुद चली जाऊंगी।'' कहने के बाद खुद सकते में आ गई हिमानी। सोचने लगी, ‘अरे! बाप रे! यह क्या हो गया है मुझे, इतनी हिम्मत कहां से आ गई। अब तो कोई शक नहीं रह गया...सुखदेव को। वैसे कितनी सफाई से झूठ बोल गई स्कूल वाली सहेली, उफ्‌! प्यार, हिम्मती बनाता है, पर झूठा भी बना देता है। यह अहसास तो बिलकुल नया है उसके जीवन में...'

अंतिम वाक्य सुखदेव सिंह ने भी सुन लिया था। उसने आग्नेय दृष्टि से ऊपर देखा था। हिमानी नहीं दिखी तो क्रोध में सीढ़ियों पर थूक कर उतर गया था। हिमानी सोच रही थी, ‘आदित्य को ज़रूर बुरा लगा होगा। नहीं—नहीं, वह जान गया होगा कि घर पर अकेली नहीं हूं...बात छिपाने के लिए मैंने बहाना बनाया है ...तो क्या अब दोबारा फोन नहीं कर सकता? ...अरे तू भी कितनी नासमझ है हिमानी, आदित्य को कैसे पता चलेगा कि अब तू अकेली है। फोन तो अब तुझे ही करना चाहिए।'

हिमानी अकेली थी। समय था और फोन की सुविधा भी, किंतु बार—बार चाहकर भी वह फोन नहीं कर सकी। क्या वजह थी। कौन—सी ऐसी शक्ति थी, जो उसे रोक रही थी। आदित्य के साथ जीवन में पुनः खुशियों के रंग भरने की लालसा करने वाली, लोक— लाज से बेपरवाह होती हिमानी, अब क्यों सकुचा रही थी। पहल उसने की या आदित्य ने, क्या फर्क पड़ता है। अंततोगत्वा चाह बराबर थी दोनों ओर। काजल ने आकर केवल धूल साफ़ कर दी थी हंसी—मजाक में, तभी से हिमानी को आत्मस्वीकृति मिल गई थी।

आदित्य की मां से मिलने का आग्रह भी हिमानी ने किया था कुछ समय पहले।

संबंधों की रूप—रेखा या परिवार की स्वीकृति का आलंबन पाने के लिए, किंतु अब मन उखड़—सा रहा है। विरक्त भाव से भरता जा रहा है।

बीती रात एकाएक ऐसा कुछ हो गया है, एक सपना—सा। एक सपना ही था, जिसने उसकी चाह पर निषेध लगा दिया है। रात उसने सपना देखा था। हकीकत में जो काशी बाबा लंबे अरसे से नहीं आए थे, वह रात सपने में आ गए। ‘हमारी अपनी इच्छाएं ही सपने का रूप लेती हैं' ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं। हिमानी भी मानती है। काफी समय से हर पूर्णमासी को उन्हें याद करती है। रितु के जाने से लेकर अब तक के उलझाव में से कोई सिला शायद उनकी सुमति से ढूंढ सके। साक्षात्‌ नहीं आए, जाने क्या विवशता हो। सपने में आ गए। हिमानी ने खूब सत्कार किया। फिर रितु के मामले से लेकर अपने और आदित्य के बीच पनपे संबंध को भी उसने बड़ी बेबाकी से बाबा के सामने रखा था। और आग्रह किया कि वे उसे जो भी बताएं, साफ—साफ बताएं।

बाबा मुस्कराए थे।

‘‘प्रारब्ध जो है, वही है बेटी। जो कल था, आज भी है। तुमने प्रयास किया, बच्चों को शिक्षित और संस्कारी बनाने का, पर उनका जो नसीब था, वे वही बने। शोक मत करो, वे जहां हैं, जैसे हैं, ठीक हैं। किंतु तुम्हें बच्चों का योग है। तुम रहोगी बच्चों के साथ। तुम्हारा जीवन ऐसा ही है, या ऐसा समझ लो कि दूसरों के लिए ही तुम जी रही हो। इसी में सुख ढूंढ़ो बेटी...और कोई राह नहीं... पति का सुख!' इसके आगे बाबा ने ‘नहीं' में सिर हिलाया था। कुछ देर आंखें बंद किए चुप रहे थे। फिर बोले, ‘‘पति का सुख या योग जो भी था, बस यही था...इससे अधिक की कामना न करो तो भला होगा तुम्हारा...नियति तो यही है बेटी! इसे बदलना भी चाहो तो दुश्वारियां ही बढ़ेंगी... हां! मित्रों से तुम्हें सुख और सहयोग जरूर मिलेगा। जिसका तू जिक्र कर रही है वह, अच्छा मित्र ही है। बस, इससे आगे शायद कुछ नहीं। यही प्रभु इच्छा।''

हिमानी से रहा नहीं गया। पूछ बैठी, ‘‘तो फिर बच्चे कैसे संभव हैं बाबा! क्या इसी राक्षस के साथ सारा जीवन...''

बाबा फिर मुस्कराए, ‘‘सो तो पता नहीं बेटा। प्रभु ही जानते होंगे कि सुखदेव सिंह के साथ और कितनी जिदंगी बितानी है...क्या पता, कोई चमत्कार हो जाए अचानक, सुखदेव तुम्हें स्वयं ही आजाद कर दे। विधाता की बातें कौन जान पाया हैं...मैं भला क्या कहूं, पर तेरा जीवन बच्चों से भरा है। ऐसा योग मुझे दिख रहा है।'' यह बातचीत बीच—बीच में अनेक बार बाधित भी हुई थी। ‘कट—सीन' की भांति कभी सुखदेव, कभी रितु तो कभी नरेंद्र, आदित्य, काजल, महादेव, हरदयाल, कमला, वैद्यजी आदि सभी चरित्र अपनी चारित्रिक विशेषताओं के साथ बीच में आ धमकते थे। जब कोई चरित्र आता तो उस दौरान बाबा न जाने कहां लुप्त हो जाते। किसी से किसी का आमना—सामना नहीं हुआ। हर एक जैसे हिमानी से मुकाबिल था।

रात का यही सपना था, जो उसे बौराये दे रहा था। सोचते—सोचते वह कभी स्वयं पर हंसने लगती, ‘क्या हो गया है मुझे! एक सपने ने पागल बना दिया है। उसके लिए मैं सामने दिखती राह को अनदेखा कर रही हूं। अपने लिए जी लेने का सुख, जिसके लिए बीस बरस से तड़पती रही, आज खुद ही उससे आंखें मूंद रही हूं...

आदित्य सुनेगा तो हंसेगा कि मैं कितनी अंधविश्वासी हूं। सपने सभी को रोज़ आते है, पर वास्तविक जीवन वैसा ही घटित तो नहीं होता। सचमुच मैं हंसी की पात्र बनूंगी। उसे बताए बिना रह भी नहीं सकती। पीछे हटने का कोई और कारण भी तो नहीं।

कुछ समय बाद वह पुनः विश्वास से भरने लगती, ‘मुझे स्वयं को बदलना है। अपने जीवन की विसंगति को सुधारना है। मैं कोई पाप नहीं कर रही। क्षणिक सुख की कामना है, बस! जो मैं कर रही हूं, उसकी जिम्मेवारी भी मेरी है। कुछ अनिष्ट भी हो तो वह मेरा होगा, किसी और का नहीं। महज एक रात के सपने की खातिर सूर्य का नमन कैसे छोड़ दूं?'

दूसरा पक्ष एक धमाके के साथ उसे सचेत करता है, ‘‘यह एक सपना भर नहीं है। यह बात रात की और सपने की नहीं है। मानती हूं। याद है उसे, मैंने जब भी काशी बाबा से अपने आगत के बारे में जानना चाहा, घुमा—फिराकर यही सब कहा था उन्होंने कि सबके दुःख तेरे अपने हैं। संतोष तेरा फल है, वैभव है। दुःख से भाग मत, उसमें लीन हो जा, संतुष्टि मिलेगी, तू मिटेगी नहीं, शेष रहेगी...।' ऐसी गोल—मोल बातों से उसे संतोष नहीं हुआ तो उसने एक दिन विशेष तौर पर बाबा को आमंत्रित किया था। यह उन दिनों की बात है, जब वह कक्कड़ साहब के स्कूल में पढ़ाती थी। बाबा किसी के घर खाना नहीं खाते थे। मात्र फलाहार किया था उन्होंने। तब हिमानी ने अपनी बायीं हथेली उनके सामने फैला दी थी और गिड़गिड़ाकर आग्रह किया था कि कृपा करके जो भी बताएं... बिलकुल साफ—साफ बताएं।'

उस दिन भी बाबा ने यही कहा था, ‘‘तू पढ़ी—लिखी है, समझदार भी है...फिर क्यों आने वाले कल को जानकर, आज को बेकल बनाना चाहती है। थोड़े को बहुत समझ ले...।' थोड़ी चुप्पी के बाद उन्होंने फिर कहा था, ‘जिस सुख की तू लालसा कर रही है, वह नहीं है तेरे जीवन में... पति जैसा है, वैसा ही रहेगा। बच्चों के लिए तेरे किए कुछ नहीं होगा...सबका अपना—अपना प्रारब्ध है। यह बदलेगा नहीं, किंतु तू बच्चों में ही सुखी रहेगी, दैहिक सुख मरीचिका है तेरे लिए। पैसा—जायदाद भी होगा, पर सब व्यर्थ। तेरे काम का नहीं।'

काशी बाबा ने हिमानी का जो आगत वर्षों पहले बताया था, उसे वह शायद बिसार बैठी थी। तभी तो चली थी नई राहें तलाशने, अनंत आकाश में पंख फड़फड़ाने, फिर से नीड़ का निर्माण करने। प्यार पाने, उसका विस्तार करने। शायद काशी बाबा इसीलिए चले आए सपने में। उसे आगाह करने कि प्रारब्ध को चुनौती मत दे हिमानी! यह मानुष के बूते की बात नहीं है। जानकर भी अनजान क्यों बन रही है। पहले जाना ही न होता, जब जान लिया है तो उस पर विश्वास कर। किसी भी रूप में वही सामने आएगा ...स्वयं को भरमा मत हिमानी!

कुछ दिनों की बेचैनी के बाद हिमानी ने स्वयं को फिर दृढ़ और स्वस्थ पाया। फोन पर आदित्य को उस दिन की बेबसी का जिक्र करके क्षमा मांग ली और कहा कि मां जी के दर्शन की उत्कंठा तो है, परंतु परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। तुम मेरी मजबूरी समझ सकते हो।' आदित्य ने भी अन्यथा नहीं लिया। हिमानी को उत्साहित करने की गरज से एक सूचना दी कि उसके ‘एक्टिव' रहने के लिए वह शीघ्र ही एक एन.जी.ओ. के बारे में विस्तार से बताएगा ताकि तुम्हारे जीवन में सक्रियता बनी रहे। मुझे लगता है कि इसके बारे में मैंने पहले भी तुम्हें बताया था। अंत में फुसफुसाते स्वर में कहा, ‘‘हिमानी जी, मैं दूर होकर महसूस कर रहा हूं कि तुम्हें देख भर लेना और कभी—कभी बातें कर लेना भर मेरे लिए कितना सुखकर था।''

पहले तो हिमानी का सारा शरीर थराथरा गया। एक सरसराहट—सी भीतर उतर गई। कुछ पल मौन रह कर वह संभली और लहजा बदलकर कहा, ‘‘शर्म नहीं आती आपको...टीचर से इश्क करते हो...''

उधर से आदित्य ने पूछा, ‘‘क्या मतलब!''

‘‘नाम के पीछे ‘जी' लगाओगे तो ऐसा ही लगेगा, जैसे टीचर जी!''

इस बात पर दोनों हंसे। दोनों ही एक—दूसरे को अतिरिक्त आदर देने से बाज नहीं आते। ‘आप' और ‘जी' का संबोधन उनके लिए ज्यादा सहज है। इससे संबंध में औपचारिकता झलकती हो, सो बात भी नहीं है। प्यार में ‘आप' से ‘तुम' हुए और ‘तुम' से ‘तू' हो गए, वाला मिथक यहां वांछनीय नहीं लगता या हो सकता है, उनके बीच प्यार की अंतरंगता उस गहराई तक पहुंची ही न हो। अस्तु! यह कोई मुद्‌दा नहीं था। प्यार का बिरवा दोनों के बीच जड़ें जमा चुका था, इसमें कोई संदेह नहीं था। ‘जी' और ‘आप' तो महज छेड़छाड़ का, और उस बिरवे को पल्लवित करते रहने का जरिया बन गया था।

सपना बिसर गया था। जीवन में अलग—सा उत्साह तरंगित हो रहा था। आदित्य से मिलने की आतुरता थी, किंतु अवरोधों की कमी नहीं थी। खुशियां उसे स्पर्श किए बिना उड़ जाएं, कश्ती पास आते—आते फिर दूर बह जाए, वह हाथ बढ़ाए और अभीष्ट को छू न पाए। यह तो होता ही आया है उसके साथ। तभी तो एक समाचार ने पुनः उसके जीवन को स्थगित कर दिया। उड़ान से ठीक पहले पंख भीग गए उसके।

उस दिन शुरू में खबर इतनी—सी थी कि एक एम.पी. के फ्लैट में स्त्री की लाश मिली। अखबारों में विवरण और चैनल्स पर न्यूज फ्लैश होते—होते खबर विस्तार लेती गई और ‘सनसनी' का केंद्र बन गई। विवरण से ज्ञात हुआ कि कुछ दिनों पहले वह महिला अपने किसी संबंधी के साथ यहां आई थी। संबंधी तो चला गया पर वह नौकरी पाने की गरज से ही यहां सर्वेंट क्वार्टर में ठहरी हुई थी। इसी आधार पर नौकरों से पूछताछ की जा रही है। अहम बात यह भी थी कि इस घटना के दौरान एम.पी. महोदय शहर में ही नहीं थे। लाश का पोस्टमार्टम हो जाने के बाद पता चलेगा कि किन हालात में उसकी मृत्यु हुई। पुलिस ऐसा भी मानकर चल रही है कि यह बलात्कार के बाद की गई हत्या भी हो सकती है। इसलिए उसके कपड़ों को जांच के लिए फोरेंसिक लैब भेज दिया गया है।

एम.पी. ने बयान देकर अपना पल्ला झाड़ लिया था कि वे उस महिला को नहीं जानते। हमारे प्रदेश से अनेक लोग मिलने आते रहते हैं। हम क्या सभी को पहचानेंगे। कब आई, कैसे रही, यह सब सिक्योरिटी का मामला है। कानून अपना काम कर रहा है। जो कसूरवार होगा, उसे सजा अवश्य मिलेगी। बाद में रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि वह नशे की हालत में थी। बलात्कार के बाद उसकी सांस रोककर हत्या कर दी गई।

हिमानी के लिए यह बुरी खबर इसलिए थी कि वह एम.पी. आर.एन. सेठ था। पुलिस ने पूरे स्टाफ से पूछताछ के बाद राकेश तथा नरेंद्र को संदेह के आधार पर ‘कस्टडी' में ले लिया था। राघवन ने बयान दिया था कि उस महिला को अंतिम बार राकेश—नरेंद्र के साथ देखा गया था। सभी खबरों की तरह यह खबर समूचे देश में आग की तरह फैल गई, ‘महादेव भवन' फिर एक बार परिचितों और पड़ोसियों के सवालों के घेरे में आ गया था। फोन पर फोन पर आ रहे थे। हमदर्दी दिखाने गली वाले भी आए, पर उन्होंने पीठ पीछे खूब गरियाया। ‘ऐसे परिवार से तो भगवान दूर ही रखे... क्या—क्या नहीं हुआ इस घर में।' कोई कहता, ‘जब से हिमानी ब्याह कर आई है, इस परिवार की तो आन ही मिट गई...महादेव सिंह के होते इस घर के क्या ठाठ और क्या रुतबा था।' घर—घर में एक ही चर्चा है, ‘पहले लड़की भाग गई...करमजली न जाने कहां मुंह काला करती फिर रही है...और लो, अब लड़का भी गया जेल।'

‘मैं कहूं...जरूर हाथ होगा उसका...हम बचपन से देख रहे हैं नन्नू को...क्या—क्या गुल नहीं खिलाएकभी जुआ, कभी शराब, स्मैक, न जाने क्या—क्या बुरी लतें थीं।'

‘अरे देखा नहीं था...कैसे ठाठ से आने लगा था...नेता के साथ है गोलमाल भी करता होगा।'

‘अजी मैं कहूं! राजनीति तो गंदगी का सबसे बड़ा दलदल है...।'

दिन में सुखदेव खाना खाने घर आया था। हिमानी फोन पर बात कर रही थी। कुछ मिनट ही गुजरे थे कि गुस्से से फट पड़ा था। ‘‘हरामजादी! जब देखो तब, अपने यार से बतियाती रहती है ये कि घर में इतनी बड़ी मुसीबत आई है, इसे फिकर ही नहीं

...जानता हूं...'' सुखदेव ने अपना सारा क्षोभ, गुस्सा हिमानी पर ही निकाला।

‘‘यह सब तेरे कारण हुआ है...तूने ही दोनों बच्चों को दर—बदर कर दिया है

...अपने बच्चे समझकर प्यार से पाला होता हो आज यह दिन न आता...ये कि उस कमीने वकील ने कहां फंसा दिया मेरे नन्नू को! अब कहां है वो...क्यों नहीं कुछ करता

...तू ही बोल उसको कि मेरे नन्नू को बचाए...पर ये कि तू क्यों चाहेगी कि तेरे सिवा कोई और इस घर में रहे...।'' हिमानी ने टोका था उसे कि फिजूल में किसी को गालियां देने की जरूरत नहीं...आदित्य और दूसरे वकील कोशिश कर रहे हैं।

...तुम सिर्फ दारू पीते रहो ...आज तक कुछ किया है, सिवा दूसरों को गालियां देने के। ...तुमने कौन—सा बाप का फर्ज निभाया है...नामर्द!''

‘‘ऐ साली! बदजात! गाली देती है मुझे! ये कि ठहर अभी दिखाता हूं मर्दानगी...।'' झपटकर वह मारने के लिए दौड़ा। हिमानी ने फुर्ती से उसके हाथों को पकड़ा और पीछे धकेल दिया। वह घुन खाए पेड़—सा खाने की थाली पर गिरा। सब छिन्न—भिन्न हो गया। दोबारा उठने की हिम्मत नहीं दिखाई उसने। अपने कपड़े झटककर साफ़ करता हुआ एक ओर बैठकर बड़बड़ाने लगा, ‘‘बचाओ कोई...इस डायन से। ये कि मेरे दोनों बच्चों को खा गई...अब मुझे भी डसेगी। ...अरे! मेरा नन्नू वहां जेल में पड़ा है। उसकी जमानत तक नहीं करा पाया इसका यार। हे ईश्वर तू सब देख रहा है। ये कि इसे सजा देना, इसे कोढ़ी बना दे। अपने रूप पर बड़ा घमंड है इसे। इसका यार भी इस पर थूक जाएगा

...फिर कहां जाएगी... इसी खंडहर में अकेली भूत बनकर घूमेगी...नहीं, यह भी तुझे नसीब नहीं होगा...बेच दूंगा इस महल को। ये कि नहीं रहने दूंगा तुझे अब और घर में

...अपने खसम को मारती है साली...''

यह हिम्मत हारने का समय नहीं था और न ही लोगों की गालियां—ताने सुनकर गमगीन होकर बैठ जाने का था। उसे पता है, सुखदेव जैसे लोगों के लिए मर्दानगी का मतलब सिर्फ बच्चे पैदा कर सकने से है। उनकी सही परवरिश और परिवार की जिम्मेदारियों से उन्हें कोई मतलब नहीं। इसलिए जो करना है, उसे करना है और आदित्य जैसे मर्द का सहारा लेना है। वैसे तो आदित्य खुद भी सोच रहा था कि सेठ के पास जाकर नरेंद्र की खोज—खबर ले। और फिर हिमानी का आग्रह भी था। वहां पहुंचने पर सेठ ने मुस्कराकर आदित्य को भरोसा दिलाया, ‘नरेंद्र अपना बच्चा है, उसे कुछ नहीं होने देंगे। मुझे यकीन है, उसने ऐसा कुछ नहीं किया होगा। पुलिस को जांच करने दो। हां, अगर उसके खिलाफ सबूत मिल गए तो मुश्किल हो सकती है ...अब तुम्हीं सोचो आदित्य, चुनाव घोषित होने वाले हैं ‘आउट ऑफ द वे' जाकर मैं अपने लिए कोई खतरा तो मोल नहीं ले सकता...' बीच में ही उन्होंने राघवन को पुकार लिया। इसका मतलब था कि मुलाकात खत्म हुई। उठते—उठते आदित्य ने कुछ कहना चाहा तो वह पहले ही बोल पड़े, ‘‘एडवोकेट मनचंदा उसका केस देखेंगे...जमानत डेफनीटली मिल जाएगी।'

नरेंद्र को जमानत नहीं मिल सकी। इतना जरूर हुआ कि पुलिस उसे दोबारा रिमांड पर नहीं ले सकी। कोर्ट ने उन दोनों को न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। हिमानी और आदित्य ने उससे जेल में ही मुलाकात की। नरेंद्र एकदम शांत था। उसके चेहरे पर कोई भय, ग्लानि या खेद जैसा भाव नहीं था। वह बहुत सहजता से बात कर रहा था, ‘‘सब ठीक हो जाएगा मौसी! मैंने कुछ किया ही नहीं है तो...और फिर ‘साब' तो हैं। मुझे भला ऐसे कैसे छोड़ देंगे अंदर ...इलेक्शन आने वाले हैं, मेरे बिना उनका नहीं चलेगा...''

क्या कहते आदित्य और हिमानी! गए तो थे उसे दिलासा देने। वहां तो नरेंद्र उल्टे उन्हें दिलासा दे रहा था। कह रहा था, ‘उसे डर नहीं लगता इस सबसे...दूसरी पार्टी के लोगों के साथ मार—पीट में वह कई बार थाना—कचहरी हुआ है। बस! इधर पकड़ा, उधर छोड़ दिया। इधर गए और तुरंत जमानत...'

सोच रही थी हिमानी। उसके साथ हमेशा ऐसा ही होता आया है। जिसके लिए भी वह रोई, छटपटाई और सर्वस्व दांव पर लगाना चाहा, उसी ने उसकी भावना की कद्र नहीं की, उपेक्षित ही किया हमेशा। जैसे वह फालतू है, बेमतलब है। जो बिन बुलाए मेहमान—सी गले पड़ रही है। मां—बाप तो अब विदेश में ही मर—खप गए, भाई और सुखदेव, दोनों बच्चे, सास, जेठ—जिठानी सभी तो! आज नन्नू से मिलकर ऐसा लगा कि वे यदि न भी आते उससे मिलने तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।

उस दिन आदित्य भी बहुत परेशान दिखा था। लौटते वक्त उसने हिमानी से कहा था, ‘‘नरेंद्र के लिए बहुत गलत रास्ता चुना मैंने...लेकिन मैं भी कहां जानता था सेठ को उतना...और तब तो उन्होंने ‘पॉलिटिक्स' भी ज्वाइन नहीं की थी। लगता है, अब तो नरेंद्र भी रच—बस गया है उस सब में...।''

हिमानी ने उसका मन हल्का करने के लिए दिलासा भरे स्वर में कहा, ‘‘पर इसके अलावा...मेरा मतलब ड्राइवरी ही तो कर सकता था वह...आपने तो उसे अपने पैरों पर खड़ा होने का अवसर दिलाया...आगे उसकी किस्मत!''

‘‘इट्‌स ओ.के.! पर आपने देखा! उसे देखकर लगता ही नहीं कि वह एक हत्या के मामले में कैद है ...मैं कंफ्यूज हूं उसका ‘एटीट्‌यूड' देखकर।''

रास्ते में एक रेस्तरां में बैठकर उन्होंने कुछ स्नैक्स और कॉफी का आर्डर किया।

सुबह हिमानी बिना कुछ खाए, सिर्फ चाय के दम पर, जल्दी ही आदित्य के ऑफिस आ गई थी। वहीं पर केक—रस्क के साथ चाय ली थी, बस। नवंबर का महीना लग गया था। सुबह—शाम हवा में हल्की खुनकी के साथ दिन में धूप धुंधलाने लगी थी। अढ़ाई—तीन बजे कुछ खाने के लिए बैठना उन्हें आश्वस्ति भरा लगा।

कॉफी सिप करके हिमानी ने बात शुरू की, ‘‘देखा आपने! नन्नू ने यह भी कहा कि अब यहां किसी को मिलने के लिए मत भेजना, पापा को भी नहीं... उसके इस रवैये से मैं भी बहुत आहत हुई हूं...'' थोड़ी खामोशी के बाद कुछ अधिक गंभीर होकर उसने कहा, ‘‘अब मुझे भी इस घर से मुक्त हो जाना चाहिए। बस! अब और नहीं...।'' हिमानी की नजरें झुकी थीं और आदित्य उसके चेहरे को सीधी नजरों से अपलक देख रहा था।

एक चुप्पी के बाद हिमानी ने आगे कहा, ‘‘मुझे तलाक ले लेना चाहिए...आप क्या कहते हैं वकील बाबू! कितना समय लग जाएगा इस ‘प्रोसीजर' में...?'' कहते हुए उसने आदित्य की ओर नजरें उठार्इं। वह पहले से ही उसे देख रहा था। ‘कट—स्लीव' ब्लाउज पर शिफॉन की साड़ी में वह दिलकश लग रही थी। हालांकि मेकअप नहीं था और कपड़े, बाल—विन्यास, सब अस्त— व्यस्त था। आदित्य उसे ही देख रहा था। हिमानी थोड़ा सकुचाई। साड़ी के पल्लू को खींचकर दोनों कंधों को ढांप लिया। वह सुबह हड़बड़ी में ब्लाउज बदलना भूल गई थी, आदित्य ने क्या सोचा होगा, और नन्नू ने भी। उफ्‌! खुद को इतना जकड़ते, साधते हुए भी कुछ एक बंध खुल ही जाते हैं।'

उधर आदित्य कह रहा था, ‘‘ओ गॉड! आप अभी भी इतना शरमाती हैं? बी कम्फर्टेबल! प्लीज!...''

‘‘मैं ठीक हूं! आप कहिए!'' उसने सहज होने का भरपूर प्रयास किया।

आदित्य ने बताया कि दोनों की सहमति से तलाक मिलने में एक वर्ष तो लग ही जाएगा और ज़रूरी नहीं है कि सुखदेव इसके लिए रजामंद हो ही जाए। हां, अपनी ओर से ‘केस—फाइल' करने के लिए उस पर आरोप लगाने होंगे, जो सही तो होेंगे, किंतु प्रमाणित करने में मुश्किलें बहुत होंगी और मामला बहुत लंबा खिंच सकता है। फिर उसने कहा कि एक तरीका और है, जिससे मामला बिना ज्यादा खींच—तान के निपट जाएगा। आप घर छोड़कर अलग रहना शुरू कर दो, बस। दो साल के बाद तो तलाक मिल ही जाएगा।' किंतु पता नहीं क्यों, हिमानी को विश्वास था कि सुखदेव आपसी सहमति से तलाक लेने पर राजी हो जाएगा। वह तो वैसे भी रात—दिन घर से निकालने की धमकी देता रहता है। फिर भला उसे क्यों एतराज होगा।

अतिविश्वास से घिर कर हिमानी ने उसी रात सुखदेव से तलाक का जिक्र कर दिया था। वह जल्द से जल्द फैसले पर पहुंचना चाहती थी। ऐसा क्या हो गया था कि अब उसे एक—एक दिन इस घर में काटना दूभर हो रहा था। एक जुनून था उस पर कि बस! इस रात—दिन की जलालत और बेबसी से छूटना है। मुहाने पर दिखती रोशनी की एक किरण के लिए जीवन को दांव पर लगाकर इस खोह से निकलने के लिए दौड़ते रहना है। अतिरिक्त ऊर्जा से भरी हिमानी लोक—लाज, नाते—रिश्तों से बेपरवाह अपने फैसले पर अडिग और संतुष्ट दिख रही थी।

रात को सुखदेव थोड़ा देर से लौटा था। उसने खाने के लिए पूछा तो कुछ नहीं बोला। दोबारा पूछने पर थोड़ा तिनक कर उत्तर दिया, ‘‘खाकर आया हूं, भाई के घर से।''

‘‘तो फोन करके बता नहीं सकते थे...अकेली जान के लिए मैं क्यों खटती रसोई में...'' उलाहना था उसके स्वर में।

‘‘मुझे क्या पता था कि तू लौट आई है ...अपने यार के संग गई थी रंग—रेलियां मनाने...ये कि भाग भी तो सकती थी उसके साथ...''

हिमानी भड़की नहीं, शांत रह कर ही उत्तर दिया, ‘‘नन्नू से मिलने गई थी। तुम्हें मालूम तो था।''

इस पर सुखदेव दांत भींचकर गुर्राया, ‘‘तू मेरे सिर पर नाचना कब बंद करेगी! भाई गया था। उसी ने देखा तुम दोनों को आशिक—माशूक की तरह गलबहियां डाले...ये कि सबकी नजरों में मेरी मिट्‌टी ख्वार कर दी तूने। रंडी, किस जनम का बदला ले रही है तू?''

‘‘तलाक दे दो, पीछा छूट जाएगा।'' बिना उत्तेजित हुए हिमानी ने कह दिया। कुछ क्षण के लिए सन्नाटा पसर गया। भौंचक्का हो गया सुखदेव। सकते की हालत में हिमानी को अपलक घूरता रहा।

हिमानी ने आगे कहा, ‘‘रोज कहते हो, चली जा यहां से...घर से धक्के मार कर निकाल दूंगा। मेरे जाने से तुम्हें खुशी मिलेगी...तो ठीक है, तलाक दे दो मुझे। चली जाऊंगी

...जिऊं या मरूं।''

अचानक सुखदेव की भंगिमा बदली और जोर—जोर से हंसने लगा, जैसे हंसी का दौरा पड़ा हो। अब विमूढ़ होने की बारी हिमानी की थी। वह चकरा गई कि इसे क्या हो गया। हंसते—हंसते वह हांफने लगा। हिमानी दौड़कर पानी ले आई। सुखदेव ने उसका गिलास वाला हाथ झटक दिया और उसके मुंह से सिर्फ इतना निकला, ‘‘हुं! तिरिया चरित्तर!' उल्लू का पठ्‌ठा हूं न मैं, ये कि जो तुझे तलाक दे दूं...हैं? तुझे आजाद कर दूं, ताकि तू उस वकील के साथ फुर्र हो जाए... नहीं छोडूंगा, तुझे ऐसे नहीं छोडूंगा... जैसे मुझे तरसाया है तूने...ये कि मैं भी तरसाऊंगा तुझे...और वकील के बच्चे पर भी मुकद्‌मा ठोकूंगा। साला! मेरी बीवी को बरगला रहा है। भगा ले जाना चाहता है... अहा!...क्या योजना बनाई है...तलाक दे दूं...।'' देर तक उसकी हंसी से हिमानी का पीछा नहीं छूटा।

वह बिना खाए—पिए सोने चली गई। उधर सुखदेव ने टीन के बक्से से बोतल निकाली। रसोई से जग भर कर पानी ले आया और अपने बिस्तर पर बैठकर पीने लगा। नशे से उसे हिम्मत मिलती है। हौसला बढ़ता है। वह जो कहना चाहता है, पूरी दृढ़ता से कह पाता है। नशे के बिना वह हिमानी का मुकाबला नहीं कर पाता। जाने क्या हो जाता है, उसकी जुबान लड़खड़ाने लगती है। ज्यादा देर तक उसके सामने नहीं टिक पाता।

आज जो बात हिमानी ने उसके सामने कही, उसकी कल्पना तक सुखदेव ने नहीं की थी। हरदयाल के घर से पीकर तो आया था, पर शायद हिमानी की बेबाकी ने उसका नशा उतार दिया था।

नींद तो हिमानी को भी बहुत देर तक नहीं आई। जिस बात को वह इतना आसान समझ रही थी, अब वही उसके गले की गांठ बनती दिख रही थी। हिमानी यह कैसे भूल गई कि सुखदेव उसे चैन से जीने के लिए आजाद क्यों छोड़ देगा। रिश्ते चाहे जितने खराब हों, किंतु मर्द कभी नहीं चाहेगा कि औरत उसकी हुकूमत से बाहर रहे। उसकी ब्याहता बीवी होने के नाते उसे गाली देने, सरेआम जलील करने का अधिकार वह कैसे छोड़ सकता था। उसके अहं की तुष्टि का मात्र वही तो एक साधन है। जानती है हिमानी, वह किसी की ‘साध्य' नहीं रही। हमेशा सबके लिए साधन ही बनी रही। इसी बेचैनी में रात कट गई। उसने सुबह उठते ही आदित्य को रात का वाकया सुनाया तो जवाब में आदित्य ने इतना ही कहा, ‘‘चलो, अच्छा हुआ कि तुम्हारा भ्रम टूट गया...मैं तो पहले ही जानता था।'' और फिर हिमानी को उसके अतिविश्वास की याद दिलाकर बहुत देर तक हंसता रहा था।

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