फिर भी शेष
राज कमल
(23)
रितु यानी सुगंधा को स्वस्थ होने में लगभग दो सप्ताह का समय लगा। डॉक्टर ने दो दिन तो घर आकर ही देखा और दवाइयां दीं। जब खास फर्क नहीं पड़ा तो नर्सिंग होम में रखा। इन दिनों अलंकार प्राण—प्रण से उसके साथ रहा। रात को कुछ घंटे के लिए घर जाता था। सुबह फिर जरूरी दवाइयां और सामान लेकर हाजिर हो जाता था।
रितु उसे देखकर मुस्करा देती और नजरों से ही दुलार—सा करके कहती, ‘‘तुम ठीक से आराम भी नहीं कर रहे हो...इतनी भाग—दौड़, मेरे कारण...! तुम्हें कुछ हो गया तो कौन देखेगा?''
वह झट से छत की ओर उंगली उठाकर कहता, ‘‘ऊपर वाला!'' कभी कह देता, ‘‘कुछ नहीं होगा, तुम खाली—पीली अपना कलेजा छोटा मत करो बाबा...कलेजा स्ट्रांग होना मांगता।''
‘‘फिकर नको भाऊ! मैं अभी बहुत जिएंगी...मेरे को टॉप मॉडल बनने का है, अव्वल हीरोइन बनने का है।'' रितु ने अलंकार के लहजे में ही जवाब दिया और जोर से हंसी। हंसते—हंसते खासने लगी और उसकी सांस फूल गई। नर्स नहीं थी। अलंकार ने ही पास बैठकर सहलाया। उसकी सांसें नियमित हुर्इं तो अलंकार ने गंभीर होकर कहा, ‘‘बेबी! लाइफ को थोड़ा सीरियसली लो। डॉक्टर भी बोला है ड्रिंक्स अभी एकदम कम कर दो, वरना ‘लीवर' डेमेज होने का चांस है।''
रितु कुछ देर सोचती रही, ‘लेकिन मैं तो जीवन को सीरियसली ही ले रही हूं।
...गंभीर होती हूं तभी तो आगा—पीछा सोचती हूं। क्लेश पाती हूं। फिर दिमाग फटने लगता है तो नशे का सहारा लेती हूं...ताकि कुछ समय के लिए हकीकत भूल जाऊं, वरना लाइटली मौज—मस्ती करूं, बिंदास रहूं। आई भी तो यही करने थी, पर अब क्यों जी घबराने लगता है इस मारा—मारी से, बेरंग रिश्तों से... क्यों आगे जाने की बजाय पीछे देखने लगती हूं
...क्यों भविष्य को सुरक्षित करने की भावना मुझे और असुरक्षित करती जाती है। अनेक के साथ होकर भी किसी एक की नहीं हूं। क्यों एक घर, एक आबिद और बच्चों की चाह मुझे निरंतर कमजोर बना रही है? सीरियस हूं तभी तो...' प्रत्यक्ष में उसने मुस्कराकर सिर्फ इतना कहा, ‘‘सीरियस हूं, यही तो प्रॉब्लम है...तुम नहीं समझोगे...''
‘‘मैं सब समझता हूं, एण्ड यू नो, इस ड्रिंक्स के कारण तुम्हारा कैरियर चौपट
हो रहा है, कभी सेट पर टाइम से नहीं पहुंचती ...इस एटीट्यूड से कई लोगों को अपना दुश्मन बना चुकी हो। किसी को तुम ख्ुाद मना कर देती हो और कोई तुम्हें एप्रोच नहीं करता।'' उसे लगा, सुगंधा उसे घूर रही है, तो बात का रुख पलट दिया। बोला, ‘‘एनी वे, फर्स्ट यू गेट वेल सून...सब मैनेज हो जाएगा...मैं हूं ना!'' रितु ने भी त्योरियां ढीली करके कहा, ‘‘दैट्स बैटर!''
नर्सिंग होम के बिस्तर पर पड़े—पड़े उसने अपना सारा जीवन दोहरा लिया। रितुपर्णा से लेकर सुगंधा तक। बचपन से अब तक ‘एक लंबी फिल्म के ‘रैसिज' देखती रही। जीवन नाना प्रकारों में परिभाषित होता रहा। कभी लगा यह लंबी यात्रा है, टे्रेन में बैठे मुसाफिर की तरह। गंतव्य तक पहुंचने से पहले अनेक यात्रियों का मिलना—बिछुड़ना, हर स्टेशन पड़ाव की भांति पीछे छूटता हुआ। आगे फिर नये लोग, नये पड़ाव। कभी लगाएक समंदर के बीच इकाई की तरह। राग—रंग, हास्य—रुदन के समंदर में एक बूंद भर। लिप्तता में निर्लिप्तता का आभास लिये अंत तक शरीक बने रहना। बीच—बीच में अलंकार का प्रवेश, उसका वजूद कामर्शियल ब्रेक की भांति फ्लैश हो जाता। लगता, जैसे वह धीरे—धीरे आबिद की सूरत अख्तियार करता जा रहा है, पर नहीं। वह जानती है, अलंकार, आबिद नहीं हो सकता। आबिद, बेहद कांफिडेंट, तेज—तर्रार, महत्त्वाकांक्षी, सबका होकर भी किसी का नहीं; आगे बढ़ने में हुनरमंद... जबकि अलंकार बेहद डरपोक, ढुलमुल, परजीवी इंसान जो आज तक कोई मुकाम हासिल नहीं कर पाया, जिसे बढ़ने के लिए हमेशा एक दरख्त की जरूरत रहती है। इसीलिए उसके साथ बंधा हुआ है। वैसे अलंकार खुद भी खूब पियक्कड़ है। उसे बड़ा मुकाम न सही, पर काम लगातार मिलता रहता है। एक जिम्मेदार इमेज का मालिक तो वह है। इसका कारण है, उसका पॉजिटिव एट्टीट्यूड। उसके दोस्त चाहे संख्या में कम हों, किंतु दुश्मन कोई नहीं है, पर इतने कम स्केल पर वह घर—परिवार की जिम्मेदारी शायद नहीं उठा सकेगा। इसीलिए उसने नितांत फकीरी अंदाज में रहना सीख लिया है। सुगंधा के साथ बंधना उसकी विवशता नहीं है। शायद उसकी परवाह करने की प्रवृत्ति...केयरिंग नेचर! शायद उसका भी अकेलापन या एक औरत की चाह! उसकी संगत! हो सकता है वह उसे प्यार करने लगा हो।
वह भी ठीक—ठीक नहीं जानती कि आखिर ऐसे ढुलमुल, परजीवी इंसान से उसका रिश्ता क्या है? क्यों दिन—ब—दिन वह उसके अंतरंग क्षणों का साक्षी होता जा रहा है। कैसे धीरे—धीरे उसके जीवन में अलंकार पैठ जमा रहा है। कब, कैसे, किसने साथ रहने का अधिकार दे दिया उसे, कुछ भी स्पष्ट नहीं है। इसमें कोई कानूनी या सामाजिक अनिवार्यता भी नहीं दिखती। संभवतः एक जैसे दो जनों की परस्पर पूरकता का भाव ही इस संबंध के मूल में रहा। वह समझती है कि पहली मुलाकात से लेकर आज तक वह उसके हक में रहा, उसका हौसला बढ़ाया। आबिद के बाद उसने ही विकट स्थितियों को सहज बनाया। समस्याओं को सुलझाया या इस फील्ड की बारीकियों से उसे परिचित कराया। इसलिए आज भी वह उसके साथ हर पार्टी में, शूटिंग में, रैम्प के आसपास ही सुरक्षा कवच की तरह मौजूद रहता है। हालांकि कभी तो यह उसे अच्छा लगता है और कभी बहुत असुविधाजनक भी। वह स्वयं फैसला नहीं कर पाती कि उसे क्या चाहिए। इसीलिए खीझकर वह अलंकार को कभी—कभी भला—बुरा भी कह बैठती है।
पिछले दिनों एक नामी ब्रेंड के लिए विज्ञापन फिल्म का काम अलंकार के प्रयास से ही मिला था। वह ऐड—फिल्म के लिए जिंगल कर रहा था तो फीमेल मॉडल के लिए उसने उसका नाम सुझाया, जबकि कंपनी फ्रेश मॉडल के साथ काम करना चाहती थी। डॉयरेक्टर चूंकि परिचित था, सो, उसने अपने तरीके से कंपनी को ‘कंविंस' कर लिया। सब तय हो गया श्ड्यूल, साइट, सेट।, किंतु उसने जैसे ही कैमरामैन को देखा तो बिदक गई। वह शाकिर था, जिसने शुरुआती दिनों में ‘लिंगरी' शूट करते समय उसके शरीर को आपत्तिजनक तरीके से छुआ था और प्रतिकार करने पर उसके ‘फिगर' को लेकर भद्दे मजाक किए थे। यही नहीं, कहा था कि यह सब तो सबके पास होता है मैडम... लेकिन हम इसको देखने लायक बनाता है, बड़ा—बड़ा, टॉप मॉडल हमारे नीचे से निकला है। या खुदा! जरा टच किया तो ऐसा हंगामा... ऐ, भोसले, हटा इसको, दूसरा भेज...
तिरस्कृत होकर तब सुगंधा ने मन ही मन कसम खाई थी कि इस चेहरे के साथ कभी काम नहीं करेगी। अलंकार और डायरेक्टर अजित कपूर ने बहुत समझाया उसको। लेकिन वह अपनी कसम पर अड़ी रही। अंततः सुगंधा को ही ड्राप होना पड़ा और रात को शराब पीकर उसने अपनी सारी हताशा अलंकार पर उतार दी।
‘‘तुम चाहते हो, तुम्हारी तरह सब बर्दाश्त कर लूं। मेरी कोई डिगनिटी नहीं, इसके लिए मुझे चाहे जो भी नुकसान उठाना पड़े, मैं अपनी शर्तों पर ही काम करूंगी, समझे तुम! आइंदा, मुझे डिटेल्स बताए बिना कोई कांट्रेक्ट मत लेना...'' फिर धीरे—धीरे बुदबुदाकर कहा, ‘इतने सालों में अपनी तो कोई ‘इमेज' बना नहीं सका, मुझे सैटल करने चला
है...हुं! क्लास मॉडल की वैल्यू नहीं समझता। सारी जिंदगी तुकबंदी ही करेगा, बस!'
दूसरे दिन नशा उतरा तो अपनी गलती का अहसास हुआ कि उसे अलंकार को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। अफसोस इसलिए भी ज्यादा था कि जवाब में अलंकार ने कुछ नहीं कहा था। चुपचाप सुनता रहा और चला गया। वह उसे फोन करती रही, लेकिन उसने बात नहीं की। उसका नंबर देखकर फोन बंद कर देता था। तब उसने परिचितों की मार्फत उसे बुलावा भेजा। वह नहीं आया। वह बहुत रोई, कई दिन उदास रही। अकेलापन उसे तोड़ रहा था। टीना उसकी अच्छी सहेली थी, किंतु टीना की अपनी व्यस्तताएं हैं। फिर भी, अलंकर से उसकी बीमारी की खबर पाकर वह दौड़ी आई थी। एक रात रुकी भी थी। तभी सुगंधा को पता चला था कि टीना जीवन की कैसी अनोखी ‘झंझा' में फंसी हुई है। वह अपने मां—बाप की अकेली संतान है। एक बड़ा भाई भी था।बंबई ब्लास्ट में उसकी मौत हो गई तो परिवार के लोगों के जीवन की धाराएं ही बदल गर्इं। टीना अपने दोस्त से शादी करके विदेश में बसने की योजना बना चुकी थी। रिश्ता दोनों ओर से पक्का था, लेकिन उसका यह सपना भी टूट गया। मां—बाप को अकेले छोड़कर विदेश जाने की वह सोच भी नहीं पा रही थी। उसने अब शादी से ही मना कर दिया है। कहती है, ‘‘मां—बाप के साथ ही रहेगी।' सुगंधा ने उससे कहा भी कि ‘यार शादी करके मां—बाप को साथ रख ले या अपने हसबैंड से कह दे कि वह तुम लोगों के साथ रहे।' तो उसने कहा, ‘फिरोज तो इसके लिए भी तैयार है, पर...यू नो! नहीं यार! यह प्रैक्टिकल नहीं है। शादी के बाद इग्नोरेंस हो ही जाएगा...नो आइ कांट! बहुत बूढ़े हो गए हैं। हर वक्त केयरिंग चाहिए... सरवेंट है...फिर भी यू नो।' बाद में उदासी को एक ओर झटककर चहकी थी, ‘‘बहुत मस्त लाइफ है यार! इंज्वॉय करो और अपने—अपने पैरेंट्स के पास रहो।''
बहुत दिनों के बाद एक फिल्म म्यूजिक की लॉन्चिंग पार्टी में अलंकार दिखाई दिया। आमने—सामने हुए तो सुगंधा तपाक से मिली, मगर अलंकार के अंदाज में गर्मजोशी नहीं थी। ‘हाय' कहकर वह खामोश ही रहा। इन पार्टियों का एक बड़ा फायदा है। पुराने लोगों की चाहे—अनचाहे मुलाकातें फिर से ताजा हो जाती हैं और नये लोगों से मुलाकात का ‘चांस' मिल जाता है।
पुराने लोगों के ग्रुप ने एक बारगी सुगंधा को आकर घेर लिया। दल के लगभग सभी साथी, मुखर्जी दादा, भुवनेश, शैलजा, विन्नी, पर्ल, बावला। उनमें टीना मिस्त्री नहीं थी और नहीं था उसकापहला गाइड, हमसफर, दोस्त, आबिद!
कुछ देर तक सभी ने एक—दूसरे को उलाहना दिया। पुराने दिनों को याद किया। फिर मस्ती में उतरने लगे। अचानक भुवनेश को कुछ याद आया तो उसने सबको चुप करते हुए कहा, ‘‘ए! लिसन! लिसन! डू यू रिमेम्बर...जल्दी ही अपनी सुगंधा साइरस बैनर की फिल्म में लीड रोल करने वाली है...हे चियर!' कुछ ने चियर का साथ दिया, कुछ हैरान हुए। सबसे अधिक आचर्श्य सुगंधा को हुआ, साथ ही गुस्सा भी आया, ठीक है, उसकी पहचान बड़ी हीरोइन की नहीं बन पाई। इसका मतलब उसे इस तरह..., उसने तुर्शी में कहा, ‘‘ए भुवन यह क्या मजाक है।''
‘‘नॉट जोकिंग! यह सच है यार...'' भुवनेश ने सफाई के लिए शोभित मुखर्जी की ओर देखकर कहा, ‘‘दादा तुमी बोलो न...।'' तब मुखर्जी ने बात साफ़ की।
‘‘भुवन ठीक बोला है सुगंधा...! क्या आबिद ने तुमको कांटेक्ट नहीं किया? बताया नहीं कि वह ‘साइरस' के लिए फिल्म डायरेक्ट कोर रहा है...'' जिनको नहीं मालूम था जैसे पर्ल, बिन्नी और बावला खुशी से उछले, ‘‘अरे वाह! दैट्स ग्रेट! तब तो बेवी तुमको चांस मिलेगा न...भुवन ठीक ही तो बोला।''
सुगंधा को बड़ी शर्मिंदगी हुई। उसे कुछ पता नहीं है। आबिद ने कुछ बताया नहीं है। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि आबिद लौट आया है। कैरन के साथ जाने कहां गायब हो गया था। उसकी दीन—हीन स्थिति और उदासी चेहरे से स्पष्ट दिख रही थी। कोरियोग्राफर बावला ने सुगंधा को हौसला देने के लिहाज से कहा, ‘‘भूल गया होगा। डायरेक्टर बना है न...वेरी रेस्पांसिबिल जॉब...जब कास्िंटग करेगा तो...मैं बोलता हूं, तुमको कांटेक्ट करेगा...देख लेना।''
‘‘नहीं तो, खुद जाकर मिल ले यार! मैं भी तेरे साथ चलेगी इफ यू डोंट माइंड।'' बिन्नी खोसला ने कहा, साथ ही दूसरे लोगों की ओर देखकर आंख मारी।
अब तक की बातचीत में सिर्फ अलंकार था, जो कुछ नहीं बोला था। भुवनेश ने फिर सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए कहा, ‘‘सबसे ज्यादा सरप्राइजिंग तो यह है गाइज! अपने जिंगल गुरु ने भी सुगंधा को कुछ नहीं बताया...और देखो, अभी भी कैसा मासूम बन कर खड़ा है।''
‘‘क्या?'' सुगंधा सहित कई चेहरे एक साथ हैरानी से बोले।
‘‘नाट जोकिंग...दादा से पूछ लो।'' भुवनेश ने बॉल पुनः शोभित मुखर्जी की ओर उछाल दी। दादा ने पहले मुस्कराकर ‘हां' में सिर हिलाया, फिर कहा, ‘‘लिरिक्स अलंकार लिख रहा है, आबिद की फिल्म के लिए...''
तभी पार्टी में कुछ विशिष्ट लोगों का आगमन हुआ तो हल्का जोश और शोर हुआ। बावला, मुखर्जी तथ पर्ल ‘एक्सक्यूज मी' कहकर उधर चले गए। सुगंधा की भावुकता सीमा लांघ चुकी थी। आंखों में आंसू आ गए। उसने एक नजर अलंकार को देखा और इससे पहले कि उसके आंसू छलक जाएं, वह ‘एक्सक्यूज' कहकर दूसरी ओर चली गई। शायद उसे एकांत की ज़रूरत थी। उधर अलंकार का धैर्य भी जैसे चुक गया था। वह सख्त लहजे में बोला, ‘‘भुवन! दिस इज नॉट फेअर! आई मीन, तुम्हें उस फिल्म के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग टीम में नहीं लिया तो इसमें मेरा क्या कुसूर? मुझ पर क्यों गुस्सा निकाल रहा है...यू...क्रिएटिंग फस्स!''
शैलजा ने बीच में पड़कर मामला शांत किया और अलंकार को लगभग धकियाते हुए सुगंधा के पीछे जाने के लिए कहा, ‘‘जाओ उसको देखो...आबिद के बाद वह सिर्फ तुम पर ही भरोसा करती है...गो...यार!''
अलंकार जब सुगंधा के पास पहुंचा तो वह एकांत—सी जगह में लोगों की नजरों से बचते हुए आंसू पोंछ रही थी। जैसे आंख में कुछ गिर गया हो। कुछ क्षण दोनों खामोश खड़े रहे। तभी एक बैरा टे्र लेकर उधर आया तो अलंकार ने दो पेग लिये। एक पेग उसकी ओर बढ़ाया तो उसने पेग ले लिया और सीधी नजरों से उसे देखा। फिर नजरें झुका लीं। दोनों कुछ देर तक सिप करते रहे, गुमसुम! आस—पास शोर—शराबे और कहकहों के बीच। बहुत कोशिश के बाद अलंकार के मुंह से निकला, ‘‘आई एम सॉरी सुगु! मेरे कारण तुम्हें...''
वह जैसे उसके बोलने की ही प्रतीक्षा कर रही थी, बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं...‘सेल्फ रेस्पेक्ट' तो होनी ही चाहिए। गलती मेरी ही थी...पर क्या करूं...मुझे बहुत गुस्सा आता है और वह सब का सब तुम पर निकाल देती हूं... मैं समझती हूं, यह मेरा फ्रस्टेशन है...वट यू नो! कंट्रोल नहीं होता...।'' वह थोड़ा रुकी। संयत हुई और स्वर को याचना की हद तक कोमल बनाकर कहने लगी, ‘‘आबिद के बाद एक तुम्हीं तो हो, जिसके सामने मन खोल पाती हूं ...तुमने भी मुझे बहुत ‘सपोर्ट' किया
...नो ‘डाउट', लेकिन ...लेकिन...आज सबके सामने...मेरा ऐसा मजाक! अनबिलिवेबल! मेरे अपने...‘सो कॉल्ड' मेरे अपनों ने दूध में से मक्खी...मुझे! आय...आय एम...वेरी अपसेट...!'' वह चुप हो गई। उसके खंडित वाक्य और डबडबाई आंखों से उसकी मनोदशा का अंदाजा लगाया जा सकता था।
उसका पेग खाली हो चुका था। अपने को थोड़ा संभालते हुए उसने अलंकार से एक और लाने का अनुरोध किया। अलंकार ने उसे डॉक्टर की नसीहत याद कराई और अपनी ओर से भी समझाने का प्रयास किया। रितु ने उसकी बात मान तो ली और कहा कि घर जाना चाहती है, यहां अब और रुकेगी नहीं।
दोनों टैक्सी से सुगंधा के फ्लैट पर पहुंचे। रास्ते में सुगंधा ने बताया कि उसने गाड़ी बेच दी है...पिछले दिनों जबरदस्त दुर्घटना हुई थी। वह तो सही—सलामत बच गई, परंतु गाड़ी का कचूमर निकल गया। इंश्योरेंस क्लेम से गाड़ी तो ठीक हो गई, लेकिन वह फिर से ड्राइव करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी...कब तक गाड़ी को गैराज में रखती, बेच दिया...पैसों की भी जरूरत थी।' गाड़ी के विषय में दी गई पूरी सफाई में से अलंकार ने उसके अंतिम वाक्य ‘पैसों की भी जरूरत थी' को ही अहम माना। बेशक पैसे की जरूरत को उससे बेहतर कौन समझ सकता है। इतने सालों के कैरियर में कभी निश्चिंतता नहीं रही। सुगंधा ने तो स्वयं ही अपने पैरों पर अनेक बार कुल्हाड़ी मारी है। ‘आज गाड़ी बिकी है कल फ्लैट' सोचकर ही वह परेशान हो गया था। रास्ते में रुक कर एक जगह उन्होंने खाना खाया, उसके बाद घर पहुंचे थे। अलंकार तुरंत लौट जाना चाहता था, किंतु सुगंधा उसे जाने से रोक रही थी, ‘‘प्लीज! अलंकार! कितने दिनों बाद आए हो...मैं समझूंगी, तुमने मुझे माफ नहीं किया...''
अलंकार का इन्कार कुछ स्पष्ट—सा नहीं था। वह जाने के तर्क नहीं दे रहा था। इसीलिए सुगंधा को लग रहा था कि वह अभी भी नाराज है और वह उसे मना लेगी। ठीक है, उसने आबिद की फिल्म के बारे में नहीं बताया तो क्या इसके लिए वह आबिद से मिलने का जरिया ही हाथ से जाने दे? नहीं! ऐसा नहीं कर सकती।
इस बीच टैक्सी वाला दो बार उन्हें सचेत कर चुका था कि ‘‘साब! जल्दी करो
...अपुन को भी घर जाने का है।'' सुगंधा ने आगे बढ़कर टैक्सी का भाड़ा चुकाया ताकि अलंकार के पास विकल्प ही न बचे। वह सिर्फ ‘ना—ना' करता रह गया, ‘‘कुछ जरूरी बातें डिस्कस करनी हैं तुमसे...।'' कहकर उसे ठेलती हुई घर के भीतर ले आई।
सोने से पहले वे देर तक बातें करते रहे। सुगंधा घुमा—फिरा कर आबिद और उसकी फिल्म के बारे में पूछती रही। अलंकार कुछ खास बताने से कतराता दिख रहा था। तब सुगंधा ने सीधे तौर पर पूछ लिया, ‘‘क्या मुझे आबिद से मिलना चाहिए?''
अलंकार चुप रहा तो सुगंधा ने प्रश्न दोहराया। अंततः अलंकार ने कहा, ‘‘तुम्हें बुरा न लगे, तो मैं कहना चाहूंगा कि उससे न मिलना ही तुम्हारे लिए अच्छा होगा।'' सुगंधा ने बड़ा—सा ‘क्यों' बनाकर उसकी ओर देखा और कहा, ‘‘बोलो।''
‘‘न पूछो तो अच्छा है।'' अलंकार का यह जवाब सुनकर उसको बहुत गुस्सा आया। परंतु क्रोध का वह भाव, खीझ में बदलकर बेबसी का रुदन बन गया। वह सिसकती हुई बोली, ‘‘किसी से मिलूं नहीं...कुछ पूछूं नहीं...तब क्या करूं? मुंह पर पट्टी बांधकर समुद्र में छलांग लगा दूं। यही चाहते हैं सब...तुम भी।''
‘‘सच तो यह है सुगु, मैं तुम्हें दुःख नहीं पहुंचाना चाहता। इसीलिए आबिद की फिल्म की खबर तुम्हें नहीं दी...मैंने तुम्हारा नाम ‘सजेस्ट' किया था, पर उसने साफ मना कर दिया... आबिद ने कास्टिंग फाइनल कर ली है...अब बोलो क्या करोगी उससे मिलकर!'' थोड़ा रुक कर उसने आगे कहा, ‘‘इसीलिए कहता हूं अपने को संभालो... एटीट्यूड बदलो...और जो काम मिलता है, उसे संजीदगी से पूरा करो...रोशनी के घेरे
...लाइम लाइट...मेन स्ट्रीम...कंपटीशन माई डियर! पलक झपकते रिप्लेसमेंट...।'' उसने और भी न जाने क्या—क्या कहा जिसे सुगंधा अब सुन नहीं रही थी। उसे गहरा आघात लगा था, अपने बारे में आबिद की राय जानकर...जिसके भरोसे वह अपना सब कुछ छोड़ आई थी, अपना जीवन और अपनी अस्मिता दांव पर लगा दी, सिर्फ आबिद के भरोसे पर। वह अब किसके कंधे पर अपना सिर रखकर रोये। अलंकार का भी क्या? आज है, कल नहीं! वह अवश—सी बिस्तर पर ढह गई। अगले दो दिन तक अलंकार
को वहीं रहना पड़ा। सुगंधा की तबियत थोड़ा संभलने के बाद ही वह वहां से गया और जाते—जाते ‘टीना' को फोन पर अनुरोध कर गया कि वह किसी भी तरह ‘एडजस्ट' करके सुगुंधा के लिए समय निकाले।
सुगंधा ने टीना को सूचना देने के लिए मना किया था। वह जानती है कि टीना के लिए यह संभव नहीं है। वह चाह तो रही थी कि आबिद को फोन करे। नया नंबर भी उसने अलंकार से लिया था, परंतु हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। सुगंधा चाह रही थी कि अलंकार ही उसे सूचना दे कि वह किस स्थिति से गुजर रही है। लेकिन अलंकार जानता था कि आबिद अब सुगंधा को उतनी अहमियत नहीं देता कि काम छोड़कर उसे देखने आए। ऐसा होता तो वह अपने प्रोजेक्ट में उसे अवश्य शामिल करता। उसका नजरिया साफ है ‘असाइंमेंट' के साथ इमोशनल अटैचमेंट नहीं...जॉब पूरा हुआ, छोड़ दिया...बस! यह सब जानती तो सुगंधा भी है, पर क्या करे वह, काम के साथ दिल भी लगा बैठी थी।
सुगंधा बन चुकी रितु अनेक बार सोचती है कि मौसी को खत लिखे या किसी तरह नंबर पता लगाकर फोन पर बात करे या ताउजी के फोन पर मौसी को बुलाकर बात करे या अपना नंबर ही छोड़ दे, किंतु कितना मुश्किल है यह काम... सब सोचने, तय करने के बाद भी उंगलियां फोन के बटन दबाने के लिए नहीं हिलतीं। मन चाहता है, दिमाग आदेश देता है, पर उंगलियों में ‘जुम्बिश' नहीं होती। शायद दिमाग द्वंद्व में रहता है। वह आदेश दे ही नहीं पाता। आदेश दे भी कैसे? उसे दिखता है शराबी—कबाबी और बेरोजगार गालियां बकता बाप का चेहरा। सेठ की गाड़ी ड्राइव करते आवारा भाई का चेहरा। ताउ—ताई की नफरत उगलती आंखें और हर वक्त रोती—कलपती मौसी! इन चेहरों के अलावा क्या है उसके अतीत में, उसके रिश्तों में? कुछ भी नहीं! तभी तो छोड़ आई थी उस दुनिया को। बंदिशों से दूर, मुक्त होकर कुछ हासिल करने के लिए। ‘तो क्या हासिल किया नहीं?' खुद से सवाल करती है और जवाब भी स्वयं बुदबुदा लेती है, ‘सात—आठ वर्षों में उसने पाया है, नाम भी—पैसा भी।' शिखर पर पहुंचने की चाह ही उसे बार—बार नीचे धकेलती है। शिखर उसके प्रारब्ध में नहीं है, यह स्वीकार नहीं कर पाती। यही अफसोस उसे बेचैन बनाए रखता है। तभी वह खोया—पाया का हिसाब लगाती है। शेष कुछ बचता ही नहीं। तब यह सारी कवायद किसलिए? क्यों भागी घर से?
ऐसा नहीं कि रितु अब सकारात्मक सोच ही नहीं पाती। सोचती है, तभी तो बार—बार उठ खड़ी होती है। सोचती है, ‘उसने अपने फैसले स्वयं लिये हैं, आज जो कुछ है, अपनी मेहनत से है। उसने अपनी आजादी को खूब जिया है, अपने सपने को साकार किया है। जो बनना चाहती थी, बनी है। कंपटीशन सभी क्षेत्रों में है। वह दौड़ से हटेगी नहीं, अव्वल आने के लिए दौड़ती रहेगी, जब तक दम में दम है।' यह सब सोचकर उसका जी हल्का होता है। परिचितों को फोन लगाती है। हंसती है, मजाक करती है और काम की संभावनाएं तलाशती है। बड़ी बात कि अपना एटीट्यूड बदलने की कोशिश करती है। शाम होते—होते अंधेरे के साथ—साथ फिर उदासी घिरने लगती है। सारी उष्मा चुक जाती है, शरीर में ठंडापन उतर आता है, जी घबराने लगता है और बेचैनी बढ़ जाती है। ऐसे में मदिरा का ताप मन और शरीर दोनों को भुलावा देता है। वह कभी हंसती हुई, कभी सिसकती हुई सो जाती है, नई सुबह की प्रतीक्षा में।
***